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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Tuesday 20 June 2017

फिल्म देखने के शौक ने कई बार मुश्किल हालातों से रु-ब-रु करवाया : श्याम जी सहाय, पूर्व आई.ए.एस. एवं अध्यक्ष, बागबान क्लब, दैनिक जागरण,पटना

जब हम जवां थें 
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मैं आरा जिला, भोजपुर, बिहार का मूल निवासी हूँ और वहीँ से प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा ग्रहण किया. आज मैं ज़िन्दगी के चौथे अध्याय में हूँ लेकिन कभी मेरा भी बचपन था...मेरी भी जवानी थी...मेरे भी सपने थें...मेरी भी उड़ान थी. आप माने या ना माने मैं बच्चा तो शरारती ही था और सबसे छोटा होने की वजह से सबका दुलारा भी था. बचपन का एक वाक्या मुझे याद है. मेरे बड़े भाई जो अब स्वर्गवासी हो चुके हैं और हम दोनों मोहल्ले के मैदान में एक साथ ही खेलते थे. एक बार मुझे खेलकर घर वापस आने में कुछ विलम्ब हुआ तो मेरी माँ जो मोतियाबिंद की वजह से देख नहीं पाती थीं ने मेरे बड़े भाई को मुझे लाने के लिए भेजा. वह मुझे पकड़कर ले आए और माँ के सामने मुझे खड़ा कर दिया. माँ थोड़े गुस्से में थीं. मैंने देखा कि वो मुझे तमाचा मारनेवाली हैं. तभी मैं थोड़ा सा झुक गया और उनका तमाचा मेरे बड़े भाई को लग गया.
   स्कूल की पढाई के बाद मैंने 1961  में आरा के हरप्रसाद दास जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. उसके बाद मैं अर्थशास्त्र में एम.ए.करने के लिए पटना विश्वविधालय में दाखिला लिया और पटना आकर हॉस्टल में रहने लगा. छोटे शहर से राजधानी पटना में आने के बाद उस समय की चकाचौंध ने मुझे बहुत आकर्षित किया. बी.एन.कॉलेज के सामने भारत कॉफी हाउस या एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल के बगल में सोडा फाउंटेन रेस्टोरेंट में बैठकर चाय-कॉफी की चुस्कियां लेने का एक अलग ही मजा था. लेकिन यह मजा मैं कुछ ज्यादा ही लेने लगा. अपने एक मित्र जो रईस घर का था उसके साथ अक्सर मैं एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल चला जाता था. वहीं से फिल्म देखकर देर रात को हॉस्टल लौटता था. कई बार हॉस्टल में सुपरिटेंडेंट की डांट सुननी पड़ती थी, पढाई भी प्रभावित होती थी लेकिन फिल्म देखने की लत छूटने का नाम ही नहीं लेती थी. यह फिल्म देखने का शौक बचपन से ही था. जब मैं आरा में हाई स्कूल में पढता था तो एक दफा वहां मोहन सिनेमा हॉल में अशोक कुमार की फिल्म लगी थी 'संग्राम' जो सिर्फ वयस्कों के लिए थी. मेरे और मित्र के दिमाग में यह बात आई कि ये सिर्फ वयस्कों के लिए ही क्यों है? हमलोग क्यों नहीं देखने जाएँ? फिर क्या था, हमने जाकर टिकट काउन्टर पर पैसा दिया, टिकट काटनेवाले ने ऊपर से लेकर नीचे तक हमें देखा और कहा- 'बाबू, तुम तो अभी बच्चे हो, तुम नहीं देख सकते हो.' मैंने कहा- ' आखिर इसमें ऐसा क्या है जो हमें देखने से वंचित किया जा रहा है.'  उसने बताया कि 'फिल्म में हीरो अशोक कुमार जी बहुत सिगरेट पी रहे हैं और इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ेगा इसलिए यह व्यस्यक फिल्म हो गयी है.'  तो वहां से हम झटपट दौड़कर रूपम सिनेमा हॉल में गएँ जहाँ 'नागिन' चल रही थी. फिर हम वो फिल्म देखकर घर लौट आए.  तब फिल्म देखने का शौक इस कदर था कि जब मैं एम.ए. अर्थशास्त्र का स्टूडेंट था, परीक्षा चल रही थी. सातवें पेपर की परीक्षा देनी थी. परीक्षा के एक दिन पहले मनोज कुमार और माला सिन्हा की फिल्म 'हरियाली और रास्ता' लगी थी. मैं अपने शौक को दबा नहीं सका और सेकेंड शो में चला गया. फिल्म बहुत अच्छी लगी और राज की बात ये कि माला सिन्हा मेरी फेवरेट हीरोइन थीं. रात में करीब दो बजे हॉस्टल आकर सो गया. सवेरे नींद ही नहीं टूटी और प्रथम पाली की सातवें पेपर की परीक्षा मैं नहीं दे पाया. उस समय रिजल्ट कुल अंक पर निकलता था. मैं अपने विभागाध्यक्ष और अन्य लोगों से मिला लेकिन किसी के पास कोई समाधान नहीं था. मुझे मन मसोसकर रह जाना पड़ा. रिजल्ट निकला तो  ईश्वर की कृपा से मैं सेकेंड क्लास में थर्ड पोजीशन आ गया था. अगर उस पेपर में मैं एपियर हुआ रहता तो निश्चित रूप से फर्स्ट क्लास आता.
   
एक और वाक्या याद आता है. मैं सीधे बिहार लोक सेवा आयोग से चयनित होकर प्रशासनिक सेवा में आया हूँ और प्रथम प्रयास में ही मैं सफल रहा. लेकिन उस वक़्त की कुछ अजीब सी कहानी है जिसपर शायद कुछ लोग विश्वास ना करें. रिटेन में मैं क्वालीफाई कर चुका था. अगले दिन मेरा इंटरव्यू था. तभी मेरे अंदर फिल्म देखने का शौक फिर उमड़ आया. मेरे साथी लोग रात रातभर जागकर इंटरव्यू की तैयारी कर रहे थें और मैं चला गया एलिफिंस्टन सिनेमा हॉल में फिल्म देखने. रात में फिर 2 बजे लौटा और सो गया. सुबह उठा तो मेरे ध्यान में आया कि इंटरव्यू तो सिर्फ एक दिन की बात है लेकिन इस एक दिन में आजतक जो मैंने पढाई की है, जो कुछ समझा है और जितना ज़िन्दगी से सीखा है वही काम आएगा, एक्जामिनेशन नाईट का पढ़ा हुआ काम नहीं आएगा. और मुझे खुद पर भी भरोसा था. मैं इंटरव्यू फेस करने गया. सवाल कठिन थें, कुछ उटपटांग भी थें. मगर मैं घबराया नहीं बल्कि ईमानदारी से अपने ही अंदाज़ में मैंने सवालों का सही जवाब दिया. जब रिज्लट निकला तो मेरा चयन हो गया था.
   फिर से मैं एक बार अपने शुरूआती दिनों की ओर लौटना चाहूंगा जब मैं हाई स्कूल में था. हमारे समय में आठवें क्लास के बाद 9 वीं-10 वीं में साइंस,आर्ट्स और कॉमर्स लिया जाता था. मेरी दिली ख्वाहिश थी कि मैं इंजीनियर बनूँ इसलिए मैथेमैटिक्स पढ़ना चाहता था. लेकिन आठवीं क्लास में मैथ में फेल कर गया क्यूंकि मैथेमैटिक्स में कमजोर था. मैंने पिताजी से कहा- ' मैथेमैटिक्स के लिए आप घर पर एक शिक्षक रख दें.' जबकि उस समय ना तो कोई शिक्षक रखा जाता था और ना ही कोई कोचिंग इंस्टीच्यूट का चलन था. मेरे पिताजी ने कहा-'बेटा, आठवीं क्लास में ही तुम शिक्षक के सहारे पढ़ोगे तो तुम आगे नहीं बढ़ पाओगे.तुम्हारा मैथ कमजोर है तो तुम छोड़ दो और आर्ट्स ले लो. तुम आर्ट्स में ही अच्छा करोगे.' और पिताजी की सोच सही साबित हुई और मैंने आर्ट्स लिया और स्कॉलरशिप से ही बोर्ड, आई.ए., बी.ए. और एम.ए. की पढाई की और प्रथम श्रेणी में बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए. 

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