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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Wednesday, 28 June 2017

जमीं से आकाश छूती प्रतिभा : मधु जायसवाल

सशक्त नारी

"इशारों ही इशारों में कह जाने दो, 
इशारों ही इशारों में समझ जाने दो 
कि रब ने जो दिया है हुनर मुझे   
नदी की तरह खुल के बह जाने दो...."

By: Rakesh Singh 'Sonu'


कुदरत की नियति है कि वह इशारों में ही बात करती है, इशारों में ही ज़िन्दगी का हर सुख-दर्द समझती है. लेकिन हौसले इतने बुलंद कि तमाम कमजोरियों को उसने अपने हुनर तले दबा दिया है. बात हो रही है 12 वीं जे.एम.इंस्टीच्यूट ऑफ़ स्पीच थेरेपी की नेशनल डेफ लॉन टेनिस प्लेयर मधु जायसवाल की जिसने शारीरिक, आर्थिक कमजोरियों का सामना करते हुए सिर्फ अपने टैलेंट के बलबूते छोटी उम्र में बड़ी छलांग लगाने की उम्दा कोशिश की है.
प्रथम राष्ट्रिय बधिर लॉन टेनिस चैम्पियनशिप, जुलाई 2012 में पंजाब के पटियाला में संपन्न हुआ जिसमे बिहार की मधु को रजत पदक मिला. 2013 में हुए बुल्गारिया में डेफ ओलम्पिक खेलों में 18  देशों के खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया. 2013  में ही 26  जून को आयोजित ट्रायल गेम में मधु को देशभर में नंबर 1 की रैंकिंग मिली, जिसके बाद उसे बुल्गारिया में हुए डेफ ओलम्पिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने भेजा गया. बुल्गारिया के सोफिया में आयोजित 22 वीं समर डेफ ओलम्पिक में लॉन टेनिस के एकल मुकाबले में मधु ने पहली बाधा आसानी से पार कर ली थी.पहले राउंड में चीन की जियाली शिन को 6 -3,7-6 से सीधे सेटों में करारी शिकस्त देकर प्री-क्वार्टर फ़ाइनल में स्थान बनायीं. 8 वें एशियन पैसेफिक डेफ गेम्स, ताईवान में भेजे जाने के लिए 4 जनवरी, 2016 को हैदराबाद में नेशनल लेवल का वन डे सेलेकशन हुआ जिसमे मधु जायसवाल ने सिल्वर मैडल हासिल किया. जुलाई 2017 में टर्की में हुए 23 वें डेफ ओलम्पिक में भी हिस्सा लेने मधु गई जहाँ अपनी सहयोगी पारुल गुप्ता के साथ लेडीज़ डबल्स में 4 रैंक हासिल किया.

तत्कालीन कला संस्कृति एवं खेल मंत्री विनय बिहारी जी के हाथों सम्मानित होते हुए 
कुर्जी की रहनेवाली मधु को बचपन से ही बोलने-सुनने की समस्या थी. मधु के पिता सुबोध जायसवाल जो सायकल से फेरी लगाकर मोमबत्ती व गरम-मसाले का व्यवसाय करते हैं.  ऐसी आर्थिक हालत का सामना करते हुए वे अपने चार बच्चों के परिवार को संभाला करते हैं. इसपर मूक-बधिर इकलौती बेटी के सपनों को उड़ान देना आसान नहीं था. जब सुबोध बचपन में बेटी को दिखाने के लिए आये दिन डॉक्टरों के यहाँ चक्कर लगाया करते तो उसी दौरान एक डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि इलाज से भी अब मधु का ज्यादा सुधार नहीं हो पायेगा. इसलिए उचित यही रहेगा कि जितना पैसा आप इधर बर्बाद कर रहे हैं, उससे अच्छा वह पैसा उसकी पढ़ाई पर खर्च करें. यह सुनकर मधु को घर में ही इशारों ही इशारों में पढ़ाना -लिखाना शुरू किया. उसके बाद जानकारी मिलने पर मधु को 4 साल की उम्र में दीघा के आकाशदीप डेफ स्कूल में पढ़ने भेजा गया. फिर क्या था बचपन में ही मधु ने अपना शौक पूरा करना शुरू कर दिया. जब आकाशदीप स्कूल की तरफ से विभिन्न तरह की प्रतियोगिताओं में मधु को राज्य से बाहर बैंगलोर, दिल्ली इत्यादि जगहों पर भाग लेने भेजा गया तो पेंटिंग,डांसिंग,खेल सभी में मधु ने फर्स्ट एवं सेकेण्ड स्थान हासिल किया.6 वीं कक्षा में मधु का दाखिला जेम्स इंस्टीच्यूट में कराया गया. वहां भी मधु हर क्षेत्र में आगे रहती.लेकिन मधु के लिए खेल करियर तब बना जब उसकी एक सीनियर प्लेयर शिल्पी जायसवाल जूनियर ब्रिटिश ओपन जीतकर लौटी और उसी से प्रेरित होकर मधु ने निश्चय किया कि वह भी शिल्पी की तरह चोटी की लॉन टेनिस प्लेयर बनेगी. उसके इस जज्बे को आगे बढ़ाने में जेम्स इंस्टीच्यूट के हेड एवं कोच अमलेश जी ने काफी सहायता की.

मधु अपने कोच अमलेश जी के साथ 
चूँकि लॉन टेनिस एक महंगा खेल है और मधु के घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. इसलिए मधु काफी परेशान थी. लेकिन जिस जेम्स इंस्टीच्यूट में वह स्पीच थेरेपी लेती थी वहां के माध्यम से मधु को टेनिस कोर्ट में प्रैक्टिस के लिए भेजा गया. वर्ष 2008  से ही मधु बिहार लॉन टेनिस एसोसिएशन पाटलिपुत्रा टेनिस कोर्ट में रेगुलर प्रैक्टिस करती आ रही है. बिहार सरकार द्वारा आयोजित खेल सम्मान समारोह में वर्ष 2012 , 13  एवं 14  में लगातार तीन बार मधु को सम्मानित किया जा चुका है. पहली बार जब मधु खेलने के लिए विदेश जा रही थी घर में बहुत ख़ुशी का माहौल था. गांववालों एवं पड़ोसियों ने भी मधु के पिता को बधाई देते हुए कहा कि आपकी बेटी बहुत नाम करेगी.
    मधु की माँ बेबी देवी बताती हैं कि जब पहली दफा बेटी विदेश से लौटकर आई तो इशारों में बताने लगी कि, वहां के लोग बहुत नेक हैं. वहां का खाना, रोड, होटल बहुत ही बढ़िया लगा. पटना की अपेक्षा वहां बहुत बड़ा मार्केट था. सारे जगह बटन सिस्टम से काम होता है. अपने पास रखे कुछ बचाए पैसों से मधु ने घरवालों के लिए कई सुन्दर उपहार की खरीदारी भी की थी. मधु के पिता को एहसास है मधु के दर्द का, इसलिए वो पढाई के साथ साथ उसे खेल में बहुत आगे बढ़ाना चाहते हैं. मधु के इस जोश और ज़ज़्बे को देखते हुए अक्टूबर 2016 में सिनेमा इंटरटेनमेंट ने श्री कृष्ण  मेमोरियल हॉल में हुए बिहार की महिलाओं को सम्मानित किये जाने वाले अपने कार्यक्रम में 'सशक्त नारी सम्मान' से नवाजा है.


Monday, 26 June 2017

तुम्हें सोचे बिना नींद आए तो कैसे..? (ROMANTIC SAD SONG)


प्यार  करो  तो  पूरी  शिद्दत  से  करो  चाहे  वह  मिले  या  ना  मिले 


यह गीत रोमांटिक पुस्तक "तुम्हें सोचे बिना नींद आए तो कैसे?" से लिया गया है जिसे लेखक एवं गीतकार राकेश सिंह 'सोनू' ने अपनी प्रेमिका की याद में लिखा है. यह पुस्तक  amazon.in पर उब्लब्ध है.  

Tuesday, 20 June 2017

फिल्म देखने के शौक ने कई बार मुश्किल हालातों से रु-ब-रु करवाया : श्याम जी सहाय, पूर्व आई.ए.एस. एवं अध्यक्ष, बागबान क्लब, दैनिक जागरण,पटना

जब हम जवां थें 
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मैं आरा जिला, भोजपुर, बिहार का मूल निवासी हूँ और वहीँ से प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा ग्रहण किया. आज मैं ज़िन्दगी के चौथे अध्याय में हूँ लेकिन कभी मेरा भी बचपन था...मेरी भी जवानी थी...मेरे भी सपने थें...मेरी भी उड़ान थी. आप माने या ना माने मैं बच्चा तो शरारती ही था और सबसे छोटा होने की वजह से सबका दुलारा भी था. बचपन का एक वाक्या मुझे याद है. मेरे बड़े भाई जो अब स्वर्गवासी हो चुके हैं और हम दोनों मोहल्ले के मैदान में एक साथ ही खेलते थे. एक बार मुझे खेलकर घर वापस आने में कुछ विलम्ब हुआ तो मेरी माँ जो मोतियाबिंद की वजह से देख नहीं पाती थीं ने मेरे बड़े भाई को मुझे लाने के लिए भेजा. वह मुझे पकड़कर ले आए और माँ के सामने मुझे खड़ा कर दिया. माँ थोड़े गुस्से में थीं. मैंने देखा कि वो मुझे तमाचा मारनेवाली हैं. तभी मैं थोड़ा सा झुक गया और उनका तमाचा मेरे बड़े भाई को लग गया.
   स्कूल की पढाई के बाद मैंने 1961  में आरा के हरप्रसाद दास जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. उसके बाद मैं अर्थशास्त्र में एम.ए.करने के लिए पटना विश्वविधालय में दाखिला लिया और पटना आकर हॉस्टल में रहने लगा. छोटे शहर से राजधानी पटना में आने के बाद उस समय की चकाचौंध ने मुझे बहुत आकर्षित किया. बी.एन.कॉलेज के सामने भारत कॉफी हाउस या एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल के बगल में सोडा फाउंटेन रेस्टोरेंट में बैठकर चाय-कॉफी की चुस्कियां लेने का एक अलग ही मजा था. लेकिन यह मजा मैं कुछ ज्यादा ही लेने लगा. अपने एक मित्र जो रईस घर का था उसके साथ अक्सर मैं एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल चला जाता था. वहीं से फिल्म देखकर देर रात को हॉस्टल लौटता था. कई बार हॉस्टल में सुपरिटेंडेंट की डांट सुननी पड़ती थी, पढाई भी प्रभावित होती थी लेकिन फिल्म देखने की लत छूटने का नाम ही नहीं लेती थी. यह फिल्म देखने का शौक बचपन से ही था. जब मैं आरा में हाई स्कूल में पढता था तो एक दफा वहां मोहन सिनेमा हॉल में अशोक कुमार की फिल्म लगी थी 'संग्राम' जो सिर्फ वयस्कों के लिए थी. मेरे और मित्र के दिमाग में यह बात आई कि ये सिर्फ वयस्कों के लिए ही क्यों है? हमलोग क्यों नहीं देखने जाएँ? फिर क्या था, हमने जाकर टिकट काउन्टर पर पैसा दिया, टिकट काटनेवाले ने ऊपर से लेकर नीचे तक हमें देखा और कहा- 'बाबू, तुम तो अभी बच्चे हो, तुम नहीं देख सकते हो.' मैंने कहा- ' आखिर इसमें ऐसा क्या है जो हमें देखने से वंचित किया जा रहा है.'  उसने बताया कि 'फिल्म में हीरो अशोक कुमार जी बहुत सिगरेट पी रहे हैं और इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ेगा इसलिए यह व्यस्यक फिल्म हो गयी है.'  तो वहां से हम झटपट दौड़कर रूपम सिनेमा हॉल में गएँ जहाँ 'नागिन' चल रही थी. फिर हम वो फिल्म देखकर घर लौट आए.  तब फिल्म देखने का शौक इस कदर था कि जब मैं एम.ए. अर्थशास्त्र का स्टूडेंट था, परीक्षा चल रही थी. सातवें पेपर की परीक्षा देनी थी. परीक्षा के एक दिन पहले मनोज कुमार और माला सिन्हा की फिल्म 'हरियाली और रास्ता' लगी थी. मैं अपने शौक को दबा नहीं सका और सेकेंड शो में चला गया. फिल्म बहुत अच्छी लगी और राज की बात ये कि माला सिन्हा मेरी फेवरेट हीरोइन थीं. रात में करीब दो बजे हॉस्टल आकर सो गया. सवेरे नींद ही नहीं टूटी और प्रथम पाली की सातवें पेपर की परीक्षा मैं नहीं दे पाया. उस समय रिजल्ट कुल अंक पर निकलता था. मैं अपने विभागाध्यक्ष और अन्य लोगों से मिला लेकिन किसी के पास कोई समाधान नहीं था. मुझे मन मसोसकर रह जाना पड़ा. रिजल्ट निकला तो  ईश्वर की कृपा से मैं सेकेंड क्लास में थर्ड पोजीशन आ गया था. अगर उस पेपर में मैं एपियर हुआ रहता तो निश्चित रूप से फर्स्ट क्लास आता.
   
एक और वाक्या याद आता है. मैं सीधे बिहार लोक सेवा आयोग से चयनित होकर प्रशासनिक सेवा में आया हूँ और प्रथम प्रयास में ही मैं सफल रहा. लेकिन उस वक़्त की कुछ अजीब सी कहानी है जिसपर शायद कुछ लोग विश्वास ना करें. रिटेन में मैं क्वालीफाई कर चुका था. अगले दिन मेरा इंटरव्यू था. तभी मेरे अंदर फिल्म देखने का शौक फिर उमड़ आया. मेरे साथी लोग रात रातभर जागकर इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थें और मैं चला गया एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल में फिल्म देखने. रात में फिर 2 बजे लौटा और सो गया. सुबह उठा तो मेरे ध्यान में आया कि इंटरव्यू तो सिर्फ एक दिन की बात है लेकिन इस एक दिन में आजतक जो मैंने पढाई की है, जो कुछ समझा है और जितना ज़िन्दगी से सीखा है वही काम आएगा, एक्जामिनेशन नाईट का पढ़ा हुआ काम नहीं आएगा. और मुझे खुद पर भी भरोसा था. मैं इंटरव्यू फेस करने गया. सवाल कठिन थें, कुछ उटपटांग भी थें. मगर मैं घबराया नहीं बल्कि ईमानदारी से अपने ही अंदाज़ में मैंने सवालों का सही जवाब दिया. जब रिज्लट निकला तो मेरा चयन हो गया था.
   फिर से मैं एक बार अपने शुरूआती दिनों की ओर लौटना चाहूंगा जब मैं हाई स्कूल में था. हमारे समय में आठवें क्लास के बाद 9 वीं-10 वीं में साइंस,आर्ट्स और कॉमर्स लिया जाता था. मेरी दिली ख्वाहिश थी कि मैं इंजीनियर बनूँ इसलिए मैथेमैटिक्स पढ़ना चाहता था. लेकिन आठवीं क्लास में मैथ में फेल कर गया क्यूंकि मैथेमैटिक्स में कमजोर था. मैंने पिताजी से कहा- ' मैथेमैटिक्स के लिए आप घर पर एक शिक्षक रख दें.' जबकि उस समय ना तो कोई शिक्षक रखा जाता था और ना ही कोई कोचिंग इंस्टीच्यूट का चलन था. मेरे पिताजी ने कहा-'बेटा, आठवीं क्लास में ही तुम शिक्षक के सहारे पढ़ोगे तो तुम आगे नहीं बढ़ पाओगे.तुम्हारा मैथ कमजोर है तो तुम छोड़ दो और आर्ट्स ले लो. तुम आर्ट्स में ही अच्छा करोगे.' और पिताजी की सोच सही साबित हुई और मैंने आर्ट्स लिया और स्कॉलरशिप से ही बोर्ड, आई.ए., बी.ए. और एम.ए. की पढाई की और प्रथम श्रेणी में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए. 

Tuesday, 13 June 2017

इंसाफ (लेखक: राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा



उनकी बहन के साथ अन्याय हो गया. वे खून खराबे को तैयार हो गएँ. अगले दिन गांव के पंचों ने अदभुत फैसला सुनाया - "वे अपनी बहन का बदला अपराधी की बहन से ले लें." सुनकर वे बहुत खुश हुए. अपराधी की बहन को घर के अंदर से घसीटकर लाया गया. गांववाले तमाशा देखते रहे और सरेआम बारी बारी से उन्होंने भूख मिटाई. वह बेहोश हो चुकी थी मगर उनके चेहरे पर चमक थी. शायद उन्होंने अपनी बहन को इंसाफ दिला दिया था.

Sunday, 11 June 2017

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती : वरुण सिंह, प्रदेश संयोजक, कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ, भाजपा

वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'




1989
 में मैट्रिक का इक्जाम देने के बाद से ही मेरा रुझान कला एवं नाटकों की तरफ जाने लगा. स्कूल में भी बढ़-चढ़ के हिस्सा लेता था. उसी दरम्यान भारतीय जनता पार्टी से मेरा जुड़ाव हुआ. उस वक़्त शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव जी इलेक्शन में खड़े हुए थें और उनको जिताने  में हमारे एक रिश्ते के भाई स्व. अजय सिंह ने भी बढ़ चढ़ के कार्य किया था. उन्ही के साथ शुरूआती दिनों में मैं पार्टी के प्रचार-प्रसार में जुटा रहा. सारे कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाई और शैलेन्द्र जी इलेक्शन जीत गए. उस समय से आजतक लगभग 26  साल होने को आए मैं भाजपा से जुड़ा रहा. 1990  में माननीय सुशिल मोदी जी विधान सभा चुनाव लड़े. जब वे जीतकर आये तो उन्होंने संगठन बनाना शुरू किया. उसी वक़्त मुझे सेक्टर अध्यक्ष बनाया गया. तब मैं पटना कॉलेज से ग्रेजुएशन भी कर रहा था. लेकिन शुरू से ही मेरा रुझान पढ़ाई से ज्यादा रंगमंच एवं राजनीति के प्रति रहा. तब के संघर्षमय दिन याद हैं जब पापा हाई स्कूल के टीचर हुआ करते थें. 200  रूपए में सेकेण्ड हैण्ड रेले साइकल लिए थें. उसी साइकल से पापा स्कूल जाते थें. जब लौटकर आते तो उनकी साइकल लेकर मैं भाजपा का झोला लटकाये संगठन का काम करने निकल पड़ता. गांव -गांव जाकर आर.एस.एस. का प्रचार-प्रसार करता था. मजे की बात ये कि उस साइकल में न ब्रेक था, न घंटी थी, और न ही मेडीगार्ड था.
   
 


माननीय सुशिल कुमार मोदी जी के नेतृत्व में हम आगे बढ़ते रहें. इसी क्रम में मुझे दो बार मंडल महामंत्री बनाया गया. उसके बाद मैं प्रदेश की राजनीति में आया और कला-संस्कृति मंच, भाजपा का प्रदेश मंत्री फिर उपाध्यक्ष और फिर प्रदेश महामंत्री बना. फ़िलहाल मैं भाजपा में कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ का प्रदेश संयोजक हूँ. कई संघर्ष एवं कठिनाइयों को झेलते हुए एक दौर ऐसा आया कि हमारा अपना छोटा भाई तरुण जो मेरा सहयोगी व मेरी ताक़त हुआ करता था हमेशा के लिए हमें छोड़कर चला गया. जब सी.पी.ठाकुर और रामकृपाल यादव जी का इलेक्शन हुआ और रामकृपाल यादव जी इलेक्शन जीत गए. उसी दरम्यान मेरे छोटे भाई तरुण का मर्डर हो गया. उसके पहले मेरे रिश्ते के भाई अजय सिंह जिनके साथ मैंने पहली बार भाजपा का झंडा उठाया था उनका मर्डर हो गया था. ये दो झटके मुझे बहुत दर्द दे गए. फिर एक साल के बाद मेरे पापा भी गुजर गए. भाई और पापा के नहीं रहने के बाद एक वक़्त ऐसा आया कि मेरे पास कुछ नहीं बचा. लगा कि अब हमलोगों को गांव लौट जाना पड़ेगा. लेकिन मैं इतनी जल्दी हार माननेवालों में से नहीं हूँ. भगवान एवं बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद से पैसों की किल्लत के बावजूद मैंने अपना खुद का काम शुरू करने की ठानी. फिर कुछ करीबी मित्रों के सहयोग से मेरा खुद का बिजनेस शुरू हो पाया. पार्टी में भी मेरा दायित्व बढ़ता गया.  मेरे राजनीति में आने को लेकर घर-परिवार में किसी को कोई ऑब्जेक्शन नहीं था. लेकिन गांव-जंवार के लोग-रिश्तेदार ये कहते फिरते थें कि , मास्टर साहब का लड़का नचनिया-बजनिया है. आवारा की तरह पार्टी में दौड़ते रहता है. अरे जो कोई काम का नहीं होता वो यही सब करता है. ऐसी बहुत सी निगेटिव बातें सुनने को मिलती थीं लेकिन मुझे ख़ुशी है कि मेरे माँ-बाप एवं परिवार ने मुझपर भरोसा रखा और मैंने भी विकट परिस्थितियों को झेलते हुए उनके भरोसे को कभी टूटने नहीं दिया.



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