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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Saturday, 1 July 2017

घरवाले मेडिकल डॉक्टर बनाना चाहते थें मगर मैं बन गया लिटरेचर का डॉक्टर : डॉ. किशोर सिन्हा, सहायक निदेशक, आकाशवाणी,पटना

वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मेरा जन्म पटनासिटी के दीवान मोहल्ले में हुआ था. स्कूल की प्रारम्भिक शिक्षा वहां के नगर निगम स्कूल से हुई जो घर के बिलकुल पास था. उसके बाद की शिक्षा पटना सिटी के प्राचीनतम एम.ए.ए. हाई सेकेंडरी स्कूल से हुई. कहने को वह मुस्लिम स्कूल था लेकिन उसमे सभी धर्मों के बच्चे पढ़ते थे और सभी विषयों की पढाई होती थी. उर्दू की पढाई मैंने 8 वीं तक की और इसके आलावा वहां छपाई का काम, पेंटिंग, बागवानी, कुछ इस तरह के विषय भी पढ़ाए जाते थें जिसका फायदा मुझे आगे चलकर मिला भी. घर में पांच भाई-बहनों में मैं सबसे छोटा हूँ. वहां से जब मैंने मैट्रिक किया उस समय तक मेरे सभी भाई नौकरीपेशा हो चुके थें. मेरे पिताजी सेमी गवर्मेन्ट सर्विस में थें इसलिए उन्हें रिटायरमेंट के बाद पेंशन नहीं मिल रहा था. पटनासिटी का जो मोहल्ला था वो नवाबों का एक रियासती इलाका था. नवाबों के यहाँ बहुत सारे कोर्ट-कचहरी के काम हुआ करते थें. उस समय कोर्ट के काम प्रायः कैथी लिपि में होते थें. पिताजी को कैथी लिपि की बहुत अच्छी समझ थी और कोर्ट-कचहरी का काम भी जानते थें. तो उन्हें बराबर न्योता उन नवाबों के यहाँ से आ जाता था. उस काम से उन्हें थोड़ी बहुत राशि मिलती थी. कितनी मिलती थी ये मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की और ना उन्होंने कभी बताया. लेकिन ये जरूर मैं देखता था कि खाने-पीने, हमलोगों के रहन-सहन में कभी कोई कमी पिताजी ने नहीं होने दी. उस वक़्त आज की तरह पॉकेटखर्च का कोई रिवाज नहीं था. हाँ ये ज़रूर था कि जब मैट्रिक करने के बाद मैंने बी.एन.कॉलेज में एडमिशन लिया तो आने-जाने के किराये के लिए कुछ पैसे ज़रूर मिला करते थें. वो प्रायः एक-दो रूपए की शक्ल में ही होता था और उस समय एक-दो रूपए का भी बहुत महत्व था. कई बार तो वो भी नहीं मिला करता तब ऑटो से आने के पैसे नहीं होते थें इसलिए मैं स्टूडेंट बस का इंतज़ार किया करता था. पीरियड खत्म होने के एक घंटे बाद बस आती थी तो उस समय तक मुझे इंतज़ार करना पड़ता था कि उससे जाऊँ तो पैसे नहीं लगेंगे. स्कूल में मैं विज्ञान का विद्यार्थी था लेकिन मेरा मस्तिष्क शायद विज्ञान की तरफ तो था लेकिन पढ़ने में मेरी बहुत रूचि नहीं थी. मेरे घरवाले मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थें मगर मेरी रूचि साहित्य एवं कला में ज्यादा थी. मैंने 8 वीं क्लास में ही एक छोटा सा उपन्यास लिखा था जो बहुत ही फ़िल्मी था. आगे चलकर जब मुझे लगा कि ये बहुत बेहूदा किस्म का उपन्यास है और तब मुझे ही खुद पसंद नहीं आया तो मैंने वो उपन्यास फाड़ डाला. लेकिन लिखने का शौक था. शुरुआत में कुछ कवितायेँ भी लिखी थीं. पिताजी चाहते थें कि मैं कॉलेज में साइंस लूँ लेकिन दुर्भाग्यवश मैट्रिक का रिजल्ट मेरा बहुत अच्छा नहीं गया. उस रिजल्ट से मैं साइंस ग्रेजुएट नहीं हो सकता था और चूँकि मेरी रूचि कला-साहित्य में थी तो मैंने पिताजी से कहा कि 'मैं आर्ट्स वो भी हिंदी लेकर पढूंगा, मुझे हिंदी में ही कुछ आगे करना है.' और मैं किसी दूसरी यूनिवर्सिटी में नहीं बल्कि पटना यूनिवर्सिटी में जाकर आर्ट्स में फार्म भर आया. मैंने इंटर किया, ग्रेजुएशन किया फिर मैंने तय किया कि मुझे पी.जी. भी करनी है. मुझे घरवाले डाक्टर बनाना चाहते थें लेकिन मैं डॉक्टर कौन सा बनूँगा ये घरवालों ने नहीं कहा था. शायद उन्होंने मुझे मेडिकल का डॉक्टर बनाने का सोच रखा होगा. मैंने भी निश्चय किया कि घरवालों की चाहत ज़रूर पूरी होगी , मैं डॉक्टर ज़रूर बनूँगा लेकिन लिटरेचर का डॉक्टर. खेल-कूद में भी मेरी रूचि थी. कॉलेज से लौटने के बाद मैं खेल के मैदान में क्रिकेट और वॉलीबॉल खेलता था. और रात का समय मेरी पढाई का होता था. ग्रेजुएशन में मेहनत करने के बावजूद मुझे फर्स्टक्लास हासिल नहीं हुआ. थोड़ी निराशा हुई और मेरे असली संघर्ष का दौर तभी से शुरू हो गया था. पिताजी ने एक दिन कहा - 'अब तुम्हारा ग्रेजुएशन हो गया है, जितना मैं तुम्हारे लिए कर सकता था मैंने किया, अब मेरे वश का नहीं है इसलिए अच्छा होगा तुम आगे की पढाई करने की बजाए लोन लेकर कोई छोटा सा बिजनेस करो.' लेकिन मेरी रूचि कभी बिजनेस में रही नहीं तो मैंने उन्हें साफ़ इंकार कर दिया. उनकी पीड़ा भी मुझे समझ में आती थी कि एक रिटायर्ड आदमी जिसे पेंशन नहीं मिलती है और जिसे आराम की ज़रूरत है वो घर परिवार के लिए, खासकर मेरे लिए अभी भी संघर्षरत है. मुझे अफ़सोस भी होता था, फिर मैंने सोचा कि मुझे कुछ करना चाहिए. मैंने बी.ए. की परीक्षा दे दी थी और रिजल्ट आने में अभी वक़्त था और रिजल्ट आने के बाद मुझे पी.जी. में एडमिशन लेना था. इसलिए समय का सदुपयोग करते हुए मैंने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू किया जहाँ 150  रूपए मिलते थें. उसी दौरान मुझे दोस्त के माध्यम से आकाशवाणी के बारे में पता चला. ये बात 1975 -76  की है जब रेडिओ पर युववाणी कार्यक्रम आया करता था. उस समय रेडिओ का ही जमाना था और घर-घर में रेडिओ सुना जाता था. मैं भी रेडिओ का जागरूक श्रोता था. तब रेडियो से प्रेम तो बहुत था लेकिन आकाशवाणी में कैसे भाग लिया जाये ये मुझे नहीं पता था. तब मेरा एक दोस्त गौरी शंकर मेहता जो मेरे साथ कॉलेज में था वही मुझे आकाशवाणी ले गया क्यूंकि वो जनता था कि मुझे लिखने -पढ़ने का शौक है. तब मैंने पहली बार दहेज़ के विषय पर वार्ता युववाणी में दी थी. जिसके लिए मुझे 15 रूपए का चेक मिला. फिर वहाँ से रेडिओ में वो सिलसिला शुरू हो गया. फिर तीन -चार महीने के अंतराल पर मैं कुछ कुछ कार्यक्रम देने लगा. इसके अलावा मैंने ट्यूशन करने शुरू किये क्यूंकि मुझे पैसों की ज़रूरत थी. तब मेरे भीतर साहित्य पढ़ने का बहुत शौक था और मैं कई पत्रिकाएं भी खरीदा करता था. धर्मयुग, सारिका और आजकल ये तीन पत्रिकाएं तो मैं नियमित खरीदता था. उसी दौरान मैंने अख़बारों और पत्रिकाओं में भी लिखना शुरू किया. कुछ पैसे वहां से भी आने लगें. उन पैसों को मैं बहुत बचाकर खर्च करता था. यह सब करते हुए मैंने अपनी पढाई जारी रखी.
 
उसी दरम्यान 1984  से 1988  तक मैंने रेडिओ युववाणी में एनाउंसर के तौर पर काम किया. मैं तब पटनासिटी से साइकल से रेडिओ स्टेशन आता था. तब वहां एनाउंसरों का हमारा एक बड़ा अच्छा ग्रुप बन गया था. उसी बीच घर में हम चार भाइयों के बीच में बंटवारा हो गया. बाकि भाइयों के हिस्से में तो बनी-बनाई प्रॉपर्टी आई और मेरे हिस्से में बूढ़े माँ-बाप आये. मुझे लगा जब माँ-बाप की जिम्मेदारी आ गयी है तो कुछ और भी काम करना चाहिए. फिर मैंने एक प्राइवेट फर्म ज्वाइन किया जो आज के मौर्या होटल की जगह पर हुआ करता था. उस समय मैंने अपने नेचर और पढाई के विरुद्ध एकाउंटेंट का जॉब किया. क्यूंकि मैथेमैटिक्स थोड़ी बहुत अच्छी थी इसलिए काम सीखने में ज्यादा समय नहीं लगा. तब सारा समय मेरा जॉब में निकल जाता था और शाम में घर आते आते इतना थक जाता था कि कुछ और करने की इच्छा नहीं होती थी. इसी बीच पटना- गया रोड में संपतचक के पास एक नया कॉलेज खुला था जिसका एडवर्टाइजमेंट मैंने देखा था. चूँकि मुझे लेक्चरर ही बनना था इसलिए मैं वहां इंटरव्यू देने पहुंचा. वहां ऑफर सुना तो विचित्र सी बात लगी. उन्होंने कहा कि आके पढ़ाइये लेकिन अभी तो पैसे मिलेंगे नहीं. जब रजिस्ट्रेशन का समय आएगा तब देखा जायेगा. उधर जो प्राइवेट जॉब मैं कर रहा था वो मुझे पसंद नहीं आ रहा था इसलिए छोड़ना चाहता था. फिर दो-चार लोगों से सलाह-मशविरा करके मैं कॉलेज जाने को तैयार हुआ तब कॉलेज मैनेजमेंट बहुत मुश्किल से इस बात पर राजी हुआ कि मुझे आने-जाने का भाड़ा दे देंगे, मैं आके यहाँ पढ़ाऊँ. मैंने सोचा चलो अपने पास से कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा और यहाँ पढ़ाने से कुछ एक्सपीरिएंस मिलेगा. 5 -6  महीना वहां पढ़ाने के बाद झाड़खंड, पतरातू से एक परिचित जो वहां के कॉलेज में पढ़ाते थे कि तरफ से ऑफर आया. मैं इस आश्वासन पर चला गया कि मेरा वहां परमानेंट हो जायेगा. वहां 450 रूपए मिलने लगें और रहने के लिए क्वार्टर मुफ्त में मिला था. लगभग 6 महीने मैंने वहां पढ़ाया और एक दिन मुझे पता चला कि जिस पोस्ट के लिए मैं रुका हुआ था वो वहां पढ़ा रही किसी और महिला को देने की चर्चा चल रही है जो फैकल्टी के रिलेशन में आती थीं. मुझे एहसास हुआ कि तब तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा. ऊपर से मेरी पी.एच.डी. भी नहीं हो पा रही है. फिर मैं बोरिया-बिस्तर समेटकर वहां से इस्तीफा देकर वापस पटना लौट आया. फिर मैं सबकुछ भूलकर पी.एच.डी. में लग गया. लगभग एक साल बर्बाद हो चुका था लेकिन फिर एक साल बाद मैंने अपनी पी.एच.डी पूरी की. 1985 में मेरे पी.एच.डी. करते ही चारों तरफ से मुझे सम्मान और बधाइयाँ मिलने लगीं. लेकिन जिसकी सख्त ज़रूरत थी यानि नौकरी की वो नहीं मिल रही थी. कई जगह ट्राई किया लेकिन मैं सफल नहीं हो सका. मेरे पी.एच.डी. करने तक सारा वातावरण बदल चुका था. कॉलेजों में वैकेंसी बंद हो गयी. छोटे -छोटे प्राइवेट कॉलेज कुकुरमुत्ते की तरह उग आये और उसमे डोनेशन लेकर लोगों को अपॉइंट किया जाने लगा. तब भी जॉब परमानेंट होगा कि नहीं इसकी गारंटी नहीं थी. लगातार असफलता देखकर मन बहुत दुखी था लेकिन रेडिओ और पत्र-पत्रिकाओं में लेखन ने तब मुझे बहुत ढाढ़स और हिम्मत दिया. तब इलाहबाद की रहनेवाली कुसुम जोशी, युववाणी की प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हुआ करती थीं. उन्होंने एक दिन पेपर कटिंग लेकर दिखाया कि 'यू.पी.एस.सी. से प्रोग्राम एक्जक्यूटिव का निकला हुआ है तो तुम भर दो.' लेकिन मैं हताश हो चुका था इसलिए अब कहीं ट्राई करना ही नहीं चाहता था. लेकिन वो लगातार मुझे प्रेरित करती रहीं और उनके कहने पर मैंने फॉर्म भर दिया. तैयारी शुरू की और इंटरव्यू दे आया. मुझे लगा मैंने ठीक से बोर्ड को फेस नहीं किया लेकिन जब रिजल्ट आया तो मैं सेलेक्ट हो चुका था. तब मेरी जीत नहीं बल्कि जिन्होंने भी मुझपर भरोसा किया था ये उन सबकी जीत थी. 

7 comments:

  1. आपकी संघर्ष-यात्रा को सलाम!आज की युवा पीढ़ी के लिए आपकी यात्रा प्रेरणाप्रद है। एक सफल साहित्यकार और एक सफल प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आपकी उपलब्धि होने के बाद भी आपकी विनम्रता अद्भुत है और आज के दौर में दुर्लभ है।शुभकामनाएं सर!-विवेक कुमार,अभिनेता,पटना

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  2. आपकी संघर्ष-यात्रा को सलाम!आज की युवा पीढ़ी के लिए आपकी यात्रा प्रेरणाप्रद है। एक सफल साहित्यकार और एक सफल प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आपकी उपलब्धि होने के बाद भी आपकी विनम्रता अद्भुत है और आज के दौर में दुर्लभ है।शुभकामनाएं सर!विवेक कुमार,रंगकर्मी,पटना।

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  3. आपकी संघर्ष-यात्रा को सलाम!आज की युवा पीढ़ी के लिए आपकी यात्रा प्रेरणाप्रद है। एक सफल साहित्यकार और एक सफल प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आपकी उपलब्धि होने के बाद भी आपकी विनम्रता अद्भुत है और आज के दौर में दुर्लभ है।शुभकामनाएं सर!विवेक कुमार,रंगकर्मी,पटना।

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  4. आपकी संघर्ष-यात्रा को सलाम!आज की युवा पीढ़ी के लिए आपकी यात्रा प्रेरणाप्रद है। एक सफल साहित्यकार और एक सफल प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आपकी उपलब्धि होने के बाद भी आपकी विनम्रता अद्भुत है और आज के दौर में दुर्लभ है।शुभकामनाएं सर!-विवेक कुमार,अभिनेता,पटना

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