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Monday, 16 October 2017

बेटियों- लड़कियों के हक़ की लड़ाई लड़ना चाहती हूँ : वारुणी पूर्वा, समाजसेविका एवं छात्रा

सशक्त नारी
By : Rakesh Singh 'Sonu'

दिल्ली यूनिवर्सिटी से जर्मन लैंग्वेज में ग्रेजुएशन कर चुकी वारुणी पूर्वा की माँ गृहणी हैं और पिता जी पटना हाईकोर्ट में एडवोकेट हैं. दिल्ली से वापस पटना आने के बाद वारुणी पटना यूनिवर्सिटी से हिस्ट्री ऑनर्स में फिर से ग्रेजुएशन कर रही हैं. क्यूंकि उन्होंने जो जर्मन में ग्रेजुएशन किया है उसका स्कोप पटना में नहीं है. उसका स्कोप दिल्ली में है. लौटने के बाद वे सिर्फ एक दिन के लिए अपने घर पर रुकीं. पिता वारुणी को इंजीनियर बनते देखना चाहते थें लेकिन जब वारुणी ने बताया कि वे एक सामाजिक संगठन से जुड़ गयी हैं इसलिए अब अपने करियर लाइफ के आलावा कुछ समय वे इसमें भी देंगी, तब उनकी ये बात घरवालों को हजम नहीं हुई. पिता जी अपने खिलाफ जाने से बहुत क्रोधित हुए. और वैसे भी इंडिपेंडेंटली काम करने में आपको अलग रूम लेकर रहना ही ठीक होता है ये विचार करके वारुणी ने अगले दिन घर छोड़ दिया. अभी वे बांसघाट इलाके में सिंगल रूम किराये पर लेकर अकेली रहती हैं. अपने खर्च के लिए ए.जी. कॉलोनी में जाकर होम ट्यूशन पढ़ाती हैं. ट्रैवलिंग में भाड़े का खर्चा बचाने के लिए वे साइकल से आती-जाती हैं. साढ़े नौ से साढ़े ग्यारह बजे तक उनका कॉलेज में ऑनर्स क्लास होता है. कॉलेज से रूम पर वापस आकर खा-पीकर वे गोसाईं टोला मोड़ के पास इंदिरा घाट मंदिर पहुँच जाती हैं. वहां 'नौजवान भारत सभा' संगठन के अंतर्गत 'शिक्षा सहायता मंडल' के नाम से चलाये जा रहे कार्यक्रम में गरीब बच्चों को पढ़ाती हैं. ये अभियान वहां 2013  से चल रहा है और वारुणी इसका हिस्सा पिछले साल बनीं. कक्षा 8 से 12 वीं तक के स्टूडेंट को साइंस और मैथ हफ्ते में 5 दिन पढ़ाया जाता है. अगर कोई आर्ट्स का स्टूडेंट आ गया तो उसे भी रख लिया जाता है. सन्डे को मार्शल आर्ट की भी शिक्षा दी जाती है. फ़िलहाल वहां 30 बच्चे आते हैं जिनसे महीने में सिर्फ 100 रुपया लिया जाता है. वारुणी कहती हैं कि 'यहाँ बच्चों को पढ़ाकर हम परोपकार जैसी चीज नहीं कर रहें, हमलोगों का मानना है कि ये उनका हक़ है. कुछ लोगों का एम होता है कि वो कुछ करें लेकिन उनकी फैमली उनको फाइनेंशली सपोर्ट नहीं कर पाती. इसलिए वैसे बच्चों को आगे बढ़ने में हमलोग मदद करते हैं. भगत सिंह जैसे लोग सिर्फ आजादी की बात नहीं करते थें बल्कि वो ये भी कल्पना करते थें की आजादी के बाद का भारत कैसा होगा लेकिन उन्होंने जो सपना देखा वो भारत आज है नहीं. इसलिए हमलोग उनके सपनों का भारत बनाने के लिए कार्यरत हैं.' इस संगठन के तहत गोसाईं टोला इलाके में ही एक लाइब्रेरी भी खुली है जहाँ वारुणी और उनके सहयोगी बारी-बारी से वहां अपना समय देते हैं. लाइब्रेरी में भगत सिंह, प्रेमचंद, निराला, टैगोर आदि के बहुत सारे प्रोग्रेसिव लिट्रेचर्स हैं. आज के ज्यादातर युवाओं का समय स्मार्ट फोन एवं सेल्फी खींचने में जा रहा है. इंटरनेट पर हर चीज मिल जाती है लेकिन किताब पढ़ने का एक अलग ही मजा होता है. लाइब्रेरी में ये लोग किसी टॉपिक पर बच्चों के बीच डिस्कशन भी कराते हैं. वारुणी अपने साथियों के साथ बच्चों के बीच जाकर ये प्रचार करती हैं कि वे अपना समय मोबाइल और इंटरनेट पर बर्बाद ना करें बल्कि लाइब्रेरी आकर भी अपने समय का सदुपयोग करें. इसके अलावा वारुणी संगठन की तरफ से लो मिडिल क्लास इलाके में मेडिकल कैम्प और साइंस कैम्प भी लगाती हैं. जिसमे बच्चों एवं बड़ों के बीच जाकर साइंस एक्सपेरिमेंट के जरिये अन्धविश्वास को टारगेट किया जाता है. उनकी टीम में 10-12 लोग हैं जिनमे 2-3 लड़कियां हैं. अपने संगठन के साथियों के साथ वारुणी पटना यूनिवर्सिटी के लिए भी काम करती हैं. वहां बहुत बड़ा मुद्दा है कि गर्ल्स हॉस्टल का जो रोड है बहुत सुनसान जगह पर है. वहां मौजूद दो बॉयज होस्टल्स के बीच हमेशा लड़ाई होती है और गर्ल्स हॉस्टल की लड़कियां अक्सर उनका शिकार बनती हैं. वारुणी बताती हैं कि 'पुलिस में कोई जल्दी रिपोर्ट नहीं करता क्यूंकि फिर घरवाले परेशान करेंगे और वापस बुला लेंगे. लड़कियों के साथ ये समस्या है कि वे विद्रोह या आवाज नहीं उठा सकतीं क्यूंकि सबसे पहले उनको घरवाले ही दबाते हैं. घरवाले ही बोलते हैं कि कोई सड़क पर कुछ बोले तो पलटकर जवाब ना दो, चुपचाप आगे निकल जाओ. लेकिन ये सब करने से तो चीजें रुकेंगी नहीं और ज्यादा होंगी. तो अक्सर होनेवाली इन घटनाओं को लेकर हमलोग साइंस कॉलेज और पटना कॉलेज में कैम्पेन चलाते हैं. 8 मार्च महिला दिवस के अवसर पर 'पिंजड़ा तोड़' मूवमेंट के नाम से यहाँ एक रैली भी निकाले थें.' वारुणी ने बताया कि अभी हाल में उनके साथ ही कॉलेज परिसर में एक लड़के द्वारा छेड़खानी की वारदात हुई. उन्होंने एफ.आई.आर. करवाया, उसके बाद वी सी के पास जाकर ज्ञापन सौंपें थें कि यूनिवर्सिटी में जेंडर सेंसेटाइजेशन सेल होना चाहिए. कॉलेज का कोई स्टूडेंट अगर ऐसा करता है तो यूनिवर्सिटी उसपर तुरंत एक्शन ले. अक्सर ऐसे मामलों में यूनिवर्सिटी कुछ नहीं करती. ये हर जगह की कॉमन प्रोब्लॉम है जिसका नतीजा था हाल ही में बी.एच.यू. में हुआ छात्राओं का आंदोलन.

संत माइकल्स स्कूल, पटना से 12 वीं करने के बाद वारुणी जब उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जाना चाहती थीं तब निर्भया कांड के डर से उनके अभिभावकों ने उन्हें दिल्ली जाने की इजाजत नहीं दी. लेकिन फिर भी घरवालों की नाराजगी झेलते हुए वारुणी दिल्ली गयीं और घरवालों के सपोर्ट ना करने के बावजूद खुद से ट्यूशन पढ़ाकर वहां अपनी पढ़ाई जारी रखी. वे जर्मन में ही एम.ए भी करना चाहती थीं लेकिन फिर पैसों के अभाव में वे पटना वापस आ गयीं. 12 वीं में जो टीचर उन्हें कोचिंग पढ़ाते थें उनके माध्यम से वे दिल्ली में रहते हुए 'नौजवान भारत सभा' संगठन से जुड़ीं और शहीद भगत सिंह के विचारों से प्रभावित हुईं. इस संगठन को 1926  में भगत सिंह एवं उनके साथियों ने ही बनाया था जिसे रिवाइव करते हुए 2005 से यह संगठन शुरू हुआ है. अभी दिल्ली, मुंबई,पटना, इलाहबाद, लखनऊ, बैंगलोर इन सभी जगहों पर इसकी शाखाएं हैं. दिल्ली में इस संगठन से जुड़कर वारुणी मजदूर इलाकों में बच्चों को पढ़ाती थीं. उन इलाकों में संगठन द्वारा लगाए गए मेडिकल कैम्प में हिस्सा लेती थीं. तब सहयोग के लिए पढ़नेवालों से 5 रुपया लिया जाता था क्यूंकि संगठन का मानना है कि लोगों के अंदर भीख मांगने की जो प्रवृति हो जाती है तो आप जितना भी मदद दे सकते हैं दीजिये लेकिन भीख वाली बात मन में ना जाये. इसलिए केवल टोकन सहयोग के रूप में 5 या 2 रूपए कुछ-न-कुछ लोग सहयोग करते थें.

ऊपर बाएं से वारुणी संगठन के साथियों के साथ बी.एच.यू. की छात्राओं के सपोर्ट में धरना देती हुई, पिछड़े इलाकों में मेडिकल
कैम्प लगवाती हुईं, बाढ़ राहत के लिए रूपए इकट्ठे करती हुईं और साइंस कैम्प के द्वारा अन्धविश्वास पर चोट करती हुईं
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   वारुणी फ़िलहाल एक साल से अपने घर नहीं गयी हैं. माँ और छोटी बहन से सिर्फ फोन पर ही कभी-कभी बातें हो जाती हैं. वारुणी बताती हैं कि '12 वीं करने के बाद जितनी चीजें मैंने घर में देखी और माँ से सुनी कि मेरे चाचा के दो बेटे हैं तो दादा-दादी उनको बहुत प्यार करते हैं और हम तीन बहनों के साथ बहुत गंदे तरीके से व्यवहार करते थें. मेरी माँ ने पहली बार लड़की को जन्म दिया, दूसरी बार भी लड़की पैदा हुई. तीसरी बार जब माँ प्रेग्नेंट थीं उनको ठीक से भरपेट खाना तक नहीं दिया जाता था. और यह सिर्फ एक ही घर की कहानी नहीं है बल्कि आज भी बहुत से घरों में बेटों की तुलना में बेटियों को दोयम दर्जे का और उन्हें मनहूस समझा जाता है. तो इन सब चीजों को बदलने के लिए कि जो चीज एक लड़की सहती है वह कैसे बदला जाये मैं सोचती रहती थी. सुधार सिर्फ फैमली से नहीं होगा बल्कि समाज में बनी हुई मूल्य-मान्यताएं बसी हुई हैं कि लड़कियां सिर्फ खाना बनाने, शादी करने और बच्चे पैदा करने के लिए ही हैं तो ये सोच बदलने के लिए आपको पूरे सोसायटी लेवल पर काम करना होगा.' इसी सोच की वजह से वारुणी नौजवान भारत सभा से जुड़ी जो ना कोई पोलिटिकल पार्टी से जुड़ा है और न ही कोई एन.जी.ओ. है. वारुणी का मुख्य लक्ष्य है समाज को बदलने के लिए अपनी जिंदगी लगा देना. और पेशे के तौर पर वे खुद को क्रांतिकारी ही मानती हैं.
     

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