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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Monday, 30 October 2017

8 साल जॉब करने के बाद मैंने अपना खुद का बिजनेस खड़ा किया : गुरुदयाल सिंह, पूर्व अध्यक्ष, 'पंजाबी बिरादरी',पटना

जब हम जवां थें 
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म पंजाब के गुरुदासपुर में हुआ. वहां से पापा जी बिहार चले आये फिर मैं बिहार में ही पढ़ा-लिखा और बड़ा हुआ. स्कूल से ही मुझे कविता-कहानी लिखने का शौक था. पहले मैंने कवितायेँ लिखनी शुरू की जो पत्र-पत्रिकाओं में छपी भीं. गोलघर के पास एक प्राइमरी स्कूल से पास करने के बाद पी.एन. एंग्लो स्कूल से मैट्रिक करने के बाद साइंस में ग्रेजुएशन कॉमर्स कॉलेज से किया. जब शादी की बात चली तो मेरे मामा जी चाहते थें कि पड़ोस की भिखना पहाड़ी की गुरजीत से मेरी शादी हो. मुझे भी लड़की बहुत पसंद थी. गोरी-चिट्टी, काली-काली आँखों वाली. कहीं ना नुकुर की गुंजाईश नहीं थी. परन्तु हमारे फूफा जी जो थोड़े दबंग थे बोले - 'सियालकोटियों के साथ संबंध नहीं बनाना है.' उन्होंने दूसरी लड़की परमजीत के बारे में मेरी बीजी और पापा जी से बातचीत की. पापा जी, मामा जी नहीं मान रहे थें क्यूंकि जुबान दे चुके थें परन्तु बीजी के समझाने से मान गएँ. मुझे भी बहुत समझाया गया कि 'खानदान पढ़ा-लिखा है, लड़की तुम्हारे लायक पढ़ी-लिखी है, सुशिल है, सुन्दर है.' मैंने भी मन मसोस कर हामी भर दी. रिश्ते से पहले मैंने उसे देखा तक नहीं था. परन्तु बीजी के कहने पर कि बिल्कुल बैजन्तीमाला लगती है, फोटो देखकर मैंने भी हाँ कर दी. रिश्ता तो पक्का हो गया परन्तु शादी तीन साल बाद करना तय हुआ क्यूंकि हम दोनों तब पढ़ ही रहे थें. हम एक दूसरे से बातें भी नहीं कर सकते थें, टेलीफोन की सुविधा जो नहीं थी. पर मन तो बहुत करता था एक दूसरे को देखने का- बात करने का, लेकिन अंदर-ही-अंदर एक डर भी था कहीं उसके मन में हमारे प्रति कोई गलत भावना ना बन जाये और हम जुदा हो जाएँ. इसी डर से कोई आगे बढ़ना नहीं चाहता था. एक दूसरे को दूर से देखकर मन ही मन खुश हो जाते. मुस्कुराना भी अपराध लगता था. हमदोनो की छोटी बहनें बलविंदर, मंजीत एक ही स्कूल में पढ़ती थीं और प्रायः दोनों का एक दूसरे के घर आना-जाना होता था. मैं कभी-कभी कुछ कविता लिखकर भेज देता परन्तु उत्तर की सम्भावना नहीं थी. ऐसे ही हमदोनो का मूक प्रेम परवान चढ़ रहा था. कभी-कभी कॉलेज जाते हुए बस की लाइन में खड़ी सखियों संग उनको देखता तो फिर सारा दिन बड़े आनंद से उनकी याद में गुजरता. इसी तरह दिन बीतते गए और एक दिन हम दोनों शादी के बंधन में बंधकर एक दूजे के हो गएँ. कॉलेज से आने के बाद पापा जी के काम को संभालना मेरा काम था. रात कभी-कभी देर भी हो जाती. एक रात मैं थोड़ी देर से आया तो पत्नी ने अपने कमरे का दरवाजा नहीं खोला. मैं अपनी सफाई देता रहा. थोड़ी देर बाद दरवाजा इस शर्त पर खुला कि अब रोज घर जल्दी आना होगा. वे कहती - ' मैं किससे मन की बात करूँ, आप सारा दिन बाहर रहते हैं मेरा भी तो दिल है.' यह उनका प्यार बोल रहा था, हम दोनों में बहुत प्रेम था.
 
 इसी तरह कुछ महीने बीतने के बाद अचानक एक दिन सास-ससुर जी आएं और पत्नी को एक महीने के लिए ले जाने का प्रोग्राम बनाने लगें. मुझे तो काठ मार गया. जब एक दिन भी अलग रहना मुश्किल है और ये तो एक महीने की बात कर रहे हैं ! मैंने तो ना कर दी लेकिन बीजी-पापा जी के समझाने पर कि 'पहले सावन में लड़कियां अपने मायके ही रहती हैं और अपनी सास का मुंह नहीं देखती हैं.' मैंने पत्नी को भरे मन से भेज दिया. मगर मेरा मन उदास रहने लगा और मुझे बुखार हो गया. इसकी खबर जब पत्नी को लगी झटपट आरा मशीन पर ही मुझको मिलने आ गयीं. तब एक दूसरे को देखकर दोनों रोने लगें, आलिंगन में बंध गएँ. मेरा बुखार भी उतर गया.

पुरानी यादों के साथ पत्नी परमजीत जी एवं गुरुदयाल सिंह जी 
ग्रेजुएशन करने के बाद मैं गुलजारबाग, पटना पॉलिटेक्निक में चला गया जहाँ से डिप्लोमा कोर्स करने के बाद मुझे यू.पी. मुरादाबाद से ऑफर मिला गया. पहले नौकरी के लिए 6 महीने अप्रेंटिशिप करनी ज़रूरी होती थी. 1968 में मैंने वहां ज्वाइन किया. वहां उन्होंने पूछा- 'आपको क्या करना है?' मैंने कहा- 'मुझे लॉन्ग टर्म में बिजनेस करना है लेकिन अभी मुझे दो-चार साल सर्विस करनी है.' फिर हमारे काम से वो खुश होकर बोले कि आप हमारे यहाँ ही जॉब कर लीजिये. मुझे जॉब मिला लेकिन सैलरी बहुत कम थी, 240 रूपए महीना. वहां तीन शिफ्ट में काम होता था. सुबह 8 से 4, 4 से 12 और 12 से 8. और मुझे बना दिया गया शिफ्ट इंचार्ज. मेरी ड्यूटी रहती रात के 10 से सुबह 6 बजे तक. लगातार नाईट ड्यूटी करते हुए एकाध महीने में ही मेरा मन भर गया. दिन में ठीक से नहीं सो पाने के कारण मेरा स्वास्थ गिरने लगा. तब मैंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया और छुट्टी लेकर पटना चला आया पत्नी और पापा जी से बात करने. मगर घर में जितने भी लोग थें सभी ने यही समझाया कि 'आपको नौकरी नहीं छोड़नी है. नौकरी छोड़ेंगे तो बड़ी दिक्कत होगी.' पत्नी ने भी समझाया 'नौकरी जल्दी मिलती नहीं है, आप भाग्यशाली हैं कि आपको अप्रेंटिशिप पूरी करते ही वहीँ नौकरी मिल गयी वरना लोग तो कितने साल पास करके बैठे रहते हैं.' अब चूँकि एक बच्ची का लालन-पालन भी करना था इसलिए नौकरी ना छोड़ने तथा स्वयं साथ-साथ रहने के लिए पत्नी ने मुझे मनाया. कुछ दिनों बाद मैं पत्नी और बिटिया को साथ लेकर पुनः अपने काम पर मुरादाबाद लौट आया. परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए मेरी पत्नी ने वहां एक गर्ल्स हाई स्कूल में इंग्लिश टीचर की नौकरी ज्वाइन कर ली. बिटिया साथ के क्वाटरों की बच्चियों के साथ खेलती रहती थी इसलिए उन्हें नौकरी करने में कोई परेशानी नहीं हुई. परिवार की आमदनी अब दोगुनी हो गयी. परन्तु स्कूल मैनेजमेंट द्वारा इनका बी.एड. नहीं होने से ग्रेड से वंचित रखा गया इसलिए तनख्वाह भी कम मिलती थी. तब पत्नी ने बी.एड. करने की इच्छा जाहिर की, मैंने इजाजत दे दी. उस समय मेरा बेटा पत्नी के पेट में पल रहा था. फिर भी हिम्मत करके उसने पटना में अपना नाम लिखवाया और बी.एड. कम्प्लीट करके एक-डेढ़ साल बाद यू.पी. हमारे पास दोनों बच्चों के साथ लौट आयीं. धीरे-धीरे मुझे भी यहाँ तीन साल हो गएँ. मैंने ऑफिस के लोगों से पूछा 'तुम कबसे काम कर रहे हो?' एक ने कहा 20 साल से काम कर रहा हूँ तो एक बोला 40 साल से कर रहा हूँ. मैं सोचता, ये 20 -40 साल से काम कर रहे हैं फिर भी पैसों का आभाव है, इनकी लाइफ में कोई भी चेंजेस नहीं है. सुबह फैक्ट्री जाना है और शाम को थक-हार के घर आना है बस यही दिनचर्या थी. जब मैं बाहर लोगों से मिलने निकलता तो देखता कि हमारे जो पंजाबी समुदाय के लोग हैं वह छोटी-छोटी लकड़ी, किताबों और साईकल आदि की गुमटीनुमा दुकाने चला रहे हैं. उनके यहाँ जब कोई फंक्शन होता वे लोग मुझे अपने घर बुलाते थें. सभी कहते कि पटना से जो ऑफिसर आया है उसको बुलाओ. तो जब मैं उनके यहाँ जाता था तो देखता कि उनके तीन-चार तल्ले के बड़े-बड़े मकान हैं और घर में सबकुछ है. मतलब छोटे से बिजनेस से ही वो खुशहाल थें. तब मेरे मन ने कहा कि जो 40 साल से जॉब कर रहा है वो वैसे का वैसा ही है और जो छोटा-मोटा खुद का बिजनेस कर रहा है वह कितना आगे बढ़ गया. फिर मैंने पत्नी को समझाया कि बिजनेस करना है इसलिए मुझे जॉब छोड़नी पड़ेगी. पत्नी समझाती कि 'सर्विस मत छोड़िये. फिर हाँ-ना करते-करते करीब 8 साल निकल गए. तब एक दिन मैंने फाइनली डिसीजन लिया और वापस अकेला ही छुट्टी लेकर पटना आ गया. मैंने अपने काम के लिए बैंक से लोन लेकर बहादुरपुर गुमटी के पास लेथ मशीन, बेल्डिंग आदि लगाकर काम शुरू कर दिया. मैं अपनी छुट्टी कोई बहाना बनाकर बढ़ाता रहा क्यूंकि रिस्क नहीं लेना चाहता था. उधर पत्नी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं काम में सफलता पा लूंगा. लेकिन पत्नी के त्याग और वाहेगुरु के आशीर्वाद से काम चल निकला. मैंने अपना रिजिगनेशन भेज दिया और एक साल बाद पत्नी भी स्कूल से रिजाइन करके वापस लौट आयीं. उस समय गंगा ब्रिज बनना शुरू हुआ था, उसका बहुत सा काम लेबर रेट पर ही आने लगा. फिर मैं सुबह से लेकर रात के 18-18 घंटे काम करता. जब तीन-तीन बेटियों की जिमेवारी की चिंता बढ़ने लगी तो पत्नी ने किसी स्कूल में टीचर की सर्विस करने के लिए कहा तो मैंने मना कर दिया कि अब बच्चों को भी संभालना है, उन्हें पढ़ाना- लिखाना है इसलिए सोच-विचारकर घर में ही 'महिला सिलाई कटाई केंद्र' खुल गया. कुछ दिनों बाद मुझे फैक्ट्री के लिए अपनी जगह होना ज़रूरी लगने लगा. खोज-बिन के बाद एक मित्र के सहयोग से गंगा ब्रिज के पास पौने चार कट्ठा ज़मीन खरीद लिया. फिर वहां पत्नी के नाम 1982 में पटना कैलिवेटर्स खोल दी. मेरी पत्नी परमजीत जी अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन मुझे लगता है मेरी पत्नी लक्ष्मी थी, उसके भाग्य से मेरा काम चल निकला और टैंकर बनाने का ऑर्डर नेपाल से भी आने लगा. मगर दो सालों बाद ही 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या होने पर हमारा बहुत नुकसान हुआ. बहुत सा सामान लोग लूट ले गए. पर वाहेगुरु की कृपा से हमारा काम फिर से और पहले से भी अधिक चलने लगा. मैं न्यू जेनरेशन को यही सन्देश देना चाहूंगा की 'आप कोई भी काम करें लेकिन पहल तो आपको ही करनी पड़ेगी. यहाँ असम्भव कुछ भी नहीं है. आप अपनी लगन एवं मेहनत से अपनी बुलंदी की ईमारत खड़ी कर सकते हैं.' 

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