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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Thursday 31 January 2019

गाँधी जी के शहादत दिवस पर गाँधी मैदान में हुआ नुक्क्ड़ नाटक "नाट्य शिक्षक की बहाली"


पटना, "कुछ काम करो, कोई तुम्हें लड़की भी नहीं देगा...." कलाकार तो हो, मगर करते क्या हो...?"
अगर लोग किसी कलाकार से यह पूछें तो उसे कितना दर्द महसूस होता होगा..... एक सफल कलाकार के लिए उसकी कला ही उसका काम है, उसकी तपस्या है फिर भी लोग अगर उसकी वेदना समझ ना पाएं तो इससे दुखद और क्या होगा...? कला और कलाकार से जुड़े कुछ ऐसे ही तल्ख़ हकीकत का सामना हो रहा था पटना के गाँधी मैदान में.








30 जनवरी, पटना के गाँधी मैदान में महात्मा गांधी के शहादत दिवस के अवसर पर संस्था 'लोक पंच' की प्रस्तुति "नाटय शिक्षक की बहाली" (यह नाटक नहीं आंदोलन है) का जहाँ मंचन हुआ. इस नुक्कड़ नाटक के जरिये रंगकर्मियों के दर्द को समाज से रु-ब-रु कराया गया.
साथ-ही-साथ कलाकरों ने सरकार से मांग की कि बिहार के स्कूल और कॉलेजों में नाटक की पढ़ाई हो एवं नाटय शिक्षक की बहाली हो. इसके लिए समस्त रंगकर्मी साथियों को सहयोग देने की अपील की.
और कार्यक्रम के समापन पर जाते-जाते कलाकारों द्वारा लगाया गया यह नारा दर्शकों के अंतर्मन में भी गूंज उठा - 'जय रंगकर्म', 'जय रंगकर्मी', 'जय बिहार'....

Wednesday 30 January 2019

पत्रकार पर हुए हमले के खिलाफ श्रमजीवी पत्रकार यूनियन ने निकाला आक्रोश मार्च

पटना, 29 जनवरी, पत्रकार संजय पांडे, विकास कुमार व विशाल कुमार पर हुए जानलेवा हमले के खिलाफ बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के बैनर तले आक्रोश मार्च निकाला गया। यूनियन के महासचिव प्रेम कुमार के नेतृत्व में फ्रेज़र रोड स्थित रेडियो स्टेशन से डाक बंगला चौराहे तक हुए आक्रोश मार्च में बड़ी संख्या में पत्रकार शामिल हुए। मार्च के दौरान पत्रकारों ने दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के साथ पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने की मांग की।
       इस अवसर पर बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महासचिव प्रेम कुमार ने कहा कि अब तक पत्रकारों पर जानलेवा हमला करनेवालों के खिलाफ पुलिस ने कोई र्कारवाई नहीं की है। इससे पत्रकारों में आक्रोश है।
 
प्रेम कुमार ने बताया कि, दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय पुलिस ने पीड़ित पत्रकार के खिलाफ भी केस दर्ज कर दिया है। कहा कि पीड़ित पत्रकार पर दर्ज केस भी वापस लिया जाए। बता दें कि पत्रकार संजय पांडे, विकास कुमार और विशाल कुमार पर 21 जनवरी की रात सगुना मोड़ स्थित एक निजी हॉस्पीटल के बाउंसरों व प्रबंधकों ने जानलेवा हमला किया था। दरअसल सगुना मोड़ के पास बाइक सवार दो युवकों को दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद भर्ती कराया गया था। इनमें से इलाज के दौरान एक युवक की मौत हो गई थी। युवक की मौत के बाद परिजनों ने अस्पताल प्रशासन पर इलाज में लापरवाही के साथ पैसे ऐंठने का आरोप लगाते हुए जमकर हंगामा किया था। इस पूरे मामले को जब पत्रकारों ने अपने कैमरे में कैद किया तो अस्पताल प्रशासन ने उन पर जानलेवा हमला कर दिया। आक्रोश मार्च में पत्रकार नियाज़ आलम, अरुण कुमार, विशाल कुमार सिन्हा, राजदेव पांडे, अभिषेक कुमार, अमरजीत शर्मा, आनंद प्रकाश ओझा, टूटू कुमार, उमेश कुमार सिंह, विद्यानंद, राज किशोर सिंह, जितेंद्र कुमार, देव प्रकाश रवि, धर्मेंद्र कुमार, अमृत, सीके तिवारी, विशाल कुमार, सुधीर कुमार, रामजीत, आबिद हुसैन, नागेंद्र, इंद्रजीत, दिनेश, केपी सिंह, शशि उत्तम, अनिल कुमार, रामजी प्रसाद, अनिश कुमार आदि पत्रकार शामिल रहे।

Saturday 26 January 2019

'बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक' : उपाध्याय फैमली, लोहियानगर, कंकड़बाग




बोलो ज़िन्दगी की टीम 
26 जनवरी, गणतंत्र दिवस की शाम 'बोलो ज़िन्दगी फैमली ऑफ़ द वीक' के तहत आज बोलो ज़िन्दगी की टीम (राकेश सिंह 'सोनू', प्रीतम कुमार व मेक ए न्यू लाइफ फाउंडेशन एनजीओ की सचिव तबस्सुम अली) पहुंची पटना के लोहियानगर हाऊसिंग कॉलोनी, कंकड़बाग के उपाध्याय फैमली में. जहाँ हमारे स्पेशल गेस्ट आकाशवाणी पटना के सहायक निदेशक डॉ. किशोर सिन्हा भी शामिल हुए.



पाइनएप्पल और एप्पल की खास जलेबी, आलू-केला टिक्की दही चाट 





हम मेहमानों के तशरीफ़ रखते ही हमारे सामने श्रीमती किरण उपाध्याय द्वारा बनाई गयी पाइनएप्पल और एप्पल की खास जलेबी, आलू-केला टिक्की दही चाट और गुड़ की चाय परोसी गयी. और जायका लेने के बाद सभी ने इन व्यंजनों के स्वाद की दिल खोलकर तारीफ की.









जब उपाध्याय फैमली से यह पूछा गया कि 'बोलो ज़िन्दगी' में आपको क्या अच्छा लगता है तो उन्होंने बताया कि "आप जिस तरह से हमारे समाज की हस्तियों के संघर्ष की पूरी कहानी बताते हैं वो हमें पसंद आता है."




'माँ वैष्णवी ज्वेलर्स' के सौजन्य से उपाध्याय फैमली को आकर्षक 
गिफ्ट भेंट करते हुए स्पेशल गेस्ट  
डॉ. किशोर सिन्हा व 'बोलो जिंदगी' की टीम 



इस कार्यक्रम को स्पॉन्सर्ड किया है रामनगरी आशियाना नगर, पटना के 'माँ वैष्णवी ज्वेलर्स' ने जिनकी तरफ से बोलो जिंदगी टीम और हमारे स्पेशल गेस्ट के हाथों उपाध्याय फैमली को एक आकर्षक गिफ्ट भेंट किया गया.










उपाध्याय फैमली
फैमली परिचय- फैमली के मुखिया उमेश उपाध्याय जी बिहार स्टेट हाऊसिंग बोर्ड में एकाउंट्स ऑफिसर हैं. गाजीपुर जिले के हिंदुस्तान के सबसे बड़े गांव गहमर के रहनेवाले हैं. उनकी पत्नी श्रीमती किरण उपाध्याय हाउसवाइफ हैं लेकिन उनके खाने बनाने के शौक ने उन्हें ले आया यू -ट्यूब पर 'किरण उपाध्याय की रसोई' के नाम से. इनके दो बेटे हैं. जहाँ शिवेश उपाध्याय बीआइएल से लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं वहीँ छोटे बेटे अमृतेश उपाध्याय डॉनबॉस्को में 12 वीं क्लास में हैं. कराटे का शौक रखते हैं और स्कूल स्तर पर हुई प्रतियोगिताओं में गोल्ड एवं सिल्वर मैडल भी जीत चुके हैं.

फैमली के मुखिया उमेश उपाध्याय जी को ज्योतिष में बहुत रूचि है. मैथ से ऑनर्स कर चुके उपाध्याय जी इसे विज्ञान और गणनाओं का खेल मानते हैं. अपने इस शौक के बारे में विस्तार से बताते हुए वे कहते हैं "मैं घर में सबसे बड़ा हूँ. जब पिता का देहांत हुआ तो बहनों की शादी की सारी जिम्मेदारी मेरे कन्धों पर आ गयी. बहनों की कुंडलियां मिलान हेतु पंडित जी के यहाँ जाना पड़ता था. एक पंडित जी से थोड़ा टिप्स लिए और खुद कुंडली बनाना सीख गएँ. इंट्रेस्ट और जगा तो विद्वानों के बताये अनुसार किताबों का अध्ययन करना शुरू किये. 20-22 वर्ष की उम्र में ही ऑफिस से शाम को घर आते ही ज्योतिष पढ़ने बैठ जाते थें. पहले-पहल अपने ही घर-परिवार के लोगों को देखना शुरू किये. फिर बड़े-बड़े ज्योतिषियों से मिलना और उनसे ज़रूरी टिप्स लेना शुरू किये. वे मानते हैं कि ज्योतिष अंधविश्वास नहीं बल्कि विज्ञान है और आप इसका जितना गहराई से अध्ययन करोगे चीजों का उतना ही सटीक विश्लेषण कर पाओगे."

श्रीमती किरण उपाध्याय का इंटरव्यू करते
 'बोलो ज़िंदगी' के हेड राकेश सिंह 'सोनू'
श्रीमती किरण उपाध्याय ने अपने कुकिंग के शौक के बारे में बताया कि "मुझे शुरू से ही शौक था कि सबको बनाकर खिलाएं या कुछ-न-कुछ इंवेंट करें खाने में. लोग तारीफ करते थें. कुछ कहने लगें बहुत अच्छा बनाती हैं, हमें भी सिखाइये. मेरे मायके में प्याज-लहसुन भी नहीं बनता है तो वहां भी कुछ ऐसा करते थें कि बिना प्याज-लहसुन के भी सभी को खाना टेस्टी लगे. जब ससुराल आएं तो सबके सपोर्ट ने मेरे शौक को बढ़ावा दिया. मेरी सास भी बहुत प्रेरित करती थीं और कभी कोई चीज करने से रोकी नहीं. वैसे तो मैंने ससुराल आकर ही अपनी आगे की पढाई पूरी की. एम.ए. करके कंप्यूटर में टैली वगैरह का भी प्रशिक्षण लिया लेकिन कहीं जॉब के लिए ट्राई नहीं किया. क्यूंकि मुझे खाने बनाने में ही ज्यादा इंट्रेस्ट है. मुझे कोई सारा सामान लाकर दे जाये और जितना भी आइटम बनाना हो हम सारा काम छोड़कर उसमे रम जायेंगे. जब हम यू-ट्यूब पर दूसरों की रेसिपी देखते थें तो एहसास होता कि ये टफ तो नहीं है, ये तो हम भी कर सकते हैं, देखते हैं क्या होता है. मैंने यू-ट्यूब पर 'किरण उपाध्याय की रसोई' अपना चैनल शुरू किया तो रिस्पॉन्स अच्छा मिला. बीच में लगा कि मैं छोड़ दूँ तब बहुत लोगों ने कहा कि नहीं आप कंटीन्यू कीजिये. मैंने ऐसे डिश की रेसिपी बनाकर यू-ट्यूब पर डालने शुरू किये जो बहुत कम या देखने को ही नहीं मिलते हैं. जैसे फ्रूट जलेबी, राजमा-सोयाबीन-काबली चना का कटलेट. आलू-केला टिक्की दही चाट, तीसी की चटनी, मशरूम चिली, आलू का हलवा इत्यादि. खाने के डिश बनाते समय मैं अक्सर इन बातों का ध्यान रखती हूँ कि तेल-मसाला भी ज्यादा न पड़े और हेल्दी फ़ूड हो. जैसे हम ब्रोकली वगैरह का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. लाल मिर्च का यूज ही नहीं करते. बहुत लोग पूछते हैं कि आये दिन टीवी पर होनेवाले कूकरी शो में आप क्यों नहीं ट्राई करतीं हैं तो पहले मुझे खुद पर उतना कॉन्फिडेंस नहीं था कि मैं वहां जाऊं लेकिन अब मन बनाया है. फटे हुए दूध का बहुत सारा आइटम बनाती हूँ. जैसे उसका पनीर भुजिया, बेसन की सब्जी में फटे हुए दूध का छेना मिला देने से शब्जी बहुत सॉफ्ट व टेस्टी बन जाती है. दही सैंडविच बनने के बाद मान लीजिये उसका शब्जी या दही बच गया तो उसी में सूजी मिलाकर उसका उत्तम बना दिए. मतलब मेरा रहता है कि कुछ चीज बर्बाद नहीं हो. घर-गृहस्थी से समय निकालकर अब तक 68 रेसिपी मैं बनाकर अपने यू-ट्यूब चैनल पर अपलोड कर चुकी हूँ."


जब हमारी टीम मेंबर तबस्सुम अली ने उनसे पूछा - "इसमें हसबैंड का कितना सहयोग मिलता है..?" किरण जी कहती हैं- "बहुत सहयोग मिला है, वे बहुत प्रोत्साहित करते हैं." तभी उपाध्याय जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि "ऑफिस में भी मेरे सहयोगी स्टाफ का ध्यान मेरे लंच बॉक्स पर ही लगा रहता है, वे अक्सर कहते हैं कि लगता है सर, आज कुछ बढ़िया डिश लाये हैं, खुशबू बहुत अच्छी आ रही है."

गेस्ट से सवाल - फिर उमेश जी के बड़े बेटे शिवेश उपाध्याय ने बोलो जिंदगी के स्पेशल गेस्ट डॉ. किशोर सिन्हा जी से जिज्ञासावश सवाल किया कि "आकाशवाणी तो बहुत पुराना केंद्र है लेकिन अभी कम्पटीशन में बहुत सारे प्राइवेट रेडियो चैनल हैं जो यूथ को अट्रैक्ट कर रहे हैं. तो आप आकाशवाणी के लिए क्या कर रहे हैं जिससे हमारे यूथ अट्रैक्ट हों..?"

स्पेशल गेस्ट आकाशवाणी के सहायक निदेशक
डॉ. किशोर सिन्हा अपना सन्देश देते हुए 
गेस्ट का जवाब- डॉ. किशोर सिन्हा ने जवाब देने से पहले शिवेश से एक सवाल पूछा- यूथ को क्या सिर्फ इंटरटेनमेंट की जरुरत है..? तो जब शिवेश ने कहा -नहीं, नॉलेज की भी. तब डॉ. किशोर सिन्हा जी ने कहा- "तो क्या वो नॉलेज दूसरे रेडियो चैनल्स से मिलता है..? क्या 6 से 14 साल के बच्चों का पार्टीशिपेशंस होता है..? यूथ या किसी भी एज ग्रुप की बात करें तो जो मीडिया है उसका कोई एक ही एज ग्रुप या एक ही क्षेत्र नहीं होता. वो हर वर्ग के लिए, हर क्षेत्र के लिए, हर विषय के लिए, उपयोगी होगा सिर्फ इंटरटेनमेंट के लिए नहीं. मुझे लगता है प्राइवेट रेडियो चैनल्स सूचना तो देते हैं कि कहाँ पर क्या है या कहाँ क्या हो रहा है..लेकिन प्रॉपर पार्टीशिपेशंस नहीं है. वन वे कम्यूनिकेशंस है. क्या आमलोग वहां जाकर अपनी समस्याएं बता सकते हैं...? नहीं ना. आकाशवाणी का मोटो है 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय'. इसमें सिर्फ यूथ के इंटरटेनमेंट का ख्याल नहीं रखा जाता बल्कि पुराने गाने भी आते हैं जो पुरानी पीढ़ी को पसंद आते हैं. पुरानी फिल्मों पर भी प्रोग्राम होते हैं जिन्हे सुनकर नयी पीढ़ी को बहुत सी चीजों का नॉलेज होता है. अगर आप सप्ताह में आकाशवाणी तीन दिन भी सुन लें, 2 घंटे भी सुन लें तो उतने में बहुत सारी जानकारी मिल जाएगी. सभी क्षेत्रों यथा फिल्म, लिटरेचर, स्पोर्ट्स, एग्रीकल्चर इनसे जुड़ी नयी प्रतिभाओं को भी सामने लाने की कोशिश करते हैं. आप अगर यूथ के तौर पर अपनी बात कहना चाहते हैं किसी भी विषय पर तो आप वहां 'युववाणी' में आकर अपनी बात कविता, कहानी या वार्ता के जरिये कह सकते हैं. आकाशवाणी का उद्देश्य सूचना, शिक्षा के साथ मनोरंजन भी है. पीपल के इंटरव्यू के अलावा आपको आकाशवाणी में लोकगीत सुनाई देगा, संस्कृति की झलका मिल जाएगी. अर्थात आकाशवाणी आपको संस्कारित करता है. मुझे जो बहुत से नॉलेज हैं मैंने कोई जेनरल नॉलेज की किताब नहीं पढ़ी है, ये नॉलेज मैंने आकाशवाणी (रेडियो) सुनकर ही हासिल की है कि मैं किसी भी विषय पर बातें कर सकता हूँ.

सन्देश- उपाध्याय फैमली के यहाँ से विदा होने से पहले बोलो जिंदगी के स्पेशल गेस्ट डॉ. किशोर सिन्हा ने यह सन्देश दिया कि "आज ज़िन्दगी बहुत आपाधापी की हो गयी है, समय नहीं है किसी के पास कि बैठकर बहुत से विषयों पर बात करें. तो जितना समय है उसका सदुपयोग कीजिये. क्यूंकि वो समय अगर जाया हो गया तो फिर लौटकर दुबारा आपके पास नहीं आएगा."

Sunday 20 January 2019

कभी जो मुझे ताना देते थें आज उन्हीं के बच्चे मुझसे डांस सीखते हैं: नीलम सिंह, विनर, बिग मेमसाब (सीजन-8)

By : Rakesh Singh 'Sonu'


10 वीं करने के बाद जब मैंने इंटर में एडमिशन लिया था तभी मेरी शादी हो गयी. उसके बाद मैंने पढ़ाई छोड़ दिया और वैसे भी पढ़ाई में शुरू से ही मेरा इंट्रेस्ट नहीं रहा, मुझे डांस वगैरह में ज्यादा दिलचस्पी थी. बिहार के गया जिले में मेरा मायका है और ससुराल झाड़खंड के डाल्टेनगंज में. मेरे ससुर जी दरोगा थें जिनकी पोस्टिंग तब पटना में थी इसलिए शादी के बाद हम पटना ही रहने लगें. डाल्टेनगंज गांव-ससुराल में कभी हम 10-15 दिन से ज्यादा नहीं रहें. बचपन से ही मेरा नेचर रहा है लोगों की हेल्प करना इसलिए ससुराल आते ही मैं जल्द ही फैमली के साथ घुल-मिल गयी. तब सास बीमार रहती थीं तो उनकी देखभाल भी करती थी. ससुर जी ने गोतिया लोगों से काफी सुना था कि मैं गांव-घर के शादी-फंक्शन में बहुत अच्छा डांस करती हूँ. उनको बेटी नहीं है इसलिए मुझे बहू नहीं बेटी ही मानते थें. शादी बाद पटना में कभी रिलेटिव के यहाँ किसी फंक्शन में मैं डांस करते वक़्त तब भूल जाती थी कि मैं यहाँ बहू हूँ. जब शादी हुई थी मैं बहुत दुबली-पतली थी. साड़ी पहनने में दिक्कत आती थी. सास-ससुर ने बोला "सूट पहना करो." बहू वाली फीलिंग कभी महसूस ही नहीं हुई. तब पटना में दो रूम का फ़्लैट हुआ करता था. कमरे में कभी ससुर के आते ही मैं उठकर खड़ी हो जाती तो वो गुस्सा होते और कहते "खड़ी क्यों हो गयी, बैठ जाओ." किसी ने कभी रोक-टोक नहीं किया. जबकि मायके में ही थोड़ी बहुत कड़ाई थी, खासकर मेरे डांस को लेकर लेकिन मेरा डांस का शौक ससुराल में ही पूरा हुआ.
शादी के बाद लाइफ एक हाउस वाइफ की तरह नॉर्मल चलने लगी फिर मेरी बड़ी बेटी जब प्ले स्कूल में जाने लगी तो उसके स्कूल में एक कम्पटीशन हुआ था जिसमे मदर्स भी परफॉर्म की थीं. मुझे भी बोला गया था, चूँकि मैं डांस शुरू से करती थी तो मैंने बोला "अपनी फैमली से पूछकर आपको बताउंगी, अगर वो रेडी होंगे तो मैं परफॉर्म जरूर करुँगी." फर्स्ट टाइम जब डांस शो में हिस्सा लेना था तो मैं डरी हुई थी कि ससुराल वाले क्या बोलेंगे. जब पति से पूछा तो वे बोले "पहले जाकर पापा से पूछो." जब ससुर जी से इजाजत मांगी तो उन्होंने कहा- "इसमें बुराई क्या है, अगर कोई बोलेगा तो मैं देखूंगा." उनकी बात सुनकर मैं बहुत इमोशनल हो गयी थी. जब सास-ससुर का ही सपोर्ट ना मिला होता तो फिर पति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते. मेरी फैमली से मुझे परमिशन मिल गया तो मैंने परफॉर्म किया. लोगों को बहुत पसंद आया. किसी ने सोचा नहीं था कि मैं इतना अच्छा कर पाऊँगी. वहां से थोड़ा कॉन्फिडेंस बढ़ा. वहां मेरी एक फ्रेंड बनी अरुणिमा कुमारी जो मीडिया से जुड़ी हुई थी तो उसने मुझे जी पुरवैया के एक शो 'गजब है' में इन्वाइट किया, उसमे हाउसवाइफ का स्पेशल शो आ रह था जिसमे डांस और सिंगिंग परफॉर्म करना था. उसमे मैंने डांस किया जो स्क्रीन पर मेरा पहला परफॉर्म था.
तीन साल पहले मुझे सुपर डीआईडी मॉम्स के बारे में पता चला तो मैंने सोचा मैं ऑडिशंस नहीं दूंगी क्यूंकि मैंने कभी डांस सीखा नहीं था बस टीवी देखकर कॉपी करती थी. तो फिर मेरी फ्रेंड अरुणिमा ने मोटिवेट किया कि तुम कर सकती हो. लेकिन मैंने कहा- "मॉम्स बहुत बड़ी चीज है, ये मेरे बस की बात नहीं है". मैं खुद-ब-खुद पीछे हट गयी मगर मेरी फ्रेंड मेरे घर आयी और मुझे समझाई कि एक बार ट्राई करने में क्या हर्ज है. आज मैं जो कुछ भी हूँ इसमें उसका बड़ा हाथ है. फिर मैंने उसी रात खुद से माधुरी का एक सॉन्ग रेडी किया. सुबह ऑडिशन देने गयी जहाँ जजेस ने मेरी बहुत तारीफ की और मैं ऑडिशन के फर्स्ट फिर सेकेण्ड राउंड में सेलेक्ट हुई. वहां उन्होंने बोला कि "नीलम आप अच्छा कर सकती हो, अभी थर्ड राउंड कोलकाता ऑडिशन है, आपके पास कम-से-कम एक महीना टाइम है. आप किसी डांस एकेडमी को ज्वाइन करो और सीखो ताकि और बेहतर हो जाये." फिर मैंने एकेडमी ज्वाइन कर डांस सीखना शुरू किया. फैमली से काफी सपोर्ट मिला. हसबैंड और पूरी फैमली आज भी चाहती है कि मैं आगे बढूं. वहां से एक महीने बाद मैंने थर्ड राउंड क्वालीफाई किया. फिर मुझे चौथे राउंड के लिए वहीं कोलकाता बुलाया गया. फिर पांचवे राउंड के लिए मुंबई ऑडिशन देने गयी जो टीवी पर टेलीकास्ट होता है. वहां जजेस में गोविंदा, टेरिस और गीता जी थीं. मेरा डांस उन्हें बहुत पसंद आया. बस मेरे में कमी थी एक्सप्रेशंस की. मैंने लाइफ में कभी उतना बड़ा स्टेज नहीं देखा था, सपने में भी नहीं सोचा था कि स्टूडियो राउंड तक पहुंचूंगी. एक्सप्रेशंस की कमी की वजह से मैं वहां से आउट हो गयी. फिर मेरे अंदर जुनून बढ़ा कि मैं कर सकती हूँ.
 उसके बाद मैंने बहुत सारे शो किये, हिंदी एलबम किये. मैंने पुलिस फाइल किया जो बिग गंगा पर आता था. फिर मैं महुआ के भौजी न. वन में सेलेक्ट हुई थी. मेरा टिकट वगैरह सब रेडी था लेकिन जाने के एक दिन पहले मेरा एक्सीडेंट हो गया तो मैं नहीं जा पायी. उसके बाद कई छोटे-मोटे काम करती रही. फिर फाइनली बिग मेमसाब सीजन 8 शुरू हुआ तो मैंने उसमे पार्टिसिपेट किया. मैं तब नहीं करना चाहती थी क्यूंकि मेरा उस समय काम चल रहा था. कई स्कूल में एनवल फंक्शन थें. चूँकि मैं कोरियोग्राफर हूँ तो मैंने काफी सारे स्कूल का काम उठा रखा था. 2016 से मेरा खुद का कंकड़बाग में 'सना बॉर्न टू डांस एकेडमी' चल रहा है. तभी मुझे बिग गंगा से कॉल आया कि ऑडिशंस है तो मैं सोच में पड़ गयी कि मैं जाऊं या न जाऊं. स्कूल वाला काम जरुरी था, क्यूंकि मैंने एडवांस ले रखा था. फिर मैंने शूटिंग के एकदम लास्ट डे जाकर ऑडिशन दिया. ऑडिशन में सेलेक्ट हो गयी. एक दिन पहले अपने काम से मैं इतनी थकी हुई थी कि मुझे ऐसा लगा मैं एक राउंड भी क्लियर नहीं कर पाऊँगी. लेकिन जब मैंने फर्स्ट राउंड क्वालीफाई कर लिया तो फिर मुझे लगा कि नहीं, मुझे यहाँ आना ही चाहिए था. अब जब मैं आ चुकी हूँ तो पीछे नहीं हटूंगी. मेरी डांस की तारीफ हुई.
उसमे 96 प्रतिभागी थें. बिहार, यू.पी., झाड़खंड, दिल्ली आदि बहुत जगहों से कॉंटेस्टेंट आये थें. लास्ट फिनाले चार लोगों के बीच हुआ. अभिनेता विनय आनंद जी होस्ट कर रहे थें. वहां नॉर्मली लोग मस्ती में डांस करते थें मगर मेरा ये था कि जब गाना बजता मैं दुनियादारी भूल जाती थी, मैं गाने की धुन में खो जाती थी. सबसे ज्यादा डर मुझे सवाल-जवाब राउंड से लगता था. एक सवाल था डॉट ने डॉट को डॉट से डॉट-डॉट-डॉट... इस तरीके के जितने भी सवाल आते तब मैं जितने भी भगवान हैं सबको याद कर लेती थी. एक गेम राउंड जो कि पार्टनर के साथ खेलना था. घर का कोई मेल सदस्य पार्टनर हो सकता था तो मैंने उस गेम में अपने हसबैंड बाला जी को पार्टनर के रूप में चुना. गेम में एक कुकिंग राउंड भी था जिसमे मैं नर्वस हो जाती थी क्यूंकि मुझे खाना बनाने का उतना शौक नहीं है, जबकि मुझसे अच्छा तो मेरे हसबैंड खाना बना लेते हैं.


चूँकि गुरु जी से शादी हुई थी इसलिए उनसे थोड़ा डर भी लगता था : बिन्नी बाला, संस्कृत शिक्षिका, राजकीय त्रिभुवन हाई स्कूल, नौबतपुर

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा मायका पटना से थोड़ी दूर खगौल, दानापुर में है. मेरे पिता जी हाई स्कूल में टीचर थें. तीन बहन एक भाई में सबसे बड़ी मैं ही हूँ. ग्रेजुएशन खगौल महिला कॉलेज से किया. शादी के पहले ग्रेजुएशन की परीक्षा दे चुके थें और शादी बाद ठीक बिदाई के दूसरे दिन मेरा रिजल्ट आया था. 9 वीं कक्षा से ही पं. कपिलदेव सिंह जी के संस्थान में संगीत सीखना शुरू कर दिए थें. गुरु जी तो खुद तबला बजाते थे लेकिन संगीत सिखाने वहाँ और दूसरे लोग आते थें. सीखने के दौरान ही एक प्रोग्राम में उनके गांव जाना हुआ. तब मेरी इंटर की परीक्षा होनेवाली थी. वहीँ पर पहली बार अपने पतिदेव को देखी थी. गुरु जी अपने गांव एक सूर्य मंदिर का निर्माण करवाए थें जिसका उद्घाटन था. सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन भी था. जब पहली बार अपने पति को देखें तो वो मेरे पसंदीदा सफ़ेद रंग का कुर्ता-पायजामा पहने हुए थें. वहां सूर्य मंदिर के चबूतरे पर बैठकर वे गायन कर रहे थें. सूर्य की किरणों की वजह से वे चंद्र की भांति सुशोभित हो रहे थें. उस दिन हम सिर्फ यही जान पाएं कि वे बहुत अच्छा गाते हैं और उनका नाम रजनीश है. फिर हम सभी गुरु जी के साथ प्रोग्राम खत्म होने के तुरंत बाद घर लौट आएं. लेकिन वापस आने के बाद रजनीश जी के प्रति मेरे मन में एक प्यार का बीज अंकुरित हो चुका था.
गुरु जी के संस्थान में हमलोग संगीत सीखने आते थें, उसी क्रम में वहां आनेवाले हमारे एक पुराने गुरु हीरा लाल मिश्र सिखाने आते थें. उनकी उम्र काफी हो चुकी थी और जब उनको आने-जाने में दिक्कत होने लगी तब वो हमें सिखाना छोड़ दिए. कुछ दिन वैसे ही चलता रहा फिर अचानक से संस्थान वाले गुरु जी बोलें कि "अब से रजनीश आएगा सिखाने." यह सुनकर मेरे मन में ख़ुशी के लड्डू फूट पड़े. फिर रजनीश जी संस्थान आना शुरू किये लेकिन उनके बारे में हम कुछ ज्यादा जानते नहीं थें. मेरे मन में तो उनके लिए दूसरा वाला ही भाव था लेकिन वे कुछ जानते नहीं थें इसलिए हम दोनों में गुरु-शिष्य वाला रिश्ता ही चल रहा था. गुरु जी बाद में पटना चले गए तो उनका म्यूजिक इंस्टीच्यूट भी पटना शिफ्ट हो गया. तब पापा बोले- "अब तुम पटना सीखने जाओगी तो तुम्हें दिक्कत होगी, इसलिए छोड़ दो." लेकिन मेरे मन में तो रजनीश जी से मिलने की अभिलाषा थी और कम-से-कम 6 साल म्यूजिक सीखना था तो हमलोग पटना गुरु जी के इंस्टीच्यूट जाने लगें. पटना गुरु जी के इंस्टीच्यूट में सप्ताह में एक दिन हम बस में जाते थें जहाँ रजनीश जी सिखाने आते थें. इसलिए हर रविवार का बेसब्री से इंतज़ार रहता था. तब हम बी.ए. पार्ट 1 में थें. मेरे पापा जब पहली बार रजनीश जी से मिले तो बहुत प्रभावित हुए. फिर धीरे-धीरे मिलना-मिलाना शुरू हुआ. एक दिन गुरु जी जब हमारे यहाँ आएं तो वो खुद से ही मेरे रिश्ते का प्रस्ताव मेरी मम्मी को दिए कि "लड़की की शादी करनी है ना." उनका इशारा रजनीश जी की तरफ था कि "सजातीय लड़का है, दोनों को संगीत पसंद है तो रिश्ता कर दिया जाये." तब गुरु जी को हमारे मन की बात नहीं मालूम थी और ना ही मैंने कभी घरवालों को कुछ बताया था. बस यूँ ही घर में अक्सर मेरे मुँह से रजनीश जी की तारीफ सुनकर घरवालों को एहसास हो गया था कि मैं उनको पसंद करती हूँ. तो जब रजनीश जी के पास प्रस्ताव गया तो वे सीधे इंकार कर दिए कि "अरे ऐसे कैसे ? ये लड़की तो मुझसे संगीत सीखती है, शिष्या है मेरी तो शादी क्या करना." उनकी तरफ से वैसा कुछ इंट्रेस्ट नहीं था तो फिर बात खत्म हो गयी. उसके बाद मैं जब क्लास में जाती और सीखते वक़्त कुछ गलती हो जाती तो बाकियों की गलती छोड़कर सिर्फ मुझपर वे अपने अंदर का सारा गुस्सा उढ़ेल देते थें. ऐसा डांटते थें कि कितनी बार मैं क्लास में रो दी थी. फिर सीखने-सिखाने का कार्यक्रम वैसे ही चलता रहा. मेरी मम्मी भी बहुत प्रयास की और इनके परिवारवालों से मिली. बात बनने में पांच साल का वक़्त लग गया. इनके बहन-बहनोई का भी बहुत हाथ रहा. मेरे पति रजनीश जी कहते हैं कि "उनकी तरफ से लव मैरेज था और मेरी तरफ से अरेंज मैरेज." 2002 में हमारी शादी हुई. शादी बाद विदाई कर हम इनके गांव नौबतपुर गएँ तभी अगले दिन यह खबर सुनने को मिली कि मेरा ग्रेजुएशन का रिजल्ट आ गया है, मैं पास हो गयी हूँ.
जब मेरी मुंह दिखाई के समय गांव की महिलाएं आने वाली थीं तो ननद लोग आपस में सोच रही थीं कि इसे आँखें बंद करके दिखाना है कि आँखें खुलवाकर. फिर बड़ी ननद बोलीं - "अरे, इसकी सुंदर-सुंदर आँखें हैं, आँख खोलकर देखेगी." शादी के दूसरे ही दिन की बात है, ससुराल में पूरा घर रिश्तेदारों से भरा हुआ था तो यूँ ही जब सभी एक साथ बैठे हुए थें तो हुआ कि चलो कुछ हो जाये, गाना-वाना. फिर मुझे गाने के लिए बोला गया तो मैंने बिना किसी खास मंशा के यूँ ही एक गाना गा दिया -
"गयो-गयो रे सास तेरो राज जमाना आया बहुओं का,
सास बेचारी पानी भरे और बहुएं बैठीं नहाएं.
मलो-मलो रे पीठ मेरी सास जमाना आया बहुओं का.
सास बेचारी खाना बनाये बहुएं बैठीं नहाएं,
परसो-परसो रे थाल मेरी सास कि जमाना आया बहुओं का."
इस फोक सॉन्ग में एक एक्ट था कि ऐसा सुनकर जब सास गुस्सा होकर जाने लगती है तो बहु को लगता है कि ये हम गलत किये हैं और फिर गाने के माध्यम से ही वो सास को मनाकर लाती है. जब शादी के पहले एक प्राइवेट स्कूल में हम दो-चार महीने के लिए संस्कृत पढ़ाते थें तभी स्कूल के वर्षगांठ समारोह में ये गाना तैयार करवाए थें, इसलिए ये गाना मुझे फटाक से याद आ गया. तो ससुराल में सभी यह गाना सुनकर हंसने लगें. कुछ लोग तो सुनते ही सकपका गए और बोलने लगें कि "नयी बहु आते ही ऐसा गाना सुना दी." लेकिन मेरे परिवार के लोग खासकर सासू माँ खूब हंसी और शादी बाद हम दोनों का सामंजस्य बहुत अच्छा रहा.
मायके में सबका मन था कि पढ़ाई आगे हो, ऐसा नहीं कि शादी हो गयी है तो पढ़ाई-लिखाई छोड़कर बैठ जाएँ. सास-ससुर गांव से बिलॉन्ग करते थें लेकिन मेरे पढ़ने को लेकर प्रोत्साहन बहुत था. एक बार गर्मी छुट्टियों में गांव ससुराल गए थें और हमारी बड़ी ननद आई हुई थीं. बहुत गर्मी थी इस वजह से वे नाईटी पहनना चाहती थीं मगर नाईटी लायी नहीं थीं. जब घर में रखे बक्शे में कुछ पुराने कपड़े मिले तो फिर सिलाई मशीन आई और हमको बोला गया कि अगर सील सकती हो तो सील दो. तब मुझे बहुत चीजों में मन लगता था. सिलाई-कढ़ाई, पेंटिंग, सिंगिंग, डांसिंग इत्यादि. ननद बोलीं कि "चलो तुम्हरी परीक्षा हो जाएगी." हम एक घंटे के अंदर जल्दी से सिलकर दीदी को दे दिए तो सबलोग इस बात से बहुत खुश हुए. लेकिन सास-ससुर बोले कि "ये तो कोई भी गांव की लड़की कर लेगी, ये कौन सी बड़ी बात है. लेकिन हां, अगर पढाई करके जॉब कर सकती हो तो इसे हम थोड़ा बेहतर और अलग मान सकते हैं."
शादी बाद ससुराल नौबतपुर से हम पति-पत्नी 6 महीने बाद पटना के बुद्धा कॉलोनी शिफ्ट कर गए. शादी से पहले मेरी रेगुलर कॉलेज जाने और कुछ ना कुछ करते रहने की आदत थी. बी.एड. करना चाहती थी. लेकिन एडमिशन के लिए थोड़ा पॉइंट कम पड़ रहा था तो हुआ कि एम.ए. कर लेते हैं, उसका कुछ पॉइंट जुड़ जाता है. फिर एम.ए. के दौरान फाइन आर्ट में म्यूजिक था जो बहुत काम आया. म्यूजिक में मेरा सेलेक्शन हो गया और पटना यूनिवर्सिटी के दरभंगा हाउस में मेरी पढाई चालू हो गयी. तब सास-ससुर सब गांव में ही रहते थें. बीच-बीच में जब छुट्टियां होतीं तो कभी मम्मी के यहाँ तो कभी ससुराल चले जातें. तब लगता था जैसे हम कहीं हॉस्टल में रह रहे हैं और अब घर जाना है, ऐसा कुछ साल तक फीलिंग हुआ. जब छुट्टियों में कुछ दिन के लिए हम गांव ससुराल जातें तो मुझे गुस्सा इस बात पर आता कि रजनीश जी सिर्फ नाश्ता-खाना खाने के लिए घर में आते थे और सारा-सारा दिन घर से बाहर दोस्तों के संग बिताते थें. एक बार हुआ कि जैसा प्रचलन है, बहुएं गांव में साड़ी पहनकर जाती हैं. एक बार पति से पूछकर मैं सलवार सूट पहनकर चली गयी. गांव के लिए यह ज्वलंत मुद्दा हो गया कि अरे नयी बहु है और सूट पहनकर चली आयी. लेकिन घर में सास-ससुर को कुछ भी बुरा नहीं लगा, वे बोले- "चलो ठीक है, कोई बात नहीं." मैं मायके में सबसे बड़ी थी तो ससुराल में रजनीश जी सबसे छोटे.
शादी के तब एक-दो साल हुए थें जब हमलोग पटना शिफ्ट कर गए थें, तब पटना में कुछ दिन के लिए हमारे साथ सासू माँ भी थीं. उसी दौरान गांव के एक सज्जन आये थें. सासू जी का कहना था कि "तुम सूट-वूट पहनती हो, शहरी जैसा रहती हो तो वो जो गांव से आये हैं उनके सामने नहीं जाना." वो व्यक्ति हमारे घर रात भर रुके लेकिन हम उन्हें देख नहीं पाएं. फिर सुबह में एकदम से तैयार होकर हम निकल गए कॉलेज, उस दिन बी.एड. में एडमिशन लेना था. रजनीश जी मेरा ड्राफ्ट बनाकर कॉलेज में लाने वाले थें. और उन व्यक्ति का भी कोई काम रहा होगा जो गांव से आये थें इसलिए वो भी रजनीश जी के साथ चले आये थें. फाइनली हम उनको पहचान नहीं पाएं कि यही मेरे घर आये हुए हैं. तब मेरे साथ मेरी फ्रेंड निधि और गरिमा भी थीं. वो दोनों अक्सर मेरे पति के साथ मजाक करती थीं तो वहां हमलोग कॉलेज टाइप वाला एकदम फ्री होकर खूब हंसी-मजाक कर रहे थें, वहां बहु वाली कोई बंदिश नहीं थी. जब बात-मुलाकात हो गयी, हम ड्राफ्ट ले लिए तो फिर रजनीश जी जाने लगें और उन सज्जन का नाम लेकर बोले कि "चलिए भइया." तब हम चौंककर पति से पूछे - "आप किसके साथ आये हैं...?" चूँकि कॉलेज भी नया था तो मुझे लगा यहीं के कोई स्टाफ होंगे. तब रजनीश जी बोले- "अरे ये भइया तो कल रात से हमारे घर पर ही तो हैं." तब मुझे बड़े जोर की हंसी आ गयी. हम बोलें- "लगता है सासू माँ से डाँट खिलवायेंगे." फिर जब हम घर आएं और सासू माँ को सारा किस्सा कह सुनाएँ तो पहले वो खूब हंसी फिर मुझपर ही खूब गुस्सा हुईं.
जब हम बी.एड कर रहे थें तो उसी क्रम में पति के प्रोफेशन की वजह से बहुत परेशानी होती थी, वो ये कि हमेशा घर में गेस्टिंग लगी रहती थी. गेस्ट को भी देखना, मेरी पढ़ाई और घर का भी काम-काज, तो बहुत दिक्कत होती थी. कभी-कभी इस वजह से हमको बहुत देर रात को पढ़ना पड़ता था. तब हम कॉलेज से आकर खाना बनाकर कोचिंग भी जाते थें और फिर घर आकर खाना बनाते थें. बहुत मुश्किल दौर था लेकिन मेरी पढ़ाई को लेकर मेरी फ्रेंड लोगों का तब बहुत साथ मिला.
शुरू में मुझे पति से डर लगता था क्यूंकि तब ये मेरे गुरु थें, जिस प्रोग्राम में वे सामने आ जातें तो हम झट से उनके पैर छूकर प्रणाम कर लेते थें. शादी के वक़्त भी जयमाल के वक़्त जैसे ये स्टेज पर आएं मैंने उन्हें पैर छूकर प्रणाम कर लिया. इससे कुछ लोग हंसने लगें तो कुछ सहेलियां गुस्सा हुईं मेरे इस आचरण से. शादी के कुछ महीने ही बीते थें कि एक दफा मेरी एक क्लासमेट बोली कि "तुम्हारे हसबैंड को देखने की बड़ी इच्छा हो रही है, सुना है अपने गुरु से ही शादी कर ली हो. ऐसा करो उनके साथ किसी दिन मेरे घर आ जाओ." जब मैं रजनीश जी के साथ उसके घर पहुंची तो वो उन्हें देखकर चौंक पड़ी कि "अरे,ये तो बड़े जवान हैं, हमको तो लगा तुम किसी बूढ़े आदमी से शादी की हो, गुरु जी लोग तो वैसे ही दिखते हैं ना."

जितना भी रोमांटिक वाला ड्रीम मैंने सोच रखा था सब एक ही हनीमून ट्रैवल में पूरा हो गया : ईशा राज यादव, ब्रॉडकास्ट एक्जक्यूटिव, दूरदर्शन बिहार

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा ससुराल पटनासिटी में है. मेरे हसबैंड नीरज कुमार प्रोफेसर हैं इंस्टीच्यूट ऑफ होटल मैनेजमेंट, चंडीगढ़ में. मेरी शादी लव कम अरैंज मैरेज है. मैं उन्हें 7-8 सालों से जानती थी. वो हमारे फैमली फ्रेंड थें. एक फैमली फंक्शन में ही हमारी मुलाकात हुई थी. कुछ दिनों तक हम दोनों में बातचित हुई फिर उन्हें बाहर जाना पड़ा और एक साल के लिए वो आउट ऑफ इण्डिया भी रहें. तब भी हमारी दोस्ती वाली बातचीत जारी रही. जब उनकी जॉब लगी और वे सेटल हो गए और चूँकि मैं भी तब जॉब में थी तो हमलोगों को लगा कि अब समय को देखते हुए शादी के बारे में सोचा जाये. क्यूंकि अब हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे थें. एक तो हमारी कास्ट भी सेम थी और हम दोनों की फैमली की पहले से ही जान-पहचान भी थी इसलिए बिना किसी रुकावट के हमारी लव कम अरैंज मैरेज हो गयी. शादी दिसंबर 2016 में हुई. उसके ठीक पहले देश में नोटबंदी हो गयी थी. उस समय नोटबंदी की वजह से बहुत सी शादियां कैंसल हुई थीं. लेकिन हमारी शादी में कोई खास दिक्कत तो नहीं आयी लेकिन जो हमारा हनीमून प्लान था, हमलोग मलेशिया-सिंगापूर जाने का प्लान किये थें वो कैंसल हो गया क्यूंकि तब बाहर जाने पर भी हम बहुत कम पैसा ही कार्ड से निकाल सकते थें. फिर नेक्स्ट ईयर जून में हमलोग हनीमून के लिए बाली, इंडोनेशिया और मलेशिया गए. दिसंबर में जब हमारा फॉरेन का हनीमून ट्रिप कैंसल हुआ तो मैं बहुत ज्यादा दुखी थी. हसबैंड ने मुझे बहुत कन्वेंस किया कि चलो इण्डिया में ही कहीं घूमने चलते हैं. लेकिन मेरा सपना था कि हनीमून में इंडिया से बाहर ही जाना है.
मैं तब जॉब में थी तो मेरा ट्रांसफर होने में दिक्कत आ रही थी और मेरे हसबैंड चंडीगढ़ में थें इसलिए मेरा छुट्टी लेकर आना-जाना लगा रहता जो आज भी जारी है. तब छह महीने मैं पटनासिटी ससुराल में रही. चूँकि मेरे मायके से दूरदर्शन ऑफिस नजदीक है और पटनासिटी से काफी दूर पड़ जाता है तो मैं फिर मायके में ही रहकर ऑफिस जाने लगी. वीकेंड में मेरा ससुराल जाना होता है. मेरे पति के भैया-भाभी दिल्ली में रहते हैं और ससुराल में सिर्फ सास-ससुर जी. उन दोनों का व्यवहार बहुत ही अच्छा है. शादी बाद मुझे ऐसा फील नहीं हुआ कि ससुराल में मैं एक बहू हूँ. मेरी सास के दो बेटे हैं, कोई बेटी नहीं तो वे मुझे बेटी की तरह ही ट्रीट करती हैं. ससुराल में मीठा बनाने के अलावा हम कोई खाना आजतक नहीं बनाये हैं. मेरी सास हमको बनाने ही नहीं दीं.
जब जून में हमलोग फॉरेन गएँ, ट्रैवेल किये तो बहुत अच्छा लगा. हनीमून के दौरान मेरे सारे संजोये सपने पूरे हो गए. जब रात में हमलोग समुन्द्र के किनारे कैंडल नाइट किये. मेरा एक सपना था कि क्रूज में हमलोग ट्रैवेल करें और रात का डिनर भी क्रूज पर करें वो भी वहां पूरा हुआ. मेरा सपना था कि एक बंगलेनुमा रिसोर्ट में रुकें जहाँ अंदर में स्वीमिंगपूल भी हो और ये सब जितना भी रोमांटिक वाला ड्रीम मैंने सोच रखा था सब एक ही हनीमून ट्रैवल में पूरा हो गया. वहां की नेचुरल ब्यूटी देखकर मन रोमांचित हो उठता था. मेरा यह फॉरेन का पहला टूर था. तब वहां मेरे हसबैंड की आदत से मुझे परेशानी हो गयी. वो हर दस मिनट पर मुझे बोलते कि पासपोर्ट चेक करो. पासपोर्ट को लेकर मुझे इतना नर्वस कर दिए कि एक बार ऐसा हुआ कि हम पासपोर्ट सही में भुला दिए. हमलोग एक रिसोर्ट में ही लंच कर रहे थें. मेरा दो बैग था तो एक बैग हम वहीँ गलती से भूल गएँ थें. लेकिन जब वापस ढूंढते -ढूंढते गए तो वहां पर पड़ा हुआ मिल गया जिसमे पासपोर्ट भी था. उसके पहले मेरा दिमाग काम करना बंद कर दिया था. पासपोर्ट खो जाने पर ऐंबैसी में जाइये, ये करें-वो करें बहुत मुश्किल हो जाती. हसबैंड डांटना शुरू कर दिए कि तुम बहुत केयरलेस हो. लेकिन उनके ही टोकने पर हर एक घंटे पर पासपोर्ट चेक कर-करके इतना ज्यादा कन्फ्यूज हो गए कि फाइनली मुझसे भूल हो गयी. उस घटना के बाद हमलोगों ने होटल के कमरे के लॉकर में पासपोर्ट डाल दिया और फोटोकॉपी लेकर ही हम घूमने निकलें. मेरा पहला फॉरेन टूर था तो अंदर से डर लगा रहता था कि अनजान जगह है, देर रात आ-जा रहे हैं कुछ अनहोनी न हो जाये. लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं. फिर हमलोग 8 दिन बाद इंडिया लौटे.
मेरे हसबैंड की एक शिकायत मुझसे हमेशा रही है कि "शादी के इतने साल हो गएँ मैं तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाने को तरस गया हूँ." क्यूंकि सच में आजतक उन्हें मेरे हाथ की रोटी नसीब नहीं हुई. चंडीगढ़ में भी रहते थें तो हमलोग कुक रखे हुए थें क्यूंकि मुझे खाना बनाना नहीं आता था. मैं सब्जी तो बना लेती लेकिन रोटी बनाना मेरे बस की बात नहीं. मैंने आजतक किया भी नहीं क्यूंकि शुरू से ही ऑफिस आना-जाना रहता था और मायके व ससुराल दोनों ही जगह कुक या मेड खाना बना देते थें.
मेरे हसबैंड अपनी फैमली से बहुत प्यार करते हैं. जब मैं चंडीगढ़ में थी तो मेरे सास-ससुर दस दिनों के लिए आये हुए थें. वहां पहले से ही कुक की व्यवस्था थी. जब एक दो दिन कुक नहीं आ पाया तो मुझे खाना बनाना पड़ा. मैंने सब्जी बनाई तो नमक थोड़ी तेज हो गयी. मुझे रोटी तो ठीक से बनानी आती नहीं थी फिर भी मैं एक्सपेरिमेंट करने जा रही थी. लेकिन तब मेरी सास की तबियत थोड़ी खराब थी फिर भी उन्होंने मेरी हेल्प की और मेरी जगह उन्होंने रोटी बना दी. हम सास-बहू में अगर कभी कोई खटपट हुई भी तो तुरंत मैटर सॉल्भ हो जाता था. मेरे हसबैंड की एक अच्छी आदत है कि वो माँ की भी सुनते हैं और मेरी भी सुनते हैं. उन्हें कभी मुझे डांटना होता तो कभी भी सबके सामने मुझे नहीं डांटते. कुछ बोलना भी रहेगा या कुछ शिकायत रहेगी तो अकेले में मुझे बोल देंगे. शादी के बाद 5 फरवरी को मेरा बर्थडे था और उस समय पटना ससुराल में थी. हसबैंड चंडीगढ़ में थें और मैं चंडीगढ़ से वापस आ गयी थी. मैंने उन्हें बोला "आप बर्थडे में आ जाइये." वे बोले- "देखता हूँ-ऐसा है, वैसा है." मुझे एहसास हुआ कि उनको छुट्टी लेने में कुछ दिक्कत हो रही थी. तो ससुराल में अचानक से मुझे सरप्राइज गिफ्ट मिला. मेरे सास-ससुर थोड़े पुराने ख्यालात के हैं, शो ऑफ करने और केक काटने में यकीं नहीं करते. ज्यादा-से-ज्यादा मन हुआ तो वे मंदिर में पूजा करवा देंगे. शादी के बाद यह मेरा पहला बर्थडे था और उन्होंने बहुत अच्छे से सेलिब्रेट किया. मेरे हसबैंड ने भी मुझे ऑनलाइन ऑर्डर करके बुके और केक भेजा तो मन खुश हो गया. मेरी सास ने पहले ऐसा किया नहीं था. मेरी जेठानी को भी कभी ऐसा सरप्राईज नहीं मिला था. तब मेरे बर्थडे में केक भी कटा और मेरी पसंद की मिठाई और खाने में पसंद की सब्जी भी बनी थी. सास ने गिफ्ट में मुझे गोल्ड की इयररिंग दी थी. काफी यादगार पल था.
जब मेरी शादी की पहली सालगिरह आनेवाली थी हमलोग दुबई जानेवाले थें. मुझे ट्रैवल करना शुरू से ही पसंद है तो मेरे हसबैंड को लगा कि सालगिरह का इससे अच्छा गिफ्ट क्या होगा, कहीं किसी कंट्री में ट्रैवल को चलते हैं. गिफ्ट तो बहुत मिलते रहते हैं, मुझे गहने पहनने का उतना शौक नहीं जितना घूमने का है. मैं पैसों को जमाकर के रखने की बजाये उसे खुशियों पर खर्च करने में यकीं रखती हूँ. तब चार दिनों का प्लान था दुबई का लेकिन फिर उन्हें इंस्ट्च्यूट में छुट्टी नहीं मिल पायी जिससे मेरा मूड बहुत ऑफ हो गया. लेकिन इन्होने मुझे ज्यादा दुखी नहीं होने दिया और फिर बाद में छुट्टी मिलते ही मुझे दुबई घुमाया और इस बार 7 दिनों का पॅकेज प्लान था. वहां जाकर टॉलेस्ट बिल्डिंग पर चढ़ना, आदि का शौक भी पूरा हुआ. मैरेज ऐनिवर्सरी का यह गिफ्ट मुझे थोड़ा लेट मिला लेकिन कहते हैं न कि जो चीज लेट मिलती है बहुत मीठी होती है.
मेरी मम्मी का नेचर बहुत स्ट्रिक्ट है. तो कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरी जो सास हैं वो मेरी मम्मी हैं और जो मेरी मम्मी है वो मेरी सास हैं. मेरी सास कभी मुझे डांटती ही नहीं लेकिन मेरी मम्मी शुरू से ही स्ट्रीक्ट रही है. शादी के बाद जैसे ही ससुराल गए और दो-तीन दिन बाद जैसे मायके आने का रिवाज होता है तो मेरे साथ मेरे हसबैंड भी आये थें. मेरे हसबैंड से मेरी मम्मी ने पूछा- आपको तंग तो नहीं की. मेरे हसबैंड बोलें- ऐसा कुछ नहीं है. मेरी हसबैंड से मम्मी बोलने लगीं- अभी बच्ची है, दिमाग नहीं है. सीख जाएगी. बहुत तरह का उनको ज्ञान दी. उसी बीच दिसंबर में मेरी मम्मी का बर्थडे था तो मेरे हसबैंड सेलिब्रेट किये. हम सब ने साथ जाकर मूवी देखी. अच्छा लगता है आपके पति भी जब आपके माँ-बाप को अपने माँ-बाप की तरह प्यार देते हैं. तभी तो आपके अंदर भी फिलिंग आती है कि उनके माँ-बाप को भी आप केयर करें. उससे रिश्ते और भी ज्यादा गहरे हो जाते हैं.
शादी की शुरुआत में ही हमदोनो के बीच थोड़ा मन-मुटाव हो गया था. उस समय सोशल मीडिया का इस्तेमाल हम खूब करते थें. मैं कहीं भी घूमने जाती तो अपनी तस्वीरें लेकर अपलोड करने बैठ जाती और पता ही नहीं चलता कि कितना समय वेस्ट हो गया है. इससे हसबैंड चिढ़ जाते थें. मेरे हसबैंड को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था कि आप हर वक़्त फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम पर बीजी रहें. उनका कहना था कि "आप वक़्त को इंज्वाय कीजिये, अच्छी चीजों में लगाइये, क्यूंकि वक़्त कभी लौटकर नहीं आता." वो प्रोफेसर हैं तो मुझे भी स्टूडेंट समझकर सुबह-से-शाम तक थोड़ा लेक्चर देते रहते हैं. तब पहले थोड़ा तंग आ जाती थी लेकिन अब सुनना मेरी आदत हो गयी है.
पहले मैं नॉन-वेजिटेरियन थी चूँकि मेरे हसबैंड वेजिटेरियन हैं इसलिए मैंने अपने आप को भी वेजिटेरियन में कन्वर्ट कर लिया है. मेरे मायके में सभी नॉन वेजिटेरियन हैं. तो हसबैंड मायके जब आते हैं तो उनके लिए वेज बनता है. मेरा पूजा-पाठ में उतना रुझान नहीं है लेकिन मेरे पति बहुत ज्यादा पूजा करैत हैं. सुबह जल्दी उठकर ऑफिस के लिए रेडी होना है तो मेरी पूजा एक मिनट में खत्म हो जाती है. लेकिन मेरे हसबैंड की पूजा आधे घंटे तक चलती है. चूँकि उनको भी कम पर जाना होता है, फिर भी वो मैनेज करके टाइम निकाल लेते हैं और 15 मिनट-आधा घंटा देते हैं. हर एक मंगलवार को वे मंदिर भी जाते हैं. जब तक वे पूजा न कर लें खाते नहीं हैं. लेकिन मैं इतना नहीं सोचती. भूख लगे तो पहले खा-पी लेती हूँ फिर पूजा कर लेती हूँ. तो इन्ही छोटी-मोटी बातों पर हम दोनों में बहस भी हो जाती थी लेकिन फिर सब तुरंत ओके हो जाता.

मैं बिना दहेज़ के एक आईएएस बेटे की बहू बनी थी : डॉ. पूर्णिमा शेखर सिंह, प्रोफेसर एवं एचओडी (ज्योग्राफी डिपार्टमेंट), ए.एन.कॉलेज, पटना

By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा मायका पटना तो ससुराल विद्यापति नगर के पास चमथा गांव में है. ऐसे देखा जाये तो हमारा ससुराल बेगूसराय है लेकिन वो गाँव चार जिलों का बॉर्डर छूता हुआ है. हम 5 भाई-बहन हैं. पिताजी स्व.श्याम नारायण सिंह हाईकोर्ट में नौकरी किया करते थें. पटना के गोलघर के पास स्थित बांकीपुर बालिका विधालय से मैंने मैट्रिक किया था काफी अच्छे नंबरों से और इंटरमीडिएट मैंने पटना वीमेंस कॉलेज से किया. फिर ग्रेजुएशन किया भूगोल में पटना कॉलेज से. उसके बाद मैं पी.जी. की पढ़ाई करने जे.एन.यू. दिल्ली चली गयी क्यूंकि मैंने सुना था कि वहां बहुत अच्छा स्कोप है और काफी अच्छी पढ़ाई होती है. पी.जी. के बाद मैंने एम.फील. और फिर पी.एच.डी. किया. जब एम.फील. में एडमिशन लिया था उसी समय 1981 में मेरी शादी हो गयी.
पति अंजनी कुमार सिंह (वर्तमान में मुख्यमंत्री के सलाहकार) से वहीँ मेरी जान-पहचान हो चुकी थी. हमारी सोच, हमारी रूचि और हमारी शिक्षा में बहुत समानता थी और उसी वजह से हम एक-दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थें. जब हमारे घरवालों को हमारे बारे में पता चला तो हमारी शादी की बात चली. उस वक़्त तो जाति-प्रथा बहुत जोरों पर थी और संयोग से हमारी जाति भी समान थी. फिर इतनी सारी समानताओं की वजह से हमारे परिवारों ने आसानी से इस रिश्ते को एक्सेप्ट कर लिया. पढ़ाई के दौरान ही मेरी शादी हुई थी इसलिए ससुराल में हम 10-15 दिन ही रहें फिर बीच-बीच में गांव-ससुराल के कार्यक्रमों में शामिल होने आते रहें. चूँकि पति की नौकरी थी इसलिए हमको गांव में ज्यादा रहने का मौका नहीं मिला. पहली ट्रेनिंग पति की पूर्णिया में थी फिर दूसरे फेज की ट्रेनिंग के लिए वे मसूरी चले गएँ तब तक मेरा एम.फील हो रहा था. मैंने एम.फील कम्प्लीट किया और पति की पहली पोस्टिंग हजारीबाग में हुई. मैं उच्च शिक्षा हासिल करने में लग गयी और यू.जी.सी. का जेआरएफ नेट कम्प्लीट किया.
मेरा ससुराल मिथिलांचल का एक हिस्सा है. मेरे पति का घर काफी बड़ा था और परिवार भी संयुक्त था जो हाल-फ़िलहाल में एकल हुआ है. लेकिन तब भी और अब भी सभी एक आँगन में ही रहते हैं. जब मैं शादी के बाद पहली बार ससुराल गयी तो पति के बहुत सारे रिश्ते की भाभियाँ हमसे कई तरह के विध करवा रही थीं. बहुत रोचक अनुभव था. उन सभी का व्यवहार इतना मीठा था कि अनुभव नहीं हो पाया कि कौन चचेरी भाभी हैं और कौन पति की अपनी भाभी हैं. मैं बहुत प्रभावित थी क्यूंकि मेरा थोड़ा शहर का बैकग्राउंड था और मैं एकल परिवार से थी. मुझे सभी लोगों का आपस में जुड़ाव देखकर बहुत अच्छा लगा. पटना के परिवेश में इतना सहयोग-मिठास देखने को नहीं मिलता था. मेरे पति ने जब आईएएस कम्प्लीट किया था तो उस बात की गूंज पूरे इलाके में थी. मैं जबतक वहां रही तो दूर-दूर से विभिन्न टोलों से महिलाएं आती रहीं और आकर मेरा चेहरा घूंघट उठाकर आँखें मुंदवाकर देखती रहीं. तब मुझे अंदर से बहुत हंसी भी आती थी. लेकिन मैं किसी भी तरह का कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं करती थी. क्यूंकि वहां मैंने देखा इतना सुन्दर सबों का व्यवहार. मैं उन सभी चीजों का सुखद रूप से इंज्वाय कर रही थी. गांव से महिलायें आकर टिका-टिप्पणी करतीं कि बहू की आँख कैसी है, बहू की नाक कैसी है... विस्तार से बताती थीं. एक फिजिकल एपियरेंस होता है उसको देखती थीं. मुझे भी तरह-तरह बात-व्यवहार वाली महिलाओं को देखने का मौका मिला, बहुत अच्छा लग रहा था.
उस दौरान गांव में एकदम पानी नहीं पड़ रहा था, लगभग सूखे की स्थिति हो चली थी. फिर जब मेरी शादी हुई तो उसके बाद इतनी मूसलाधार बारिश हुई कि पूरा इलाका बाढ़ से एकदम डूब गया था. चूँकि पति का संयुक्त परिवार था तो उनके सारे बहन-बहनोई, उनके पूरे परिवारवाले दूर-दूर से आये थें. उतने सरे लोगों का एक ही जगह खाना बनता था. बारिश से घर का आँगन चारों ओर से भींगकर कीच-कीच हो जाता था. उतने लोगों के कपड़े सुखाने की दिक्क्त होती थी, रहने की दिक्कत भी होती थी. परेशानियां तो थीं लेकिन फिर भी पूरे गांववाले बड़े खुश थें कि "दुल्हन का लक्षण बहुत अच्छा है, इनका पांव पड़ते ही इतनी बारिश हुई, सूखी धरती की प्यास बुझ गयी."
हमारी एक छोटी ननद थीं जो अब नहीं हैं, उनके साथ मेरी बड़ी मधुर स्मृतियाँ थीं. वो मुझपर बहुत गर्व महसूस करतीं और मुझे कभी छोड़कर जाती ही नहीं थीं. उनको मेरी हर चीज बहुत सुंदर लगती थी. मेरा पहनने का तरीका, मेरा बाल सँवारने का तरीका, मेरा साज-श्रृंगार-गहने सारी चीजों से वो प्रभावित और खुश होती थीं. पूरा दिन मेरे इर्द-गिर्द मेरे साथ रहती थीं, सिर्फ सोने के समय मुझे छोड़ती थीं. वे अपनी सहेलियों को बुला-बुलाकर लातीं और तब उनकी बहुत छोटी-छोटी उम्र की सहेलियां मुझे देखने आती थीं. और उनसब के साथ खूब हंसी-ठिठोली होती थीं. मेरी बड़ी गोतनियां भी बड़ी कर्मठ थीं और वे काम करने के दरम्यान ही बीच-बीच में मजाक में मेरे हसबैंड को छेड़ देती थीं जो तब मुझे उतना समझ नहीं आता था क्यूंकि वो मैथली में बोलती थीं.
हम शादी करके जब गांव गए तो वहां पर सत्यनारायण भगवान की कथा हुई. वहां मैंने देखा कि शीतल प्रसाद जो हमारे घर में आमतौर पर कटोरे में बनता है वहां एकदम बड़े से दो टब में पूरा दूध-केला, भूना आटा, काजू-किशमिस डालकर तैयार किया जा रहा है. फिर जिसको जितना पीना है भरपेट ग्लास, जग से पिए. पूरे गांव में वह बाँटा गया. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक था. हमारी सास जो थीं बड़ी चुप-चुप रहनेवाली थीं लेकिन वो बड़ी उदार थीं. हमलोगों की शादी तब बिना दहेज़ के हुई थी और उन्होंने कोई भी दहेज़ की मांग नहीं की. वो बेटे की ख़ुशी से ही संतुष्ट थीं. ये बहुत बड़ी बात थी कि किसी का बेटा आईएएस हो जाये और जिसका पूरे इलाके में इतना नाम हो और उस दौरान वैसे वर को जब दहेज़ से तौले जाने का रिवाज था मैं बिना दहेज़ के शादी करके आयी थी. फिर भी सभी लोगों ने मुझे हाथों-हाथ लिया. बहुत प्यार-स्नेह दिया.
चूँकि मेरे पति कोई बहुत अमीर परिवार के भी नहीं थें और उनके पिता का भी देहांत हो चुका था. तब उनके यहाँ कोई कमानेवाला भी नहीं था. वे घर-खानदान में पहले थें जो इस तरह की नौकरी पकड़े थें. इसलिए मैं हमेशा अपने ससुरालवालों की शुक्रगुजार रहूंगी कि मेरे गुणों को महत्ता दी गयी ना कि दान-दहेज़ की. तो मुझे लगता है आज से कितने बरस पहले जब दहेज़ प्रथा का इतना बोलबाला था तब नारी को बिना दहेज़ आने पर इतना सम्मान मिलना यह बहुत बड़ी बात है. जबकि आज हमें दहेज़ ना लेने-देने का कठोर कानून लागू करना पड़ रहा है. पहले ससुरालवालों के मन में भी कहीं- ना-कहीं यह आशंका थी कि शहर की पढ़ी-लिखी बहू कैसी होगी लेकिन मेरे में क्षमता थी एडजस्ट करने कि क्यूंकि मैं पहले से बहुत ऊँचा व बड़ा ख्वाब लेकर नहीं गयी थी. मेरे व्यवहार की वजह से आज वही लोग ये कहा करते हैं कि साहब (मेरे पति) जिस ऊंचाई को आज छू रहे हैं उसमे मेरा भी बहुत योगदान है. 

पहले जहाँ रिश्ता कैंसल हुआ बाद में वहीँ मेरी शादी हुई : स्मिता गुप्ता, मॉडल एवं टीवी एंकर (दूरदर्शन बिहार)

By : Rakesh Singh 'Sonu'


बिहार के गया जिले के पास शेरघाटी में मेरा मायका है जहाँ से मेरी प्रारम्भिक शिक्षा हुई. उसके बाद आगे की स्कूलिंग और ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई गया शहर में हुई. पिता जी बिजनेसमैन थें. शादी बाद नालंदा के डीम्ड यूनिवर्सिटी से एमए किया. फिर इलाहाबाद प्रयाग यूनिवर्सिटी से हमारा बीएड हुआ. जब इंटर करते ही पार्ट वन में एडमिशन लिया तभी मेरी शादी हो गयी. तब मैं मात्र 19 साल की थी. मेरा ससुराल भी गया में ही है. शादी के बाद हम 2 साल गया में रहें. एक बेटी हुई उसके बाद हम भागलपुर शिफ्ट हो गएँ क्यूंकि मेरे हसबेंड की पोस्टिंग वहां हुई थी. तब मेरे पति मेडिकल कम्पनी में जॉब करते थें. फिर वहां से हम बिहारशरीफ आएं. तब तक मेरा बीएड भी हो चुका था इसलिए हमने वहीँ डीएवी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया. 2008 में 1 सितंबर को हम बिहारशरीफ से पटना शिफ्ट कर गएँ और पटना रहते आज दस साल हो गएँ. उस वक़्त मेरा दूसरा बच्चा होनेवाला था. फिर जब बच्चा एक साल का हुआ तब मैंने पटना में ईशान इंटरनेशनल गर्ल्स हाई स्कूल ज्वाइन किया. कुछ सालों बाद मेरे हसबेंड ने जॉब छोड़कर अपना खुद का बिजनेस स्टार्ट किया. हमारी अब अपनी दवा की कम्पनी है. जब उन्होंने बिजनेस की शुरुआत की तो मेरा भी समय उसमे खर्च होने लगा इसलिए कि दोनों को मैनेज करना हो रहा था. मार्केटिंग हसबेंड देखते तो ऑफिसियल वर्क मैं देखती थी. मैंने सोचा नहीं था कि अब इसे भी छोड़कर फिर मुझे किसी दूसरे डायरेक्शन में जाना पड़ेगा. मैंने डिसाइड कर लिया था कि अब थोड़ा बिजनेस देखेंगे और हाउसवाइफ बनकर घर सम्भालेंगे, क्लब ज्वाइन करेंगे और फ्रेंड्स के साथ इंज्वाय करेंगे. लेकिन समय के साथ बहुत कुछ चेंज होता है.
एक दिन अचानक मेरी एक फ्रेंड ने कहा कि "मिसेज ग्लोबल बिहार होने जा रहा है ट्राई करोगी...?" मैंने कहा- "ये सब मॉडलिंग-वॉडलिंग मेरे से नहीं होगा." जब पटना वुमनिया क्लब का डांडिया नाइट प्रोग्राम हो रहा था मैं डांडिया इंज्वाय करने दोस्तों के साथ गयी थी. वहां पर मिसेज गोल्बल बिहार के लिए नीतीश चंद्रा ऑडिशन ले रहे थें. मैंने भी यूँ ही ऑडिशन दे दिया मगर डिसाइड नहीं था कि मुझे भी करना है. उसके बाद 2 महीने थे मरे पास ये डिसाइड करने के लिए कि हाँ या ना. तीन-चार बार नीतीश चंद्रा से मेरी टेलीफोनिक बात हुई. वे पूछ रहे थें कि "क्या करना है..?" लेकिन तब फैमली में भी लोग ठीक से बता नहीं पा रहे थें. हसबेंड और भाई से पूछा तो दोनों ने कहा - "देख लो, मुझे समझ में नहीं आ रहा है." फिर करते-करते इतना समय बीत गया कि अब 5 दिनों का ग्रूमिंग सेशन शुरू हो चुका था. फिर मैं फर्स्ट डे ग्रूमिंग में गयी और सिर्फ बैठकर देखी कि क्या हो रहा है. उसी दिन हमारी किट्टी पार्टी थी फ्रेंड्स के साथ. वहां उनलोगों से बात हुई तो सबने कहा - "तुम में टैलेंट है. हो सकता है यहाँ से तुम्हारा टर्निग पॉइंट आ जाये और तुम इसी लाइन में आगे बढ़ जाओ." फिर मैंने डिसाइड किया कि मुझे करना है. तब मेरे हसबेंड के पैर का अंगूठा फ्रैक्चर हो गया था और वो बेडरेस्ट में थें. वे मेरे साथ जा-आ तो नहीं सकते थें फिर भी मोरली उन्होंने मेरा बहुत सपोर्ट किया. तब अपने दो बच्चों को छोड़कर ग्रूमिंग के लिए घर से निकलना होता था और लगभग पूरा-पूरा दिन बीत जाता था. तब हम सिंगल फैमली में थें इसलिए उस वक़्त मुझे सारा कुछ अकेले ही मैनेज करना पड़ा. तीन-चार दिन मैंने ग्रूमिंग क्लास किया. और 18 दिसंबर, 2016 को वह शो हुआ जहाँ मैं मिसेज ग्लोबल बिहार की फर्स्ट रनरअप रही.
उसके बाद फिर सबका सपोर्ट मिलने लगा. फिर तुरंत हम सभी तीनो प्रतिभागिओं का दूरदर्शन के बिहार बिहान में लाइव शो हुआ. इस सफलता के बाद लोगों का एक्सपेटेशन मुझसे बढ़ गया. फ्रेंड्स पूछते- "अब क्या कर रही हो... अगला स्टेप क्या है..?" यह सोचकर डिप्रेशन भी होता था कि अरे अब क्या करें, पटना में कोई स्कोप नहीं है, क्या कर सकते हैं... लेकिन जो भी मिलता वही पूछता, हम परेशान हो गए. मैंने पत्रकारिता का कोई कोर्स नहीं किया था फिर भी कुछ समय बाद मैं बिहार न्यूज में गयी. वहां न्यूज एंकरिंग किए. उसके बाद मैं पटना दूरदर्शन की सहायक निदेशिका से मिली. उन्होंने मुझपर भरोसा करके बिना कोई इम्तहान लिए अपने लाइव शो 'एक मुट्ठी धूप' (तब जिसका नाम फुर्सत घर था) में बैठा दिया. आज डेढ़ साल हो गए तब से मैं उसी शो में कंटीन्यू एंकरिंग कर रही हूँ.
ससुराल में मेरे सास -ससुर नहीं थें. मेरे हसबेंड चार-भाई और तीन बहन हैं. वे सबसे छोटे हैं. मेरे ननदें मेरे पापा-मम्मी की उम्र की थीं. मतलब पति के भाई-बहनों से हमारा एज गैप नहीं बल्कि जेनरेशन गैप था. शादी हुई थी हमारी 2002 मई में, अब 16 साल हो गएँ इस रिश्ते को. मेरी दीदी के ससुराल से मेरे पति का रिलेशन था. मैं इंटर में थी तो बैंकिंग की तैयारी कर रही थी. मुझे एक्जाम देने एम.पी. के कटनी जाना था. छठ के लिए तब मेरी सारी फैमली गया से शेरघाटी जा चुकी थी. और मैं दीदी के यहाँ रुक गयी थी क्यूंकि छठ के अगले ही दिन मुझे ट्रेन पकड़नी थी. मेरे हसबेंड भी तब दीदी के ससुराल आये हुए थें. सुबह का अर्घ्य देने के दिन वो मुझे देखें तो फिर अपने घर से अपनी बहन को भेजें कि मुझे इस लड़की से शादी करनी है. उस वक़्त मेरे रिश्ते की बात कहीं और चल रही थी. उनलोगों को हम पसंद थें और सबकुछ फ़ाइनल था कि बस अब इंगेजमेंट होना है. वो भी बहुत कम समय में 10 -15 दिनों के अंदर हुआ. तब मम्मी ने कहलवा दिया कि "नहीं, इसकी शादी तो फ़ाइनल हो चुकी है." लेकिन बाद में पापा-मम्मी को कुछ पता लगा फिर वो रिश्ता कैंसल कर दिया. और जब यह बात मेरे हसबेंड को पता चली तो फिर से उन्होंने अपना रिश्ता भेजा. तब इनकी पूरी फैमली मुझे देखने आयी थी. जब हमारे तरफ से पूछा गया कि "फाइनली क्या करना है ?" तो मेरे हसबेंड के ब्रदर इन लॉ बोले- "हाँ-ना तो पहले ही हो चुका है. अब जब लड़का बोल दिया कि मुझे शादी करनी है और यहीं करनी है तो हमलोग तो बस फॉर्मेलिटी के लिए आये हैं कि चलो एक बार ज़रा फैमली से मिल लें." और तब हमारे घरवाले इतने श्योर नहीं थें कि वो लोग बिल्कुल फ़ाइनल ही करने आये हैं. पहले एक ट्रेडिशन चला था कि लड़की देखने जो आते थें पता नहीं क्यों उससे इंग्लिश में कुछ लिखवाते थें शायद यह जानने के लिए कि लड़की पढ़ी-लिखी है या नहीं. मुझसे भी लिखवाया गया. मैंने इतने इंग्लिश वर्ड पेज में भर दिए कि अब आप पढ़ते रहो. और मुझे गुस्से के साथ-साथ हंसी भी आ रही थी. उतने में में मेरी ननद बोलीं कि "चलो टेरिस पर चलते हैं." साथ में टेरिस पर हसबेंड के भाई की बेटी भी थी. वहां मुझसे बात करने के दौरान उन्होंने मेरे हाथ-पैरों को इतने गौर से देखा कि मुझे सब समझ में आ गया. यह देखने की रस्म दीदी के घर पर हो रही थी. उनलोगों के जाते ही मैं दूसरे कमरे में कपड़े चेंज करने गयी और फिर आकर रोते हुए यह बोली कि "हम इस फैमली में शादी नहीं करेंगे, ये कोई तरीका है देखने का." मम्मी को बोलकर कि तुमलोग रहो, हम जा रहे हैं और गुस्से में पैर पटकते हुए नीचे उतर गई, रिक्शा बुलाई और फिर अकेले ही अपने घर निकल गयी. बाद में उनलोगों का फोन आया कि "ठीक है, ये सब होता है, नार्मल चीजें हैं." लेकिन वो मेरे लिए नार्मल नहीं था. कई लोगों ने तब मम्मी-पापा को ये भी समझाया था कि "यह शुरू से सिंगल फैमली में रही है, इसकी आप ज्वाइंट फैमली में शादी कर रहे हैं?"
लेकिन पता नहीं क्यों उसके बाद भी मेरी शादी वहां हो गयी. वो कहते हैं ना जोड़ी ऊपर से बनकर आती है. कहीं-ना-कहीं अप्स एन्ड डाउन होते हुए मार्च में इंगेजमेंट हुआ और मई में हमारी शादी हो गयी. सबसे अच्छी बात शादी में ये हुई थी कि मेरे हसबेंड रंजीत ने बोला था हम दहेज़ नहीं लेंगे और वो नहीं लिए. इन सब चीजों ने कहीं-ना-कहीं मुझे मेरे हसबेंड और इनकी फैमली से जोड़ा. शादी के एक महीने तक हम गया में ही थें. कई बार हमलोगों का प्लान बना घूमने जाने का लेकिन कैंसल हो जा रहा था. उसी टाइम रिलेशन में एक शादी थी राजस्थान में तो प्लानिंग हुई कि हम दोनों ही वहां चले जाएँ. इसी बहाने हमारा घूमना भी हो जायेगा. उस टाइम फिर लोगों ने प्लान चेंज कर दिया. और मेरे घर की सारी फैमली गयी लेकिन हम नहीं गएँ. फिर मुझे बड़ा धक्का लगा कि सबलोग गएँ मुझे छोड़कर. मन में एक टीस थी कि मायके में तो मम्मी-पापा हमलोगों को कहीं भी साथ लेकर जाते थें और यहाँ तो हमें छोड़कर जा रहे हैं. बहुत गुस्सा अंदर से था. फिर दो महीने बाद हम दिल्ली, चंडीगढ़, कुल्लू-मनाली ये सभी जगह गएँ. तब थोड़ा गुस्सा शांत हुआ कि चलो हम कहीं तो घूमने निकलें बाहर.
मुझे ससुराल में एडजस्ट करने में बहुत ज्यादा प्रॉब्लम हुई. क्यूंकि उनकी सोच थी कि आजकल की लड़की आ रही है. उन्होंने पहले से ही मेरे लिए एक मेंटिलिटी बना रखी थी. लेकिन फिर कुछ समय बाद वो फैमली मेरे लिए इतनी क्लोज हो गयी कि अब हम सभी एक-दूसरे से बहुत ज्यादा प्यार करते हैं. लेकिन उस टाइम चूँकि हमारा भी एज कम था, एक्सपेक्टेशन मेरा बहुत था कि मुझे भी ये चीज मिलनी चाहिए. बचपना बहुत ज्यादा था. तब मेरे पति के बहुत से रिलेटिव जो मेरे हमउम्र थें बोलते थें कि - "ये लड़की मेरे घर आनी चाहिए थी, मेरे साथ शादी होनी चाहिए थी." सुनकर अच्छा लगता था.

एहसास नहीं था टीवी क्राइम रिपोर्टर की पत्नी बनने के बाद इतना एडजस्ट करना पड़ेगा : आभा ओझा, मैनेजिंग एडिटर, मंथन मीडिया प्रा.ली.

By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा मायका हुआ बिहार के मोतिहारी जिले में, पिताजी बैंक मैनेजर थें. मेरे मामा राकेश प्रवीर 'दैनिक हिंदुस्तान' और 'आज' अख़बार में मेरे पति अमिताभ ओझा जी के सीनियर रह चुके हैं. सबसे पहले मामा जी ने इन्हे मेरे लिए प्रपोजल दिया था. तब इनकी एक ही शर्त थी कि लड़की सुशिल होनी चाहिए जो इनके घर-परिवार को अच्छे से संभाल सके क्यूंकि इनके पिता जी नहीं हैं. फिर इनके हाँ करते ही 2005 में हमारी शादी तय हो गयी. उस समय सुनकर थोड़ा अजीब सा लगा कि ये क्राइम रिपोर्टर हैं लेकिन जब पता चला टीवी चैनल में हैं तो लगा कि चलो कुछ ठीक है. पापा बताये थें कि जैसे बैंक में उनका नार्मल टाइमटेबल होता है वैसा इनका नहीं है. हालाँकि मेरे मामा भी पत्रकार हैं लेकिन मैं नहीं जानती थी कि अख़बार और टीवी चैनल की पत्रकारिता में कितना अंतर देखने को मिलता है.
शुरू-शुरू में बहुत सुखद एहसास हुआ कि चलो टीवी पर आ रहे हैं, सबलोग देख पा रहे हैं. लेकिन जिस तरीके का उनका वर्क ऑफ़ नेचर है, क्राइम-क्रिमनल....ये सब चीजें मेरे लिए बिल्कुल नयी थीं. और ससुराल आते ही मुझे इन सब चीजों से थोड़ी दिक्कत तो हुई. मैं सोचती कि मायके में रत 10 बजे तक सो जाना होता था लेकिन यहाँ कभी 12 तो कभी एक-डेढ़ बजे तक...कोई फिक्स टाइम नहीं था. मॉर्निंग में भी फिक्स नहीं था कि इनको कितने बजे निकलना है. कभी एकदम अहले सुबह तो कभी देर से सिचुएशन के आधार पर निकलना होता था. तो ऐसे में मुझे वहां एडजस्ट करने में बहुत प्रॉब्लम हुई लेकिन धीरे-धीरे सब नार्मल हो गया. फिर इनके साथ रहते-रहते धीरे-धीरे मुझे भी पत्रकारिता के प्रति रुझान पैदा हुआ. इनकी भी चाहत थी कि अगर एक ही लाइन में दोनों का काम रहे तो अच्छा रहेगा. बहुत कुछ ये बताते रहते थें और इनके काम को देखकर भी बहुत कुछ सीखने को मिला.
शादी के दो साल बाद जब मेरी फर्स्ट डिलेवरी होनेवाली थी तो कंकड़बाग वाले घर में ग्राउंड फ्लोर पर ही रहना होता था. तब वहां बहुत ही ज्यादा जल निकासी की प्रॉब्लम थी. बरसात के दिनों में हमलोगों के घर के अंदर पूरा पानी आ जाता था. उस सिचुएशन में मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या करूँ..! गन्दा पानी बेडरूम और किचेन में भी आ जाता था. हम जहाँ बैठे थें वहीँ बैठे ही रह जाते थें. मैं गंदे पानी में उतरने से डरती थी. उस समय मेरी सासु माँ बहुत सपोर्ट करती थीं. वो ही खाना बनाती और फिर मुझे बेड पर लाकर देती थीं.
मायके में हमलोगों का छोटा परिवार था लेकिन ससुराल में काफी बड़ा परिवार था. मायके में भी मेरा किसी से ज्यादा मिलना-जुलना नहीं होता था लेकिन यहाँ तो बहुत ज्यादा गेस्टिंग होती थी. यहाँ अक्सर किसी-न-किसी का आना-जाना होता था तो सब के साथ मुझे घुलने-मिलने में झिझक की वजह से प्रॉब्लम होती थी. हमारे मायके में देर रात तक जगना और बातें करना नहीं होता था. तो सुनने में आता कि बहू किसी से बात नहीं करती है, अपने में ही व्यस्त रहती है. फिर मेरी ननद सबको बतातीं थीं कि "शुरू से इसको आदत नहीं है, इसलिए प्रॉब्लम हो रही है लेकिन धीरे-धीरे एडजस्ट कर जाएगी."
तब जब मेरे हसबेंड ड्यूटी पर होते थें तो मुझे हमेशा डर लगा रहता था कि ये किडनैपिंग गैंग के पास जा रहे हैं तो कभी गैंगेस्टर का दिखा रहे हैं. तब मुझे लगता क्यों इस चक्कर में पड़ते हैं. सुबह-सुबह सोकर उठने से लेकर रात को सोने तक सिर्फ फोन कॉल आते रहते थें. हर वक़्त एक कॉल पर ही इनको एलर्ट रहना होता, फोन बंद करके भी नहीं रख सकते थें. कई बार ऐसा हुआ कि छुट्टी के दिन हमलोग फिल्म देखने गएँ कि अचानक से इनके पास कोई खबर आ गयी. उस कंडीशन में बड़ी मुसीबत हो जाती थी. या तो प्रोग्राम बीच में ही कैंसल करना पड़ता था या घर के किसी मेंबर को वहां बैठाकर ये काम पर निकल जाते थें. मार्केटिंग करने गए हैं और कई बार मुझे अकेला छोड़ ड्राइवर को बोलकर इनको निकल जाना पड़ता था. तब मैं एडजस्ट नहीं कर पाती थी और इन सब चीजों को झेलने में शुरूआती दौर में बहुत प्रॉब्लम आती थी. जब कोई फेस्टिवल होता तो सबलोग घर में अपनी फैमली के साथ रहते थें लेकिन सिर्फ यही नहीं होते थें. चाहे वो होली हो या दशहरा या कोई पर्व उसमे बहुत अखरता था. पर्व-त्यौहार में होता ये था कि रात के दो बजे तक भी मैं और बच्चे इनका वेट करते थें. फिर जब ये आ जातें तब साथ में सेलिब्रेट करतें. कई बार ये बाहर-बाहर जाते थें तो मैं जानते हुए भी कि ये अपने मन का करेंगे इनको समझाती कि रिस्क नहीं लेना है.
तब इनके देर रात को आने के बाद ही मैं साथ में खाती थी और वो आदत मेरी आज भी बनी हुई है. जैसे-जैसे मैं एडजस्ट होती गयी मेरी सारी चिंताएं दूर होती गयीं. उसके बाद तो आदत सी लग गयी. बाद में जब मायके जाना होता तो देर रात तक जगना हो जाता. तब मायके में खाना-पीना और सोना सब ससुराल की तरह ही फॉलो करते थें. मैं खाना अच्छा बनाती थी जिसकी ससुराल में बहुत तारीफ भी होती थी. मुझे म्यूजिक का बहुत शौक है तो जब-जब पति का देर से घर आना होता मैं अपनी फेवरेट म्यूजिक सुनकर समय गुजारती थी. लेकिन अब तो बच्चों की देखरेख में ही समय कट जाता है. और अब यह सुन-देखकर कि मेरे पति का काम समाज और देश हित में है दिल को बहुत सुकून मिलता है.

एक कविता मैंने शादी के बाद लिखी थी 'चुटकी भर सेनुर' : दीप्ति कुमार, कवियत्री एवं इकोनॉमिक्स टीचर, संत डॉमनिक सेवियोज हाई स्कूल, नासरीगंज

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा मायका और ससुराल दोनों पटना में ही है. मेरे पापा इंजीनियरिंग कॉलेज और पॉलिटेक्निक कॉलेज के प्रिंसिपल रह चुके हैं. मेरे हसबेंड श्री मनोज कुमार चार्टेड एकाउंटेंट हैं. जब मेरी शादी की बात चली तो जो मीडियेटर थें वो दोनों तरफ से परिचित थें. उन्होंने कहा कि "हमे देखने के लिए पटना जू में बुलाया गया है कि यूँ ही घूमते-टहलते लड़की को देख लेंगे." उसी दिन आडवाणी जी रथयात्रा पर पटना आये हुए थें. राजनीतिक हलचल पैदा हो गयी थी और तब उस दिन बहुत से रास्ते बंद थें. मेरे मायके महेन्द्रू से संजय गाँधी जैविक उद्यान जाना अपने आप में पहाड़ जैसा था. बहुत मुश्किल से हम वहां पहुंचे थें. फिर वहां जू में देखने-दिखाने का कार्यक्रम शुरू हुआ. उसमे एक मजेदार वाक्या ये हुआ जो देखने लायक था. मुझे सौ प्रतिशत नहीं पता था लेकिन आभास हो गया था कि ऐसा ही कुछ है. वहां मेरी हाइट को देखने की बात हो रही थी क्यूंकि मेरी हाइट ज्यादा नहीं है और मेरे पति लम्बे कद के हैं. सब लोग मेरे बगल में खड़े होकर नापने की कोशिश कर रहे थें. वहां एकाध कोई मुझसे थोड़ा ज्यादा के थें लेकिन जो मेरी ही हाइट के थें वो भी हमसे नपाना चाह रहे थें कि हमसे कितने लम्बे हैं. ये मुझे थोड़ा नमूना टाइप का लगा और अंदर ही अंदर मुझे हंसी आ रही थी लेकिन बाकि सब बहुत अच्छे से निपट गया.
उस वक़्त हम पार्ट 2 का इक्जाम देकर पार्ट 3 में गए ही थें. मतलब शादी के समय हम ग्रेजुएट भी नहीं थें. फिर मेरी शादी हुई उसके बाद मेरी आगे की पढ़ाई हुई. एक समय तो लगा कि शायद हम नहीं पढ़ पाएंगे क्यूंकि बाकि सब लोगों को देख रहे थें अपने फ्रेंड सर्किल में कि वे लोग बहुत आगे चले जा रहे हैं और मेरी शादी अचानक से कम उम्र में हो गयी. और ससुराल में बड़ी बहु के रूप में कुछ ज्यादा जिम्मेदारियां मिलने लगीं तो मुझे लगा कि अब नहीं पढ़ पाएंगे. लेकिन फैमली का सपोर्ट मिला और मैंने पटना यूनिवर्सिटी से पी.जी. किया, फिर बीएड हुआ. इकोनॉमिक्स में पीएचडी हुआ. आज जो भी डिग्री लेकर हम यहाँ बैठे हुए हैं वो सब शादी के बाद लिया हुआ है. तो ऐसा कुछ नहीं होता जैसा लोग बोलते हैं कि शादी के बाद पढ़ाई नहीं होती है. हाँ परेशानी होती है, घर देखना, बच्चे को देखना और पढ़ाई करना लेकिन ससुराल में रहते हुए बिना ससुरालवालों के सपोर्ट से यह मुमकिन नहीं है.
एक मजेदार वाक्या हुआ था शादी के वक़्त. मेरे हसबेंड थोड़े संकोची किस्म के हैं. बहुत ज्यादा किसी के साथ बैठकर बात करना-हंसना नहीं होता है. तो कभी-कभी वे बहुत ज्यादा रिएक्ट कर जाते थें. शादी के दिन भी ये नाराज हो गए थें जब द्वार छेंकाई की रस्म हो रही थी. उस रस्म में जैसे ही उनके साथ धक्का-मुक्की हुई वे इतना जोर गुस्साएं कि डर से सारे लोग पीछे हट गएँ. उनको मेरे मायके जाने के बाद बहुत प्रॉब्लम होती थी कि जबरदस्ती लोग इनके मुँह में ऊँगली डालकर बुलवाते थें. ये सब सुनहरी यादें जब ताजा होती हैं तो सच में बड़ी ही मजेदार लगती हैं.
नृत्य एवं साहित्य में मेरी रूचि बचपन से रही है. मेरी एक भोजपुरी कविता की पुस्तक 'मन' शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है. उसी पुस्तक की एक कविता बहुत दिनों तक आरा वीर कुंवर सिंह यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन में पढ़ाई गयी है. एक बार जब बोकारो (झाड़खंड) में भोजपुरी काव्य सम्मलेन हुआ जिसमे मुझे शामिल होने का मौका मिला था. बहुत बड़े-बड़े कवियों का जमावड़ा लगा हुआ था. तब 1994 में तुरंत ही मेरी शादी हुई थी. तब मेरी बेटी बहुत छोटी सी थी. उस समय मैं हसबेंड के साथ वहां काव्य सम्मलेन में भाग लेने पहुंची थी. जब वहां लोगों ने मुझे बिहार की बेटी और बिहार की महादेवी के नाम से सम्बोधित किया तो बहुत अच्छा लगा. एक कविता मैंने शादी के बाद लिखी थी 'चुटकी भर सेनुर', जिसमे था कि सिंदूर से किस तरह से एक लड़की की लाइफ चेंज हो जाती है. शादी के पहले तब के एक नेशनल लेवल के बड़े साहित्यकार विधा निवास मिश्र के हाथों मुझे कविता के लिए उपाधि भी मिली थी.
शादी के बाद पढ़ाई तो जारी रही लेकिन कविता के साथ जो मेरा रिलेशन था वो लगभग खत्म हो गया. क्यूंकि तब घर से स्कूल और स्कूल से घर के दरम्यान परिवार को देखते हुए उतना वक़्त ही नहीं मिल पाता था. इधर कविता लेखन का वही शौक अब जाकर फिर से जवां हुआ है. सबसे बड़ी बात होती है ससुराल में एक लड़की को आकर एडजस्ट करना. तो मुझे ससुराल में एडजस्टमेंट में परेशानी नहीं हुई. तब सबसे मजेदार वाक्या ये हुआ कि चूँकि मेरे पति बड़े लड़के थें तो घर की पहली शादी थी. मेरे ससुर जी थोड़े स्ट्रीक्ट नेचर के थें. उन्हें पसंद नहीं था बाहर में स्टेज बनाना और रिसेप्शन में सबके सामने दुल्हन को बैठाना. लेकिन सबको आश्चर्य हुआ जब उन्होंने बहुत शौक से स्टेज बनवाया, उसको सफ़ेद सुगन्धित फूलों से सजवाया. सब अचरज में थें कि आखिर हुआ क्या कि इतना चेंज आ गया. आज वे हमारे बीच नहीं हैं बस उनकी यादें हैं. और एक चीज उनकी बहुत अच्छी लगती थी कि जब एक छोटी-सी भी डिग्री मेरी आती थी या मेरे बच्चों का कुछ एचीवमेंट होता था वे सबसे पहले जाकर पास के मिठाई दुकान से रसगुल्ला ले आते थें और कहते थें कि "मुंह मीठा कर लो." तो यह देखकर अंदर से बहुत मानसिक संतोष मिलता था कि चलो एक पिता की तरह उनसे हमे प्यार मिल रहा है. जब घर में मेरी बच्ची बहुत छोटी थी और मैं मास्टर डिग्री कर रही थी तब दिन में घर में ज्यादा काम हो जाता था. काम को निपटाना, अपनी पढ़ाई करना फिर बेटी को देखना और कभी-कभी उसके रोने की वजह से रातभर जगे रह जाना ऐसे में थोड़ी परेशानी हो जाती थी लेकिन सबके सपोर्ट से वो दौर भी अच्छे से निकल गया. आज बच्चे बड़े हो गएँ हैं. बड़ी बेटी आर्किटेक्ट बन गयी है और बेटे का भी आर्किटेक्चर में फर्स्ट ईयर कम्प्लीट हो गया है. अब लगता है कि कैसे वो समय इतनी जल्दी बीत गया.

पांच सालों तक मैं ससुलाल में कोई सूट नहीं पहनी था : देवयानी दुबे , प्रदेश महासचिव, जदयू (युवा)

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मैं एक ब्राह्मण फैमली से हूँ. वैसे तो मेरा मायका यू.पी. हुआ लेकिन सबलोग यहाँ पटना सिटी में बस गएँ थें. एल.एन.मिश्रा इंस्टीच्यूट से कुछ दिन मैंने लॉ की पढ़ाई की फिर छोड़ दी. उसके बाद मैंने पटना वीमेंस कॉलेज से कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया. फिर मैं हॉस्टल में रहकर एम.बी.ए. की तैयारी करने लगीं. उन्हीं दिनों मेरे हसबेंड अपने किसी फ्रेंड के साथ हमारे हॉस्टल में 31 दिसंबर के दिन आये थे जब न्यू ईयर की पार्टी चल रही थी. जब ये आये तो मेरी फ्रेंड लोगों ने मुझे आवाज देकर नीचे बुलाया. तब मैं बहुत चुलबुली थी. मेरे हसबेंड के फ्रेंड की गर्लफ्रेंड वहां पर रहती थी तो वे भी उनके साथ आ गए थें. ठंढ़ का दिन था, वे पूरा टोपी-मफलर पहनकर अपना चेहरा पूरा ढ़के हुए थें और उनकी सिर्फ आँखे दिख रही थीं. बिलकुल शांत भाव से वे लगातार मुझे देख रहे थें. तब मैंने टोका "तुम अपनी सिर्फ आँखें क्यों दिखा रहे हो." फिर जब उन्होंने मफलर हटाया तब मैं उनका चेहरा देख सकी. उस दिन जाने के बाद फिर अगले दिन भी वे लोग हॉस्टल पहुँच गएँ और हमलोगों से कहने लगें कि "चलिए मूवी देखते हैं." फिर यूँ ही धीरे-धीरे जान-पहचान बढ़ी, बातचीत होने लगी और फिर यूँ ही रिलेशन जब ज्यादा डेवलप हो गया तो मेरे हसबेंड ने मेरे सामने शादी का प्रपोजल डाल दिया.
मैंने कहा- "ठीक है, देखते हैं, सोचते हैं." मगर ये सोचने का मौका ही नहीं दे रहे थें. इतना ज्यादा क्रिटिकल सिचुएशन क्रिएट कर देते कि ट्रेन से कट जाऊंगा, छत से कूद जाऊंगा.... क्यूंकि इनको शादी मुझसे ही करनी थी. फिर मैं तैयार हुई और जब फैमली बिल्कुल तैयार नहीं थी तो हमलोगों ने कोर्ट मैरेज कर लिया.
मेरे हसबेंड शुरू से ही कॉपरेटिव हैं. मुझे सारी बात बताते थें कि मेरी फैमली थोड़ी कड़क है. हमारी शादी के एक साल पहले जब इनके घर में गृहप्रवेश हुआ था तब ये हमको बुलाये थें. मैं जाकर उनकी पूरी फैमली से मिली थी. उस दिन मैं अपने पति की दोस्त बनकर वहां पहुंची और सबको चाय-वाय पिलाकर वहां से चली आई थी.
 कोर्ट मैरेज के बाद भी इनकी फैमली तैयार नहीं हो रही थी तब मेरे पति मेरे साथ कहीं रेंट पर रहने लगे. बाद में हमारा अरेंज मैरेज हुआ गायत्री मंदिर में. फिर हमलोगों को घर लाया गया बहुत अच्छे विधि-विधान के साथ जैसा नयी दुल्हन के साथ होता है.
जैसा मायके में मैं मम्मी को करते देखती थी ठीक वैसा ही मैं ससुराल में करने लगी. सुबह जल्दी उठकर नहाना, सास-ससुर के पैर छूना इत्यादि. यह देखकर सबलोग बहुत खुश रहते थें कि बहुत संस्कारी बहु है. लेकिन एकाध सदस्य मजाक में टोंट मारते कि नयी-नयी आई है और देखो ना मेरे घर को अपना कर ली. पापा-मम्मी भी इसी की तारीफ कर रहे हैं. हमारी पांच ननदें हैं तो मेरी तीसरी और चौथे नंबर वाली ननद से हमेशा हल्की-फुल्की नोंक-झोंक हो जाती थी. वे मुझे बोलतीं "आप मेरा नक़ल करती हैं." और मुझे लगता था शायद वे मेरी नक़ल करती हैं. लेकिन फिर धीरे-धीरे सारी ननदें भी मुझे मानने लगीं.
मेरे ससुर बहुत प्यार करते थें हमको. एकदम पापा की तरह हर चीज समझाना, हमको सबकुछ सिखाना कि बेटा ऐसे करना, वैसे करना. जब कभी-कभी किसी से नोंक-झोंक हो जाती तो मैं चुपचाप रोती थी मम्मी को यादकर कि हम कहाँ आ गएँ. लेकिन मेरे पति हमेशा सपोर्ट किये कि "तुम हमसे प्यार की हो ना, हमसे शादी की हो ना...हम हैं ना".  शुरुआत में मैं ससुराल में पति के कल्चर के अनुसार रही. 5 साल तक अपने घर के छत पर नहीं गयी. हमेशा हॉस्टल में उन्मुक्त रहनेवाली लड़की घूंघट में रही. यह सब करना पड़ा क्यूंकि एक तो नयी-नयी थी ऊपर से घर की पहली बहु थी मैं. जितना रूल एन्ड रेगुलेशन था सब किया.

पति से छुपाकर देवर-ननद संग घूमने निकल जाते थें: विभा देवी, मुखिया, वीर पंचायत

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा मायका तो वैसे बिहार के भागलपुर जिले में पड़ता है लेकिन हमलोग पटना के कंकड़बाग में रहते थें. पापा हाउसिंग बोर्ड में एक्सक्यूटिव इंजीनियर थें मगर उनके अचानक देहांत हो जाने की वजह से हमारे ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. हम 5 बहने थीं, हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के नहीं रहने से शादी-ब्याह को लेकर बहुत दिक्कत होने लगी. हमारी शादी को लेकर माँ बहुत परेशान रहती थी. माँ ने बहुत स्ट्रगल झेला फिर पापा की जगह पर उनकी नौकरी लगी तब कुछ राहत महसूस हुआ. हमसे कोई जल्दी शादी ये सोचकर नहीं करना चाहता था कि पांच बेटियां हैं, पता नहीं इनकी बेटी से शादी करेंगे तो बेटा होगा कि नहीं होगा. या फिर कहीं लड़के को घर जमाई ना बनना पड़े. इस वजह से भी बहुत लोग कतराते थें. फिर 1989 में मेरी छोटी उम्र में ही शादी हो गयी. जहाँ हम अभी मुखिया हैं वही वीर पंचायत में हमारा ससुराल है. शादी बाद मेरी पहली संतान बेटी हुई फिर उसके बाद दूसरी संतान भी बेटी हो गयी. मैं डर रही थी कि कोई मुझे ही दोषी मानकर मेरे साथ बुरा ना करे लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं.

उस वक़्त मेरे हसबेंड का ट्रांसपोर्ट का बिजनेस था, बसें चला करती थीं. घर के कुछ लोगों के मन में रहता था कि ऐसा नहीं हो कि परिवार का ये मालिक है, बड़ा बेटा है तो सारी कमाई सिर्फ ससुराल में जहाँ सिर्फ बेटियां ही हैं और अपनी पत्नी पर ही ना उड़ा दे. लेकिन मेरे पति शुरू से ही अपने घरवालों के लिए ज्यादा करते थें. फिर धीरे-धीरे पति का ट्रांसपोर्ट का बिजनेस ठप्प हो गया. तब वे ठेकेदारी का काम करने लगें. जब मेरी शादी हुई मैं मैट्रिक पास थी. शादी के बाद ही हम ससुराल में रहकर इंटर और ग्रेजुएशन फिर नर्सिंग का ट्रेनिंग किये. जब मुजफ्फरपुर से नर्सिंग का कोर्स कर रही थी तो परिवार से अलग दो महीने के बेटे अभिषेक के साथ हॉस्टल में रहती थी. छुट्टियों में पटना फैमली के बीच चली आती थी. दो साल का कोर्स पूरा करके पी.एम.सी.एच. में एक्जाम दिए और तब बिहार-झाड़खंड एक ही स्टेट था और उस वक़्त पूरे जगह में नर्स के एक्जाम में मैं ही टॉप आई थी. लेकिन कभी हम नर्सिंग का काम नहीं कर पाए क्यूंकि हसबेंड मना कर दिए.
जब शादी के बाद कुछ दिनों के लिए ससुराल के गांव गयी तो मेरी सासु माँ और चहेरी-फुफेरी सास जो भी बोलती गयीं मैं बस वही करती चली गयी. जैसे तैयार कर दिया लोगों ने वैसे हो गएँ, जहाँ बैठा दिया वहीँ बैठे हैं. भूख-प्यास भी लगी तो झिझक की वजह से नहीं बोल पाते थें. किसी से शिकवा-शिकायत नहीं थी क्यूंकि उस वक़्त हमें उतनी समझ नहीं थी. मेरे पापा के गुजर जाने के बाद मेरी माँ का यही कहना था कि "बेटा, जहाँ जा रही हो वहीं रहना क्यूंकि अगर वहां कुछ करोगी तो ना तुम्हारे पास पिता हैं और ना भाई है. फिर कहाँ रहोगी मेरे पास. इसलिए अगर कोई कुछ भी करे तो तुम चुपचाप सह लेना. तुम्हारे साथ गलत कोई एक बार करेगा, दो बार करेगा लेकिन जब तुम जवाब ही नहीं दोगी तो तीसरी बार वो गलत करने से पहले सोचेगा."
मैं हमेशा से पटना में रही लेकिन शादी के दस-पंद्रह दिन बाद से गांव आना-जाना लगा रहता था. एक बार की बात है गांव में घर के आँगन में एक टोकरी रखी थी. हमें कोई बोला कि "ओड़िया को उठाकर दो". तब हम समझे नहीं कि ओड़िया होता क्या है, हम वहीँ खड़े थें लेकिन दे नहीं पा रहे थें. इसपर बुजुर्ग महिलाओं का ताना शुरू हो गया कि "बहुत बद्तमीज है, कबसे मांग रहे हैं फिर भी नहीं दे रही. इसलिए कहे थें कि शहर की लड़की से शादी नहीं करो. ये तो ना कुछ बोल रही है ना अपने बगल से ओड़िया उठाकर दे रही है." इस बात पर तब सबने मेरी खूब हंसी उड़ाई. उसके बाद अकेले में हम बहुत रोये कि कैसी जगह आ गए हैं कि यहाँ टोकरी को ओड़िया बोला जाता है.
मैं घूमने-फिरने की बहुत शौक़ीन हूँ और मेरे हसबेंड को इन सब चीजों का उतना शौक नहीं था. इस बात पर भी हम दोनों में तू-तू मैं-मैं हो जाती थी. हम पहले ये समझते थें कि शादी जो होता है ना वो होता है सिर्फ घूमने-फिरने के लिए. हमको बढ़िया-बढ़िया कपड़ा मिलेगा और मेरा हसबेंड मुझे गाड़ी से घुमाते रहेगा. लेकिन यहाँ आने के बाद वैसा कुछ भी नहीं हुआ . मेरी लाइफ शुरू से ही बहुत स्ट्रगल में बीती इसलिए कि मेरे पति तीन भाई- तीन बहन हैं. तो इनके छोटे जो दो भाई और तीन बहने थी और सभी की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी. सुबह-सुबह उठकर उनके स्कूल-कॉलेज का नाश्ता, उनका ड्रेस धोना, जूता धोना...जिस दिन से ससुराल आएं हमारी दिनचर्या यही बन गयी और हम अपने शौक के मुताबिक कुछ भी नहीं कर पाएं. कहीं जाना भी है तो तुरंत दौड़कर घर आना होता था कि बौआ लोग पढ़कर आ गए होंगे. उनका एक्जाम है, उनके लिए नाश्ता-खाना बनाना है. तब हम भी छोटे ही थें इसलिए कभी-कभी लेट हो जाता था. उस वक़्त मेरे देवर ग्रेजुएशन में थें ओर मैं इंटर में थी. वे लोग कभी ये नहीं समझते थे कि, हाँ ये भी नादान है, प्रेग्नेंट है तो सोइ रह गयी, थकी हुई है... इस वजह से थोड़ी टेंशन हो जाती थी. उन्हें सिर्फ यही लगता कि मैंने काम नहीं किया. इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं थी क्यूंकि वे भी तब नासमझ थें.
मेरे पति मुझे साथ लेकर तब घूमने नहीं जाते थें. मेरे पास भी पैसा नहीं रहता था. मेरे देवर-ननद भी छोटी उम्र के सब पढ़ने-लिखने वाले थें इसलिए उनके पास भी पैसा नहीं रहता था. तो हम सभी देवर-ननदें मिलकर आपस में चंदा मिलाते दस-बीस-पचास रुपये का और हम अपने हसबेंड तो वे लोग अपने भैया से छुपाकर घूमने निकल जाते. फिर सिनेमा देखकर, होटल में खाना खाकर चुपचाप चले आते थें. हम देवर-ननद और मेरे बच्चे सब ग्रुप में जाते थें और मेरे हसबेंड को इसकी भनक तक नहीं लगती थी. बाद में चूँकि तब टोटल परिवार शहर में ही रहता था तो सिर्फ एक-दो दिन के लिए ही गांव आना-जाना लगा रहता था. वैसे में गांव के लोग सोचते कि ये शहर में रही है, क्या पता गांव में रह पायेगी कि नहीं. लेकिन धीरे-धीरे मुझे गांव का माहौल भी पसंद आने लगा और हम सभी एक साथ मिलकर सुख-दुःख इंज्वाय करने लगें. 

ससुर जी अपने बेटों को तो डाँट देते थें लेकिन मुझे किसी बात पर आजतक नहीं टोकें : प्रिया सौरभ, एंकर, दूरदर्शन (बिहार-बिहान)

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा मायका यूँ तो बिहार के नालंदा जिले में हुआ लेकिन मेरे जन्म के कुछ महीने बाद ही मेरी माँ के गुजर जाने की वजह से नानी मुझे अपने पास पटना लेकर आ गयी. पापा बेटा चाहते थें और उन्हें बेटी हो गयी तो इसी खीज में उन्होंने मुझसे एक दूरी बना ली. जब ननिहाल आयी मैं तब 6-7 महीने की थी. वहीँ बड़े होते हुए मुझे नानी ने एक माँ का प्यार दिया. संत जोशफ से प्लस टू करने के बाद पटना वीमेंस कॉलेज से मैंने मास कम्युनिकेशन में ग्रेजुएशन किया. घर में सबका मन था कि मैं डॉक्टर बनूँ लेकिन कहते हैं ना कि जहाँ किस्मत लेकर जाएगी वहीँ जाइएगा.
पढ़ाई खत्म होते ही दर्श न्यूज चैनल में बतौर एंकर मैंने करियर की शुरुआत की. वहां के बाद आर्यन न्यूज ज्वाइन किया. उसमे एक स्पेशल क्राइम शो लेकर आयी थी. जब आर्यन में थें तभी मेरी शादी हो गयी. शादी के दो-तीन महीने बाद ही मैंने जॉब छोड़ दिया. मेरा ससुराल मुजफ्फरपुर के भरथुआ गांव में पड़ता है. चूँकि मैं कॉलेज के समय से ही दूरदर्शन के 'युवालोक' कार्यक्रम से जुड़ी थी. शादी बाद आर्यन छोड़ने पर मैंने दूरदर्शन का 'स्वच्छ  भारत' कार्यक्रम शुरू किया. चूँकि मेरा बच्चा होनेवाला था इसलिए थोड़े टाइम के लिए वहां से ब्रेक ले लिया.
 जब बच्चा 6 महीने का हो गया तो मैं फिर से दूरदर्शन गयी और वहां 'बिहार बिहान' के लिए लाइव एंकरिंग करने लगी. मॉर्निंग शो था तो झिझक हुई घर में बोलने में कि सुबह-सुबह उठकर चली जाउंगी. फिर जब मैंने किसी तरह घरवालों को बताया तो ससुरालवालों ने बोला कोई बात नहीं. मैं सोच रही थी कि 6 महीने के बच्चे को छोड़कर जाउंगी कैसे और कैसे मैनेज होगा लेकिन मेरे सास-ससुर सबने बोला कि नहीं कोई दिक्क्त नहीं है. फिर मैं आराम से जाती थी और आराम से वापस आ जाती थी. शादी के बाद मैंने पोस्ट ग्रेजुएशन भी किया. साथ-साथ पढ़ाई, दूरदर्शन में एंकरिंग और बच्चे व घर-परिवार की जिम्मेदारी चलती रही.

चूल्हा-छुलाई की रस्म में मुझे हलवा बनाने को कहा गया जबकि मुझे खाना बनाना नहीं आता था : प्रेरणा प्रताप, एंकर, बिहार बिहान (दूरदर्शन बिहार)

By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरी शादी बहुत कम उम्र में हुई. मेरे पैरेंट्स तो उतने कंजर्वेटिव नहीं थें लेकिन मेरे दादा जी चूँकि जमींदार किसान थें और उनका पूरी फैमली पर बहुत दबदबा था. मेरे पापा भी उनसे डरते थें. मेरे पापा की 8 सिस्टर्स हैं और वो सिंगल ब्रदर हैं जिनकी मैं सिंगल डॉटर हूँ. तो उनपर बहुत प्रेशर था कि शहर में लड़की रह रही है पता नहीं कैसा माहौल होगा. मेरी सभी बुआ ग्रेजुएट हैं लेकिन सभी गांव में थीं. मैं शुरू से शहर में रह रही थी और कल्चरल एक्टिविटीज, डिवेट, टॉक शो इत्यादि में शुरू से पार्टिशिपेट किया करती थी. सोसायटी में होता है ना कि लोग ही प्रेशर डालते हैं कि 'अरे उनकी बेटी तो बाहर जाती है, स्टेज पर बोलती है...देखिएगा कहीं लड़की हाथ से ही ना निकल जाये...' ऐसी वाली धारणा थी तो मेरे दादा जी ने कहा कि 'अच्छे घर में कोई बढ़िया लड़का देखकर शादी कर दो. पढ़ना होगा तो बाद में भी पढ़ लेगी.' मैं प्लस टू करके पार्ट-1 में ऐडमिशन ली ही थी कि मेरी शादी हो गयी. मेरे दादा-दादी के प्रेशर की वजह से पापा ने बात काटी नहीं लेकिन माँ खुश नहीं थी, क्यूंकि वे नहीं चाहती थीं कि उनकी बेटी की इतनी जल्दी शादी हो. उन्हें लगता था कि अगर मुझे पढ़ाया जाये तो मैं आगे बहुत कुछ कर सकती हूँ. लेकिन उस वक़्त मुझे बुरा बिल्कुल नहीं लगा था. तब इतनी इनोसेंट थी कि मुझे ऐसा लग रहा था कि 'वाह, अब तो मेरी लाइफ चेंज होनेवाली है. अब मुझे पढ़ना नहीं है. मैं घूमने जाउंगी, शॉपिंग करुँगी. हसबेंड होगा, उसकी गाड़ी होगी. एक सपनेवाली दुनिया होती हैं ना वैसी वाली फिलिंग थी. ये नहीं था कि मेरी शादी हो रही है तो मैं रो रही हूँ.
पॉजिटिव पॉइंट ये था कि जहाँ मेरी शादी हुई मेरे ससुराल में सभी लोग हाइली एजुकेटेड हैं. मेरी सास खुद डबल एम.ए. हैं. मेरी सारी नंदन लेक्चरर हैं. मेरे जेठ साइंटिस्ट तो जेठानी लंदन में डॉक्टर हैं. पढ़ी-लिखी फैमली थी इसलिए सबने बोला कि अच्छी फैमली और अच्छा लड़का है, ऐसा घर जल्दी नहीं मिलता तो मैंने ख़ुशी-ख़ुशी शादी की. मेरे पति का नाम मूर्तिकेश परमेश्वर है, वो टेलीकॉम इंजिनियर हैं. घर बैठे मुझे छ: महीने, एक साल हो गएँ तब मुझे लगा कि अब मैं क्या करूँ...? मैं पूरे टाइम घर सजाऊँ, खुद सज-संवरकर रहूं तो यह मेरी जिंदगी नहीं है. फिर मुझे बहुत झिझक महसूस होती थी कि मैं ग्रेजुएट भी नहीं हूँ. तो मुझे उस वक़्त बहुत बुरा लगने लगा. तब जहाँ भी मैं जाती थी मुझे रिज्यूम में मेंशन करना होता था. एक जगह आरजे के लिए गयी थी. उन लोगों को मेरी आवाज पसंद आई लेकिन उन्होंने बोला कि 'आप ग्रेजुएट भी नहीं हैं !' इसलिए मुझे लगा कि पढाई बहुत ज़रूरी है. मुझे अपनी क्वालिफिकेशन तो कम्प्लीट करनी पड़ेगी. फिर मैंने तीन साल के गैप के बाद अपनी पढ़ाई शुरू की और अपना मास्टर कम्प्लीट किया. अब जाकर मुझे संतोष है कि स्टडी की जो जेनरल सीमा होती है वो मैंने कर लिया है. इस बीच मेरे हसबेंड से ज्यादा मेरी सासु माँ ने बहुत सपोर्ट किया. जबकि मेरे हसबेंड को ये था कि 'बाहर जा रही हो, क्या जरुरत है इतनी मेहनत करने की, क्यों परेशां होती हो !' लेकिन मेरी सासु माँ जो खुद टीचिंग फिल्ड में थीं उन्होंने कहा कि 'नहीं, खुद सेल्फ डिपेंड होना बहुत जरुरी है. अगर तुम्हारे अंदर ये इच्छा है, तुम करना चाहती हो तो तुम करो.' यहाँ पर मैं एक बात कहना चाहूंगी कि किसी भी लड़की को अगर उसके ससुरालवालों का सपोर्ट मिलता है तो वह लड़की बहुत ज्यादा आगे बढ़ सकती है. अगर मुझे अच्छी फैमली नहीं मिली होती तो मैं आगे नहीं बढ़ पाती, मैं कुछ नहीं कर पाती. मैं आज इस मुकाम पर नहीं हो पाती. लोग मुझे नहीं जानतें कि प्रेरणा कौन है ? मैं जर्नलिज्म की डिग्री लिए बिना ही पत्रकारिता फिल्ड में आयी. शुरू से मैं चाहती थी की पत्रकार बनूँ क्यूंकि मैं जब न्यूज एंकर को टीवी पर देखती थी तो मुझे अंदर से लगता था कि मैं भी उनकी तरह बनूँ. मुझे कुछ पता नहीं था कि इसके लिए जर्नलिज्म की कोई पढ़ाई भी होती है. लेकिन फिर मैंने देखा कि मेरे जाननेवाले मेरे जूनियर जो कल तक मुझसे सलाह लिया करते थें वो टीवी पर दिख रहे हैं या उनका अख़बार में कॉलम आ रहा है. और मैं हूँ कि ऐसे ही बैठी हूँ. फिर मैंने एक छोटे से लोकल चैनल पर टिकर चलता हुआ देखा कि एंकर की जरुरत है. मैं वहां जाकर मिली. चैनल छोटा हो या बड़ा मेरा मानना था कि अगर आप सीखना चाहते हैं तो कहीं से भी सीख सकते हैं क्यूंकि शुरुआत आपको कहीं- न -कहीं से तो करनी है. वहां मैं लगभग एक साल रही और जब वहां पहली बार गयी तो वहां के कैमरामैन और रिपोर्टर ने कहा कि 'ऐसा नहीं लगता कि आप पहली बार कैमरा फेस कर रही हैं.' शायद वह एक जुनून था मेरे अंदर की मुझे करना है तो मैं घर पर भी बैठकर बोलने की प्रैक्टिस करती थी. वहां से मैं महुआ न्यूज और फिर बाद में मैं दूरदर्शन बिहार से जुड़ गयी. और अभी 7 सालों से दूरदर्शन में हूँ और तीन साल से बिहार बिहान में लाइव एंकरिंग कर रही हूँ.
जब नयी-नयी शादी हुई थी तो मुझे खाना भी बनाना नहीं आता था. मायके में ऐसा था कि मम्मी ही खाना बनाकर देती थी और प्लेट उठाकर ले जाती थी. मतलब मैं वहां कोई काम नहीं करती थी. जब ससुराल आयी तो मम्मी को कहा था कि 'तुमलोग दहेज़ में जो भी देना हो दे देना लेकिन मेरे को एक ऐसा इंसान दे देना जो खाना बनाये.' फिर मैं रोने के साथ बोली कि 'तुमलोग अभी शादी करा रही हो, मुझे खाना बनाना पड़ेगा.' मैं अक्सर सुनती थी कि बहु ने खाना अच्छा नहीं बनाया तो सास ने गुस्से से खाना फेंक दिया...' तो मुझे ऐसी बातों का डर था क्यूंकि मैं बहुत इनोसेंट थी. अभी के टाइम की लड़कियों की तरह बहुत स्मार्ट नहीं थी. ससुराल आने पर चूल्हा-छुलाई के रस्म के दौरान जिसमे बहु को चूल्हा छुआते हैं और फिर उससे कुछ मीठा बनवाते हैं, तो मेरी सासु माँ ने बोला - 'बेटा, हमारे यहाँ बेसन का हलवा बनता है, तो तुम्हें आता है ना.' और मैंने झूठ बोला कि 'हाँ मम्मी जी, बनाती हूँ ना.' जबकि मैंने आजतक कभी बेसन का हलवा नहीं बनाया था. फिर मैंने अपना कॉमन सेन्स यूज किया कि हलवा घी में बनता होगा और कभी मम्मी को बोलते सुना था कि बेसन बहुत भूनते हैं. फिर मैंने गेस करके हलवा बनाया और मैंने देखा था कि मेरे ससुर जी डायमंड का एक पैंडेंट लेकर बैठे थें कि बहु हलवा बनाकर लाएगी तो मैं उसको दूंगा. और भी लोग गिफ्ट लेकर बैठे हुए थे. तब मेरी बच्चों वाली बुद्धि थी कि अगर मैं अच्छा नहीं बनाउंगी तो वो डायमंड पैंडेंट नहीं मिलेगा. बस किसी तरह मुझे उनके हाथ में जो गिफ्ट थी वो चाहिए थी. गेसिंग गेम करते-करते ही मैंने बेसन का हलवा बनाया. सौभाग्य से हलवा बहुत अच्छा बन गया और वो सभी गिफ्ट मुझे मिल गए. मैं बहुत खुश थी कि लाइफ में पहली बार हलवा बनाया जो टेस्टी था और गिफ्ट मेरे पास थें.
शुरूआती दिनों का एक और वाक्या है जो आज भी मन को गुदगुदा जाता है. मैं हनीमून पर हसबेंड के साथ दार्जलिंग गयी थी. वहां पर बहुत फॉग था और बारिश भी हो रही थी. मेरे हसबेंड ने मुझसे मजाक में कहा था कि 'देखो छोटी सी तो हो, खो जाओगी तो बच्चा समझकर तुम्हें कोई ले भी जायेगा.' तो मैं झेंपकर बोली- 'ऐसे कैसे हो सकता है कि मैं खो जाउंगी. आप मेरा मजाक उड़ा रहे हैं.' ये 2006 की बात है तब अभी के ज़माने की तरह सभी के हाथ में मोबाईल नहीं होता था. सिर्फ हसबेंड के पास मोबाईल था, मेरे पास कोई मोबाईल नहीं था. और वहां पर मैं सच में खो गयी. हुआ यूँ कि वहां पहुँचने के अगले दिन ही अकेली गाड़ी में बैठकर एक जगह शॉपिंग करने आयी. शॉप में ये मिल रहा है, वो मिल रहा है देखते-देखते मैं कहाँ गली-गली में निकल गयी कि मुझे पता ही नहीं चला. मुझे यहाँ तक नहीं पता था कि मैं किस होटल में ठहरी थी और लोकेशन क्या है. मैं इतनी नर्वस हो गयी कि मुझे कुछ पता होता तो ना मैं कैब करती. मुझे बस इतना पता था कि मेरे होटल के आगे एक पेट्रोल पम्प है. फिर मैंने डरते-डरते एक कैब बुक किया. मैं हसबेंड की हालत सोचकर मरी जा रही थी कि उनके ऊपर कितना प्रेशर आएगा कि नयी-नयी शादी हुई है. लड़की को लेकर गया, कहीं इसने कुछ कर तो नहीं दिया उसके साथ. कैब वाले ने थोड़ा दिमाग लगाया और उसने मुझे उसी पेट्रोलपंप के पास वाले होटल में पहुंचा दिया. मैं वहां पहुंची तो हसबेंड नहीं थें, मुझे खोजने निकल पड़े थें. मैंने रिसेप्शन के फोन से उन्हें कॉल किया और बताया कि मैं आ गयी हूँ. फिर आने के बाद उन्होंने मुझे बहुत डांटा. बोले - 'तुम सही में बच्ची ही हो, तुमको अक्ल नहीं है. वहां से ही तुम किसी से लेकर फोन क्यों नहीं की.' लेकिन तब आज की तरह हर व्यक्ति के हाथ में मोबाइल नहीं होता था और मुझे ये भी डर था कि मैंने बहुत सारे गहने पहन रखे हैं, कहीं कोई जान गया कि ये लड़की अकेली है, खो गयी है तो मेरे साथ बुरा हो सकता है. बाद में हसबेंड ने बताया कि थोड़ी देर बाद वो पुलिस में रिपोर्ट करनेवाले थें कि मेरी बीवी गुम हो गयी है. वहां से ये बात ससुराल में नहीं बताई गयी. फिर हफ्ते दिन बाद हम लौटे तो पता चलने पर सभी हंस पड़े कि 'अरे भाई इसे संभालकर रखो, बालिका वधु है. मेरी ननदों ने कहा कि 'इसके पांव का प्रिंट अभी छोटा है. धीरे-धीरे जब बड़ी होगी तो पांव का प्रिंट भी बड़ा हो जायेगा.' 

मेरे पति ने एक रात मुझे बिना खाना खाये सोने को छोड़ दिया: कुमकुम वेदसेन, पूर्व प्राचार्या, सिद्धार्थ महिला कॉलेज,पटना एवं वरिष्ठ मनोचिकित्सक

By : Rakesh Singh 'Sonu'



ससुराल का शुरूआती दिन उमंगों से भरा रहा. नयी जगह, नए लोगों के साथ रहने का उत्साह था पर दिल के कोने में एक डर भी बैठा हुआ था. बचपन में उछलती-कूदती, ठहाका लगाकर हंसनेवाली लड़की को जीवन की नयी चुनौती का सामना करना था. एक अच्छी सुसंस्कारी बहु बनने की चुनौती. आज जब उन दिनों को याद करती हूँ तो समय कैसे गुजर जाता है इसका अंदाजा भी नहीं लगा पाती हूँ. मेरी शादी 1973 में हुई. उस समय के परिवेश की यह अनूठी शादी थी. ना बैंड,ना बाजा, ना बारात, ना तिलक, ना लेन-देन. दो घंटे में शादी खत्म, विदाई हो गयी. समाज के लिए एक मिसाल भी था और पुरानी परम्पराओं को तोड़कर बाहर आने के कारण निंदनीय भी था. फिर भी अनोखी-अनूठी शादी थी.
कॉलेज के दिनों में दहेजप्रथा पर वाद-विवाद प्रतियोगिता में यूनिवर्सिटी स्तर पर चुनकर मैं लोकसभा में मगध यूनिवर्सिटी की प्रतिनिधि के रूप में परफॉर्म की थी जिसमे द्यूतिय पुरस्कार से पुरस्कृत हुई थी. लड़के वालों के पास रिश्ते के लिए मेरी जो फोटो गयी उसमे मैं उसी प्रतियोगिता के मैडल-शील्ड के साथ थी जिसे देखकर ससुरालवालों ने पूछा कि 'ये किसलिए मिला है?'
तो उन्हें बताया गया कि दहेजप्रथा पर हुई प्रतियोगिता में मुझे मिला है. ससुरालवाले खुद दहेजविरोधी थें तो यह सुनकर वे खुश हो गएँ और फ़ौरन शादी पक्की हो गयी. फिर मैं स्वछंद एवं उच्च विचारों वाले परिवार की बहु बनी. अपने ससुराल जिला समस्तीपुर के सिमरी गांव गयी, जिसका अद्भुत, रोमांचकारी अनुभव है. एक बड़ी हवेली के एक कमरे में मेरा अपना बेडरूम था. खिड़की से चाँद की रौशनी का कमरे में आना और उस समय रेडियो पर गाना सुनना बहुत ही रोमांटिक लगता था. एक रात की बात है मुझे रात का खाना खाने का मौका ही नहीं मिला. बचपन से मेरी आदत रही कि रात में सात से आठ बजे तक डिनर कर लेती थी और सो जाती थी, मगर ससुराल में ऐसा नहीं चला. शुरू में कुछ दिनों तक तो मैं देर से खाना खाने को सहन करती गयी और ससुरालवाले भी मुझे पूरी तरह से सपोर्ट करते रहें लेकिन मेरे पति ने एक रात मुझे बिना खाना खाये सोने को छोड़ दिया. बीच रात में जब मेरी नींद खुली तो मैं दंग रह गयी. सभी लोग सो रहे थें, यहाँ तक कि मेरे पति भी गहरी नींद में थें. अब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, कैसे कुछ खाना खाऊं और मैं फिर बिना खाये ही सो गयी.
सुबह में मेरी ननद और सासु माँ ने मुझसे सवाल किया कि 'रात में खाना खायी ?' तो मैंने सहज भाव से का दिया कि 'नहीं'. इस बात पर दोनों ने आश्चर्य जताया और कहने लगीं कि आपके बेडरूम में आपका खाना रख दिया गया था. लेकिन मेरे पति महोदय ने इसकी सूचना मुझे नहीं दी क्यूंकि वह रात में मेरे सबेरे सो जाने की आदत को बदलना चाहते थें. उन दिनों इन बातों पर गुस्सा भी आया, आँखों में आंसू भी आ गया, मायके की याद भी खूब आयी लेकिन कुछ ही पल ऐसा रहा फिर स्वयं को बदलने की ठान ली. मायके और ससुराल के परिवेश में बहुत अंतर था. ससुराल गांव में था जहाँ बिजली नहीं थी. जाड़े के दिन में आँगन में दिनभर तो बैठना बहुत अच्छा लगता था मगर शाम होते ही जब लालटेन जलता था तो ऐसा लगता कि ज़िन्दगी ठहर सी गयी है. एक जगह ही बैठी रहूं कुछ ना करूँ. फिर धीरे-धीरे मैंने खुद को वहां के परिवेश में ढ़ालना शुरू किया और कुछ समय बाद तो मुझे अपना ससुराल अपना गांव बहुत भाने लगा. 

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