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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Monday 30 October 2017

8 साल जॉब करने के बाद मैंने अपना खुद का बिजनेस खड़ा किया : गुरुदयाल सिंह, पूर्व अध्यक्ष, 'पंजाबी बिरादरी',पटना

जब हम जवां थें 
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म पंजाब के गुरुदासपुर में हुआ. वहां से पापा जी बिहार चले आये फिर मैं बिहार में ही पढ़ा-लिखा और बड़ा हुआ. स्कूल से ही मुझे कविता-कहानी लिखने का शौक था. पहले मैंने कवितायेँ लिखनी शुरू की जो पत्र-पत्रिकाओं में छपी भीं. गोलघर के पास एक प्राइमरी स्कूल से पास करने के बाद पी.एन. एंग्लो स्कूल से मैट्रिक करने के बाद साइंस में ग्रेजुएशन कॉमर्स कॉलेज से किया. जब शादी की बात चली तो मेरे मामा जी चाहते थें कि पड़ोस की भिखना पहाड़ी की गुरजीत से मेरी शादी हो. मुझे भी लड़की बहुत पसंद थी. गोरी-चिट्टी, काली-काली आँखों वाली. कहीं ना नुकुर की गुंजाईश नहीं थी. परन्तु हमारे फूफा जी जो थोड़े दबंग थे बोले - 'सियालकोटियों के साथ संबंध नहीं बनाना है.' उन्होंने दूसरी लड़की परमजीत के बारे में मेरी बीजी और पापा जी से बातचीत की. पापा जी, मामा जी नहीं मान रहे थें क्यूंकि जुबान दे चुके थें परन्तु बीजी के समझाने से मान गएँ. मुझे भी बहुत समझाया गया कि 'खानदान पढ़ा-लिखा है, लड़की तुम्हारे लायक पढ़ी-लिखी है, सुशिल है, सुन्दर है.' मैंने भी मन मसोस कर हामी भर दी. रिश्ते से पहले मैंने उसे देखा तक नहीं था. परन्तु बीजी के कहने पर कि बिल्कुल बैजन्तीमाला लगती है, फोटो देखकर मैंने भी हाँ कर दी. रिश्ता तो पक्का हो गया परन्तु शादी तीन साल बाद करना तय हुआ क्यूंकि हम दोनों तब पढ़ ही रहे थें. हम एक दूसरे से बातें भी नहीं कर सकते थें, टेलीफोन की सुविधा जो नहीं थी. पर मन तो बहुत करता था एक दूसरे को देखने का- बात करने का, लेकिन अंदर-ही-अंदर एक डर भी था कहीं उसके मन में हमारे प्रति कोई गलत भावना ना बन जाये और हम जुदा हो जाएँ. इसी डर से कोई आगे बढ़ना नहीं चाहता था. एक दूसरे को दूर से देखकर मन ही मन खुश हो जाते. मुस्कुराना भी अपराध लगता था. हमदोनो की छोटी बहनें बलविंदर, मंजीत एक ही स्कूल में पढ़ती थीं और प्रायः दोनों का एक दूसरे के घर आना-जाना होता था. मैं कभी-कभी कुछ कविता लिखकर भेज देता परन्तु उत्तर की सम्भावना नहीं थी. ऐसे ही हमदोनो का मूक प्रेम परवान चढ़ रहा था. कभी-कभी कॉलेज जाते हुए बस की लाइन में खड़ी सखियों संग उनको देखता तो फिर सारा दिन बड़े आनंद से उनकी याद में गुजरता. इसी तरह दिन बीतते गए और एक दिन हम दोनों शादी के बंधन में बंधकर एक दूजे के हो गएँ. कॉलेज से आने के बाद पापा जी के काम को संभालना मेरा काम था. रात कभी-कभी देर भी हो जाती. एक रात मैं थोड़ी देर से आया तो पत्नी ने अपने कमरे का दरवाजा नहीं खोला. मैं अपनी सफाई देता रहा. थोड़ी देर बाद दरवाजा इस शर्त पर खुला कि अब रोज घर जल्दी आना होगा. वे कहती - ' मैं किससे मन की बात करूँ, आप सारा दिन बाहर रहते हैं मेरा भी तो दिल है.' यह उनका प्यार बोल रहा था, हम दोनों में बहुत प्रेम था.
 
 इसी तरह कुछ महीने बीतने के बाद अचानक एक दिन सास-ससुर जी आएं और पत्नी को एक महीने के लिए ले जाने का प्रोग्राम बनाने लगें. मुझे तो काठ मार गया. जब एक दिन भी अलग रहना मुश्किल है और ये तो एक महीने की बात कर रहे हैं ! मैंने तो ना कर दी लेकिन बीजी-पापा जी के समझाने पर कि 'पहले सावन में लड़कियां अपने मायके ही रहती हैं और अपनी सास का मुंह नहीं देखती हैं.' मैंने पत्नी को भरे मन से भेज दिया. मगर मेरा मन उदास रहने लगा और मुझे बुखार हो गया. इसकी खबर जब पत्नी को लगी झटपट आरा मशीन पर ही मुझको मिलने आ गयीं. तब एक दूसरे को देखकर दोनों रोने लगें, आलिंगन में बंध गएँ. मेरा बुखार भी उतर गया.

पुरानी यादों के साथ पत्नी परमजीत जी एवं गुरुदयाल सिंह जी 
ग्रेजुएशन करने के बाद मैं गुलजारबाग, पटना पॉलिटेक्निक में चला गया जहाँ से डिप्लोमा कोर्स करने के बाद मुझे यू.पी. मुरादाबाद से ऑफर मिला गया. पहले नौकरी के लिए 6 महीने अप्रेंटिशिप करनी ज़रूरी होती थी. 1968 में मैंने वहां ज्वाइन किया. वहां उन्होंने पूछा- 'आपको क्या करना है?' मैंने कहा- 'मुझे लॉन्ग टर्म में बिजनेस करना है लेकिन अभी मुझे दो-चार साल सर्विस करनी है.' फिर हमारे काम से वो खुश होकर बोले कि आप हमारे यहाँ ही जॉब कर लीजिये. मुझे जॉब मिला लेकिन सैलरी बहुत कम थी, 240 रूपए महीना. वहां तीन शिफ्ट में काम होता था. सुबह 8 से 4, 4 से 12 और 12 से 8. और मुझे बना दिया गया शिफ्ट इंचार्ज. मेरी ड्यूटी रहती रात के 10 से सुबह 6 बजे तक. लगातार नाईट ड्यूटी करते हुए एकाध महीने में ही मेरा मन भर गया. दिन में ठीक से नहीं सो पाने के कारण मेरा स्वास्थ गिरने लगा. तब मैंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया और छुट्टी लेकर पटना चला आया पत्नी और पापा जी से बात करने. मगर घर में जितने भी लोग थें सभी ने यही समझाया कि 'आपको नौकरी नहीं छोड़नी है. नौकरी छोड़ेंगे तो बड़ी दिक्कत होगी.' पत्नी ने भी समझाया 'नौकरी जल्दी मिलती नहीं है, आप भाग्यशाली हैं कि आपको अप्रेंटिशिप पूरी करते ही वहीँ नौकरी मिल गयी वरना लोग तो कितने साल पास करके बैठे रहते हैं.' अब चूँकि एक बच्ची का लालन-पालन भी करना था इसलिए नौकरी ना छोड़ने तथा स्वयं साथ-साथ रहने के लिए पत्नी ने मुझे मनाया. कुछ दिनों बाद मैं पत्नी और बिटिया को साथ लेकर पुनः अपने काम पर मुरादाबाद लौट आया. परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए मेरी पत्नी ने वहां एक गर्ल्स हाई स्कूल में इंग्लिश टीचर की नौकरी ज्वाइन कर ली. बिटिया साथ के क्वाटरों की बच्चियों के साथ खेलती रहती थी इसलिए उन्हें नौकरी करने में कोई परेशानी नहीं हुई. परिवार की आमदनी अब दोगुनी हो गयी. परन्तु स्कूल मैनेजमेंट द्वारा इनका बी.एड. नहीं होने से ग्रेड से वंचित रखा गया इसलिए तनख्वाह भी कम मिलती थी. तब पत्नी ने बी.एड. करने की इच्छा जाहिर की, मैंने इजाजत दे दी. उस समय मेरा बेटा पत्नी के पेट में पल रहा था. फिर भी हिम्मत करके उसने पटना में अपना नाम लिखवाया और बी.एड. कम्प्लीट करके एक-डेढ़ साल बाद यू.पी. हमारे पास दोनों बच्चों के साथ लौट आयीं. धीरे-धीरे मुझे भी यहाँ तीन साल हो गएँ. मैंने ऑफिस के लोगों से पूछा 'तुम कबसे काम कर रहे हो?' एक ने कहा 20 साल से काम कर रहा हूँ तो एक बोला 40 साल से कर रहा हूँ. मैं सोचता, ये 20 -40 साल से काम कर रहे हैं फिर भी पैसों का आभाव है, इनकी लाइफ में कोई भी चेंजेस नहीं है. सुबह फैक्ट्री जाना है और शाम को थक-हार के घर आना है बस यही दिनचर्या थी. जब मैं बाहर लोगों से मिलने निकलता तो देखता कि हमारे जो पंजाबी समुदाय के लोग हैं वह छोटी-छोटी लकड़ी, किताबों और साईकल आदि की गुमटीनुमा दुकाने चला रहे हैं. उनके यहाँ जब कोई फंक्शन होता वे लोग मुझे अपने घर बुलाते थें. सभी कहते कि पटना से जो ऑफिसर आया है उसको बुलाओ. तो जब मैं उनके यहाँ जाता था तो देखता कि उनके तीन-चार तल्ले के बड़े-बड़े मकान हैं और घर में सबकुछ है. मतलब छोटे से बिजनेस से ही वो खुशहाल थें. तब मेरे मन ने कहा कि जो 40 साल से जॉब कर रहा है वो वैसे का वैसा ही है और जो छोटा-मोटा खुद का बिजनेस कर रहा है वह कितना आगे बढ़ गया. फिर मैंने पत्नी को समझाया कि बिजनेस करना है इसलिए मुझे जॉब छोड़नी पड़ेगी. पत्नी समझाती कि 'सर्विस मत छोड़िये. फिर हाँ-ना करते-करते करीब 8 साल निकल गए. तब एक दिन मैंने फाइनली डिसीजन लिया और वापस अकेला ही छुट्टी लेकर पटना आ गया. मैंने अपने काम के लिए बैंक से लोन लेकर बहादुरपुर गुमटी के पास लेथ मशीन, बेल्डिंग आदि लगाकर काम शुरू कर दिया. मैं अपनी छुट्टी कोई बहाना बनाकर बढ़ाता रहा क्यूंकि रिस्क नहीं लेना चाहता था. उधर पत्नी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं काम में सफलता पा लूंगा. लेकिन पत्नी के त्याग और वाहेगुरु के आशीर्वाद से काम चल निकला. मैंने अपना रिजिगनेशन भेज दिया और एक साल बाद पत्नी भी स्कूल से रिजाइन करके वापस लौट आयीं. उस समय गंगा ब्रिज बनना शुरू हुआ था, उसका बहुत सा काम लेबर रेट पर ही आने लगा. फिर मैं सुबह से लेकर रात के 18-18 घंटे काम करता. जब तीन-तीन बेटियों की जिमेवारी की चिंता बढ़ने लगी तो पत्नी ने किसी स्कूल में टीचर की सर्विस करने के लिए कहा तो मैंने मना कर दिया कि अब बच्चों को भी संभालना है, उन्हें पढ़ाना- लिखाना है इसलिए सोच-विचारकर घर में ही 'महिला सिलाई कटाई केंद्र' खुल गया. कुछ दिनों बाद मुझे फैक्ट्री के लिए अपनी जगह होना ज़रूरी लगने लगा. खोज-बिन के बाद एक मित्र के सहयोग से गंगा ब्रिज के पास पौने चार कट्ठा ज़मीन खरीद लिया. फिर वहां पत्नी के नाम 1982 में पटना कैलिवेटर्स खोल दी. मेरी पत्नी परमजीत जी अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन मुझे लगता है मेरी पत्नी लक्ष्मी थी, उसके भाग्य से मेरा काम चल निकला और टैंकर बनाने का ऑर्डर नेपाल से भी आने लगा. मगर दो सालों बाद ही 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या होने पर हमारा बहुत नुकसान हुआ. बहुत सा सामान लोग लूट ले गए. पर वाहेगुरु की कृपा से हमारा काम फिर से और पहले से भी अधिक चलने लगा. मैं न्यू जेनरेशन को यही सन्देश देना चाहूंगा की 'आप कोई भी काम करें लेकिन पहल तो आपको ही करनी पड़ेगी. यहाँ असम्भव कुछ भी नहीं है. आप अपनी लगन एवं मेहनत से अपनी बुलंदी की ईमारत खड़ी कर सकते हैं.' 

Wednesday 25 October 2017

छठ की छटा पेंटिंग प्रदर्शनी के जरिये प्रस्तुत की गई बीेेेएनबी आर्ट गैलरी में

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi 


बीेेेएनबी आर्ट गैलरी में चित्रकार बीरेंद्र बरियार (दाएं)
 के साथ 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू'









पटना, 24 अक्टूबर, चित्रकार एवं वरिष्ठ पत्रकार बीरेंद्र नाथ बरियार द्वारा छठ पर्व पर बनाई गयी 7  तैल चित्र की प्रदर्शनी का आयोजन किया गया.  


बीेेेएनबी आर्ट गैलरी में छठ थीम पर पेंटिंग प्रदर्शनी
बीेेेएनबी आर्ट गैलरी (आशियाना टावर) में शुरू हुई प्रदर्शनी 26 अक्टूबर तक चलेगी. सभी पेंटिंग्स में छठ पर्व की छटा दिखाई गयी है. बीरेंद्र जी छठ पर्व पर 21 पेंटिंग बना रहे हैं. फ़िलहाल 7 पेंटिंग प्रदर्शनी में लगायी गयी है. अगले साल छठ के मौके पर 21 पेंटिंग प्रदर्शनी में लगायी जाएगी. सभी पेंटिंग कैनवास पर ऑयल पेंट के जरिये बनाई गयी है. छठ बिहार का सबसे बड़ा और पवित्र पर्व है. छठ के बहाने बरियार ने महिला सशक्तिकरण का सन्देश देने की कोशिश की है.
       

बीेेेएनबी आर्ट गैलरी में छठ थीम पर पेंटिंग प्रदर्शनी

प्रदर्शनी में बरियार जी ने 'बोलो ज़िन्दगी' को बताया कि 'इस पेंटिंग प्रदर्शनी के जरिये मैं समाज को यही सन्देश देना चाहता हूँ कि छठ पर्व के दौरान 4 दिनों तक महिलाओं को खासा सम्मान दिया जाता है और सभी लोग उनके प्रति पवित्र भाव दर्शाते हैं. महिलाओं के प्रति यही भाव पूरे साल रखने की ज़रूरत है. छठ करनेवाली हर महिला अपने लिए व्रत नहीं करती बल्कि वह अपने पति, बेटे-बेटी, भाई, माता-पिता यानि अपने पूरे परिवार की खुशहाली एवं सुरक्षा के लिए 4 दिनों का कठोर व्रत रखती है. इसलिए पूरे परिवार को हर दिन उनका आदर करना चाहिए.'


Sunday 22 October 2017

हेल्थ लाइन एवं आस्था फाउंडेशन के सौजन्य से 'पुरोधालय' में हुआ डायबटीज के प्रति जागरूकता कार्यक्रम

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi


ऊपर बाएं से पूजा पांडेय(डायटीशियन,पारस हॉस्पिटल),राकेश सिंह 'सोनू'

('बोलो ज़िंदगी' के एडिटर), डॉ. दिवाकर तेजस्वी एवं अन्य अतिथिगण 
पटना, 22 अक्टूबर, नागेश्वर कॉलोनी स्थित बुजुर्गों की संस्था 'पुरोधालय' में हेल्थ लाइन और आस्था फाउंडेशन के सौजन्य से डायबटीज के प्रति एक जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया जहाँ उपस्थित मुख्य अतिथियों डॉ. दिवाकर तेजस्वी, पूजा पांडेय (डायटीशियन, पारस हॉस्पिटल), पूर्व आई.ए.एस. श्री श्याम जी सहाय ने बुजर्गों को डायबटीज से बचाव के उपयोगी टिप्स दिए. हेल्थ परिचर्चा के बाद 'पुरोधालय' के संजय जी ने वहां मौजूद बुजुर्गों का शुगर एवं ब्लड प्रेशर टेस्ट किया. आस्था फाउंडेशन ने कार्यक्रम में मौजूद अतिथियों एवं बुजुर्ग सदस्यों से 'पुरोधालय' कैम्पस में चार कदम चलवाकर 'वॉक फॉर लाइफ' का सन्देश दिया.
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि डॉ. दिवाकर तेजस्वी ने बुजुर्गों को सम्बोधित करते हुए कहा कि 'देश के करीब 3.5 करोड़ लोग डायबटीज के चपेट में हैं. अनुमानतः यह आंकड़ा 2025 तक सात करोड़ पार कर जायेगा. आधुनिक युग में तनाव, गलत खान-पान, अव्यवस्थित रहन-सहन व शारीरिक परिश्रम ना करने की वजह से डायबटीज तेजी से पांव पसारता जा रहा है. यह बीमारी किसी को भी और किसी भी उम्र में हो सकती है. खसकर बुजुर्गों में यह बीमारी जल्दी असर करती है. इसलिए बुजुर्ग समय-समय पर डायबटीज की जाँच कराते रहें. डायक्टोलॉजिस्ट के संपर्क में रहें. बुजुर्गों से मेरी अपील ये है कि वे खुद इस रोग से बचाव करने के साथ-साथ अपने घर के युवाओं को भी जागरूक करें. क्यूंकि आज मॉर्डन लाइफ स्टाइल और जागरूकता के अभाव की वजह से उनको भी डायबटीज अपनी चपेट में लेता जा रहा है.'

'पुरोधालय' में डायबटीज से बचाव टिप्स देते मुख्य अतिथि 

वहीँ पारस हॉस्पिटल की डायटीशियन पूजा पांडेय ने कहा कि 'खान-पान ऐसा होना चाहिए कि जितना आप फिजिकल वर्क करते हैं वो सब बर्न हो जाये. मीठा के अलावा फैट में घी और तेल से परहेज करना चाहिए. हरी सब्जियों एवं फलों का ज्यादा सेवन करना चाहिए. ट्रेडिशनल खाने में चावल और रोटी आता है लेकिन बड़ी उम्र में चावल कम से कम खाना चाहिए. अगर खाएं भी तो अरवा की बजाये उसना चावल खाएं.'
       कार्यक्रम में उपस्थित हुए वरिष्ठ बुजुर्ग एवं पूर्व आई.ए.एस. श्री शयाम जी सहाय ने युवाओं से अपील की कि 'आप भी डायबटीज के प्रति जागरूक रहें क्यूंकि ये रोग किसी भी उम्र में हो सकता है. इसलिए मोबाईल और कंप्यूटर युग से कुछ देर के लिए बाहर निकलकर थोड़ा समय अपने स्वास्थ पर दें, शारीरिक श्रम ज्यादा करें और तनाव ग्रस्त ना रहें.'

'पुरोधालय' में शुगर व ब्लडप्रेशर जाँच कराते एवं 'वॉक फॉर लाइफ' 
के तहत वॉक करते हुए बुजुर्ग एवं अतिथिगण  

इस मौके पर हेल्थलाइन के सचिव एवं 'पुरोधालय' के संस्थापक अवधेश कुमार ने 'बोलो जिंदगी' को बताया कि - 'हमारे जो बुजुर्ग अभिभावक डायबटीज से घिरे हुए हैं उनको इस रोग से बचाने के उद्देश्य से आज यह कार्यक्रम किया गया है. इसके लिए शहर के मशहूर डॉक्टर्स को इस संबंध में हेल्थ टिप्स देने के लिए आमंत्रित किया गया है.' आस्था फाउंडेशन के सचिव पुरुषोत्तम सिंह ने कहा कि ' बुजुर्गों को डायबटीज से होनेवाली परेशानियों के बारे में बताना ज़रूरी है क्यूंकि बहुत सारे बुजुर्ग डायबटीज से पीड़ित हैं.' अंत में वहीँ संस्था की निदेशक निक्की सिंह ने कहा कि 'आस्था फाउंडेशन लगातार 'वॉक फॉर लाइफ' के माध्यम से लोगों को डायबटीज के प्रति जागरूक कर रहा है, इसी कड़ी में आज बुजुर्गों के बीच यह कार्यक्रम आयोजित किया गया.'  इस हेल्थ कार्यक्रम को सफल बनाने में वरिष्ठ रंगकर्मी एवं पूर्व उद्घोषक( सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग) डॉ. अशोक प्रियदर्शी, लाफ्टर गुरु विश्वनाथ वर्मा, 'पुरोधालय' कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष श्री रामदेव यादव, रिटायर्ड प्रो.एन.के.मिश्रा एवं प्रणय कुमार सिन्हा का सराहनीय योगदान रहा. 

Friday 20 October 2017

मेघालय के राज्यपाल श्री गंगा प्रसाद ने किया डॉ.अनिल सुलभ के गीत-संग्रह 'मैं मरुथल-सा चिर प्यासा' का लोकार्पण

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi


पटना, 20 अक्टूबर, मेघालय के राज्यपाल श्री गंगा प्रसाद ने बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के 99 वे स्थापना-दिवस समारोह में सम्मेलन अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ के गीत-संग्रह 'मैं मरुथल-सा चिर प्यासा' और सम्मेलन के अर्थमंत्री योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की पुस्तक 'शब्द, संस्कृति और सृजन' का लोकार्पण किया. इसके पूर्व बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ ने श्री प्रसाद को सम्मेलन की सर्वोच्च मानद उपाधि 'विद्या-वाचस्पति' से विभूषित किया. समारोह के मुख्य अतिथि और पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री पद्मश्री डा. सी. पी. ठाकुर को 'विद्या वाचस्पति', प्रख्यात विद्वान और साहित्यकार प्रो. शशिशेखर तिवारी को 'साहित्य-वाचस्पति' तथा पटना विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति डा. एस. एन. पी. सिन्हा और प्रख्यात लेखिका ममता मेहरोत्रा को 'विद्या-वारिधि' की मानद उपाधि प्रदान की गई. महामहिम ने साहित्य-सम्मेलन में विशेष योगदान के लिए सम्मेलन के वरीय अध्यक्ष ई. चंद्रदीप प्रसाद को 'साहित्य सम्मेलन विशिष्ट-सेवा सम्मान' से अलंकृत किया. इस अवसर पर सम्मेलन की सेवाओं के लिए अमरेन्द्र कुमार, कुमारी मेनका, महेश प्रसाद, उमेश कुमार, वीरेंद्र कुमार यादव, सुनीता देवी तथा शंभु राम को 'सम्मेलन-कर्मी सम्मान' से सम्मानित किया गया.

उद्घाटन समारोह में सभा को सम्बोधित करते हुए मेघालय के राज्यपाल 
 'साहित्य समाज को केवल आईना हीं नही दिखाता मार्ग भी दिखाता है. साहित्यकार यदि सन्मार्ग दिखाए तो हम एक लोक-कल्याणकारी और मूल्यवान मानव-समाज बनाने में सफल हो सकते हैं. बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है. भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा. राजेंद्र प्रसाद, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, महान इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल, राजा राधिकारमण सिंह, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर', महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात', पं. छविनाथ पाण्डेय, महाकवि मोहनलाल महतो 'वियोगी', पं रामदयाल पाण्डेय जैसी महान विभूतियाँ इसके अध्यक्ष पद को सुशोभित कर चुकी हैं. हिंदी भाषा और साहित्य की उन्नति में हीं नही, देश के स्वतंत्रता-संग्राम में भी यह स्थान आंदोलनकारी बलिदानियों का एक प्रमुख केंद्र था. सम्मेलन से जुड़े साहित्यकारों और प्रबुद्धजनों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और जेल की यातनाएँ भी सही. संपूर्ण भारतवर्ष बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अवदानों और वलिदानों का ऋणी है.' यह बातें आज यहाँ बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के 99 वाँ स्थापना-दिवस समारोह का उद्घाटन करते हुए मेघालय के राज्यपाल गंगा प्रसाद ने कही.

साहित्य सम्मेलन के 99 वे स्थापना दिवस समारोह में बाएं से सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. अनिल सुलभ, 
पूर्व केंद्रीय सवास्थ्य मंत्री पद्मश्री डॉ. सी.पी.ठाकुर एवं 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू'
समारोह के मुख्य अतिथि डा. सी. पी. ठाकुर ने इस अवसर पर अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करते हुए सम्मेलन परिसर के मुख्य द्वार के पुनर्निर्माण एवं सीमा-दीवार के उन्नयन के लिए अपने सांसद-कोष  से 10 लाख की राशि प्रदान करने की घोषणा की.

अपने अध्यक्षीय उद्गार में सम्मेलन अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ ने सम्मेलन की स्थापना से लेकर अब तक के उसके गौरवशाली इतिहास पर एक संक्षिप्त विवरणी प्रस्तुत की. उन्होंने कहा कि, 'सम्मेलन के शताब्दी-वर्ष में पूरे वर्ष होनेवाले विभिन्न आयोजनों की तैयारियाँ अभी से आरंभ की जा रही है. उन्होंने कहा कि सम्मेलन अपने शताब्दी वर्ष में देश के 100 वृद्धजनों का भी सम्मान करेगा, जिनका जन्म 1919 में हुआ हो. इनमें साहित्य-सेवियों को उच्च प्राथमिकता दी जाएगी. बिहार के सभी जिलों में अधिवेशन होंगे और स्थानीय साहित्यकारों को भी सम्मानित किया जाएगा. सम्मेलन के सौ वर्ष की उपलब्धियाँ दर्शाने वाला एक वृतचित्र तथा हिंदी साहित्य की प्रगति में सम्मेलन के योगदान से संबंधित एक हज़ार पृष्ठों के एक ग्रंथ का भी प्रकाशन किया जाएगा. शताब्दी-वर्ष के उद्घाटन तथा समापन-समारोहों में भारत के राष्ट्रपति जी तथा प्रधानमंत्री जी को आमंत्रित किया जाएगा.' उन्होंने स्मरण दिलाया कि सम्मेलन के स्वर्ण-जयंती-समारोह का उद्घाटन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद जी ने किया था. इस अवसर पर प्रो. शशिशेखर तिवारी, डा. एस. एन. पी. सिन्हा, सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त तथा पं. शिवदत्त मिश्र ने भी संबोधित किया. अतिथियों का स्वागत सम्मेलन के प्रधानमंत्री आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव ने तथा धन्यवाद ज्ञापन साहित्यमंत्री डा.शिववंश पाण्डेय ने किया. मंच का संचालन सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा. शंकर प्रसाद ने किया.
      सम्मेलन के उपाध्यक्ष एवं वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र 'करुणेश' की अध्यक्षता में विराट कवि-सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें 50 से अधिक कवियों ने अपने विविध भावों की कविताओं का पाठ कर इस उत्सव को चिरस्मरणीय बना दिया. काव्य-पाठ करने वालों में शायर आर.पी. घायल, कवि रमेश कँवल, वरिष्ठ कवि हरिश्चंद्र प्रसाद 'सौम्य', डा. कल्याणी कुसुम सिंह, राज कुमार प्रेमी, सुनील कुमार दूबे, कवयित्री आराधना प्रसाद, रवि घोष, शालिनी पांडेय, डा लक्ष्मी सिंह, डा अनुपमा नाथ, पूनम आनंद, सागरिका राय, लता प्रासर, बच्चा ठाकुर के नाम शामिल हैं. इस अवसर पर डा. वासुकीनाथ झा, श्रीकांत सत्यदर्शी, डा. कुमार वीरेंद्र, डा. विनोद शर्मा, विश्वमोहन चौधरी संत, शशिभूषण सिंह, बिंदेश्वर प्रसाद गुप्ता, कृष्णरंजन सिंह, आनंद मोहन झा समेत बड़ी संख्या में साहित्य-सेवी एवं प्रबुद्धजन उपस्थित थे.

Wednesday 18 October 2017

कला दिवस के मौके पर 'हौसला घर' के गरीब बच्चों के बीच बांटी गयी दिवाली की खुशियां

सिटी हलचल
Reporting: Bolo Zindagi

'हौसला घर' की बच्चियों के साथ 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू'
पटना, 18 अक्टूबर, भारतीय जनता पार्टी कला संस्कृति प्रकोष्ठ के तत्वधान में बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल के प्रांगण में स्थित 'हौसला घर' के गरीब बच्चों के बीच फल,मिठाई,पटाखे आदि का वितरण करते हुए उनके साथ दिवाली की खुशियां साझा की गयीं. इस अवसर पर गीत-संगीत का कार्यक्रम भी आयोजित किया गया जिसमे कलाकार अवध किशोर, रानी सिंह एवं अमित द्वारा उम्दा गायिकी से बच्चों का मनोरंजन किया गया. 'हौसला घर' की कुछ बच्चियों ने भी अपना टैलेंट दिखाते हुए फ़िल्मी गानों पर मनमोहक डांस प्रस्तुत किये.

'हौसला घर' की बच्चियों के बीच गायकी प्रस्तुत करती कलाकार रानी सिंह 
कला दिवस के मौके पर आज बिहार के करीब 32 सांगठनिक जिलों में विभिन्न तरह के कार्यक्रम कला संस्कृति प्रकोष्ठ भाजपा की तरफ से मनाया जा रहा है. उसी के तहत मुख्यालय पटना में भी दीपावली की पूर्व संध्या पर यह कार्यक्रम आयोजित किया गया. मौके पर प्रदेश संयोजक वरुण सिंह ने कहा कि 'रक्षाबंधन के दिन जब इन बच्चियों ने मुझे राखी बांधी थी तभी मैंने निश्चय कर लिया था कि इनके लिए भाई बनकर मैं कुछ करूँगा. इसलिए आज हमने अपनी पूरी टीम के साथ इनके बीच दिवाली की खुशियां मनाने और बाँटने का कार्य किया. यहाँ की बच्चियों का टैलेंट देखते हुए मैं आगे कोशिश करूँगा कि उनको एक बड़ा मंच दिलाऊं.' वहीँ कला प्रकोष्ठ के सह- संयोजक आनंद पाठक ने कहा कि 'दिवाली तो हम अपनों के साथ हर साल मनाते हैं लेकिन इन गरीब बच्चों के साथ दिवाली की खुशियां सेलिब्रेट करने का एक अलग ही आनंद है. अपनी दिवाली हम इससे बेहतर ढंग से नहीं मना सकते. इसलिए ऐसे कार्यक्रम लगातार होने चाहिए.'

कला संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक वरुण सिंह बच्चियों के बीच पटाखे बांटते हुए 
गरीब बच्चियों का यह 'हौसला घर' एन.जी.ओ. महिला जागरण के तहत चलाया जाता है जिसकी अध्यक्ष नीलू जी हैं. 5 साल पहले 2012 में इसकी शुरुआत हुई थी एक प्राइवेट बिल्डिंग में फिर 2014  से यहाँ शिफ्ट हो गया. 'हौसला घर' की कॉडिनेटर रागिनी ने 'बोलो जिंदगी' को बताया कि यहाँ 60  बच्चियां हैं जो पहले कूड़ा-कचड़ा चुनती थीं और भीख मांगती थी. उन्हें संस्था द्वारा सर्वे के तहत पटना के कमला नेहरू नगर, बहादुरपुर, दीघा, बकरी मार्केट और स्टेशन से लाया गया है. यहाँ कक्षा 1 से 10 तक की पढ़ाई के साथ बच्चियों का रहना-खाना होता है. गवर्नमेंट की तरफ से तीन कमरा और मिड डे मिल का सपोर्ट मिला हुआ है. इस 'हौसला घर' में कुल 11 स्टाफ हैं. यहाँ बाहर से भी आकर टीचर पढ़ाती हैं. यहाँ की बच्चियां कराटे भी सीखती हैं और स्टेट लेवल पर कई सिल्वर व गोल्ड मैडल भी जीत चुकी हैं.

कला संस्कृति प्रकोष्ठ की टीम 'हौसला घर' की बच्चियों संग फुलझड़ियां जलाती हुई
कुछ बच्चियों के माँ-बाप नहीं हैं, कुछ रिश्तेदारों के यहाँ रहती थीं लेकिन वे उनका लालन-पालन ठीक से नहीं कर पाते थें. इस वजह से मजबूरन वे भीख मांगने और कचड़ा चुनने का काम करती हैं. शुरू-शुरू में यहाँ लाये जाने पर ये बच्चियां भाग जाती थीं लेकिन फिर उनको प्यार से समझाने और उनकी काउंसलिंग कराने के बाद वे अपने बेहतर भविष्य की सोच यहाँ रहने का फैसला करती हैं.'
इस मौके पर सह संयोजक विनीता मिश्रा, प्रदेश प्रवक्ता सह कोषाध्यक्ष नीरज झा, शैलेश महाजन, सिनेमा इंटरटेनमेंट के रंजीत श्रीवास्तव, करण सिंह, अमरजीत, मनीष चंद्रेश, अक्षत प्रियेश और कला प्रकोष्ठ के सभी पदाधिकारी मौजूद थें जिन्होंने 'हौसला घर' की बच्चियों के साथ मिलकर फुलझड़ियां भी जलायीं.

Monday 16 October 2017

बेटियों- लड़कियों के हक़ की लड़ाई लड़ना चाहती हूँ : वारुणी पूर्वा, समाजसेविका एवं छात्रा

सशक्त नारी
By : Rakesh Singh 'Sonu'

दिल्ली यूनिवर्सिटी से जर्मन लैंग्वेज में ग्रेजुएशन कर चुकी वारुणी पूर्वा की माँ गृहणी हैं और पिता जी पटना हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं. दिल्ली से वापस पटना आने के बाद वारुणी पटना यूनिवर्सिटी से हिस्ट्री ऑनर्स में फिर से ग्रेजुएशन कर रही हैं. क्यूंकि उन्होंने जो जर्मन में ग्रेजुएशन किया है उसका स्कोप पटना में नहीं है. उसका स्कोप दिल्ली में है. लौटने के बाद वे सिर्फ एक दिन के लिए अपने घर पर रुकीं. पिता वारुणी को इंजीनियर बनते देखना चाहते थें लेकिन जब वारुणी ने बताया कि वे एक सामाजिक संगठन से जुड़ गयी हैं इसलिए अब अपने करियर लाइफ के आलावा कुछ समय वे इसमें भी देंगी, तब उनकी ये बात घरवालों को हजम नहीं हुई. पिता जी अपने खिलाफ जाने से बहुत क्रोधित हुए. और वैसे भी इंडिपेंडेंटली काम करने में आपको अलग रूम लेकर रहना ही ठीक होता है ये विचार करके वारुणी ने अगले दिन घर छोड़ दिया. अभी वे बांसघाट इलाके में सिंगल रूम किराये पर लेकर अकेली रहती हैं. अपने खर्च के लिए ए.जी. कॉलोनी में जाकर होम ट्यूशन पढ़ाती हैं. ट्रैवलिंग में भाड़े का खर्चा बचाने के लिए वे साइकल से आती-जाती हैं. साढ़े नौ से साढ़े ग्यारह बजे तक उनका कॉलेज में ऑनर्स क्लास होता है. कॉलेज से रूम पर वापस आकर खा-पीकर वे गोसाईं टोला मोड़ के पास इंदिरा घाट मंदिर पहुँच जाती हैं. वहां 'नौजवान भारत सभा' संगठन के अंतर्गत 'शिक्षा सहायता मंडल' के नाम से चलाये जा रहे कार्यक्रम में गरीब बच्चों को पढ़ाती हैं. ये अभियान वहां 2013  से चल रहा है और वारुणी इसका हिस्सा पिछले साल बनीं. कक्षा 8 से 12 वीं तक के स्टूडेंट को साइंस और मैथ हफ्ते में 5 दिन पढ़ाया जाता है. अगर कोई आर्ट्स का स्टूडेंट आ गया तो उसे भी रख लिया जाता है. सन्डे को मार्शल आर्ट की भी शिक्षा दी जाती है. फ़िलहाल वहां 30 बच्चे आते हैं जिनसे महीने में सिर्फ 100 रुपया लिया जाता है. वारुणी कहती हैं कि 'यहाँ बच्चों को पढ़ाकर हम परोपकार जैसी चीज नहीं कर रहें, हमलोगों का मानना है कि ये उनका हक़ है. कुछ लोगों का एम होता है कि वो कुछ करें लेकिन उनकी फैमली उनको फाइनेंशली सपोर्ट नहीं कर पाती. इसलिए वैसे बच्चों को आगे बढ़ने में हमलोग मदद करते हैं. भगत सिंह जैसे लोग सिर्फ आजादी की बात नहीं करते थें बल्कि वो ये भी कल्पना करते थें की आजादी के बाद का भारत कैसा होगा लेकिन उन्होंने जो सपना देखा वो भारत आज है नहीं. इसलिए हमलोग उनके सपनों का भारत बनाने के लिए कार्यरत हैं.' इस संगठन के तहत गोसाईं टोला इलाके में ही एक लाइब्रेरी भी खुली है जहाँ वारुणी और उनके सहयोगी बारी-बारी से वहां अपना समय देते हैं. लाइब्रेरी में भगत सिंह, प्रेमचंद, निराला, टैगोर आदि के बहुत सारे प्रोग्रेसिव लिट्रेचर्स हैं. आज के ज्यादातर युवाओं का समय स्मार्ट फोन एवं सेल्फी खींचने में जा रहा है. इंटरनेट पर हर चीज मिल जाती है लेकिन किताब पढ़ने का एक अलग ही मजा होता है. लाइब्रेरी में ये लोग किसी टॉपिक पर बच्चों के बीच डिस्कशन भी कराते हैं. वारुणी अपने साथियों के साथ बच्चों के बीच जाकर ये प्रचार करती हैं कि वे अपना समय मोबाइल और इंटरनेट पर बर्बाद ना करें बल्कि लाइब्रेरी आकर भी अपने समय का सदुपयोग करें. इसके अलावा वारुणी संगठन की तरफ से लो मिडिल क्लास इलाके में मेडिकल कैम्प और साइंस कैम्प भी लगाती हैं. जिसमे बच्चों एवं बड़ों के बीच जाकर साइंस एक्सपेरिमेंट के जरिये अन्धविश्वास को टारगेट किया जाता है. उनकी टीम में 10-12 लोग हैं जिनमे 2-3 लड़कियां हैं. अपने संगठन के साथियों के साथ वारुणी पटना यूनिवर्सिटी के लिए भी काम करती हैं. वहां बहुत बड़ा मुद्दा है कि गर्ल्स हॉस्टल का जो रोड है बहुत सुनसान जगह पर है. वहां मौजूद दो बॉयज होस्टल्स के बीच हमेशा लड़ाई होती है और गर्ल्स हॉस्टल की लड़कियां अक्सर उनका शिकार बनती हैं. वारुणी बताती हैं कि 'पुलिस में कोई जल्दी रिपोर्ट नहीं करता क्यूंकि फिर घरवाले परेशान करेंगे और वापस बुला लेंगे. लड़कियों के साथ ये समस्या है कि वे विद्रोह या आवाज नहीं उठा सकतीं क्यूंकि सबसे पहले उनको घरवाले ही दबाते हैं. घरवाले ही बोलते हैं कि कोई सड़क पर कुछ बोले तो पलटकर जवाब ना दो, चुपचाप आगे निकल जाओ. लेकिन ये सब करने से तो चीजें रुकेंगी नहीं और ज्यादा होंगी. तो अक्सर होनेवाली इन घटनाओं को लेकर हमलोग साइंस कॉलेज और पटना कॉलेज में कैम्पेन चलाते हैं. 8 मार्च महिला दिवस के अवसर पर 'पिंजड़ा तोड़' मूवमेंट के नाम से यहाँ एक रैली भी निकाले थें.' वारुणी ने बताया कि अभी हाल में उनके साथ ही कॉलेज परिसर में एक लड़के द्वारा छेड़खानी की वारदात हुई. उन्होंने एफ.आई.आर. करवाया, उसके बाद वी सी के पास जाकर ज्ञापन सौंपें थें कि यूनिवर्सिटी में जेंडर सेंसेटाइजेशन सेल होना चाहिए. कॉलेज का कोई स्टूडेंट अगर ऐसा करता है तो यूनिवर्सिटी उसपर तुरंत एक्शन ले. अक्सर ऐसे मामलों में यूनिवर्सिटी कुछ नहीं करती. ये हर जगह की कॉमन प्रोब्लॉम है जिसका नतीजा था हाल ही में बी.एच.यू. में हुआ छात्राओं का आंदोलन.

संत माइकल्स स्कूल, पटना से 12 वीं करने के बाद वारुणी जब उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाना चाहती थीं तब निर्भया कांड के डर से उनके अभिभावकों ने उन्हें दिल्ली जाने की इजाजत नहीं दी. लेकिन फिर भी घरवालों की नाराजगी झेलते हुए वारुणी दिल्ली गयीं और घरवालों के सपोर्ट ना करने के बावजूद खुद से ट्यूशन पढ़ाकर वहां अपनी पढ़ाई जारी रखी. वे जर्मन में ही एम.ए भी करना चाहती थीं लेकिन फिर पैसों के अभाव में वे पटना वापस आ गयीं. 12 वीं में जो टीचर उन्हें कोचिंग पढ़ाते थें उनके माध्यम से वे दिल्ली में रहते हुए 'नौजवान भारत सभा' संगठन से जुड़ीं और शहीद भगत सिंह के विचारों से प्रभावित हुईं. इस संगठन को 1926  में भगत सिंह एवं उनके साथियों ने ही बनाया था जिसे रिवाइव करते हुए 2005 से यह संगठन शुरू हुआ है. अभी दिल्ली, मुंबई,पटना, इलाहबाद, लखनऊ, बैंगलोर इन सभी जगहों पर इसकी शाखाएं हैं. दिल्ली में इस संगठन से जुड़कर वारुणी मजदूर इलाकों में बच्चों को पढ़ाती थीं. उन इलाकों में संगठन द्वारा लगाए गए मेडिकल कैम्प में हिस्सा लेती थीं. तब सहयोग के लिए पढ़नेवालों से 5 रुपया लिया जाता था क्यूंकि संगठन का मानना है कि लोगों के अंदर भीख मांगने की जो प्रवृति हो जाती है तो आप जितना भी मदद दे सकते हैं दीजिये लेकिन भीख वाली बात मन में ना जाये. इसलिए केवल टोकन सहयोग के रूप में 5 या 2 रूपए कुछ-न-कुछ लोग सहयोग करते थें.

ऊपर बाएं से वारुणी संगठन के साथियों के साथ बी.एच.यू. की छात्राओं के सपोर्ट में धरना देती हुई, पिछड़े इलाकों में मेडिकल
कैम्प लगवाती हुईं, बाढ़ राहत के लिए रूपए इकट्ठे करती हुईं और साइंस कैम्प के द्वारा अन्धविश्वास पर चोट करती हुईं
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   वारुणी फ़िलहाल एक साल से अपने घर नहीं गयी हैं. माँ और छोटी बहन से सिर्फ फोन पर ही कभी-कभी बातें हो जाती हैं. वारुणी बताती हैं कि '12 वीं करने के बाद जितनी चीजें मैंने घर में देखी और माँ से सुनी कि मेरे चाचा के दो बेटे हैं तो दादा-दादी उनको बहुत प्यार करते हैं और हम तीन बहनों के साथ बहुत गंदे तरीके से व्यवहार करते थें. मेरी माँ ने पहली बार लड़की को जन्म दिया, दूसरी बार भी लड़की पैदा हुई. तीसरी बार जब माँ प्रेग्नेंट थीं उनको ठीक से भरपेट खाना तक नहीं दिया जाता था. और यह सिर्फ एक ही घर की कहानी नहीं है बल्कि आज भी बहुत से घरों में बेटों की तुलना में बेटियों को दोयम दर्जे का और उन्हें मनहूस समझा जाता है. तो इन सब चीजों को बदलने के लिए कि जो चीज एक लड़की सहती है वह कैसे बदला जाये मैं सोचती रहती थी. सुधार सिर्फ फैमली से नहीं होगा बल्कि समाज में बनी हुई मूल्य-मान्यताएं बसी हुई हैं कि लड़कियां सिर्फ खाना बनाने, शादी करने और बच्चे पैदा करने के लिए ही हैं तो ये सोच बदलने के लिए आपको पूरे सोसायटी लेवल पर काम करना होगा.' इसी सोच की वजह से वारुणी नौजवान भारत सभा से जुड़ी जो ना कोई पोलिटिकल पार्टी से जुड़ा है और न ही कोई एन.जी.ओ. है. वारुणी का मुख्य लक्ष्य है समाज को बदलने के लिए अपनी जिंदगी लगा देना. और पेशे के तौर पर वे खुद को क्रांतिकारी ही मानती हैं.
     

Wednesday 11 October 2017

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती पर कवि श्री हरिश्चंद्र प्रसाद 'सौम्य' की काव्य-पुस्तक 'अंतर्प्रवाह' का हुआ लोकार्पण

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi 

'अंतर्प्रवाह' के लोकार्पण समारोह में दाएं से सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश श्री चन्दमौली प्रसाद,
'अंतर्प्रवाह' के कवि श्री हरिशंकर प्रसाद 'सौम्य' एवं 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू'
 
पटना, 11 अक्टूबर, 'बिहार हिंदी साहित्य समेल्लन' के तत्वधान में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जयंती के अवसर पर वरिष्ठ कवि श्री हरिश्चंद्र प्रसाद 'सौम्य' की काव्य-पुस्तक 'अंतर्प्रवाह' का लोकार्पण हुआ. पुस्तक लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि थें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एवं प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन श्री चंद्रमौली कुमार प्रसाद. वहीँ विशिष्ट अतिथि थें पटना हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश श्री राजेंद्र प्रसाद. लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता की बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष डॉ. अनिल सुलभ ने. 'अंतर्प्रवाह' का लोकार्पण करते हुए न्यायमूर्ति श्री चंद्रमौली प्रसाद ने कहा कि 'पिछले 40 सालों से वे न्यायिक सेवा में हैं और इस वजह से उन्हें कभी किसी कार्यक्रम में हिंदी में बोलने का सुनहरा मौका नहीं मिल पाया. लेकिन आज इस मौके पर साहित्य सम्मलेन के सभागार में मुझे हिंदी में बोलने का अवसर मिला है तो मुझे खुशी महसूस हो रही है. मेरा जन्म पटना में हुआ और कदमकुआं के बिहार हिंदी साहित्य समेल्लन भवन के पास से कई बार गुजरना हुआ लेकिन मैं कभी हिंदी साहित्य समेल्लन के कैम्प्स में नहीं आया और ना ही कभी मुझे हिंदी साहित्य से वास्ता हुआ. जब मेरे परिचित कवि हरिश्चंद्र प्रसाद जी ने इस कार्यक्रम में मुझे बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया तो मैं यहाँ आने से अपने आप को रोक नहीं पाया. मेरा सौभाग्य है कि यहाँ आकर मुझे कई वरिष्ठ साहित्यकारों से रु-ब-रु होने का अवसर प्राप्त हुआ.'

काव्य-संग्रह 'अंतर्प्रवाह' का लोकार्पण करते हुए अतिथिगण 
वहीँ 'अंतर्प्रवाह' पुस्तक के कवि श्री हरिश्चंद्र प्रसाद 'सौम्य' जी ने 'बोलो ज़िन्दगी' को बताया कि 'अंतर्प्रवाह मन के चिंतन व ह्रदय के भावों की गहराइयों का वह प्रवाह है, जो शब्दों के माध्यम से प्रस्फुटित होता है. इस यात्रा की शुरुआत 'द्रुम पथिक वार्ता' काव्य रचना से हुई जिसे मैंने स्कूल की कक्षा 8 वीं में लिखा था. 'बापू वियोग' कविता महात्मा गाँधी की हत्या के दिन रचित हुई थी. इस पुस्तक में मेरे किशोरावस्था से लेकर अब तक लिखी काव्य रचनाओं का संकलन है जो सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक समस्याओं की ओर ध्यान इंगित करने का प्रयास करता है. पत्र-पत्रिकाओं और कवि गोष्ठियों में तो मेरी कविता को सराहना मिली लेकिन उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर 'अंतर्प्रवाह' के रूप में मेरा पहला काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ है. अभी मेरी उम्र 85 साल की है और इस उम्र में मेरा यह सपना कभी संभव नहीं हो पता अगर मेरे परिवार खासकर मेरे पुत्रों का विशेष सहयोग मुझे नहीं मिला होता.'
   लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता कर रहे डॉ. अनिल सुलभ ने बताया कि 'वरिष्ठ कवि श्री हरिशंकर प्रसाद 'सौम्य' जी आरम्भ में साहित्यिक संस्था 'साहित्यांचल' पटना से जुड़ गए थें. फिर बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन,पटना तथा अन्य मंचों से अपनी काव्य-रचनाओं का लगातार पाठ करते आ रहे हैं. उनका यह काव्य-संग्रह 'अंतर्प्रवाह' भारत की सभ्यता-संस्कृति एवं इसकी मजबूत आध्यात्मिक जड़ों को रेखांकित करने का सार्थक प्रयास है.' कार्यक्रम में बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन के प्रधानमंत्री आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव एवं साहित्य मंत्री डॉ. शिववंश पांडेय जी ने भी अपने-अपने वक्तव्य रखें. मंच का संचालन योगेंद्र प्रसाद मिश्र जी ने किया. 

Tuesday 10 October 2017

नन्ही स्वर कोकिला : हिया

तारे ज़मीं पर
By : Rakesh Singh 'Sonu'

उम्र महज एक साल 9 महीना लेकिन अभी से ही स्वर कोकिला बनने की राह पर....इस नन्ही सी उम्र में बच्चे जहाँ ठीक से बोल नहीं पातें वह एकदम सुर में सरगम, सा रे गा मा पा धा नी सा, सा नी धा पा मा गा रे सा.... गा लेती है. हम बात कर रहे हैं हिया कि जो बिहार के जाने-माने शास्त्रीय गायक रजनीश कुमार और नौबतपुर के त्रिभुवन उच्च माध्यमिक विधालय में संस्कृत की शिक्षिका बिन्नी कुमारी बाला की लाडली है. इस छोटी सी उम्र में ही हिया की सुर पर ऐसी पकड़ हो गयी है कि तानपुरे के साथ उसे जिस भी स्केल में गवाया जाये वह उसी स्केल में शुरू हो जाती है. राग यमन का टेस्ट भी उसको मिल गया है. राग यमन का आरोह-अवरोह करती है जिसमे सुर नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे लिया जाता है. इसके अलावा अन्य राग, दुर्गा का जो बंदिश है उसके कुछ स्वर को सुनकर याद कर ली है. सुर को जिस तरीके से समझती है ताल को भी समझती है. रजनीश जी जब घर में म्यूजिक का क्लास ले रहे होते हैं उस दौरान सभी बच्चों का अलग-अलग स्केल होता है तो जिसका भी स्केल बजता रहता है उसी में हिया शुरू हो जाती है.
हिया की माँ बिन्नी बाला जी को डायरी लिखने का शौक है और उन्होंने हिया के जन्म के पहले ही लिखा था कि बेटा या बेटी नेक्स्ट जो भी बच्चा आएगा वो स्पेशल होगा. जब हिया का जन्म हुआ तो कुछ दिनों में ही माँ-बाप को समझ में आने लगा कि ये सुर में है. ठंढ के दिनों में हिया का जन्म हुआ. उन्हीं दिनों हिया नहाने के दौरान रो रही थी तो उसका बड़ा भाई अथर्व जो अभी 10 साल का है और वह भी सुर में गाता है उसे गाना सुनाने लगा और तब हिया चुप हो गयी. जब तक उसका नहाना, कपड़ा पहनना हुआ तब तक वह बिलकुल शांत रही जबतक उसका भाई गाता रहा. उसके बाद से जब भी वह रोती उसका भाई अथर्व उसे गाना सुनाता है और वह चुप हो जाती है. इस घटना से घरवाले समझ गए कि हिया को म्यूजिक पसंद है.


उसके पापा रजनीश जी सुबह-शाम रियाज करते हैं. हिया जब 6 -7  महीने की थी तो उसके पिता रियाज के दौरान गा रहे थें और वह सोइ हुई होती थी तो उठकर बैठ जाती और मम्मी के गोद में जाकर सो जाती. म्यूजिक क्लास लेने के दौरान जब वह 8 -9 महीने की थी तो सब देखते कि वह भी उसमे सा लगा रही है. उस समय पूरा गाना कुछ भी हो रहा हो वो सिर्फ सा लगाती थी. जब वह एक साल तीन महीने की थी तो छुट्टियों के दौरान मम्मी-पापा के संग राजगीर से लौट रही थी तो रास्ते में भाई का गुनगुनाना सुनकर वह भी गाना शुरू कर दी - सा नी धा पा..... और जब घर आयी तो उसी स्केल से सा नी धा पा लगाने लगी. डेढ़- दो महीने तक वह सा नी धा पा... गायी और मई आते-आते वह पूरा सा नी धा पा मा गा रे सा...गाने लगी. फिर घरवाले देखकर चौंक गए कि ये इस उम्र में ही सुर पकड़ रही है. डेढ़ साल की  होते-होते वह अच्छे से गाने लगी. नेक्स्ट स्टेप उसका हो गया कि जब भी राग सुनती उस राग को आत्मसात कर लेती. सुर का प्रभाव उसपर बहुत ज्यादा पड़ने लगा. ऐसा दो गाना है जिसमे कोमल सुर लगने के कारण वो वहां पर रोने लगती थी. एक है अर्जित सिंह का 'तुझे याद कर लिया है...' इस गाने का मुखड़ा खत्म होने के बाद अलाप शुरू होता है. और जब भी अलाप शुरू होता वो रोना शुरू कर देती. और दूसरा गाना है फिल्म 'ए दिल है मुश्किल' का बुलया.... इसमें जो लड़की अलाप शुरू करती है तो हिया वहां भी रोना शुरू कर देती. मतलब अलाप के समय उसके चेहरे का एक्सप्रेशन एकदम सैड हो जाता और अलाप खत्म होते ही जैसे लड़की की आवाज में अंतरा शुरू होता हिया बड़ा सा स्माइल देती थी. लेकिन धीरे-धीरे वह समझ गयी और अब वह अलाप सुनकर सीरियसली नहीं रोती है बल्कि रोने की एक्टिंग करती है. अब तो अलग-अलग गाने पर उसका अलग-अलग एक्सप्रेशन रहता है. अगर सैड सॉन्ग सुन रही है तो उसका वैसा ही मुँह बना रहता है. और हैप्पी सॉन्ग में खुश रहती है. मतलब एक ही समय में दोनों तरह का गाना सुनने पर उसका मूड अलग दिखता है.

अपने मम्मी-पापा और भाई के साथ हिया 
अभी कुछ दिनों पहले वो जो दो-तीन बंदिश से परिचित हुई है उसको गाने की डिमांड करती है. मोबाइल में गाने के जितने ऐप्प हैं वह सब पहचानने लगी है. जैसे गाना डॉट कॉम, जियो म्यूजिक, गूगल म्यूजिक के ऐप्प और पर्सनल म्यूजिक एलबम गैलरी को खुद से निकालकर खोल लेती है. पिक्चर देखकर उसके दिमाग में यह सेट हो गया है कि यहाँ ये वाला गाना सेव है. इसलिए वह खुद से मोबाईल में अर्जित सिंह का 'तुझे याद कर लिया है...' गाना निकालकर सुनती है. हिया की दिनभर में जो ऐक्टिविटी रहती है सब सुर में ही होती है. जैसे उसे भइया को बुलाना है तो वह उसे दो-तीन तरीके से गाकर बुलाती है. उसके कुछ शौक भी हैं. खाने में बहुत अच्छी है, कोई नखड़ा नहीं. लेकिन उसे चटपटा खाना पसंद है. अभी ही तीखा -तीखा मिक्चर खा लेती है. बाहर घूमना पसंद है. शॉप पर साथ जाती है तो सीधे मिक्चर का पैकेट इशारे से दिखाती है. हिया नहाना बहुत ज्यादा इंजॉय करती है. कभी भी बाथरूम खुला रहे तो वह जाकर बाल्टी में बैठी रहती है. उसे सजना-संवरना, मेकअप करना और फिर आईने में देखना बहुत अच्छा लगता है. रोज वह माँ से कहकर बिंदी और लिपस्टिक लगवाती है. पापा का कहना ज्यादा मानती है. रोने पर ही मम्मी को याद करती है. घर के सभी मेंबर के नाम उसे याद हो गए हैं. हिया वीडियो कॉलिंग खूब इंजॉय करती है. 

Sunday 8 October 2017

जब शादी के बाद ससुराल पहुंची तो रिवाज की वजह से मुझे सबके सामने गाना पड़ा : माया शंकर, प्रोफ़ेसर, पटना यूनिवर्सिटी एवं चेयरपर्सन ऑफ़ 'स्पीक मैके',पटना

जब हम जवां थें
By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा गांव नॉर्थ बिहार के जंदाहा में है लेकिन मेरा जन्म पटना में हुआ. हम चार भाई-बहन थें जिनमे मैं सबसे छोटी हूँ. साल में एक बार दशहरा के समय गांव जाना होता था. गांव में दशहरा बहुत धूमधाम से मनाया जाता था. मेरे दादा जमींदार थें तो वहां काफी खेती-बाड़ी थी. उनके खेत में तब मेला लगता था और दुर्गा जी बैठती थीं. हमलोग इंतज़ार में रहते कि कब छुट्टी हो और हमलोग गांव भागें. मेरे पापा स्व. विंध्यवासिनी प्रसाद सिन्हा पटना हाईकोर्ट में सीनियर एडवोकेट थें. वो भी बोलते थें कि 'जल्दी बच्चों की छुट्टी हो और हमलोग चलें जंदाहा.' पहले सड़क थी नहीं तो हमलोग पानी के जहाज से जाते थें. महेन्द्रू घाट से चलकर पहलेजा घाट उतरते थें. वहां से सोनपुर जाते थें, फिर वहां से ट्रेन पकड़ते थें तब जंदाहा पहुँचते थें. स्टेशन से 5 किलोमीटर अंदर गांव में जाना होता था तो हमलोग टमटम से जाते थें. मेरी माँ साथ होती थीं तो ट्रेन रुकते-रुकते उनका घूँघट एकदम नीचे आ जाता था. क्यूंकि सारे गांववाले जानते थें कि जमींदार साहब की बहू आयी हैं. जबकि मेरी स्व. माँ ऐसे स्कूल बिशप बेस्कॉर्ट हाई स्कूल से थीं जिसमे अग्रेजों के बच्चे पढ़ते थें और मेरी माँ एकमात्र इंडियन थी. शायद इसलिए उन्हें काफी तंग किया जाता था. माँ ने तब एक मजेदार बात बताई थी कि जब वे ब्रश करती थीं और जीभी कर रही होतीं तो सब बोलती कि तुम बहुत गन्दी हो. तो माँ बोलती कि तुमलोग ज्यादा गन्दी हो क्यूंकि हम तो मुँह की गंदगी को बाहर निकालते हैं लेकिन तुमलोग अंदर ही रखती हो. दरअसल अंग्रेज जीभी नहीं करते हैं . तब रांची, झाड़खंड के नामकुम्भ में उस इंग्लिश मीडियम बिशप स्कूल से माँ पढ़ी थीं और शायद इसी वजह से मरते दमतक वो इंग्लिश में भी बात करती थी. नाना फॉरेस्ट ऑफिसर थें इसलिए छुट्टी के दिनों में माँ जंगल में रात-बेरात घूमती रहती थीं. ना उन्हें बाघ-चीता का डर , ना सांप का डर , इतनी बोल्ड थीं वो. और मुझे ताज्जुब हुआ सुनकर जब माँ ने हमें बताया कि 'मेरी शादी हुई तो पहले चढ़ी पालकी में फिर पालकी को सब नाव पर डाल दिए गंगा नदी पार करने के लिए. फिर वहां से ट्रेन से गएँ तो लम्बा घूँघट डालकर बैलगाड़ी से जाना पड़ा.'
     मेरी स्कूलिंग हुई संत जोसेफ कॉन्वेंट से. मैट्रिक के इक्जाम में हमारा सेंटर पड़ा था बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल में. तब बड़ा अजीब लगता कि संत जोसेफ कॉन्वेंट का एक मिशनरी इंस्ट्युशन, उसका अपना एक अलग साफ़-सफाई का कल्चर, डिसिप्लिन सब बिलकुल अलग था और यहाँ सरकारी स्कूल में दूसरा ही सिस्टम देखने को मिला. वहां से पासआउट करने के बाद पटना वीमेंस कॉलेज में एडमिशन हो गया फिर वहीँ से मैंने ग्रेजुएशन किया. मेरा हिस्ट्री ऑनर्स था. उस समय पटना वीमेंस कॉलेज में ऑनर्स सिर्फ इंग्लिश और होमसाइंस में होता था. बस आती थी और बस से हमलोग ऑनर्स क्लास करने जाते थें पटना कॉलेज. वो भी लाइफ का एक एक्सपीरियंस है कि जब सबको पता चलता कि पटना वीमेंस कॉलेज की लड़कियों की बस आ रही है तो पटना कॉलेज के लड़के पहले से ही लाइन में खड़े हो जाते थें. हमारी प्रिंसिपल थीं सिस्टर लूसल जो बहुत स्ट्रिक्ट और डिसिप्लिन पसंद थीं. लेकिन हमारे बैच में कुछ लड़कियां इतनी स्मार्ट थीं की उनको कोई परवाह ही नहीं होती थी. सिस्टर ऊपर से देखते रहती थीं कि कौन कैसा कपड़ा पहनी है. शर्ट-पैंट पहनी है तो शर्ट बाहर है कि अंदर है. चूड़ीदार कुर्ता है तो दुपट्टा है कि नहीं है. साड़ी है तो ब्लाउज बहुत डीप है कि कैसा है. और वो जिसको गड़बड़ देखती उसको कॉलेज के अंदर नहीं जाने देतीं और उसी वक़्त सीधे घर भेज देती थीं. उन्ही दिनों कॉलेज में हमारी एक मित्र थीं जो आजकल पटना के पोलटिक्स में चोटी पर हैं, वो बड़ी चुलबुली और बिंदास हुआ करती थीं. वह अक्सर शर्ट-पैंट पहना करती थी. जब सिस्टर ऊपर से देखती तो उसका शर्ट बहार आ जाता था और जब वह बस से पटना कॉलेज में उतरती तो शर्ट अंदर आ जाता था. हमलोग हँसते कि किसी दिन पकड़ाओगी तो तुमको परेशानी होगी. एक और बहुत मजेदार बात हुई थी जब हमलोग सीनियर्स थें तब 'बॉबी' फिल्म आयी थी जो वीणा सिनेमा हॉल में लगी थी. हमारे बैच की दो लड़कियां थीं, एक खूब लम्बी और दूसरी शॉर्ट हाइट की. वे दोनों बोलीं कि 'भई हमलोगों को तो फर्स्ट डे फर्स्ट शो जाकर देखनी है.' आप सोचिये कि तब मार हो रहा था, लाठी चल रही थी, टिकट ब्लैक हो रहे थें ऐसे में ये दोनों बोलीं कि हमलोगों को तो जाकर देखनी है, ये चैलेन्ज है. बहुतों ने मना किया कि 'कहाँ मरने जा रही हो, बेकार का लाठी वगैरह लग गया तो....' लेकिन उनका डायलॉग था कि ' ना, अपन को तो देखना है.' जिस दिन फिल्म लगी उस दिन हम जब कॉलेज से निकल रहे थें तो देखते हैं कि पटना वीमेंस कॉलेज के गेट से दो महिलाएं बुर्का पहने दाखिल हुईं. बाद में पता चला कि ये वही दोनों लड़कियां हैं जो फिल्म देखने की तैयारी करके आयी थीं. और फर्स्ट डे फर्स्ट शो ये दोनों उसी भीड़ में जाकर देखकर आयीं. वे टिकट पहले ही मंगवा चुकी थीं. लेकिन उस मारा-मारी, उस भीड़ में टिकट लेकर घुसना भी टफ था. वहां ज्यादा भीड़ जेंट्स की ही थी तो हुआ ये कि दो-तीन बार उनके धक्का खाने के बाद किसी ने कहा- ' अरे माता जी आइये-आइये' और फिर भीड़ के ही लोग उन्हें आगे करते हुए हॉल में पहुंचा दिए. मतलब कॉलेज की किसी लड़की को हिम्मत नहीं हुई मगर इन दोनों ने अपना चैलेन्ज पूरा किया. मैं उन दिनों कॉलज की प्रीमियर भी रही. कॉलेज के संगीत प्रोग्राम में बैंजो और सितार बजाती थी. मैंने खुद जाकर रेडियो स्टेशन में ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होने के बाद 'युववाणी' कार्यक्रम में कभी सितार तो कभी बैंजो बजाती थी. बैंजो मेरे मामा का था जो खराब पड़ा था. मैंने माँ से मांगकर खुद ही उसे ठीक किया, खुद ही उसका ट्यूनिंग किया और खुद ही उसे बजाना शुरू किया. और उसी में ऑडिशन दिया. मुझे जो भी 25 रुपया मिला उससे मैंने बैंक अकाउंट खोला और उसमे प्रोग्राम से मिलनेवाला पैसा जमा करती थी. कुछ पैसा जमा होने पर उसी पैसे का मैंने अपने लिए दो कोर्ट बनवाया, एक ब्लू कलर का तो एक ग्रे कलर का. तब खुद के कमाए पैसे से अपने पर खर्च करते हुए मुझे गर्व महसूस हुआ था. कॉलेज में हम ड्रामा भी करते थें लेकिन जब मेरी शादी हुई तो हम प्ले करना बंद कर दिए. एक वजह यह थी कि तब घर-परिवार को ज्यादा समय देना चाहती थी और उन दिनों अच्छे घर की लड़कियां नाटक करने नहीं जाती थीं.

कॉलेज की विभिन्न गतिविधियों में शामिल माया जी, ऊपर से क्रमश: सितार बजाती हुईं, मॉन्टियरिंग कैम्प में ट्रेनिंग
के बाद पुरस्कृत होती हुईं, कॉलेज की अपनी क्रिकेट टीम के साथ और 'कफ़न' नाटक में माधव का किरदार निभाती हुईं

पटना यूनिवर्सिटी से एम.ए.करने के बाद 1980 में मैंने पटना वीमेंस कॉलेज में बतौर लेक्चरर ज्वाइन कर लिया. उसके पहले पांच-छह महीने मैंने रत्नापति विद्यामंदिर स्कूल ज्वाइन किया था जो 4 -5 क्लास तक था. ये बहुत बड़े साहित्यकार नलिन विलोचन शर्मा जी की पत्नी कुमुद शर्मा का स्कूल था. कुमुद शर्मा तब रेडियो के लिए होनेवाले कार्यक्रम 'शिशुमहल' में दीदी बनती थीं. वे बहुत सुन्दर पेंटिंग करती थीं, बच्चों की साइकोलॉजी पर बहुत काम की थीं, बच्चों का डांस-ड्रामा भी कराती थीं. उनके साथ ही लगकर मैंने भी बच्चों के कई नाटक कराये थें. कॉलेज में लेक्चरर फिर रीडर और फिर प्रोफ़ेसर के रूप में सेवा देते हुए करीबन मुझे 26 साल हो गए हैं. जब लेक्चरर बनी तो शुरू की एक घटना याद आती है. पटना वीमेंस कॉलेज में नया-नया मुझे क्लास लेने जाना था. सिस्टर लुशेरिया उस समय प्रिंसिपल थीं. फर्स्ट टाइम क्लास लेने के वक़्त मुझे थोड़ी घबराहट हो रही थी. तो सिस्टर ने एक बात कही - 'जाओ क्लास में और यह सोचो कि वहां जो भी स्टूडेंट बैठे हैं उन्हें कुछ नहीं मालूम और तुम्हें सब मालूम है.' फिर मैंने वही किया और यूँ ही करते-करते बहुत अच्छे से सब हो गया. मैं अपने कॉलेज डे में नाटक भी करती थी. कॉलेज में 'कला संगम' एक नाट्य संस्था थी उसके डायरेक्टर थें सतीश आनंद जो राष्ट्रिय स्तर की ख्याति प्राप्त कर चुके हैं. उनके साथ मैंने बहुत सारे प्ले किये. 'आषाढ़ का एक दिन' ,'बल्लभपुर की रूपकथा', 'गोदान', 'आम्रपाली' ये सारे नाटक कॉलेज के ओपन स्टेज पर किया था. प्ले करने के बाद मुझमे बहुत कॉन्फिडेंस पैदा हुआ. कॉलेज में होने वाले प्ले के दौरान की एक घटना याद है. 21 दिसंबर, 1980 को प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' पर आधारित एक प्ले हुआ जिसका नाट्य रूपांतरण वरिष्ठ लेखिका पद्मश्री डॉ. उषा किरण खान ने किया था. मैंने उसमे माधव की भूमिका निभाई थी. तब ठंढ का समय था. जो लड़की माधव का रोल कर रही थी वो किरदार इतना डिफिकल्ट था कि वह नहीं कर पा रही थी. फिर सभी स्टूडेंट ने मुझसे कहा कि 'मैम पब्लिक शो होने जा रहा है, आप ही ये रोल कीजिये.' तब मैं ही उस प्ले का डायरेक्शन कर रही थी. फिर मैंने दो दिन में अपने किरदार पर तैयारी की. जब ये नाटक होने जा रहा था, मुझे स्टेज पर जाना था, दाढ़ी लगाकर, धोती-मुरेठा बांधकर मेरा मेकअप पूरा हो गया था. वहीँ कुछ कॉलेज कैंटीन के स्टाफ स्टेज से थोड़ी दूर हटकर आग जलाकर ताप रहे थें. हमने सोचा कि जरा मजा लिया जाये तो हम माधव के गेटअप में ही वहां जाकर बैठ गए आग तापने. सब घबरा गया और पूछना शुरू कर दिया कि 'कौन हो, कहाँ से आये हो, बाहर से कैसे आ गए, जाओ यहाँ से.' हम जवाब नहीं दिए और चुपचाप बैठकर आग तापते रहें. फिर जब उनलोगों ने टोका तो मैंने आवाज भारी करके कहा - 'भाई ठंढ बहुत है, जरा सा आग ताप लेने दो गरमा जायेंगे.' एक ने कहा- 'यही जगह मिला है गर्माने का, जाइये बाहर जाइये. पता नहीं बाहर से कैसे आ गया है.' तब हमने कहा कि ' हम माया मैम हैं.' तब सब खड़ा हो गया और कहने लगा- 'बाप रे मैडम,ऐसा मेकअप.' मैंने कहा- जा रहे हैं नाटक करने' और उनको यूँ ही हैरत में डालकर मैं चली गयी.
     उन्ही दिनों मैंने एन.सी.सी. के तीन कैम्प भी अटैंड किये. रिपब्लिक डे में हिस्सा लिया और मॉन्टियरिंग कैम्प भी किये. जब बी.ए. फ़ाइनल ईयर में थी तो एन.सी.सी. के तहत मॉन्टियरिंग में 24 लड़कियों के पूरे ग्रुप में बिहार से हम दो ही लड़कियों का चयन हुआ था. क्यूंकि उनकी धारणा थी कि बिहार की लड़कियां स्ट्रॉन्ग नहीं होती हैं. ज्यादातर पंजाब, हरियाणा की लड़कियों पर फोकस रहता था. तो बिहार से एक मैं थी और एक थी शांता जेटली जो अभी भी एन.सी.सी. में अफसर हैं. जब हमलोगों की उत्तर काशी में ट्रेनिंग स्टार्ट हुई तो उसमे हमें रॉक क्लाइम्बिंग करना पड़ता था. नदियों को पार करना पड़ता था. फिर हमलोग बर्फ पर ट्रेनिंग किये. हफ्ता- दस दिन तो हमें ऐडजस्ट होने में लगा. नाश्ते-खाने में इतना कुछ रहता था लेकिन हमें ठंढ से भूख ही नहीं लगती थी. लगभग 20 किलो का वजन कंधे पर उठाकर हम सुबह निकलते थें और शाम तक एक पड़ाव पर पहुँचते थें. दिनभर पैदल चलने के क्रम में पैर में छाले पड़ जाते थें. मेरे पैर का अंगूठा लगभग डेड हो गया था. घरवालों को यही बताये थें कि हमें मॉडल पहाड़ पर चढ़ाया जायेगा क्यूंकि जब बताते कि रियल पहाड़ पर चढ़ना है तो हमें जाने की अनुमति ही नहीं मिलती. हम लोग कितने दिन तक नहाये नहीं थें. जब हमलोग एक महीने बाद लौटें तब जाकर नहाना हुआ. मैं तब एकदम ब्लैक हो गयी थी, घर में कोई पहचान नहीं पाया.
   70 के दशक में जब हम कॉलेज में पढ़ रहे थें, 1974 -75 में मोतिहारी में बाढ़ आयी थी और काफी तहस-नहस हुआ था. उस समय मेरा फ़ाइनल ईयर था और कॉलेज की मैं प्रीमियर थी. हमने प्रिंसिपल से कहा कि हम चाहते हैं कि कुछ बाढ़ राहत संबंधी काम करें. कॉलेज के एक सेन्ट्रल पॉइंट पर ताला लगाकर एक मनी बॉक्स डाल दिया गया . सारे क्लास में जाकर कहा कि आपलोग 10 -20 पैसा, चवन्नी-अठन्नी कुछ भी डाल दो. फिर कॉलेज से निकलने से पहले बॉक्स खोलकर काउंट करते थें. हमने स्टूडेंट से कहा कि आप कुछ भी नहीं दे सकते तो घर में न्यूज पेपर आता होगा, एक पुराना न्यूज पेपर ही लाकर दे दें. फिर न्यूज पेपर कलेक्ट करके उसे कबाड़ी में बेचकर उससे पैस इकट्ठा किए. उसके बाद हमने सिस्टर को मनाकर कॉलेज में एक प्रोग्राम आयोजित करवाया जिसमे पहली बार दूसरे कॉलेज के लड़के भी टिकट खरीदकर देखने आये थें. सिस्टर इसी टेंशन में थीं कि लड़कियों का कॉलेज है, बॉयज आएंगे तो हंगामा करेंगे, क्या होगा..? लेकिन हमने उन्हें भरोसा दिलाया कि कुछ नहीं होगा. फिर सबके सपोर्ट से दो दिन हुए प्रोग्राम में हॉल पूरा भरा रहा. वहां एक सिस्टर प्रोग्राम के दौरान हॉल में जहाँ अँधेरा था रह-रहकर वहां टॉर्च जलाकर देखतीं कि कहीं कोई लड़का कुछ गड़बड़ तो नहीं कर रहा है. लड़कियों के लिए फ्री था लेकिन लड़के 1 रूपये का टिकट लेकर खूब शौक से बन-ठन के देखने आये थें. इसके अलावा हमने गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' का चैरिटी शो कॉलेज में करवाया जिससे भी पैसे इकट्ठे हुए. उसके बाद हमलोगों ने नयी धोती-साड़ी, अनाज और दवाइयां खरीदकर एक वैन में भरकर दो टीचर और चार लड़कियों का ग्रुप लेकर मोतिहारी गए और दो दिन रहकर पीड़ितों की मदद की. 6 गांव कवर करके हमने खुद अपने हाथ से चीजें बांटी. कॉलेज के दिनों में ही पहली बार गर्ल्स का क्रिकेट हमने शुरू करवाया. प्रिंसिपल ने कहा- 'यह लड़कों का खेल है, आप हॉकी खेलें क्रिकेट नहीं.' लेकिन हमलोगों ने कहा- 'नहीं, हम क्रिकेट खेलेंगे.' इसलिए कि हमलोगों को एक बहुत अच्छा कोच मिल रहा था. फिर ओके होते ही हमलोग छाबड़ा स्पोर्ट्स की दुकान पर गए और क्रिकेट के सारे सामान खरीद लाएं. हमने खुद ही पिच बनाया. हमारे कॉलेज में एक क्रिकेट टीम बनी जिसकी मैं विकेटकीपर और वाइस कैप्टन बनी. एक क्रिकेट टीम मगध महिला कॉलेज में बनी. दो मैच हुए थें और दोनों ही हमने जीता.

   
शादी के रिसेप्शन के वक़्त माया जी अपने पति श्री रवि शंकर प्रसाद जी (केंद्रीय मंत्री ) और ससुराल वालों के साथ 
हम और मेरे हसबेंड श्री रवि शंकर प्रसाद जी (केंद्रीय मंत्री) एक ही बैच के थें. मेरा हिस्ट्री ऑनर्स तो उनका पोलिटिकल साइंस था. पहले मेरे हसबेंड की तरफ से ही प्रपोजल था लेकिन मैंने कहा- ' मैं अभी शादी नहीं करना चाहती' और टालती रही. लेकिन फिर उनका काफी प्रेशर हुआ तो कुमुद शर्मा जिनके स्कूल में मैं पढ़ाती थी और जो हम दोनों की ही मित्र थीं, वो बोलीं कि 'देखो शादी उसी से करो, जो तुमको सबसे ज्यादा चाहता हो.' तो फिर हमने हाँ कर दिया और 1982 में हमारी शादी हो गयी. एक और प्लस पॉइंट ये हुआ कि हमारे ससुर और पिता जी दोनों हाईकोर्ट में लॉयर और मित्र थें, परिवार जाना हुआ था. ऐसा संयोग हुआ कि हम अखिल भारतीय महिला परिषद् में मेंबर थें जिसमे बाद में सचिव बने. ये पहला ऑर्गनाइजेशन था जो 1927  में महिलाओं द्वारा और महिलाओं के लिए बना था. वहां कभी-कभी सावन मिलन और होली मिलन जैसे कार्यक्रम होते थें. तो गाने -बजाने में मुझे शुरू से ही मन लगता था. वहां मेरी सासु माँ बहुत अच्छा गाती थीं. हम तब कार्यक्रम में ढ़ोलक बजाते थें. तब हम ये नहीं जानते थें कि यही मेरी सासु माँ बनेंगी. वहां अनौपचारिक तरीके से हमारी मुलाकात होती थी. वे अपनी गाने-बजाने की पूरी टीम लेकर आती थीं. तब मुझे कहाँ पता था कि मैं इन्ही के घर बहू बनकर जानेवाली हूँ. मेरे लिए यह भी एक नया अनुभव रहा कि मुझे पोलिटिकल फैमली की बहू बनना पड़ा. मेरे ससुर जी इंडस्ट्रीज मिनिस्टर और जनसंघ के काफी प्रमुख संस्थापक में से रहे हैं. ससुराल में अटल बिहारी वाजपेयी, आडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी जी का बराबर आना-जाना लगा रहता था. जब हम शादी के बाद सुबह ससुराल आये तो तय हुआ कि शाम में मेरा सितारवादन होगा. मैं तो घबरा गयी, बहाना किया कि मैं तो सितार लायी नहीं हूँ. लेकिन सासु माँ ने एग्जीबिशन रोड स्थित  मेरे मायके से सितार मंगवा लिया. फिर ड्राईंग रूम में मेरा सितारवादन का कार्यक्रम हुआ. सासु माँ ने कहा कि 'देखो, मेरे यहाँ का चलन है कि जो बहू आती है वो गाती है. मैंने कहा- हम तो गाते नहीं हैं, हम तो बजाकर सुना देंगे.' लेकिन उनकी जिद की वजह से मैंने थोड़ा सा होली गीत गा दिया. तब पूरा घर मेहमानो से भरा हुआ था. जब शादी की चहल-पहल सब खत्म हुई तो हमलोग हनीमून के लिए गोवा चले गए. मैं अक्सर ससुराल में देखती की घर पोलिटिकली लोगों से भरा रहता है. मैं नयी बहू थी इसलिए जितने भी लोग मौजूद होते सबको पैर छूकर प्रणाम करना पड़ता. अच्छी-खासी एक्सरसाइज हो जाती थी. आजकल की लड़कियों का देखते हैं कि वे अलग माहौल मिलते ही तुरंत पेशेंस खो देती हैं. जरा सा भी वक़्त नहीं देतीं, एडजस्ट नहीं करतीं. जॉब करनेवाली आती हैं तो सोचती हैं कि हम क्यों झुकें, लेकिन यह गलत है. हमलोग भी जॉब करते थें. मैं तो शादी के पहले से ही नौकरी में आ गयी थी. फिर भी मैंने बाहर और घर दोनों संभाला. आजकल तो देखती हूँ कि शादी के चार महीने, साल भर भी नहीं हुए और डायवोर्स हो गया जबकि यह हमारा कल्चर नहीं है. क्यूंकि खूबसूरती सबको साथ लेकर चलने में ही है. परिवार में बहुत बड़ी शक्ति होती है. आप दूसरे घर में जाते हैं तो हर घर का अलग कल्चर होता है. आजकल तो अच्छा है कि इंटरकास्ट मैरेज हो रहे हैं, मुझे ख़ुशी है इस बात की. लेकिन पहले एक समय था कि एक ही कास्ट में, एक ही समाज में शादी हो रही है फिर भी बहुत सारी चीजों में अंतर देखने को मिलता था. तो थोड़ा सा सभी को एडजस्ट करके चलना चाहिए. मेरा बेटा हुआ तब मैं पटना वीमेंस कॉलेज में पढ़ा रही थी. मैं बच्चे को छोड़कर जाती थी. मेरी गैर मौजूदगी में बेटे की देखभाल मेरी सासु माँ कर दिया करती थीं इसलिए मैं पूरी तरह से निश्चिंत रहती थी. मैं कॉलेज से थकी हारी आती तो देखती कि घर में पॉलिटिकल लोगों की भीड़ लगी है. नौकर-चाकर होते हुए भी मैं खुद जाकर देखती कि सभी को ठीक से नाश्ता-पानी मिला कि नहीं. और घर की बड़ी बहू होने के नाते मैं इसे अपना दायित्व समझती थी. मुझे याद है कि एक रोज मैं सासु माँ को बोलकर निकली कि जरा सा माँ के यहाँ होकर आती हूँ. मैं रिक्शे से निकली और माँ के यहाँ जैसे पहुंची तो उसी टाइम ससुराल से फोन आ गया कि 'बेटा, अटल जी आ रहे हैं तो तीन-चार लोगों का खाना देखना होगा.' मैं उसी समय माँ को बताकर वापस लौट गयी. चूँकि अटल जी को मछली बहुत पसंद है इसलिए रास्ते में ही मछली खरीदते हुए मैं घर पहुंची. नौकर- चाकर थें घर में मगर अटल जी को मछली मैं खुद बनाकर खिलाती थी. सबसे बड़ी बात तब मुझे ये लगी कि मेरे सास-ससुर को भी यह एहसास हुआ कि उस मौके पर माया को घर में होना चाहिए तभी तो उन्होंने मुझे याद किया. तो यही होता है परिवार का प्यार और अपनापन. 

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