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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Sunday, 30 April 2017

मेरा कैमरामैन बीच में ही फिल्म छोड़कर भाग गया था : ब्रजभूषण, फिल्म निर्देशक

वो मेरी पहली शूटिंग
By: Rakesh Singh 'Sonu'



ग्रेजुएसन उपरांत इंस्टीच्यूट ऑफ़ फिल्म टेक्नोलॉजी मद्रास से 1977 में डिप्लोमा लेने के बाद मैंने अपने ही बैनर 'चित्राश्रम' के तहत अपने ही निर्माण -निर्देशन में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'मेहनत और मंजिल' की योजना बनाई और काफी जद्दोज़हद के बाद कैमरा और रील लेकर पटना शूटिंग के लिए पहुंचा. पहले तो तब के फ़िल्मी लोगों ने यह खबर उड़ा दी कि ब्रजभूषण कैमरा बिना रील के शूटिंग करने आया है लोगों को उल्लू बनाएगा. जबकि मैं कैमरामैन अपने ही इंस्टीच्यूट से पास आउट एक विश्वासपात्र सीनियर को लेकर आया था. उनके मना करने के बावजूद कि उन्होंने ब्लैक एन्ड वाइट में पढ़ाई की है और यह फिल्म रंगीन है. उत्साह मैंने ही दिया था कि , " चिंता न करें, आप एक्सपोजर और लाइटिंग, हैंडलिंग तो कर लेंगे न ? फिल्म रंगीन है तो रंगीन इमेज आ जाएगी."
     बिहारवासियों की खास आदत होती है कि जब कोई फिल्म बनाने चलता है तभी वहाँ के अधिकतर लोग फिल्म बनाने की योजना बनाने लगते हैं. ऐसे में पटना के कई तथाकथित फ़िल्मकार हमारे कैमरामैन  को हमारे पीछे सौ-सौ रुपये देकर साइन कर लिए तक़रीबन 5  फीचर फिल्मों के लिए. नतीजा ये हुआ कि जब दूसरे दिन की शूटिंग में मैंने कैमरामैन को चलने को कहा तो वे कहने लगे, "अब मैं कई फीचर फिल्म करने जा रहा हूँ तो मैं इस डॉक्यूमेंट्री से अपना नाम खराब नहीं करना चाहता." मैं यह सुनकर सन्न रह गया. जी तो चाहा जूता निकालकर.........  मगर मेरे ही लाये मेहमान पर समय जाया न करके मैंने कैसे भी मालूम किया और हर राज्य की राजधानी में उपलब्ध फिल्म डिवीजन के कैमरामैन से उस फिल्म को पूरा किया.
    "मेहनत और मंजिल' मेरी सफलतम फिल्म रही. भारत सरकार ने इसे खरीदकर चौदह विभिन्न भाषाओँ में डब करके सम्पूर्ण भारत के सिनेमा हॉल में प्रदर्शित किया. 18  हज़ार में बनी यह फिल्म 60  हज़ार में बिक गयी थी. उधर पटना के सारे तथाकथित निर्माताओं ने आगे कुछ नहीं किया. हमारे वो कैमरामैन पुनः मेरे पास आये और रिक्वेस्ट करने लगें,  " भइया, मुझे वो फिल्म जरा देते किसी को दिखानी है. वो काम देखकर मुझे फिल्म मिल जाएगी." क्यूंकि इतना होने के बावजूद उस फिल्म में मैंने उन्हीं महाशय का नाम दिया था.


मेरा गोरा रंग देखकर सास ने मुझे तौफे में साड़ी दिया : डॉ. अर्चना मिश्रा, स्त्री रोग विशेषज्ञ (अस्सिस्टेंट प्रोफ़ेसर), एन.एम.सी.एच.पटना

ससुराल के वो शुरूआती दिन 
By: Rakesh Singh 'Sonu'






जब अपने मायके बेगूसराय से मुजफ्फरपुर ससुराल पहुंची तो वहां घर में सारी की सारी ग्रामीण महिलाओं को देखकर मैं थोड़ी घबरा सी गयी कि कहीं यहाँ मुझे ज्यादा पर्दे में तो नहीं रहना पड़ेगा और क्या यहाँ की महिलाएं मुझे समझ पाएंगी. जब कोहबर में ले जाया गया तो वहां महिलाओं की हंसी ठिठोली से मन थोड़ा हल्का हुआ. और जब मॉर्डन सोच रखनेवाली अपनी जेठानी को देखा और उनसे बातचीत हुई तो मेरा डर खत्म हो गया. जब मुझे सासू माँ के पास ले जाया गया तो उन्होंने मुझे देखते ही ख़ुशी से सहेजकर रखी एक खूबसूरत सी साड़ी मुझे तौफे के रूप में दी. दरअसल शादी के पहले ससुराल में मुझे किसी ने देखा नहीं था. और तभी मेरी सास ने निश्चय किया था कि अगर बहू गोरी हुई तो ही उसे वो नई साड़ी तौफे में देंगी. लेकिन अगर बहू काली हुई तो वो साड़ी उसे हरगिज नहीं देंगी. तब रिवाज था कि ससुराल में पहले दिन बहू को खाना नहीं है लेकिन मेरे पति ने मुझे अनजाने में मिठाई खिला दी थी.
     उसी दिन मेरे ससुर को बाथरूम में अचानक जोर का चक्कर आ गया था. घर में कोहराम मच गया कि कहीं उन्हें कुछ हुआ तो नहीं. मैं भी बुरी तरह डर गई कि अगर उन्हें कुछ हुआ तो मुझपे कलंक लग जायेगा कि नई दुल्हन के आते ही ये सब हो गया. लेकिन कुछ बुरा नहीं हुआ और थोड़ी देर में ही ससुर जी की तबियत ठीक हो गयी. घरवालों के साथ साथ तब मैंने भी राहत की सांस ली.



सूचना : अगर आपके साथ भी ससुराल में शुरूआती दिन की ऐसी ही कुछ खट्टी मीठी यादें जुड़ीं हैं और आप भी अपनी वो सुनहरी यादें शेयर करना चाहते हैं तो हमें मेल करें.
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फीकी चाय (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा



ऑफिस को देर हो रही थी, वह चाय के इंतज़ार में था. पत्नी ने आकर चाय का प्याला थमाया. चाय पीते ही उसका चेहरा उग्र हो गया, उसने तीखी नज़रों से पत्नी को घूरा और बरस पड़ा - " तुमसे हज़ार बार कहा है चाय में चीनी ज्यादा डाला करो लेकिन तुम....." वह कप खाली किये बिना ही तमतमाते हुए उठा और घर से निकल गया. शाम को ऑफिस से आते वक्त वह मिसेज दीक्षित के घर गया. पति शहर से बाहर गए थे और वो अकेली थीं. एक दूसरे को देख दोनों मुस्कुरा उठे. वह बहुत सुकून महसूस कर रहा था. मिसेज दीक्षित ने उसकी तरफ प्यार से चाय का प्याला बढ़ाया. चाय फीकी थी, वो चीनी डालना भूल गयी थीं मगर उसे एतराज न हुआ, एक ही सांस में पी गया.  "चाय लाजवाब बनी है" कहकर वह मुस्कुराते हुए घर लौट आया.

बोझ (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा



लड़केवाले उसकी खूबसूरती पर फ़िदा थे. कम में ही मामला निपट गया था. "मेरे होनेवाले जीजा को ज़रा एक नज़र तुम भी देख लो ", भाई ने बहन से कहा. " जब सभी को पसंद हैं तो मुझे क्या देखना..., तुम्हारी क्या राय है." बहन सकुचाते हुए बोली. "क्या बताऊँ दीदी लड़का नहीं हीरा है हीरा. अपना घर है, नामी कम्पनी का मैनेजर है और उससे भी बढ़कर वह अपने माँ बाप का इकलौता है. वैसे तो सभी को पसंद है पर एक नज़र तुम भी देख लो." यह कहते हुए भाई ने तस्वीर आगे बढ़ाई. बहन को झटका सा लगा, चेहरा मायूस हो गया. भाई प्रसन्न था पर बहन की आँखों से आंसू छलक आये क्यूंकि लड़का अधेड़ उम्र का था.

फ्रेंडशिप (लेखक: राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा 




यह उसका तीसरा बॉयफ्रेंड था. पहनावे व हावभाव से वह भांप गई कि मुर्गा पैसेवाला है. जब लड़के ने बताया कि वह किराये के मकान में रहता है, तो उसे हैरत ना हुई. मगर इसके बाद जब उसने यह बताया कि उसके पिता एक साधारण क्लर्क हैं, तो उसे हिचकिचाहट महसूस हुई. वह कुछ और पूछ पाती कि लड़के ने कहा - "आज आइसक्रीम खाने का दिल कर रहा है, मगर पास में पैसे कम हैं." वह इशारा समझ गयी, उसे झटका सा लगा.
  "सॉरी, फिर किसी दिन, मुझे देर हो रही है." इतना कहकर वह रिक्शे पर बैठ गई. 

सबक (लेखक: राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा




बस में उसे किसी ने चुटकी काट ली. उसे बुरा लगा. वही हरकत दोबारा हुई.    इस भीड़ में वह किस पर शक करती ?  तीसरी बार वही हुआ. इस बार उसने देख लिया. लड़का सभ्य लग रहा था. बस के रुकते ही वह उतरी तो लड़का भी नीचे उतर गया. उसने उसे अपनी तरफ आने का इशारा किया. लड़का मुस्कुराता हुआ करीब आया.
     "तुमने बस में जो किया, शायद घर में भी करते होगे, तब तो तुम्हारी इस हरकत से तुम्हारी माँ-बहनों को बहुत मज़ा आता होगा !"  इतना कहकर वह आगे बढ़ गयी. जब तक वह उसकी नज़रों से ओझल ना हो गयी, लड़के की नज़रें शर्म से झुकी रहीं. 

Saturday, 29 April 2017

और लगाना पड़ा था फर्श पर पोछा : स्व.गिरीश रंजन, फिल्म निर्देशक

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'



बचपन में मुझे साहित्य से बड़ा लगाव था. शरतचंद के साहित्य ने मुझे भावुक बना दिया. नतीजा यह कि तभी से फिल्में आकर्षित करने लगीं, नाटक करने का शौक भी पुराना था. स्कूल में सोच लिया था, या तो आर्मी में जाऊंगा या फिर फिल्म में. उन दिनों पटना में हर मॉर्निंग शो में बंगाली फ़िल्में लगती थीं. एक बंगाली मित्र मुझे एक दिन रूपक सिनेमा हॉल में ले गया जहाँ 'पाथेर पांचाली' लगी थी. फिल्म के एक दृश्य में दुर्गा नामक बालिका की मृत्यु हो जाती है तब पूरा हॉल सिसकियों से भर उठा और मैं भी रो रहा था वह भी बंगला नहीं समझने के बावजूद. मैंने महसूस किया कि फिल्म इतनी बड़ी विधा है जहाँ भाषा मामूली रोल अदा करती है.
   अगले दिन मैं कोलकाता अपने चचेरे भाई तपेश्वर प्रसाद के पास जा पहुंचा जो 'पाथेर पांचाली' में सत्यजीत रे के असिस्टेंट एडिटर थे. पहले तो भइया नाराज हुए फिर मेरे जिद्द करने पर एक दिन साथ ले जाकर सत्यजीत रे जी से मिलवाया और कहा कि यह आपको ज्वाइन करना चाहता है. वे अंग्रेजी में बोल रहे थे और मैं हिंदी में जवाब दे रहा था. वे बोले कि डायरेक्टर बनने के लिए एडिटर होना ज़रूरी है, इसलिए पहले एडिटिंग ज्वाइन करो. वे बंगला में अपने एडिटर से बोले 'इसे रख लीजिये'. यहीं से मेरे जीवन का स्ट्रगल पीरियड शुरू हुआ. अगले दिन मैं स्टूडियो पहुंचा. एडिटर ने मुझे एडिटिंग रूम में भेजा और नीचे से ही वहाँ सफाई कर रहे कर्मचारी को बंगला में आवाज देकर कहा कि  ' इसको दे दो, फर्श पोछेगा.' मैं अवाक रह गया लेकिन पूरा पोछा लगा दिया. एक दिन वहीँ मेरी भेंट ऋषिकेश मुखर्जी से हो गयी जो तब फिल्म एडिटर थे. उन्होंने मुझसे कुछ सवाल-जवाब किये फिर संतुष्ट होने पर मुझे अपना सहायक बना लिया. तीन वर्षों के बाद मैं सत्यजीत जी के साथ डायरेक्शन में गया. इस दौरान मैंने विधा सीख ली थी. 70  के दशक में मुंबई चला गया. वहां कमलेशर जी की कहानी पर 'डाकबंगला' नामक हिंदी फिल्म का पहली बार निर्देशन किया. अपनी संस्कृति से प्रेरित होकर 1982  में मैंने बिहारी कलाकारों को लेकर फिल्म 'कल हमारा है' बनायी जो बहुत सफल रही.



बिहारी लोगों को बोली गयी बात मन में चुभ गयी : बिहार कोकिला स्व.विंध्यवासिनी देवी,लोक गायिका

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'



सन 1948 में जब पटना में 'आकाशवाणी' की शुरुआत हुई , तबसे मेरा काम और बढ़ता गया. यूँ कहें कि मैं बिहार के लिए आकाशवाणी की देन हूँ, वही मेरा मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा बन गया. सन 1948  में आकाशवाणी के उद्घाटन पर मैंने यह पहला गीत लिखकर दिया था,-
भइले पटना में रेडिओ के शोर तनी सुनअ सखिया....
26  जनवरी,सन 48 , दिवस सोमवार के उद्घाटन भईल
शुभ मुहूर्त में हाथों श्री सरदार( वल्लभभाई पटेल)
सारे देशवा में मची गईले शोर तनी खोलअ सखिया...
    सन 1955  में आकशवाणी केंद्र, पटना में लोकसंगीत-प्रोड्यूसर के पद पर मैं कार्यरत हुई तो मैंने बिहार की सभी बोलियों पर काम किया. सन 1962  में जब भारत-चीन युद्ध हुआ तो मैं जवानों की हौसला-अफजाई के लिए हर रोज एक लोकगीत लिखती थी. यह सिलसिला लड़ाई चलने तक चलता रहा. इसके अलावा मैंने पंचशील के सिद्धांत, पंचवर्षीय योजनाओं, दहेज़, शिक्षा, परिवार नियोजन और खेती की समस्याओं को भी अपने लोकगीतों का विषय बनाया.
मेरी शादी 14 वर्ष कि उम्र में ही हो गयी थी और सन 1945  में मैं आकर पटना की हो गयी. पति ने पहले खुद मुझे संगीत सिखाया, फिर गुरुजनो से भी सिखलाया. नीना देवी, गिरिजा देवी, रामचतुर मल्लिक, प्रह्लाद मिश्र जैसे गुणीजन लोकगायकों से मुझे बहुत कुछ सिखने को मिला. उसी दरम्यान आर्य कन्या विधालय में बतौर संगीत शिक्षिका कार्यरत हुई. सन 1954 -55  में आजादी के बाद मेरा पहला सांस्कृतिक कार्यक्रम संगीत नाटक अकादमी द्वारा दिल्ली के लालकिला के दीवानेआम में हुआ था. एक पार्श्व गायिका के रूप में मेरे लोकगीतों का पहला एलबम एच. एम. वी. कैसेट कम्पनी ने जारी किया था. मैंने फिर संगीतकार चित्रगुप्त जी के साथ भोजपुरी फिल्म 'भइया' और संगीतकार भूपेन हज़ारिका के साथ 'छठी मइया की महिमा' फिल्म में काम किया. 'कन्यादान' फिल्म में गायिकी के साथ साथ संगीत भी दिया. एक घटना ने मेरा जीवन ही बदल दिया. जब पहली बार किसी ने मुझसे कहा कि 'बिहार के लोग खाना जानते हैं, गाना नहीं' तो मेरे मन को चुभ गयी. बस तभी से मैंने लोकगीत गाने की मन में ठान ली.



कुश्ती और फ़िल्में देखने का शौक था : स्व. रामसुंदर दास, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, बिहार

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'




1941  में कोलकाता के विधासागर कॉलेज से इंटर करने के बाद राजनीति में चला आया और इतना रम गया कि फिर आगे पढाई नहीं कर पाया.लेकिन हाँकिताबें पढ़ने का शौक अनवरत जारी रहामैं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में थाकर्पूरी ठाकुर के बाद 1979  में मैं मुख्यमंत्री बना.उसके पहले की एक घटना याद आती है जब मुझे 103 डिग्री बुखार लगा और मुझे देखने कांग्रेस के बुजुर्ग नेता भागवत सिंह और घिना सिंह आये थेआते ही बोल पड़े - ' बड़े नेता बने हुए होइतने दिन से बीमार हो और खबर भी नहीं करवाईक्या पार्टी छोड़ देने से सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं?' और उन दोनों ने ना सिर्फ मेरी दवा दारू की व्यवस्था की बल्कि एक सप्ताह तक नाश्ता-खाना भी भिजवाते रहेतब के नेताओं में राम मनोहर लोहिया और जे.पीसे हम ज्यादा प्रभावित थेजय प्रकाश जी के साथ हमने रहकर काम भी किया पर कभी महसूस भी नहीं होता था कि हम बड़े नेता के साथ बैठे हैंभाईचारा ही इतना अधिक था.
मुझे गाँव से ही कुश्ती से बड़ा लगाव था पर राजनीति में आने पर वह शौक भी छूट गयाहाँफिल्में देखने जाता था मगर कभी पसंद  आने पर इंटरवल के पहले या बाद में उठकर चल देता थाजब मैं इंटर में थावहां विधासागर  कॉलेज में बंगाली से ज्यादा बिहारियों की संख्या थी और कभी कभी किसी बात पर दोनों गुटों में भिड़ंत भी हो जाया करती थी पर बाद में सभी एक हो जाते थेउस वक़्त का एक वाक्या याद हैहमारे एक प्रोफ़ेसर साहब पान के शौक़ीन थे और हमारे एक मित्र के यहाँ अक्सर चाय पीने आया करते थेहमहमारे मित्र और उनका नौकर भी पान खाते थे मगर वह थोड़ा तीखा होता थाएक दिन मित्र के यहाँ हम सभी बैठे थेनौकर पान लेकर रख गयागलती से हमारा पान प्रोफ़ेसर साहब और उनका पान हमारे मित्र ने खा लियाउन्हें उलटी होने लगी फिर उन्हें डॉक्टर के पास ले जाना पड़ावे ठीक होने पर गुस्से में सबसे यही कहते की मेरे मित्र और उनके नौकर ने उन्हें जान से मारने की साज़िश कीतब यह किस्सा हमारे कॉलेज में हास्यास्पद रूप से  गया था.




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