जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'
By: Rakesh Singh 'Sonu'
सन 1948 में जब
पटना में 'आकाशवाणी'
की शुरुआत हुई
, तबसे मेरा काम
और बढ़ता गया.
यूँ कहें कि
मैं बिहार के
लिए आकाशवाणी की
देन हूँ, वही
मेरा मंदिर, मस्जिद,
गुरुद्वारा बन गया.
सन 1948 में
आकाशवाणी के उद्घाटन
पर मैंने यह
पहला गीत लिखकर
दिया था,-
भइले पटना में
रेडिओ के शोर
तनी सुनअ सखिया....
26 जनवरी,सन 48 , दिवस
सोमवार के उद्घाटन
भईल
शुभ मुहूर्त में हाथों
श्री सरदार( वल्लभभाई
पटेल)
सारे देशवा में मची
गईले शोर तनी
खोलअ सखिया...
सन 1955 में
आकशवाणी केंद्र, पटना में
लोकसंगीत-प्रोड्यूसर के पद
पर मैं कार्यरत
हुई तो मैंने
बिहार की सभी
बोलियों पर काम
किया. सन 1962 में जब
भारत-चीन युद्ध
हुआ तो मैं
जवानों की हौसला-अफजाई के लिए
हर रोज एक
लोकगीत लिखती थी. यह
सिलसिला लड़ाई चलने
तक चलता रहा.
इसके अलावा मैंने
पंचशील के सिद्धांत,
पंचवर्षीय योजनाओं, दहेज़, शिक्षा,
परिवार नियोजन और खेती
की समस्याओं को
भी अपने लोकगीतों
का विषय बनाया.
मेरी शादी 14 वर्ष कि
उम्र में ही
हो गयी थी
और सन 1945 में मैं
आकर पटना की
हो गयी. पति
ने पहले खुद
मुझे संगीत सिखाया,
फिर गुरुजनो से
भी सिखलाया. नीना
देवी, गिरिजा देवी,
रामचतुर मल्लिक, प्रह्लाद मिश्र
जैसे गुणीजन लोकगायकों
से मुझे बहुत
कुछ सिखने को
मिला. उसी दरम्यान
आर्य कन्या विधालय
में बतौर संगीत
शिक्षिका कार्यरत हुई. सन
1954 -55 में
आजादी के बाद
मेरा पहला सांस्कृतिक
कार्यक्रम संगीत नाटक अकादमी
द्वारा दिल्ली के लालकिला
के दीवानेआम में
हुआ था. एक
पार्श्व गायिका के रूप
में मेरे लोकगीतों
का पहला एलबम
एच. एम. वी.
कैसेट कम्पनी ने
जारी किया था.
मैंने फिर संगीतकार
चित्रगुप्त जी के
साथ भोजपुरी फिल्म
'भइया' और संगीतकार
भूपेन हज़ारिका के
साथ 'छठी मइया
की महिमा' फिल्म
में काम किया.
'कन्यादान' फिल्म में गायिकी
के साथ साथ
संगीत भी दिया.
एक घटना ने
मेरा जीवन ही
बदल दिया. जब
पहली बार किसी
ने मुझसे कहा
कि 'बिहार के
लोग खाना जानते
हैं, गाना नहीं'
तो मेरे मन
को चुभ गयी.
बस तभी से
मैंने लोकगीत गाने
की मन में
ठान ली.
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