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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Wednesday 27 November 2019

शहरी कल्चर में पले-बढ़े बच्चे कार्यक्रम 'आओ गांव चलें' से हुए ग्रामीण संस्कृति से रूबरू



पटना, 24 नवम्बर, रविवार, “शिक्षा दे शक्ति,बाल-मजदूरी से मुक्ति…”, “चलो अब शुरुआत करें, बाल-विवाह का नाश करें…”, “ऐसा कोई काम नहीं जो बेटियाँ ना कर पायी हैं, बेटियाँ तो आसमान से तारे तोड़ लायी हैं…”, “दहेज हटाओ, बहु नहीं बेटी बुलाओ…”, “पर्यावरण का रखें ध्यान, तभी देश बनेगा महान…”  अपने-अपने हाथों में जागरूकता हेतु ये स्लोगन की तख्तियां लेकर जब लगभग 40 की संख्या में शहर से आये बच्चे स्कूली बस से उतरें तो यह देखकर ‘बीर’ गांव के निवासी भी दंग रह गयें. यह नजारा था कार्यक्रम “आओ गाँव चलें” का जिसका आयोजन बोलो ज़िन्दगी फाउंडेशन ने किया था. जिसके तहत स्कॉलर्स एबोड स्कूल के वैसे बच्चों को धनरुआ प्रखंड के बीर-ओरियारा गाँव भ्रमण पर ले जाया गया जो आज़तक कभी गाँव नहीं गए थें, जिन्होंने रियल लाइफ में गाँव होता कैसा है देखा ही नहीं था. जिन्होंने इससे पहले गाँव को सिर्फ किताबों में पढ़ा और फ़िल्म-टीवी में देखा था. इस कार्यक्रम का उद्देश्य था शहरी कल्चर में पले-बढ़े बच्चों को ग्रामीण संस्कृति से रूबरू कराने के साथ ही उन्हें किताबों से इतर व्यवहारिक शिक्षा भी देना.

https://www.youtube.com/watch?v=scquzR79T2Q

गाँव जा रहे बच्चों के स्कूली बस को रविवार की सुबह हरी झंडी देकर रवाना किया पटना के जानेमाने चिकित्सक डॉ. दिवाकर तेजस्वी, स्कॉलर्स एबोड की प्राचार्या डॉ. बी. प्रियम एवं बोलो ज़िन्दगी के निदेशक राकेश सिंह ‘सोनू’ ने. ये सभी अतिथि स्कूली बच्चों के साथ खुद भी गाँव भ्रमण पर गयें.

हरी झंडी देने के पहले इस अवसर पर बोलो ज़िन्दगी फाउंडेशन के डायरेक्टर राकेश सिंह ‘सोनू’ ने कहा कि “कभी पटना में वैसे एक-दो बच्चों से मुलाक़ात हुई थी जो कभी गांव ही नहीं गए थें, तब वहीं से आइडिया आया कि ऐसे बहुत से बच्चे शहर में होंगे तो क्यों नहीं उन्हें ले जाकर ग्रामीण संस्कृति से रु-ब-रु कराया जाए…कि जो अनाज हम खाते हैं उसकी फ़सल गांव के किसान कैसे उपजाते हैं, उन्हें खेत-खलिहान भी दिखाया जाए, डायनिंग टेबल पर खानेवाले बच्चों को गांव में दरी पर बैठाकर पत्तल में खिलाया जाए, मिट्टी के चुक्के में पानी पिलाया जाए. मतलब उन्हें भी गाँव की संस्कृति से जोड़ा जाए.”


वहीं स्कॉलर्स एबोड की प्राचार्या डॉ. बी. प्रियम ने कहा ” सच में इस यात्रा से हमारे बच्चे कुछ-ना-कुछ अच्छा सीखकर ही अपने घर लौटेंगे यह हमें विश्वास है. और तमाम अभिभावकों से हम यही अपील करना चाहेंगे कि वो अपने बच्चों को कभी-कभी गाँव ज़रूर घुमाएं जिससे उनका अनुभव बेहतर होगा.”

वहीं डॉ. दिवाकर तेजस्वी ने कहा कि “यह स्कूली बच्चे जिस गाँव (बीर) में जा रहे हैं वो मेरा खुद का गांव है. ‘बीर’ गाँव में बच्चे किसानों और गाँव के मुखिया से मिलेंगे, खेत-खलिहान और फसलों को देखेंगे, गांव के  सरकारी स्कूल, मंदिर, तालाब का भी भ्रमण करेंगे. खुद से पौधरोपण कर पर्यावरण संरक्षण का सन्देश भी देंगे. कभी गाँव नहीं गए बच्चों के लिए यह नया अनुभव होगा.”

पहली बार गांव देखने की उत्सुकता लिए ये बच्चे ‘बीर’ गांव में सबसे पहले तालाब के रास्ते से चलते हुए गांव के प्राइमरी एवं मीडिल स्कूल में पहुँचे. हालाँकि रविवार की छुट्टी होने की वजह से स्कूल की कक्षाएं बंद थीं लेकिन फिर भी सभी बच्चों ने जिज्ञासावश स्कूल परिसर में दाखिल होकर यह देखना चाहा कि आखिर गांव का सरकारी स्कूल दिखता कैसा है…! वहां से बच्चों को साथ लिए फाउंडेशन की टीम गांव के मुखिया के घर पहुंची. उसी क्रम में कुछ बच्चों ने जानना चाहा कि मुखिया किसे कहते हैं…? तो किसी ने उनकी जिज्ञासा यह कहकर शांत की कि मुखिया गांव का हेड होता है. मुखिया विभा देवी जी घर में मौजूद नहीं थीं तो बच्चे जब उनके सास-ससुर से मिलें तो यह सवाल पूछ बैठें कि “आपलोग गांव के हेड हो तो आप पूरे गांव को कैसे सँभालते हो…?” इसपर मुखिया के ससुर जी ने वाजिब जवाब देकर बच्चों की जिज्ञासा शांत की. वे भी इस कार्यक्रम का उद्देश्य जानकर इतने खुश हुए कि संग-संग बच्चों की टोली के साथ बाहर गांव की सैर पर निकल पड़ें.

रास्ते में बच्चों ने गांव का पोस्ट ऑफिस देखा, घास चरती हुईं बकरियों को देखा, खेतों में किसानों को काम करते हुए देखा. और जब एक जगह चांपाकल देखा तो फिर चांपाकल चलाकर पानी पीने की बच्चों में होड़ सी लग गयी. गला तर करते ही तारीफ के शब्द भी निकलें कि “वाह, कितना मीठा पानी है.”

वहां से बच्चों का जत्था पहुँचा गांव में खुली संस्था ‘पहल’ के ऑफिस में जिसे डॉ. दिवाकर तेजस्वी एवं उनके कुछ दोस्तों ने शुरू किया है. बच्चों को ‘पहल’ के बारे में यह जानकारी दी गयी कि यहाँ गांव कि लड़कियों-महिलाओं को मुफ्त में कम्प्यूटर व सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें. फिर डॉ. साहब के नेतृत्व में स्कूली बच्चों ने वहीँ पास के खेत में चलकर खुद अपने हाथों पौधरोपण करने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया. 

अब बच्चों को भूख लगनी शुरू हो गयी थी. कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में बोलो जिंदगी फाउंडेशन की टीम उन्हें लेकर पास के ही ओरियारा गांव पहुंची जहाँ के प्रसिद्ध महादेव मंदिर का दर्शन कराने के बाद वहीँ के धर्मंशाला परिसर में भोजन कराने की व्यवस्था शुरू हुई. शायद पहली बार जमीं पर एक साथ पंगत में बैठकर ये बच्चे यूँ खाना खाने बैठे थें. उन्हें पत्ते के पत्तल पर पूरी, सब्जी और खीर परोसकर खिलाया गया और मिट्टी के कुल्हड़ में पानी पिलाया गया. इस तरह से भोजन करने और मिट्टी के कुल्हर में पानी पीने का बहुत ही सुखद अनुभव महसूस किया बच्चों ने. बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था का सारा दारोमदार बोलो जिंदगी फाउंडेशन की टीम-कॉर्डिनेटर तबस्सुम अली का था. और सुबह से शाम तक की इस यात्रा में शामिल सारे बच्चों की देखरेख भी तबस्सुम के नेतृत्व में हुआ. 

वहीं फाउंडेशन के प्रोग्रामिंग हेड प्रीतम कुमार ने इस कार्यक्रम के सञ्चालन के साथ ही फोटोग्राफी का दायित्व भी उठा रखा था. शाम 5 बजे गाँव से सभी बच्चों को साथ लेकर फाउंडेशन की टीम पटना के लिए रवाना हुई. रास्ते में बच्चों की आपस में यही बातचीत चल रही थी कि घर पहुंचकर हम मम्मी-पापा को बताएँगे कि गांव में हमने क्या-क्या देखा और किस तरह से इंज्वाय किया. शाम के इस सफर को और सुहाना बनाने के लिए बोलो जिंदगी फाउंडेशन की तबस्सुम अली एवं प्रीतम कुमार ने बच्चों को दो ग्रुप में बांटकर अंत्याक्षरी की महफ़िल सजा दी. पटना पहुँचते हुए देर शाम हो चुकी थी लेकिन इन बच्चों के चेहरे पर थकान का ज़रा सा भी एहसास नहीं हो रहा था सिवाए उल्लास और आनंद के.
“आओ गाँव चलें” कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ. बी. प्रियम, अनुजा श्रीवास्तव, पंकज कुमार, डॉ. दिवाकर तेजस्वी, राकेश सिंह ‘सोनू’, तबस्सुम अली, प्रीतम कुमार, नीरज कुमार, दीपक कुमार एवं सुबी फौजिया का विशेष योगदान रहा.



बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक : सोशल वर्कर विवेक विश्वास की फैमली, राजीवनगर, आशियाना-दीघा रोड, पटना




शनिवार, 23 नवंबर की शाम 'बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक' के तहत बोलो ज़िन्दगी की टीम (राकेश सिंह 'सोनू', प्रीतम कुमार एवं तबस्सुम अली) पहुंची पटना के आशियाना-दीघा रोड, राजीवनगर  इलाके में सोशल वर्कर विवेक विश्वास के घर. फैमली ऑफ़ द वीक में हमारे स्पेशल गेस्ट के रूप में ट्राई  संस्था में कार्यरत बिहार-झाड़खंड की हेल्थ डायरेक्टर अमरूता सोनी भी शामिल हुईं. इस कार्यक्रम को सपोर्ट किया है बोलो जिंदगी फाउंडेशन ने जिसकी तरफ से हमारे स्पेशल गेस्ट के हाथों विवेक विश्वास की फैमली को एक आकर्षक गिफ्ट भेंट किया गया.


फैमली परिचय- विवेक विश्वास राजीव नगर, दीघा-आशियाना रोड इलाके में रहते हैं जो एफएमसीजी में सेल्स ऑफिसर हैं. जॉब के दरम्यान ही राह में जो भी लावारिश व्यक्ति बीमार या घायल अवस्था में दिख जाये तो वे निस्वार्थ भाव से उसकी मदद करते हैं. चोट लगे पशु-पक्षियों की भी सेवा करते हैं. और इस काम के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा विवेक सम्मानित भी हो चुके हैं. फैमिली में पापा श्री धर्मेंद्र कुमार हैं, भइया-भाभी हैं. भइया विकास कुमार रिटेल सेक्टर में हैं, अभी टाटा में स्टोर मैनेजर हैं. जॉब के अलावे इनके भइया विकास कुमार ब्लड डोनेशन के लिए पर्सनली काम करते हैं. खुद भी डोनेट करते हैं और उनके अंडर काम करनेवाले 150 लड़के हैं, जब भी जरूरत पड़े वे ब्लड डोनेशन को तैयार रहते हैं.  भाभी हॉउस वाईफ हैं. भइया की एक बेटी हुई है जो अभी 2 महीने की है. विवेक की हाल ही में सुमन कुमारी से शादी हुई है. इनकी बहनों का घर भी आस-पास के इलाके में ही है. बड़ी बहनों का नाम है रूचि रंजन और मनीषा. 

सेवा की भावना कब से जगी - विवेक हमेशा ट्रेन से सफर करते रहे हैं, नानी घर गया में है तो पटना - गया बहुत आना-जाना हुआ. उनका अपना पुस्तैनी घर हुआ लखीसराय में तो ट्रेन से ही आते-जाते थें. बचपन से ही जब किसी को देखते थें कि वो भूखा है, लावारिस सा गिरा पड़ा है, सिसक रहा है, उसको कोई देखनेवाला नहीं है तो वहीँ से भावना जगी कि अगर बड़ा हुए तो इनके लिए कुछ करेंगे. जब आठवीं कक्षा में थें तो एक पोस्टर पर स्लोगन देखें विवेकानद जी का कि "मैं उस प्रभु की सेवा करता हूँ जिसे ज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं." वो पंक्तियाँ बहुत गहरे से विवेक के जेहन में समा गयीं. जैसे-जैसे बड़े होते गएँ अच्छे लोगों का भी साथ मिलता गया और लोगों की सेवा बदस्तूर जारी रही.

सोशल वर्क की शुरुआत कैसे हुई - शिवपुरी में पहले विवेक जी का ब्वॉयस हॉस्टल चलता था, तब रोजाना 50-60 रोटियां बच जाने पर फेंकनी पड़ जाती थी. एक तो दिमाग में था कि बाहर कुछ लोग भूखे हैं और दूसरी ये कि इधर रोटियां नाली में डाली जा रही हैं. तो उन बची हुई रोटियों के इस्तेमाल के लिए विवेक ने एक आइडिया निकाला. तब  दो-ढ़ाई किलो आलू का भुजिया बनवाते थें और सबका चार-चार का बंडल बनाकर बाहर ले जाकर भूखों को बाँट देते थें. यह लगातार दो-तीन साल चला. लेकिन बॉयस हॉस्टल बंद होने के बाद ये काम बीच में बंद हो गया. उस दरम्यान रोटी का बंडल बनाकर जब बांटते थें तब देखते कि कोई बीमार है, चोट से कराह रहा है तो वैसे लोगों को पीएमसीएच में ले जाकर इलाज करा देते थें. तो निःसहायों की सेवा की आदत उसी समय से लगनी शुरू हो गयी. और तब से लेकर आजतक वो सिलसिला जारी है. विवेक ऐसे असहाय-लावारिस लोगों का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने लगें और लोगों से अपील करने लगें कि आप भी अपने आस-पास के ऐसे लोगों की मदद करें. अब इन्हें सामने से कॉल भी आते हैं कि कोई यहाँ बीमार है, कोई इंसान लावारिस हालत में पड़ा हुआ है, उसे देखनेवाला कोई नहीं है तो फिर विवेक वहां पहुँचते हैं, सरकारी एम्बुलेंस जो फ्री है को बुलाते हैं, सरकारी डॉक्टर जो फ्री में इलाज करने के लिए तैयार हैं, ऐसे लोगों के लिए सरकारी हॉस्पिटल पीएमसीएच में लावारिश वार्ड है जहाँ सारी दवाएं मुफ्त में मुहैया हो जाती हैं. लेकिन बहुत से लोग जो इनकी मदद करना चाहते हैं उनको जानकारी का आभाव रहता है तो उनको कैसे जागरूक किया जाये, उसके लिए ही ये ऐसे लोगों का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया के माध्यम से अवेयरनेस फैलाते हैं. विवेक की रिक्वेस्ट पर अच्छे समाजसेवक लोग अब खुद से आगे आने लगे हैं. अभी तक इन कामों के लिए चाहे वो कोई आम व्यक्ति हो या प्रशासनिक अधिकारी कभी किसी ने मना नहीं किया. रिस्पॉन्स अच्छा मिलता है. इससे एक फायदा ये भी होता है कि ऐसे कुछ विक्षिप्त लोग जो लावारिस हालत में अपने घर-परिवार से दूर हो गए हैं, सोशल मीडिया के माध्यम से जब उनके घरवालों को उनका पता चलता है तो वे उन्हें लेने भी आते हैं.


बेजुबां जानवरों के भी मसीहा - जब विवेक जी को पता चलता है या कोई कॉल कर के बताता है कि यहाँ एक गाय या कुत्ता बीमार पड़ा है, लहूलुहान है, दर्द से कराह रहा है तो विवेक वहां भी जानवरों की सेवा करने पहुँच जाते हैं. विवेक अबतक 15-20 जानवरों को हॉस्पिटल में एडमिट करा चुके हैं. ऐसे में उनके मित्र जो वेटनरी डॉक्टर हैं बंटी जी उनका बहुत सहयोग मिलता है. उन्हें कभी भी बुलाएँ वे हाजिर हो जाते हैं, रात के 10-11 बजे भी अगर कॉल चला जाये तो वे आ जाते हैं और निशुल्क सेवा देते हैं.

फैमिली की रोकटोक - फैमिली की रोकटोक चलती रहती है, इसलिए उनसे छुप-छुपाकर ये काम करना पड़ता है. भइया को विवेक के काम से नफरत नहीं है बल्कि उन्हें हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं वे किसी लफड़े में ना फंस जाएँ. अच्छा करने के चक्कर में कहीं अपनी जिंदगी जोखिम में न डाल दें. कई लावारिस इंसान, जानवरों के शरीर से इतनी बदबू आती है, मख्खियां भिनभिनाती हैं, जहाँ लोग नाक बंद करके निकल लेते हैं, कोई उनके पास नहीं जाना चाहता. ऐसे में जब विवेक उनकी देखभाल करते हैं   तो उनके परिवार को भी ये भय लगा रहता है कि कहीं वे  भी किसी महामारी के चपेट में ना आ जाएँ. बड़ी बहनों ने बताया कि "वैसे विवेक काम तो बहुत अच्छा कर रहा है लेकिन बचपन से ही मानव सेवा का इसको इतना क्रेज है कि अगर इसे कोई घर का काम करने सौंपा जाये तो वे बीच रास्ते में असहाय लोगों को देखकर जिस काम से जा रहा है उसे भूलकर लोगों की सहायता में लग जाता है. इसलिए कभी-कभी उसे घर का ज़रूरी काम सौंपते हुए सबको हिचक भी होती है." विवेक के घरवाले इस बात पर भी नाराज रहते हैं कि रोजाना टिफिन ले जाने के बावजूद ये खुद ना खाकर किसी ना किसी को खिला देते हैं और जब रात में घर आते हैं तो पता चलता है कि ज्यादा देर भूखे रहने की वजह से एसिडिटी की प्रॉब्लम हो गयी. इस बाबत विवेक कहते हैं कि "मेरे पास खाना है और हम किसी भूखे को देखकर नज़र फेरकर चले जाएँ यह दिल इजाजत नहीं देता. और यही वजह है कि मेरी पत्नी भी मेरे से नाराज़ होती है कि लोगों की सेवा करते हुए खुद को बीमार क्यों कर लेते हैं. और यह काम हम अपना जॉब छोड़कर नहीं करतें बल्कि मेरा मार्केटिंग का काम है, दिनभर रोड पर ही आना-जाना लगा रहता है तो राह चलते अगर हम लावारिस लोगों के कुछ काम आ भी गएँ तो उससे मुझे क्या हानि होगी ?"

स्पेशल गेस्ट की टिप्पणी - इस कार्यक्रम में बतौर स्पेशल गेस्ट के रूप में उपस्थित ट्राई की हेल्थ डायरेक्टर अमरूता सोनी ने बोलो ज़िंदगी टीम के साथ विवेक जी की कहानी से रूबरू होने पर विवेक जी की तारीफ करते हुए कहा कि "एक लावारिस का दर्द क्या होता है वह मैंने बहुत करीब से देखा है इसलिए मैं समझ सकती हूँ कि ऐसे रह चलते लावारिसों की सेवा तो दूर लोग जल्दी उनके आस-पास भी नहीं फटकते हैं. ऐसे में विवेक जी निस्वार्थ भाव से इनकी मदद को तैयार रहते हैं तो यह बहुत बड़ी बात है. इंसान ही नहीं बीमार और लाचार जानवरों के दर्द को देखकर भी विवेक जी का दिल धड़कता है तो इससे ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये कितने नेकदिल इंसान होंगे. मैं यही कहना चाहूंगी कि यह काम आप आगे भी जारी रखिये चाहे कितनी ही परेशानियाँ क्यों न आएं, क्यूंकि एक तो दूसरे लोग भी जागरूक होंगे और ऐसे असहायों की सेवा से ईश्वर की भी दुआ मिलती है."
(इस पूरे कार्यक्रम को bolozindagi.com पर भी देखा जा सकता है.)

Tuesday 26 November 2019

पत्रकार जयकांत चौधरी की पिटाई मामले में एडीजी ने दिया कार्रवाई का आश्वासन


पटना, 26 नवम्बर, पत्रकार जयकांत चौधरी की पाटलिपुत्र थाने में पुलिसकर्मियों द्वारा की गयी पिटाई की बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन घोर निंदा करता है। जयकांत को पीटने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की मांग को लेकर मंगलवार को यूनियन का एक प्रतिनिध मंडल महासचिव प्रेम कुमार के नेतृत्व में डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे से मिलने पहुंचा। डीजीपी के नहीं रहने के कारण एडीजी (लॉ एंड ऑर्डर) अमित कुमार से मिला। एडीजी ने तुरंत इसपर कार्रवाई करने का आश्वासन दिया। यूनियन के महासचिव प्रेम कुमार ने घटना में शामिल पुलिसकर्मियों पर 24 घंटे के अंदर कार्रवाई करने की मांग की है। प्रतिनिधि मंडल में विशाल चौहान, रामजी प्रसाद, राजीव कमल, चंद्र मोहन पांडे, रवि रंजन, शरद प्रकाश झा, पारसनाथ, नीरज कुमार कर्मशील, बालकृष्ण कुमार, निखिल कुमार वर्मा, नवनीत कुमार, मदन कुमार,अक्षय आनंद, अविनव रंजन, मनन गोस्वामी, इंद्रमोहन पांडे, असलम अब्बास, समीम, सुजीत कुमार गुप्ता, जयकांत की पत्नी रीना चौधरी सहित अन्य पत्रकार शामिल थे।

Monday 25 November 2019

"आओ गांव चलें" कार्यक्रम के तहत शहरी बच्चे पहली बार गयें गांव घूमने


(स्टोरी - राकेश सिंह 'सोनू', रिपोर्टिंग - प्रीतम कुमार) पटना, 24 नवम्बर, रविवार, "शिक्षा दे शक्ति,बाल-मजदूरी से मुक्ति...", "चलो अब शुरुआत करें, बाल-विवाह का नाश करें...", "ऐसा कोई काम नहीं जो बेटियाँ ना कर पायी हैं, बेटियाँ तो आसमान से तारे तोड़ लायी हैं...", "दहेज हटाओ, बहु नहीं बेटी बुलाओ...", "पर्यावरण का रखें ध्यान, तभी देश बनेगा महान..."  अपने-अपने हाथों में जागरूकता हेतु ये स्लोगन की तख्तियां लेकर जब लगभग 40 की संख्या में शहर से आये बच्चे स्कूली बस से उतरें तो यह देखकर 'बीर' गांव के निवासी भी दंग रह गयें. यह नजारा था कार्यक्रम "आओ गाँव चलें" का जिसका आयोजन बोलो ज़िन्दगी फाउंडेशन ने किया था. जिसके तहत स्कॉलर्स एबोड स्कूल के वैसे बच्चों को धनरुआ प्रखंड के बीर-ओरियारा गाँव भ्रमण पर ले जाया गया जो आज़तक कभी गाँव नहीं गए थें, जिन्होंने रियल लाइफ में गाँव होता कैसा है देखा ही नहीं था. जिन्होंने इससे पहले गाँव को सिर्फ किताबों में पढ़ा और फ़िल्म-टीवी में देखा था. इस कार्यक्रम का उद्देश्य था शहरी कल्चर में पले-बढ़े बच्चों को ग्रामीण संस्कृति से रूबरू कराने के साथ ही उन्हें किताबों से इतर व्यवहारिक शिक्षा भी देना.

गाँव जा रहे बच्चों के स्कूली बस को रविवार की सुबह हरी झंडी देकर रवाना किया पटना के जानेमाने चिकित्सक डॉ. दिवाकर तेजस्वी, स्कॉलर्स एबोड की प्राचार्या डॉ. बी. प्रियम एवं बोलो ज़िन्दगी के निदेशक राकेश सिंह 'सोनू' ने. ये सभी अतिथि स्कूली बच्चों के साथ खुद भी गाँव भ्रमण पर गयें.
    हरी झंडी देने के पहले इस अवसर पर बोलो ज़िन्दगी फाउंडेशन के डायरेक्टर राकेश सिंह 'सोनू' ने कहा कि "कभी पटना में वैसे एक-दो बच्चों से मुलाक़ात हुई थी जो कभी गांव ही नहीं गए थें, तब वहीं से आइडिया आया कि ऐसे बहुत से बच्चे शहर में होंगे तो क्यों नहीं उन्हें ले जाकर ग्रामीण संस्कृति से रु-ब-रु कराया जाए...कि जो अनाज हम खाते हैं उसकी फ़सल गांव के किसान कैसे उपजाते हैं, उन्हें खेत-खलिहान भी दिखाया जाए, डायनिंग टेबल पर खानेवाले बच्चों को गांव में दरी पर बैठाकर पत्तल में खिलाया जाए, मिट्टी के चुक्के में पानी पिलाया जाए. मतलब उन्हें भी गाँव की संस्कृति से जोड़ा जाए."
     वहीं स्कॉलर्स एबोड की प्राचार्या डॉ. बी. प्रियम ने कहा " सच में इस यात्रा से हमारे बच्चे कुछ-ना-कुछ अच्छा सीखकर ही अपने घर लौटेंगे यह हमें विश्वास है. और तमाम अभिभावकों से हम यही अपील करना चाहेंगे कि वो अपने बच्चों को कभी-कभी गाँव ज़रूर घुमाएं जिससे उनका अनुभव बेहतर होगा."
    वहीं डॉ. दिवाकर तेजस्वी ने कहा कि "यह स्कूली बच्चे जिस गाँव (बीर) में जा रहे हैं वो मेरा खुद का गांव है. 'बीर' गाँव में बच्चे किसानों और गाँव के मुखिया से मिलेंगे, खेत-खलिहान और फसलों को देखेंगे, गांव के  सरकारी स्कूल, मंदिर, तालाब का भी भ्रमण करेंगे. खुद से पौधरोपण कर पर्यावरण संरक्षण का सन्देश भी देंगे. कभी गाँव नहीं गए बच्चों के लिए यह नया अनुभव होगा."
     .पहली बार गांव देखने की उत्सुकता लिए ये बच्चे 'बीर' गांव में सबसे पहले तालाब के रास्ते से चलते हुए गांव के प्राइमरी एवं मीडिल स्कूल में पहुँचे. हालाँकि रविवार की छुट्टी होने की वजह से स्कूल की कक्षाएं बंद थीं लेकिन फिर भी सभी बच्चों ने जिज्ञासावश स्कूल परिसर में दाखिल होकर यह देखना चाहा कि आखिर गांव का सरकारी स्कूल दिखता कैसा है...! वहां से बच्चों को साथ लिए फाउंडेशन की टीम गांव के मुखिया के घर पहुंची. उसी क्रम में कुछ बच्चों ने जानना चाहा कि मुखिया किसे कहते हैं...? तो किसी ने उनकी जिज्ञासा यह कहकर शांत की कि मुखिया गांव का हेड होता है. मुखिया विभा देवी जी घर में मौजूद नहीं थीं तो बच्चे जब उनके सास-ससुर से मिलें तो यह सवाल पूछ बैठें कि "आपलोग गांव के हेड हो तो आप पूरे गांव को कैसे सँभालते हो...?" इसपर मुखिया के ससुर जी ने वाजिब जवाब देकर बच्चों की जिज्ञासा शांत की. वे भी इस कार्यक्रम का उद्देश्य जानकर इतने खुश हुए कि संग-संग बच्चों की टोली के साथ बाहर गांव की सैर पर निकल पड़ें. रास्ते में बच्चों ने गांव का पोस्ट ऑफिस देखा, घास चरती हुईं बकरियों को देखा, खेतों में किसानों को काम करते हुए देखा. और जब एक जगह चांपाकल देखा तो फिर चांपाकल चलाकर पानी पीने की बच्चों में होड़ सी लग गयी. गला तर करते ही तारीफ के शब्द भी निकलें कि "वाह, कितना मीठा पानी है." वहां से बच्चों का जत्था पहुँचा गांव में खुली संस्था 'पहल' के ऑफिस में जिसे डॉ. दिवाकर तेजस्वी एवं उनके कुछ दोस्तों ने शुरू किया है. बच्चों को 'पहल' के बारे में यह जानकारी दी गयी कि यहाँ गांव कि लड़कियों-महिलाओं को मुफ्त में कम्प्यूटर व सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें. फिर डॉ. साहब के नेतृत्व में स्कूली बच्चों ने वहीँ पास के खेत में चलकर खुद अपने हाथों पौधरोपण करने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया.
  अब बच्चों को भूख लगनी शुरू हो गयी थी. कार्यक्रम के अंतिम पड़ाव में बोलो जिंदगी फाउंडेशन की टीम उन्हें लेकर पास के ही ओरियारा गांव पहुंची जहाँ के प्रसिद्ध महादेव मंदिर का दर्शन कराने के बाद वहीँ के धर्मंशाला परिसर में भोजन कराने की व्यवस्था शुरू हुई. शायद पहली बार जमीं पर एक साथ पंगत में बैठकर ये बच्चे यूँ खाना खाने बैठे थें. उन्हें पत्ते के पत्तल पर पूरी, सब्जी और खीर परोसकर खिलाया गया और मिट्टी के कुल्हड़ में पानी पिलाया गया. इस तरह से भोजन करने और मिट्टी के कुल्हर में पानी पीने का बहुत ही सुखद अनुभव महसूस किया बच्चों ने. बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था का सारा दारोमदार बोलो जिंदगी फाउंडेशन की टीम-कॉर्डिनेटर तबस्सुम अली का था. और सुबह से शाम तक की इस यात्रा में शामिल सारे बच्चों की देखरेख भी तबस्सुम के नेतृत्व में हुआ.
      वहीं फाउंडेशन के प्रोग्रामिंग हेड प्रीतम कुमार ने इस कार्यक्रम के सञ्चालन के साथ ही फोटोग्राफी का दायित्व भी उठा रखा था. शाम 5 बजे गाँव से सभी बच्चों को साथ लेकर फाउंडेशन की टीम पटना के लिए रवाना हुई. रास्ते में बच्चों की आपस में यही बातचीत चल रही थी कि घर पहुंचकर हम मम्मी-पापा को बताएँगे कि गांव में हमने क्या-क्या देखा और किस तरह से इंज्वाय किया. शाम के इस सफर को और सुहाना बनाने के लिए बोलो जिंदगी फाउंडेशन की तबस्सुम अली एवं प्रीतम कुमार ने बच्चों को दो ग्रुप में बांटकर अंत्याक्षरी की महफ़िल सजा दी. पटना पहुँचते हुए देर शाम हो चुकी थी लेकिन इन बच्चों के चेहरे पर थकान का ज़रा सा भी एहसास नहीं हो रहा था सिवाए उल्लास और आनंद के.
     "आओ गाँव चलें" कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ. बी. प्रियम, अनुजा श्रीवास्तव, पंकज कुमार, डॉ. दिवाकर तेजस्वी, राकेश सिंह 'सोनू', तबस्सुम अली, प्रीतम कुमार, नीरज कुमार, दीपक कुमार एवं सुबी फौजिया का विशेष योगदान रहा.

Friday 15 November 2019

बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक : फ्लूट आर्टिस्ट बीएमपी जवान विष्णु थापा की फैमली, अनीसाबाद , पटना



शुक्रवार,15 नवंबर को 'बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक' के तहत बोलो ज़िन्दगी की टीम (राकेश सिंह 'सोनू', प्रीतम कुमार एवं तबस्सुम अली) पहुंची पटना के अनीसाबाद इलाके में फ्लूट आर्टिस्ट विष्णु थापा के घर. फैमली ऑफ़ द वीक में हमारे स्पेशल गेस्ट के रूप में एक्टर एवं डांस टीचर विकास मेहरा भी शामिल हुयें. इस कार्यक्रम को स्पॉन्सर्ड किया है बोलो जिंदगी फाउंडेशन ने जिसकी तरफ से हमारे स्पेशल गेस्ट के हाथों विष्णु थापा की फैमली को एक आकर्षक गिफ्ट भेंट किया गया.

फैमली परिचय- विष्णु थापा बिहार पुलिस के अंतर्गत आर्मर के रूप में बी.एम.पी.1 गोरखा बटालियन में तैनात हैं जिनका काम है हथियारों की जाँच-परख करना. ये अगस्त 2002 में बहाल हुए थें. सिलीगुड़ी से बिलॉन्ग करते हैं. इनका एक घर नेपाल के जनकपुर में भी है. चूँकि इनका परिवार बिहार में है तो वहां बहुत कम आना-जाना होता है. इनके पिताजी का स्वर्गवास हुए तीन साल हो गए हैं. इनकी माँ दीदी के पास जनकपुर में रहती हैं. विष्णु जी दो भाई दो बहन हैं. बहनों की शादी हो चुकी है. इनके भइया कविराज आर्मी में हैं, दानापुर में पोस्टेड हैं. विष्णु जी ने बहुत कम उम्र में ही लव मैरेज कर ली थी. इनका ससुराल पटना,बिहार में ही है. इनकी पत्नी बसंती देवी का जन्म एवं परवरिश यहीं पटना में हुई है. इसलिए वो इनसे ज्यादा अच्छी भोजपुरी बोल लेती हैं. विष्णु जी का बड़ा बेटा तिलक कुमार थापा संत कैरेंस में 12 वीं का स्टूडेंट है तो छोटा बेटा रोहित थापा एस.राजा स्कूल में 8 वीं क्लास में है.

https://www.youtube.com/watch?v=G6NN91EV3PE&t=8s

संगीत से जुड़ाव - म्यूजिक में बचपन से शौक था. 15 साल से बांसुरी वादन कर रहे हैं. इनके गुरु जी हैं बजेन्द्र सिंह जी जो पंजाब से बिलॉन्ग करते हैं और बहुत बड़े फ्लूट आर्टिस्ट हैं. ये ऑनलाइन उनको ही फॉलो करते हुए सीखते हैं. शुरुआत में बीएमपी के ही सुखबीर भइया से बेसिक सीखा था. पहले जब बचपन में बहुत सारा सॉन्ग सुनते थें तो उसमे बांसुरी की धुन बहुत ज्यादा पसंद आती थी. कृष्ण भगवान के भजन भी बहुत सुना करते थें तो फिर बांसुरी वादन के प्रति आकर्षित हुए. फिर पहले खुद से ही सीखने लगें. विष्णु जी बताते हैं- बांसुरी वादन को शास्त्रीय संगीत में ही लिया जाता है. जब आप राग वगैरह सारी चीजें सीख लेते हैं तो उन्ही रागों के आधार पर आप खुद भी स्वरों की रचना कर सकते हैं.

स्ट्रगल- मैट्रिक तक की पढ़ाई सिलीगुड़ी में हुई फिर पुलिस सेवा में आ गएँ और पहली पोस्टिंग बिहार में हुई. विष्णु जी के परिवार में इससे पहले किसी का सरकारी जॉब नहीं था. इनका पहले प्रयास में ही जॉब हो गया. पुलिस का जॉब ही क्यों...? यह पूछने पर थापा जी बताते हैं, "क्यूंकि मेरा शौक था कि देश के लिए कुछ करें.चाहे संगीत के माध्यम से या सरकारी सेवा के माध्यम से देश का नाम रौशन करूँ." ये मीडिल क्लास फैमली से हैं तो जानते हैं कि ऐसे में जॉब कितना मायने रखता है. परिस्थितियां इनको सरकारी सेवा में ले आयी. पुलिस जॉब और म्यूजिक दोनों अलग-अलग क्षेत्र है फिर भी विष्णु जी बैलेंस कर लेते हैं.

अब तक कला का प्रदर्शन - बिहार के बहुत से सांस्कृतिक कार्यक्रमों जैसे सोनपुर महोत्सव, राजगीर महोत्सव, पाटलिपुत्र महोत्सव, और पुलिस विभाग के जितने भी कार्यक्रम हैं उसमे अवसर मिलता रहा है. दूरदर्शन अदि के कई कार्यक्रमों में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं.

समझते हैं संयुक्त परिवार का महत्व - कभी कभी फेस्टिवल और बच्चों की स्कूली छुटियों के समय जब विष्णु जी की पूरी फॅमिली पटना इनके घर पर इकट्ठी होती है. बहन और बहनोई भी यहाँ आ जाते हैं तो सभी को एक भरे-पूरे परिवार में इंज्वाय करते हुए बहुत अच्छा लगता है. फिर थापा जी ने बोलो जिंदगी टीम से अपने बीवी-बच्चों और सिलीगुड़ी से आयी हुई अपनी बहन, जीजा और ससुर जी से मिलवाया. अपने भइया से भी मिलवाया. जब बोलो जिंदगी टीम की तबस्सुम ने पूछा- "आप अरसे से बिहार में हैं, ससुराल भी यहीं है तो अब आप खुद को नेपाली कहलाना पसंद करते हैं या बिहारी..?" थापा जी का सॉलिड जवाब आया - "मैं खुद को हिंदुस्तानी कहलाना पसंद करता हूँ क्यूंकि हिंदुस्तानी देश के किसी कोने में भी रह सकते हैं."


जब मजाक में ही तबस्सुम ने पूछा- "संगीतकार लोग तो बहुत सॉफ्ट दिल के होते हैं, ऐसे में जब आपको क्रिमनल मिल जाते होंगे तो आप कहाँ उन्हें पकड़ते होंगे ? आप तो उसको बांसुरी सुनाकर छोड़ देते होंगे." सभी हंस पड़ें. थापा जी हंसकर बोले - "ऐसा नहीं है, हमलोग शपथ लिए होते हैं.... भले ही हम गाने-बजाने का शौक रखते हैं लेकिन जब देश सेवा की बात आती है तो हम पीछे नहीं हटते." 


लाइव परफॉर्मेंस -  फिर बोलो जिंदगी टीम के सामने जब थापा जी ने बांसुरी वादन शुरू किया तो बोलो जिंदगी के निदेशक राकेश सिंह सोनू ने उनसे एक विशेष फरमाईस की कि " पहले आप मेरी पसंद का एक सॉन्ग हाफ गर्लफ्रेंड फिल्म से 'मैं फिर भी तुमो चाहूंगा....' की धुन बजाकर सुनाएँ क्यूंकि आपके माध्यम से यह सॉन्ग मैं अपनी प्रेमिका को डेडिकेट करना चाहता हूँ."  और फिर.... सच में उनकी बांसुरी की धुन सुनकर सभी भावुक हो गएँ. कुछ और अपनी पसंदीदा गीतों पर थापा जी ने बांसुरी की धुन सुनाई जो एकदम रूह को छूकर निकल रही थी.


स्पेशल गेस्ट की टिप्पणी - इस कार्यक्रम में बतौर स्पेशल गेस्ट के रूप में उपस्थित एक्टर एवं डांस टीचर विकास मेहरा जी ने बोलो ज़िंदगी टीम के साथ विष्णु जी का टैलेंट देखकर उनकी खुलकर तारीफ करते हुए कहा कि "पारिवारिक जिम्मेदारियों तले दबे होने के बावजूद भी ये दोनों क्षेत्रों के साथ न्याय कर रहे हैं. अपनी कला को कभी मरने नहीं दिए ये बहुत बड़ी बात है. और आज भी संयुक्त परिवार से जुड़े हुए हैं और उसका महत्त्व समझते हैं."

(इस पूरे कार्यक्रम को बोलोजिन्दगी डॉट कॉम पर भी देखा जा सकता है.)























Saturday 9 November 2019

पटना के उमंग बाल विकास केंद्र दीघा के दिव्यांग बच्चों के बीच कराई गयी पेंटिंग एवं निबंध प्रतियोगिता



दिनांक 9.11.19, उमंग बाल विकास केंद्र दीघा में पटना मारवाड़ी महिला समिति रोटरी चाणक्य और राधा रानी ग्रुप द्वारा दिब्यांग बच्चों के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया।


रोटरी क्लब के अध्य्क्ष डॉ श्रवण कुमार ने बताया कि उमंग आवासीय हैंडीकैप्ड सेन्टर में करीब 150 बच्चे रहते हैं जिनके मनोबल को बढ़ाने और हौसला आफजाई करने के लिए कार्यक्रम किया गया। इसमे ज्यादातर बच्चे मूक और बघिर हैं।


पटना मारवाड़ी महिला समिति अध्यक्ष नीना मोटानी ने बताया कि दिव्यांग बच्चों के लिए पेंटिंग प्रतियोगिता और निबंध प्रतियोगिता का आयोजन अलग अलग ग्रुप के बच्चों के अनुसार किया गया।निबंध का विषय था-मेरे सपनों का भारत और मेरी भूमिका ।
पेंटिंग प्रतियोगिता का विषय था - पर्यावरण और तुलसी।                
उमंग के बच्चों को तुलसी की उपयोगिता के बारे में जानकारी दी गयी।
साथ ही तुलसी के शरीर पर प्रभाव , तुलसी हर घर में होना क्यों अनिवार्य है बच्चों को बताया गया। बच्चों को तुलसी खाने के लिए प्रेरित किया गया और आध्यात्मिक, आयुर्वेदिक, पर्यावरण  के दृष्टिकोण से उन्हें तुलसी के प्रति जागरूक किया गया।
रोटेरियन संदीप बंसल ने बताया कि हर
ग्रुप से 5 बच्चों को पुरस्कार दिया गया। 5 ग्रुप से कुल 25 बच्चों को पुरस्कृत
 किया गया।

श्रीमती केसरी अग्रवाल ने बताया कि बच्चों के बीच कम्बल, फल, मिठाई और बिस्कुट टॉफी का वितरण किया गया।

कार्यक्रम में मुख्य रूप से उपस्थित थे - अनुराधा सर्राफ, अभिषेक अपूर्व, आलोक स्वरूप, रुचि बंसल, अंजनी बंका इत्यादि।


कार्यक्रम को सफल बनाने में मुख्य रूप से सहयोग दिया - कृष्णा अग्रवाल, लीलावती अग्रवाल, उषा टिबरेवाल, रेखा अग्रवाल, कांता अग्रवाल, उर्मिला संथालीया, परमात्मा भगत ने ।

वेलकम बैक तबस्सुम अली



7 नवंबर, आप 80 दिन में 46000 किलोमीटर की दूरी तय कर विश्व कीर्तिमान बनाने देश भ्रमण पर अकेली बाइक से निकल गयी थीं. हर दिन आपके फेसबुक लाइव से हमे यह एहसास होता रहा कि आपके हौसले कितने बुलन्द हैं. 15 दिनों में 5000 किलोमीटर की दुर्गम यात्रा तय करते हुए 5 स्टेट और एक केंद्र शासित प्रदेश आप कवर कर चुकी थीं, कि पंजाब के लुधियाना हाइवे से गुजरते हुए अचानक आयी एक गाय को बचाने के क्रम में आप दुर्घटनाग्रस्त हो गईं. राह से गुजरते हुए मसीहा बनकर आये कुछ अनजान लोगों ने आपको हॉस्पिटल में एडमिट कराया. आपके हाथ की सर्जरी हुई, 10-11 टांके लगें. डॉक्टर ने आपको तीन महीने तक रेस्ट करने और बाइक ना चलाने की हिदायत दी. आज आप वापस पटना अपने होमटाउन लौट आईं. चूंकि आप बोलो ज़िन्दगी टीम की ख़ास सदस्या और एक नेकदिल दोस्त भी हैं इस वज़ह से आपके पुनः पटना आने पर हम (राकेश सिंह सोनू व प्रीतम कुमार) आज आपसे मिलने से खुद को रोक ना सकें.
       इस हालत में भी आपसे मिलते हुए हमने आपकी वही चिरपरिचित आत्मविश्वास भरी मुस्कान को देखा यह बयां करते हुए कि, "मुझे क्या हुआ है ? अरे नहीं, मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ" इस बीच हमने सुना कि आपके घरवाले कह रहे हैं कि "समझो दूसरा जन्म है वरना कुछ भी हो सकता था !" यह भी पता चला कि आपके रिश्तेदार कह रहे हैं कि "अब फिरसे उसे यूँ जान जोखिम में डालने जाने नहीं देंगे." लेकिन आप मुस्कुराते हुए बस यही कह रही थीं कि "जब पूरी तरह ठीक हो जाऊंगी तो यह यात्रा फिरसे शुरू करूंगी, चिंता की बात नहीं है क्योंकि मेरे साथ ख़ुदा है." और इतने दिनों आपके साथ रहते हुए यह बोलो ज़िन्दगी को भी बहुत अच्छी तरह से पता है कि जिस तबस्सुम अली को हम जानते हैं वो थककर बैठनेवाली नहीं है, इतनी जल्दी हार माननेवालों में से तो कतई नहीं है. 
              हमे इससे फर्क नहीं पड़ता कि आपके इस मिशन के यूँ अधूरा रह जाने की वज़ह से आपके कुछ शुभचिंतक आपके पीठ पीछे क्या कुछ कह रहे होंगे.... हमे इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि अभी फ़िलहाल आप विश्व कीर्तिमान नहीं बना पायीं.... क्योंकि जिस दिन बोलो ज़िन्दगी से आपने यह साहसिक कारनामा अंजाम देने की बात शेयर की थी हमे आपपर बहुत गर्व महसूस हुआ था. और जिस दिन पटना से यह मुहिम आपने शुरू की थी हमारी नज़र में तो आप उसी दिन विश्व कीर्तिमान बना चुकी थीं.
           

इन 15 दिनों में 5-6 स्टेट कवर करके ही आपने क्या गज़ब कर दिखाया है क्या आपको एहसास है....? आपके इस साहसिक कदम के बाद आपके पदचिन्हों पर चलते हुए कितनी तबस्सुम अली जन्म लेंगी यह आपको भी एहसास नहीं होगा.... आपके इस जुझारूपन को देखकर देश की कितनी ही सिंगल वूमेन का कॉन्फिडेंस बढ़ेगा यह आपको भी एहसास नहीं होगा.... कई रूढ़ियों, पाबंदियों तले अपने ख्वाब कुचल रहीं आपकी बिरादरी की ही ना जाने कितनी ही मासूम लड़कियों की आप रॉल मॉडल बन चुकी होंगी यह आपको भी एहसास नहीं होगा....
            हां, आपके हाथ में आई इस गम्भीर चोट की वज़ह से फ़िलहाल घरवाले आपको घर में आराम करने की सलाह देंगे लेकिन हम जानते हैं आपके मन की बात कि, आप ज्यादा वक्त घर में बैठी रहीं तो फिर बीमार पड़ जाएंगी, इसलिए आप किसी बहाने घर से बाहर निकलेंगी तो ज़रूर. ख़ैर, अब जबकि आप फिरसे हमारे बीच मौजूद हैं तो बोलो ज़िन्दगी दुआ करता है कि आप जल्द से जल्द स्वस्थ हों और पुनः अपने ख्वाबों को उसी ज़ज्बे के साथ मुकम्मल करें जिसके लिए वाकई तबस्सुम अली जानी जाती है.

बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक : रंगकर्मी एवं नर्तक कुमार उदय सिंह की फैमिली, पूर्वी लोहानीपुर, पटना






दीपावली के पहले 'बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक' के तहत बोलो ज़िन्दगी की टीम (राकेश सिंह 'सोनू' एवं प्रीतम कुमार के साथ) पहुंची पटना के पूर्वी लोहानीपुर इलाके में 'द लिपस्टिक ब्वाय' फेम रंगकर्मी एवं नर्तक कुमार उदय सिंह के घर. फैमली ऑफ़ द वीक में हमारे स्पेशल गेस्ट के रूप में वरिष्ठ रंगकर्मी एवं उद्घोषिका सोमा चक्रवर्ती भी शामिल हुईं. इस कार्यक्रम को स्पॉन्सर्ड किया है बोलो जिंदगी फाउंडेशन ने जिसकी तरफ से हमारे स्पेशल गेस्ट के हाथों कुमार उदय की फैमली को एक आकर्षक गिफ्ट भेंट किया गया.

फैमली परिचय- नालंदा जिले से बिलॉन्ग करनेवाले कुमार उदय सिंह रंगकर्मी एवं नर्तक हैं और विशेषकर 'लौंडा नाच' के लिए ख्याति बटोर चुके हैं. अब उनकी जीवनी पर एक फिल्म भी बन रही है 'द लिपस्टिक ब्वाय'. उदय सिंह के पिता जी का नाम है श्री नन्दलाल यादव और माता जी का नाम है सुंदरी देवी. जब एक-डेढ़ साल के थें तभी माँ का देहांत हो गया था. ये दो भाई हैं. अभी पटना स्थित फैमली में इनकी पत्नी सोनी कुमारी, भाभी मंजू देवी, भतीजा सोनू कुमार, सौरभ कुमार और एक चार साल का बेटा आलेख राज है.

उनके जीवन पर कैसे बनी फिल्म 'द लिपस्टिक ब्वाय' ? - एकबार कुमार उदय एनएसडी गए थें एक नाटक लेकर, वहां एक डायरेक्टर थें मुंबई के अभिनव ठाकुर जी, वो कुछ काम से वहां आये थें. इनसे मिलें तो पूछें- "आप लौंडा नाच कबसे करते हैं ?" कुमार उदय ने बताया कि "बचपन से ही.... तब घर में भी बहुत मार पड़ता था, समाज में भी बहुत कुछ सुनने को मिला. लौंडा, मउगा और न जाने क्या क्या..? लोग अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थें. फिर भी हम लगातार करते रहें." इसपर वे बोलें कि "25-30 साल की जर्नी में जो इतना कुछ सहे हैं तो आपके जीवन पर हम बायोपिक बनाएंगे." फिर वे सहमति देने के बाद कुमार उदय की पूरी कहानी रिकॉर्ड करके 2 साल पहले ले गए थें. और अब वो आकर बोलें कि "हमको एक प्रोड्यूसर मिले हैं अमिताभ बच्चन जी के मेकअप मैन दीपक सावंत जी, वे आपकी जीवनी पर फिल्म बनाना चाहते हैं और उनको आपकी स्क्रिप्ट पसंद आयी है." फिर मुंबई से लोग आएं और फिल्म का शूट हुआ. कुमार उदय ने बोलो ज़िन्दगी को यह जानकारी दी कि वो स्क्रिप्ट चार फिल्म फेस्टिवल में सलेक्ट हो चुकी है. फिल्म के नाम के बारे में जब पूछा गया कि 'द लिपस्टिक ब्वॉय' ही नाम आखिर क्यों ? कुमार उदय ने बताया कि "डायरेक्टर साहब बोलें, तुम्हारे अनुसार जब एक लड़के का लड़की बनकर डांस करना मुश्किल काम है तो लिपस्टिक लगाना उसके लिए कितना मुश्किल होगा. इसलिए इस फिल्म का नाम पड़ा 'द लिपस्टिक ब्वॉय'." इस फिल्म में उदय भी थोड़ा बहुत एक्टिंग किये हैं लेकिन इनका रोल मनोज पटेल जी ने किया है. फिल्म 2020 में नवंबर तक बनकर रिलीज हो जाएगी.


कला जगत से जुड़ाव - उदय गांव में बचपन से नाच वगैरह होते देखते थें तो खुद भी करते थें. कहीं भी गाना सुनने को मिल जाता तो नाचना शुरू हो जाता. पिताजी को अच्छा नहीं लगता था, मारने-पीटने लगते थें. बोलते - "घर में कोई ऐसा नहीं है, तुम नचनिया-बजनिया बनोगे, कहाँ से आ गए हो तुम हमारे खानदान में..!" फिर उदय के बड़े भाई को बोलें कि "इसको पटना ले जाओ साथ में रखना और पढ़ाना. यहाँ नहीं पढ़ पायेगा, नाच-गाना में ही रह जायेगा." फिर उदय के भइया पटना लेकर उनका एडमिशन कराएं 7 वीं क्लास में. लेकिन यहाँ भी पढाई से ज्यादा कल्चरल प्रोग्राम में मन लगता. हमेशा इंतज़ार में रहतें कि कब 15 अगस्त, 26 जनवरी, सरस्वती पूजा आये. इनमे आगे रहते थें, टीचर को भी अच्छा लगता था, प्रोत्साहन मिलता था. लेकिन घर से सपोर्ट नहीं मिलने के कारण सीख नहीं पाएं कहीं, बस खुद से ही करते जाते थें. एक बार अख़बार में निकला कि कुमार उदय ने बहुत अच्छा डांस किया तो यह बात उनके भइया को पता चल गयी और वो पापा को बोल दिए. उस वक़्त 8-9 वीं में थें. तब फिर पापा आएं और गुस्से में बोलें कि "क्या है ये, फिर नाचने-गाने लगा तुम, कैसे निकल गया अख़बार में, ये अच्छा काम कर रहे हो कि ऐसा खबर छप रहा है...?" तब उदय बोले- "अच्छा काम ही तो है डांस करना तभी तो पेपर में निकला." लेकिन फिर पिटाई हुआ और उनके पापा बोलें "अब तुम्हें कहाँ भेजें...? गांव से तो पटना शहर में भेजें. तुम नहीं सुधरोगे." उदय ने कहा- "अच्छा ठीक है, अब से नहीं करेंगे." पापा चले गएँ. कुमार उदय ने इंटर में कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में एडमिशन लिए. वहां मगध यूनिवर्सिटी का 'तरंग' कार्यक्रम होता था. उसमे भाग लिए तो 2002 में डांस में गोल्ड मैडल जीतें और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा सम्मानित हुए. जब पापा सुनें कि यूनिवर्सिटी में पूरे कॉलेज में ये जीता है, अच्छा किया है तभी तो राष्ट्रपति से सम्मानित हुआ है. तब उनमे थोड़ा परिवर्तन देखने को मिला. वे बोलें- "ठीक है करो, लेकिन वो वाला डांस नहीं करना साड़ी पहनकर जो करते हो. सब हँसता है." लेकिन फिर भी उदय वो करते रहते थें छुप-छुपाकर. तब उन्होंने  सुन रखा था कि बिहार का लौंडा नाच पहला नाच है, ये भोजपुर जिले में ज्यादा लोकप्रिय है. और भोजपुरी के सेक्सपियर कहे जानेवाले भिखारी ठाकुर जी ने भी इस नाच को आगे बढ़ाया था. यही सोचकर कि जब वो कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं, उन्होंने जारी रखा और ये सब करते हुए बहुत सारे शो करने का मौका मिला. बिहार गौरव गान जो 18 -20 मिनट का गाना है उसमे बीच में लौंडा नाच भी है जिसे कुमार उदय करते हैं. इनकी प्लानिंग ये है कि इस लौंडा नाच को पूरी दुनिया में लोकप्रिय बनायें.


अचीवमेंट -  2006 में हुए युवा महोत्सव में कुमार उदय ने फर्स्ट किया था, मुख्यमंत्री भी प्रभावित हुए थें इनका खास नृत्य देखकर. बिहार गौरवगान का शो 2006 से अभी तक ये करते आ रहे हैं. 2008 में मॉरीशस गएँ जहाँ इनके ग्रुप का लौंडा नाच देखकर प्रधानमंत्री चकित रह गएँ. एक रोज भिखारी ठाकुर जी के नाती ने लेटर भेजा कि आपको भिखारी ठाकुर सम्मान मिलेगा. तभी से कुमार उदय ने ठान लिया कि इस नाच को, कला को आगे बढ़ाना है और जबतक सांसें रहेंगी तबतक वे इसको करते रहेंगे. उदय चाहते हैं कि इसमें भी युवा आगे आएं, इसको बढ़ाएं. ये खराब डांस नहीं है, बस इसको बिहार सरकार की तरफ से कोई सपोर्ट नहीं मिल रहा है. 2008 में इसी डांस में कुमार उदय भारत सरकार से स्कॉलरशिप लिए. इसी डांस में 2017 में फेलोशिप भी मिला. पहली बार होली के पहले ये लालकिला में नृत्य प्रस्तुत किए. संस्था 'प्रांगण' की तरफ से बहुत तरह के नाटक, नृत्य सब करते रहें. लगभग 60 से ऊपर नाटक कर चुके हैं. डांस की वजह से ही रंगमंच से जुड़ाव हो गया. लौंडा डांस के बिना 'विदेसिया' अधूरा है. इसी तरह महिला कैरेक्टर में ये लोकप्रिय हुए. एक सीरियल 'दुनिया नाच पार्टी' जो जी- पुरवैया पर आता था जिसमे 100  एपिसोड से जायदा काम किए. सीरियल में ये किन्नर बनें थें और लौंडा नाच सबको बहुत पसंद आया था.

नाराज पत्नी को कई बार मनाना पड़ा - 2011 में पापा ने जानबूझकर इनकी शादी कर दी यह सोचकर कि शायद अब सुधर जायेगा नहीं तो लगता है ये नाच- गाना करता ही रह जायेगा, कुछ जीवन में करेगा नहीं. फिर उनके दबाव से शादी करनी पड़ी. लेकिन फिर भी लौंडा नाच नहीं छोड़ें. ससुराल गएँ तो वे लोग भी बोलें कि "छोड़ दीजिये महाराज, अलग कोई नौकरी कीजिये." बहुत मुश्किल से कुमार उदय उनको समझाएं. जब पत्नी आयीं शादी बाद तो बहुत लड़ाई करतीं कि "क्या आप ये सब करते हैं ? हम छोड़कर भाग जायेंगे, ये सब बंद करिये." कई बार भागा-भागी भी हो गया. तब कुमार उदय ने पत्नी को समझाते हुए कहा - "मेरी पहली पत्नी कला है, दूसरी तुम हो. पहले कला को मान देंगे फिर तुमको. जब तुम कला को एक्सेप्ट करोगी तब हमको भी कर पाओगी."


स्पेशल गेस्ट की टिप्पणी - इस कार्यक्रम में बतौर स्पेशल गेस्ट के रूप में उपस्थित वरिष्ठ रंगकर्मी सोमा चक्रवर्ती जी ने बोलो ज़िंदगी टीम के साथ कुमार उदय का नृत्य और अभिनय देखा और जितना उनके बारे में जानती हैं उस आधार पर अपना मंतव्य दिया कि "लौंडा नृत्य जो आज के समय में विलुप्त होने के कगार पर है, ऐसी संस्कृति, ऐसी लोककला को कुमार उदय आज भी अगर जीवित रखे हुए हैं तो यह हटकर और बहुत सराहनीय काम हुआ. इसके लिए बहुत हिम्मत और जिगर की ज़रूरत पड़ती है. और मैंने उदय के संघर्ष को करीब से देखा है तो मुझे पता है कि इन्होने क्या कुछ झेला है. तभी तो आज इनकी जीवनी पर बॉलीवुड में एक फिल्म भी बन रही है जो कि हमसब के लिए बहुत ख़ुशी कि बात है."

(इस पूरे कार्यक्रम को बोलोजिन्दगी डॉट कॉम पर भी देखा जा सकता है.)



















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