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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Wednesday, 27 September 2017

पटना में दुर्गापूजा और डांडिया की धूम

सिटी हलचल
Reporting, Bolo Zindagi


बाएं से श्री विजयवाहिनी दुर्गापूजा समिति के अध्यक्ष संतोष 
कुमार एवं 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू' 
पटना, 27 सितंबर, आज सप्तमी के दिन पूजा पंडालों के पट खुलते ही पंडालों के इर्द-गिर्द माता के दर्शन के लिए शहर में श्रद्धालुओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी. शहरवासियों को अलग अलग थीम पर आधारित डिजायनर पंडाल दूर से ही आकर्षित कर रहे हैं. एक तरफ गाँधी मैदान, दशहरा महोत्सव में हर दिन चोटी के कलाकारों द्वारा गीत-संगीत के कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं तो दूसरी तरफ शहर की विभिन्न इवेंट कंपनियों द्वारा डांडिया नाइट की भी धूम मची हुई है जिसमे बॉलीवुड से आये कलाकारों की मौजूदगी आकर्षण का केंद्र बन रही है. आइये एक नज़र शहर के भव्य पंडालों पर डाल लेते हैं.

आनंदपुरी (पश्चिम बोरिंग केनाल रोड)-   श्री विजय वाहिनी दुर्गापूजा समिति, आनंदपुरी के अध्यक्ष संतोष कुमार ने 'बोलो ज़िन्दगी' को बताया कि 'यह पूजा समिति 1982 में स्थापित हुई थी और इस बार हमारा 36 वां साल है. हर साल हम कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं. पिछले साल हमने पूरे पंडाल में 'बास्केट ऑफ़ जॉय' की थीम के साथ टोकरी लगायी थी और उसके पहले छाते लगाकर पंडाल को डेकोरेट किया था और तब वह छाता थीम बहुत सुपरहिट हुआ था. इस बार हमने कोलकाता से 50 हजार पतंगें मंगवाई हैं. 30 हजार पतंगों से पूरे पंडाल को सजाया है और बाकि के 10 हजार पतंग माँ बाप के संग आनेवाले छोटे बच्चों के बीच मुफ्त में बांटें जायेंगे. विशेषकर बच्चों का ख्याल रखते हुए उनके फेवरेट कार्टून डोरेमॉन व स्पाइडर मैन की तस्वीरों वाली पतंगें पंडाल की शोभा बढ़ा रही हैं.'

 श्री विजयवाहिनी दुर्गापूजा समिति, आनंदपुरी की भव्य प्रतिमा 
वहीँ श्री विजय वाहिनी दुर्गापूजा समिति के उपाध्यक्ष आशुतोष ने बताया कि 'पंडाल की सजावट एवं डिजायन पर काम किया है समिति के जूनियर मेमर्स ने जो अभी स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हैं, कई बाहर से छुट्टी लेकर आये हैं. मूर्ति के माध्यम से हम आज देश के किसानो की जो समस्याएं हैं उसका मैसेज दे रहे हैं और हम चाहते हैं कि बच्चे आकर समझें कि किसानों की उन्नत्ती भी उतनी ही जरुरी है जितनी हम मिडिलक्लास वालों की, बिजनेसमैन की उन्नति जरुरी है. मूर्ति बनानेवाले कारीगर कोलकाता के सुपल पाल हैं. 15 साल पहले हमारी समिति पहली समिति थी जिसने प्रसाद में खीर-पूरी, हलवा और खिचड़ी बहुत बड़े स्तर पर भक्तों के बीच बाँटना शुरू किया था. सप्तमी के दिन प्रसाद में खीर-पूरी का वितरण किया जायेगा, अष्टमी के दिन शुद्ध घी का हलवा और नवमी के दिन खिचड़ी का वितरण होगा.'

30 हजार पतंगों से सजा आनंदपुरी का भव्य पंडाल 



श्री विजय वाहिनी दुर्गापूजा समिति के अन्य सदस्य हैं विवेक सिंह, रितेश सिंह, अमन कुमार और हर्षवर्धन. और जूनियर मेंबर्स में हैं आशीष, आनंद, शुभम कृष्णा.  आनंद मनीषवन ने बताया कि 'मैं और मेरे अन्य साथी विशेष तौर पर पंडाल की डिजायन पर काम करते हैं. इस बार पतंगोंवाले पंडाल की सजावट को लेकर हम पिछले 6 दिनों से सोये नहीं हैं और खुद से ही पंडाल सजाने में लगे हुए थें.'


एक नज़र पटना के अन्य पूजा पंडालों पर

बोरिंग रोड चौराहा- यहाँ के पंडाल में तीन गुम्बद और माखन चोरी करते भगवान श्रीकृष्ण दिख जायेंगे.

श्री कृष्णापुरी - पंडाल का लुक जी.पी.ओ. भवन की तर्ज पर रखा गया है.

डाकबंगला चौराहा - प्रज्वलित दीप के थीम पर पंडाल

गोविंदमित्रा रोड - पर्यावरण संरक्षण का संदश देता बगीचे की शक्ल का पंडाल

मछुआटोली - ओम नमः शिवाय की थीम पर प्रतिमाएं

राजा बाजार - पहाड़नुमा पंडाल पर शेषनाग के ऊपर मुरली बजाते श्री कृष्ण

रुकनपुरा - यहाँ की खासियत देवी दुर्गा की प्रतिमा है जो एक साथ 4  राक्षसों से युद्ध कर रही हैं.

जगदेव पथ चौराहा-  दुर्गा सप्तसती पर आधारित प्रतिमाएं

मीठापुर, गौड़ीयमठ - माँ दुर्गा ड्रैगन रूपी राक्षस का वध कर रही हैं. ढोलक से पंडाल बनाया गया है.

कालीबाड़ी,यारपुर- देवी माँ की 8 फिट की प्रतिमा की आराधना बंगाली पद्वति से की जाएगी.

कंकड़बाग,लोहियानगर - बंगाली समुदाय द्वारा बंगाली पद्वति से देवी पूजा, संध्या आरती के वक़्त नगाड़ा और ढाकी वादन.



Monday, 25 September 2017

बी.एच.यू. की छात्राओं पर हुए पुलिसिया दमन के खिलाफ दिशा छात्र संघटन ने किया विरोध प्रदर्शन

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi

बी.एच.यू. की घटना के विरोध में प्रदर्शन करते दिशा छात्र संघठन के छात्र 
पटना, 25  सितम्बर, दिशा छात्र संघटन द्वारा पटना विश्विधालय गेट पर दोपहर 12 बजे बी.एच.यू. की छात्राओं पर हुए बर्बर पुलिसिया दमन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान जनसभा की गयी जिसमे दिशा छात्र संघटन की वारुणी ने 'बोलो ज़िन्दगी' से कहा कि 'बी.एच.यू. में एक छात्रा के साथ छेड़खानी की घटना के बाद बी.एच.यू. की छात्राओं ने जिस तरह से जुझारू संगठित प्रतिरोध को जन्म दिया है वो एक मिसाल है. यह प्रतिरोध महिला विरोधी कुलपति और उसकी सरपरस्ती में पलनेवाले लम्पटों के मुँह पर एक करारा तमाचा है जो छात्राओं के साथ होनेवाली बदसलुकियों के लिए छात्राओं को ही 'संस्कार' और 'चरित्र' का पाठ पढ़ाते हैं.' छात्र संघटन के एक छात्र ने बताया कि 'वास्तव में छात्राओं का फुट पड़ा ये आक्रोश गुंडागर्दी व प्रशासनिक तानाशाही के खिलाफ अरसे से इकट्ठा हुए गुस्से की अभिव्यक्ति है. बी.एच.यू. में यौन हिंसा और महिला विरोधी अपराधों का आलम यह है कि एक लड़की का रेप होता है और प्रशासन अपराधियों पर कार्रवाई करने के बजाये लड़की को ही मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित कर देता है. अब जब छात्राओं ने आंदोलन का रास्ता पकड़ा तो बी.एच.यू. प्रशासन और पुलिस इस आंदोलन को लाठियों के बल पर कुचल देना चाहती है. बी.एच.यू. की हमारी बहादुर साथी संघर्ष कर ही रही हैं साथ ही इस आंदोलन को सतत आगे ले जाने की जरुरत है.'
एक अन्य छात्र ने अपने सम्बोधन में आज के युवाओं को झकझोड़ते हुए उनसे यह गुजारिश की कि 'सोशल मीडिया पर वे इस घटना से सम्बंधित पिक्चरों एवं न्यूज को सिर्फ लाइक एन्ड शेयर न करें बल्कि आगे बढ़कर इस मुहीम में हमारा और हमारे जैसे सभी लोगों का समर्थन व सहयोग करें.'
अन्य एक छात्र ने कहा कि ' एंटी-रोमियो स्क्वाड' का हल्ला मचानेवाले प्रदेश में पुलिस ही छेड़खानी का विरोध कर रही छात्राओं पर लाठियां बरसा रही है. सचाई यह है कि पुलिस ऐसा नहीं करना चाहती लेकिन प्रशासन के आदेश की वजह से मज़बूरी में वो यह कदम उठा रही है. पुलिस से ज्यादा जिम्मेदार उसे ऐसा दमनकारी आदेश देनेवाला प्रशासन है.'
वारुणी ने आगे कहा कि ' स्त्रियों के उत्पीड़न की घटनाओं के खिलाफ हमें संगठित होकर एक हाथ से पतृसत्ता की गर्दन दबोचनी होगी तथा दूसरे हाथ से मौजूद व्यवस्था की, जो पतृसत्ता को निरंतर खाद पानी देने का काम करती रहती है. यह लड़ाई पुरुषों से नहीं बल्कि औरतों को पैरों की जूती समझने वाली, उनपर हुकूमत गाठनेवाली, उन्हें कमतर समझनेवाली पुरुष स्वामित्ववादी मानसिकता से है.'
इस प्रदर्शन के दौरान छात्रों व आम लोगों के बीच इस मुद्दे से सम्बंधित पर्चे भी बांटे गएँ. इस प्रदर्शन में कई कॉलेज के छात्र शामिल हुए जिनमे मधुर, वारुणी, आकाश, जयवीर, करण, विवेक आदि मौजूद रहें.  

Sunday, 24 September 2017

एडीजी, बिहार, श्री आलोक राज के भजन संध्या सह ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के लिए वर्कशॉप का आयोजन

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi 


  
वर्कशॉप में बाएं से 'दोस्ताना सफर' की रेशमा प्रसाद, एडीजी, बिहार
(लॉ एन्ड ऑर्डर) श्री आलोक राज एवं 'बोलो ज़िंदगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू' 
पटना, 24 सितंबर, भारतीय नृत्य कला मंदिर के बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर में वोलन्टरी हेल्थ सर्विसेज, दोस्ताना सफर और बिहार पुलिस के सयुंक्त तत्वाधान में ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के लिए वर्कशॉप आयोजित किया गया. यह सफल कार्यशाला आई. पी. एस. आलोक राज एडीजी, बिहार सरकार के भजन संध्या कार्यक्रम के साथ समाप्त हुई. बिहार के ए. डी. जी. (लॉ एन्ड ऑर्डर) श्री आलोक राज द्वारा वर्कशॉप के उद्घाटन के साथ दोस्ताना सफर की रेशमा प्रसाद के स्वागत भाषण से कार्यक्रम की शुरुआत हुई. श्री आलोक राज ने अपने सम्बोधन में कहा कि '15  अप्रैल, 2014 एक यादगार दिन था जब सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर यह निर्णय दिया कि ट्रांसजेंडर भारत के नागरिक हैं और इनके लिए भी ह्यूमन राइट्स और लीगल राइट्स हैं. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सराहनीय है क्यूंकि यह वर्ग सदियों से उपेक्षित रहा है. इसकी आजीविका का संतोषजनक साधन नहीं होने के कारण ये समाज स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहा है. और कोई वर्ग जब तक स्वस्थ नहीं होगा तब तक वह अपने अधिकारों एवं सुविधाओं का उपभोग भी नहीं कर पायेगा. सिर्फ क़ानूनी अधिकार देने भर से समाज की धारणाएं नहीं बदलतीं. समाज की धारणाएं तब बदलेंगी जब समाज इस समुदाय को स्वेक्षा से अधिकार देगा, पहचान देगा. ये सच है कि आज भी लोग इन्हें अच्छी नज़र से नहीं देखते हैं. तो इसी सोच पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि ये भी आपकी तरह इंसान हैं. तो इनके प्रति जो समाज की आम धारणा है उसे बदलने की आवश्यकता है. और इन्ही बिंदुओं के तहत आज हम दोस्ताना सफर, वोलन्टरी हेल्थ सर्विसेज चेन्नई और बिहार पुलिस के संयुक्त तत्वाधान में इस वर्कशॉप का आयोजन कर रहे हैं. हमारी पुलिस को भी यह समझने की आवश्यकता है कि इस किन्नर समाज की क्या परेशानियां है, क्या मजबूरियां हैं ?' वहीँ ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के वकील विकास कुमार पंकज ने ट्रांसजेंडर समुदाय को कानून के तहत मिले विभिन्न अधिकारों पर प्रकाश डाला. मौके पर वोलन्टरी हेल्थ सर्विसेज के गिरीश कुमार, पुलिस विभाग के विभिन्न शाखाओं के पदाधिकारी जन के अलावा ट्रांसजेंडर समुदाय से डिम्पल,जैस्मिन, संतोषी, सुमन, मित्रा, सोना एवं अन्य लोग मौजूद थें.
   
अपनी संगीत टीम के साथ भजन गाते हुए बिहार के एडीजी श्री आलोक कुमार 

वर्कशॉप के बाद भजन संध्या की प्रस्तुति हुई. उसके पहले भाजपा कला संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक श्री वरुण सिंह ने श्री अलोक राज एवं उनके संगीत गुरु श्री अशोक प्रसाद जी को शॉल भेंट करके सम्मानित किया. बिहार के एडीजी एवं गायक श्री अलोक राज जी ने भजन संध्या की शुरुआत गणेश वंदना से की. फिर जगजीत सिंह के गाये दो भजन अपनी आवाज में पेश किये, एक देवी गीत और दूसरा गीत हे राम...तू ही माता तू ही पिता है. उसके बाद हाल ही में टी-सीरीज से आये खुद के एलबम साईं अर्चना से कुछ भजन प्रस्तुत किये. और भजन संध्या का समापन किया हरी ओम शरण जी के देवी गीत से. 

Saturday, 23 September 2017

सेकेण्ड पटना डिस्ट्रिक्ट वुशू (मार्शल आर्ट) चैम्पियनशिप का हुआ आगाज

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi

2nd पटना डिस्ट्रिक्ट वुशू चैम्पियनशिप के मौके पर बाएं से स्कॉलर्स अबोड स्कूल की निदेशक डॉ. बी.प्रियम,
'बोलो ज़िंदगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू' , पटना वुशू संघ के सचिव सूरज एवं शिक्षाविद राहुल राणा
 
पटना , 23 सितम्बर , स्कॉलर्स अबोड स्कूल के सभागार में सेकेण्ड पटना डिस्ट्रिक्ट वुशू (मार्शल आर्ट) चैम्पयनशिप का आगाज हुआ जिसका प्राइज डिस्ट्रीब्यूशन के साथ समापन होगा 24  सितम्बर, रविवार को. वुशू चैम्पियनशिप उद्घाटन के मौके पर मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित हुए पूर्व आई.ए.एस. विजय प्रकाश, पूर्व आई.ए.एस. श्याम जी सहाय, डॉ. अमूल्य सिंह (अध्यक्ष पटना वुशू संघ), सूरज कुमार (सचिव, पटना वुशू संघ)  डॉ. बी. प्रियम (आयोजन अध्यक्ष एवं निदेशक, स्कॉलर्स अबोड स्कूल), दिनेश अरोड़ा, बलराज कपूर, आर.सी.मल्होत्रा, दिलजीत खन्ना, गुरुदयाल सिंह (पूर्व अध्यक्ष, पंजाबी बिरादरी) एवं शशांक शेखर. वहीँ अन्य अतिथियों में 'बोलो ज़िंदगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू', और राष्ट्रिय वुशू कोच अनूप कुमार सिन्हा ने आयोजन का हिस्सा बनकर बच्चों को प्रोत्साहित किया.

वुशू चैम्पियनशिप उद्घाटन के मौके पर मौजूद मुख्य अतिथि 
वुशू चैम्पियनशिप के उद्घाटन समारोह की शुरुआत स्वागत गीत एवं रंगारंग कार्यक्रम से हुई जिसे प्रस्तुत किया स्कॉलर्स अबोड स्कूल की छात्राओं ने. मुख्य अतिथियों के सम्बोधन के बाद पूरे जिले भर से आये लगभग 150 बच्चों को सब जूनियर, जूनियर और सीनियर तीन भागों में बांटकर प्रतियोगिता शुरू की गयी. इस प्रतियोगिता में रेफरी की भूमिका निभा रही थीं वुशू की अंतराष्ट्रीय प्लेयर नूतन कुमारी. पटना जिला वुशू संघ के सचिव सूरज ने 'बोलो ज़िन्दगी' को बताया कि इसके लिए काफी पहले से उन्होंने बच्चों को कड़ी ट्रेनिंग दी है. इस प्रतियोगिता में जो जीतकर आएंगे वो स्टेट वुशू चैम्पियनशिप के लिए सेलेक्ट होंगे.' वहीँ इस आयोजन की अध्यक्ष एवं स्कॉलर्स अबोड स्कूल की निदेशक डॉ. बी. प्रियम ने बताया कि 'अब जब इस खेल को ओलम्पिक में भी मान्यता मिल गया है तो मैं चाहूंगी कि हमारे स्कूल के बच्चे भी वुशू में बढ़-चढ़कर भाग लें और देश-दुनिया में अपना परचम फहराएं. और इसी वजह से मैंने अपने स्कूल में विगत 10 वर्षों से वुशू खेल के प्रशिक्षण की व्यवस्था की है जो हफ्ते में एक दिन दी जाती है.'

वुशू प्रतियोगिता में भाग लेते बच्चे 
मौके पर मौजूद तमाम अतिथियों ने एक सुर में एक कॉमन बात कही कि 'इस मार्शल आर्ट के खेल को बढ़ावा देना चाहिए ताकि इसमें ज्यादा से ज्यादा लड़कियां हिस्सा लेकर आत्मरक्षा के गुण भी सीख सकें.'  कार्यक्रम में आये मुख्य अतिथि पूर्व आई.ए.एस. एवं समाजसेवी श्री श्याम जी सहाय ने बड़े पते की बात कही कि 'हमारे ज़माने में तो लड़कियों-महिलाओं की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था लेकिन आज ख़ुशी होती है देखकर कि अभिभावक अपनी बच्चियों को न सिर्फ पढ़ने बल्कि खेल-कूद में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं. आज समाज में अपराध के बढ़ते ग्राफ को देखते हुए हमारी बच्चियों के लिए यह नितांत जरुरी हो जाता है कि वो वुशू (मार्शल आर्ट) जैसे खेल में रूचि लेकर आत्मरक्षा की कला भी सीखें.' 

Friday, 22 September 2017

पूरा बनारस परोसने की कोशिश के साथ हुई मोती महल डिलक्स की ग्रैंड ओपनिंग

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi

मोती महल डिलक्स रेस्टोरेंट के ऑनर श्री संतोष पांडेय
के साथ 'बोलो ज़िंदगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू'
पटना, 22 सितम्बर, पूर्वी बोरिंग केनाल रोड, पंचमुखी हनुमान मंदिर के नजदीक राज कॉम्प्लेक्स में मोती महल डिलक्स रेस्टोरेंट एन्ड बैंकेट हॉल की ग्रैंड ओपनिंग हुई. चीफ गेस्ट थें बिहार चैंबर ऑफ़ कॉमर्स के प्रेसिडेंट श्री पी. के. अग्रवाल. साथ में आई.एम.ए. के वाइस प्रेसिडेंट डॉ.विमल करक, विक्रमगंज के जज और आउटलुक मैगजीन के बिहार-झाड़खंड एरिया मैनेजर चुलबुल जी भी मौजूद थें. इसके आलावा बैंक ऑफ़ बड़ौदा, इंडियन ओवरसीज बैंक और स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया के बहुत सारे स्टाफ आये थें ऑनर संतोष पांडेय जी का हौसला बढ़ाने के लिए. बैंकेट हॉल के उद्घाटन के बाद मौजूद  लोगों के मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया गया. मौके पर बॉलीवुड के गायक नितेश कुमार और अंसार आलम अंसारी की आवाज के जादू का लुत्फ़ दर्शकों ने उठाया. पूर्व से चल रहे इस रेस्टोरेंट का विस्तार करते हुए मोती महल डिलक्स के ऑनर श्री संतोष पांडेय ने 'बोलो ज़िंदगी' को बताया कि 'यह पटनावासियों के प्यार से आज एक कदम और आगे बढ़ा. इस रेस्टोरेंट के विस्तार में पूरा बनारस उतारने की कोशिश की गयी है. मतलब मोतीमहल डिलक्स में आपको पूरे बनारस का जायका मिल जायेगा. सरताज ऑफ़ ब्रेकफास्ट 'सुबहे बनारस' नास्ते का एक लाजवाब व्यंजन है. यह बनारस के कारीगरों द्वारा ही बनाया जायेगा. इसके अलावा यहाँ नमकीन के साथ साथ मीठे व्यंजन भी हैं. बनारस की केसरिया जलेबी और साथ में खास्ता कचौड़ी भी नास्ते के लिए उपलब्ध रहेगी. शायद पटना में पहली बार इसे मैं लेकर आया हूँ. इन व्यंजनों के साथ-साथ हम मिठाई का काउंटर भी शुरू कर रहे हैं जिनमे चुनिंदा बनारस की ही मिठाइयां होंगी. जैसे आपलोगों ने सब्जी में सुना होगा मलाई कोफ्ता लेकिन हम मिठाई में मलाई कोफ्ता खिलाएंगे. छेना पाइस, मधुरम रसभरी इत्यादि मिठाइयां मौजूद होंगी. मोती महल डिलक्स स्वाद के रूप में पहचाना जाता है. मोती महल डिलक्स का स्लोगन है - सिर्फ खाना ही नहीं, खाने के साथ-साथ हम प्यार भी परोसते हैं.  और निश्चित ही मोती महल डिलक्स खाने के साथ प्यार परोसता है ऐसा हमने आनेवाले ग्राहकों से सुना है.'

उद्घाटन के मौके पर मोती महल डिलक्स के ऑनर
श्री संतोष पांडेय आये लोगों का अभिवादन करते हुए 

संतोष पांडेय जी ने यह भी बताया कि मोती महल डिलक्स फर्स्ट फ्लोर से ग्राउंड फ्लोर पर शिफ्ट किया है. जहाँ फर्स्ट फ्लोर पर पहले रेस्टोरेंट था वहां मैंने बड़े पैमाने पर कम्प्लीट एसी बैंकेट हॉल शुरू किया है जहाँ शादी-ब्याह हर टाइप का फंक्शन और हर इवेंट हमलोग ऑर्गनाइज करेंगे. मतलब फर्स्ट फ्लोर बैंकेट हॉल और ग्राउंड फ्लोर रेस्टोरेंट रहेगा. आप आएं आपका प्यार हमारे लिए शक्ति का काम करेगा. मोती महल डिलक्स सदैव पटनावासियों के स्वागत के लिए खड़ा है अपने स्वाद के साथ, अपने जायके के साथ और अपने प्यार के साथ.'

Tuesday, 19 September 2017

हिंदी पत्रकारिता ( प्रिंट) में महिलाओं की चुनौतियां ज्यादा, साबित करना पड़ता है खुद को : गीताश्री, कथाकार एवं पूर्व सहायक संपादक, आउटलुक

वो संघर्षमय दिन 
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मैं मुजफ्फरपुर, बिहार की हूँ. मेरे पिता जी पुलिस विभाग में थे और उनका ट्रांसफरेबल जॉब  होने की वजह से मेरी पढ़ाई एक नहीं, कई स्कूलों में हुई. मेरा लास्ट स्कूल मुजफ्फरपुर जिला के एक छोटे से कस्बे काँटी में था जहाँ से मैंने हाई स्कूल पास किया. फिर मुजफ्फरपुर में ही एम.डी.डी.एम.कॉलेज से वहीँ के हॉस्टल में रहकर ग्रेजुएशन किया. वो बिहार का सबसे पुराना महिला कॉलेज है जो 1946 में बना था. फिर बिहार विश्वविधालय से हिंदी में एम.ए. करने के बाद मैं दिल्ली चली आयी जामिया यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. करने. यह अलग बात है कि दो साल के बाद ही पी एचडी का भूत उतर गया और पत्रकारिता में डूब गई.
मैं अपने घर में सबसे छोटी होने की वजह से बहुत दुलारी थी. बचपन बहुत ठाठ से गुजरा था. अभाव शब्द का कभी मुझे एहसास नहीं हुआ था लेकिन दिल्ली आते ही मुझे एहसास हो गया. दिल्ली में अकेली लड़की सर्वाइव कैसे करे, किराये का मकान कैसे मिले, इसकी टेंशन रहती थी. नौकरियां मुझे बहुत आसानी से मिल गयीं लेकिन सैलरी बहुत कम थी तो घर का किराया, उसी में खाना-पीना और आना-जाना सब मैनेज करना पड़ता था. हमलोगों का जो बैच बिहार से आया था उनमे एक-से-एक लोग थे जो आज सभी हाइट पर पहुँच गए हैं. उस समय एक दूसरे से बड़ा भाईचारा था. स्ट्रगल के दिनों में अक्सर हमारी जेबों में पैसे कम होते थे तो हम सब संघर्षशील दोस्त मिलजुलकर एक दूसरे पर खर्च करते थे. घरवालों का उसी समय असहयोग देखने को मिला जब मैं दिल्ली में थी और एकदम घर से कट गयी थी. क्यूंकि उनकी मर्जी के विरुद्ध था मेरा पत्रकारिता में आना. वे चाहते थे कि मैं कॉलेज में प्रोफ़ेसर बन जाऊं और बिहार में ही रहूं. बहुत बाद में जब मैं स्टैब्लिश हुई और थोड़ा नाम हुआ तब घरवालों को लगा कि अरे, ये तो बड़ा काम कर रही है. फिर उन्हें मेरा काम भी जंचने लगा.
हम बिहारियों के लिए 90 के दशक में जर्नलिज्म संदिग्ध पेशा समझा जाता था, लड़कियों के लिए तो प्रतिबंध जैसा था. कस्बाई लड़कियां पारंपरिक पेशे के सिवा कुछ और बनने के सपने देख भी नहीं सकती थीं. उस दौर में लड़कियां नौकरी के सपने देखती थीं मगर समाज परिवार के बनाए या तय किए ढांचे के तहत ही देखती थीं. पत्रकारिता के बारे में सोचना दूभर था. लड़को के लिए कम दुष्कर नहीं था. मध्यवर्गीय परिवारों में लड़की की शादी के लिए पत्रकार लड़के आखिरी विकल्प थे. मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग जहां डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर दामाद के सपने देखता था वहीं उच्च वर्ग आईएएस दामाद खरीदने की ताकत रखते थे. पत्रकार बने लड़को के बारे में आम धारणा थी कि “चौब्बे गए थे छब्बे बनने, दूबे बन के आए,” यानी गया था दिल्ली कलक्टर बनने, जब कुछ न बन सका तो पत्रकार बन गया. हर तरफ से हारा हुआ एक प्रतिभाशाली लड़का पत्रकार बन जाता था और ऐसे लड़को को दहेज कम मिलती थी. रिश्ते ही बहुत कम आते थे. पत्रकार क्या होता है, तब तक ठीक से समझा ही नही गया था. तब आज के जैसी ऊंची औकात ( इलेक्ट्रोनिक मीडिया) भी तो नहीं थी. उस दौर में मैंने कई पुरुष साथियों की हालत देखी थी, जो बिहार से ताल्लुक रखते थे. जब लड़को का ये हाल था तब लड़कियों के बारे में सोच सकते हैं कि उनकी दशा क्या रही होगी. ऐसे माहौल में मैं पत्रकारिता कर रही थी. कुछ भी फेवर में नहीं था. महिलाएं तो तब हिंदी पत्रकारिता में बहुत कम थीं. जब दिल्ली के रफी मार्ग स्थित आईएनएस बिल्डिंग से निकलकर कभी चुनाव कवरेज के लिए बस से चुनाव क्षेत्र में जाती तो तब देखती कि कई मर्द रिपोर्टर के साथ मैं ही एक अकेली लड़की हूँ. अब सोचिये मेरी क्या हालत होती होगी. तब सभी कहते कि तुम भी अपने को लड़का ही मानो. फिर मेरे अंदर से एहसास ही गायब हो गया था कि मैं फीमेल हूँ. तब मुझे रिपोर्टिंग में इतना आनंद आने लगा कि मुझे लगता कि मैं पैदा ही इसी प्रोफेशन के लिए हुई हूँ. ये किस्मत की बात है कि जो आपका पैशन हो, वही आपका प्रोफेशन बन जाये. दिल्ली में बैचलरों के लिए आज शायद कम परेशानी है क्यूंकि पीजी का चलन है. लेकिन हम जब 1991 में दिल्ली आए तब लक्ष्मीनगर मोहल्ले में लड़कियों को जल्दी घर किराये पर नहीं मिलता था.

मेरे स्थानीय मित्र तब बहुत हेल्प करते थे घर दिलाने में. अकेली लड़की को तब बहुत तरह की दिक्कतें होती थीं जिनमे रात को घर लौटना भी शामिल है. लेकिन दिल्ली हमारे टाइम में आज की तरह उतनी अनसेफ नहीं थी. मैं एक किराये के कमरे में अकेली रहती थी जिसमे एक छोटा सा किचन और बाथरूम होता था. कई मकान में बाथरूम भी शेयर करना पड़ता था. लोग अजीब संदेह की निगाह से देखते थें. कोई आ जा नहीं सकता था, मकान मालिक की पाबंदी थी. तब भी दिल्ली का किराया बहुत हाई था. जो सैलरी मिलती थी उस समय, सब किराये और आने-जाने में खर्च हो जाता था. घर से कोई हेल्प नहीं लिया. पढ़ाई भी मैंने स्कॉलरशिप से की थी. छुट्टियों में मैं नेशनल वोलेंटियर बनती थी तो उससे पैसे कमाए मैंने. शुरू से मैं आर्थिक रूप से काफी हद तक आत्मनिर्भर रही. कभी सोचा नहीं पैरेंट से पैसे मंगाऊं और वैसे भी वे नाराज थे कई सालों तक. मेरा सौभाग्य रहा कि संघर्ष के दिनों में ही पत्रकारिता में पहले से स्थापित एक दोस्त का साथ मिला जिनसे मेरी शादी हुई और मेरा सफर आसान हो गया.
उसके पहले जीवन आसान नहीं था. मकान बदलते बदलते परेशान हो चुकी थी. सुरक्षित पनाहगाह की खोज में कई घर बदले. लक्ष्मीनगर से तंग आ गयी तो राजस्थान पत्रिका में मेरे तत्कालीन बॉस स्व. सी.बी.ठाकुर जिनके अंडर में मैं ट्रेनिंग कर रही थी वे जिस सोसायिटी में रहते थें वहीँ उन्होंने मुझे एक रूम दिलवाया. फिर मैं बहुत सेफ जगह आ गयी, जहाँ फैमली जैसी फीलिंग थी. ट्रेनिंग के बाद मैं फ्रीलांस करने लगी थी क्यूंकि फ्रीलांसिंग में बहुत मजा आता था. सभी अख़बारों में आप एक साथ छपते हैं ना तो वो फीलिंग ही कुछ और होती है. उस वक्त मुझे कहा जाता था दिल्ली में अपने समय की सबसे अधिक छपनेवाली फ्रीलांसर है. तब नौकरी से ज्यादा तो फ्रीलांसिंग से कमाती थी. फिर  कुछ ही  महीने के बाद बैठे-बिठाये मुझे नौकरी मिल गयी. उस दौर का बड़ा अखबार, पायोनिर ग्रुप का हिंदी  “स्वतंत्र भारत” अखबार में दिल्ली ब्यूरो के लिए वैकेंसी निकली थी. सब एडिटर का पोस्ट था. संपादक थे घनश्याम पंकज, जो लखनऊ और दिल्ली में आना जाना करते रहते थे. दिल्ली ब्यूरो में फीचर प्रभारी, रेखा तनवीर एक दिन आईएनएस बिल्डिंग की सीढ़ियों पर टकरा गईं. रेखा जी को फेमिना (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की पत्रिका) के जमाने से जानती थी. मैं वहां भी खूब लिखती थी. दिनमान टाइम्स और फेमिना का दफ्तर एक साथ ही था. मैं दोनों में छपती थी. रेखा जी से परिचय था. उन्होंने मुझे देखा और सीधा पूछ लिया- 'नौकरी करोगी, एक जगह बनी है आ जाओ.' रेखा जी के सवाल में नौकरी का ऑफर छुपा था. मैं अचकचाई-सी वहीं से उनके साथ दफ्तर चली गई और सबकुछ इतनी जल्दी हुआ कि घर आकर सबको शाम को बताया. तब मोबाइल फोन नहीं होते थे कि फोन करके बताऊं या पूछूं. तब मैं नौकरी के मूड में थी भी नहीं. पीएचडी कर रही थी. अपने विषय से जूझ रही थी. बीच बीच में अखबारो के दफ्तर में लिखने के लिए चक्कर लगाती थी. 'स्वतंत्र भारत' में अचानक मिली नौकरी ने जीवन की दिशा ही बदल दी. वहां से मेरा करियर टर्न लिया. उसी नौकरी के चक्कर में मेरी पी.एच.डी. छूट गयी. क्यूंकि जर्नलिज्म का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि उसके आगे कुछ और नहीं दिखता. 'स्वतंत्र भारत' जब ज्वाइन किया तो मैं फीचर डिपार्टमेंट में डेस्क पर थी. तब होता ये था कि और शायद आज भी कि हिंदी जर्नलिज्म में जब कोई लड़की आती है तो उसे सबसे पहले शॉफ्ट काम देते हैं कि कला-संस्कृति करो, सिनेमा करो, तुमको और कोई समझ नहीं है. तो मुझे भी जो मिलता मैं वही करने लगी. कला संस्कृति की मुझे समझ नहीं थी फिर भी मैंने किया.

हमारे स्वतंत्र भारत अख़बार में तब उथल-पुथल बहुत थी. मैंने चार ब्यूरो चीफ के साथ काम किया जो बड़े नामी गिरामी थें. लास्ट में जब सुधांशु श्रीवास्तव आएं वो मेरा करियर का स्वर्णकाल था. उस समय जो मैंने रिपोर्टिंग की उसी का बेस है. उस समय अख़बार में बहुत कड़ा अनुशासन रहता था. हम कोई गलती कर देते तो तुरंत चपरासी के हाथों हमारे पास एक पर्ची आ जाती थी जिसमे लिखा होता था कि आपने अनुशासन भंग किया है तो क्यों ना आपके खिलाफ कार्यवाही की जाये. फिर हमें सफाई देनी पड़ती थी. तब हम सबकी इसीलिए फाइल बनती थी कि जब प्रमोशन आदि होगा उस समय अड़ंगा लगा देंगे. वहां एक तो मैं नयी नयी थी और महिला होने की वजह से मुझे पुरुषों की तुलना में ज्यादा इम्तहान देना पड़ता था. इसलिए कि मुझे वो कमतर मानते थे. मैं देखती कि जब पोलिटिकल रिपोर्टर बैठकर बातें करते तो ऑफिस में मजमा लग जाता था और ये सब मुझे अच्छा लगता था. फिर मैंने सोचा बहुत हो गया फीचर-विचर, अगर ब्यूरो में रहना है तो रिपोर्टिंग करनी पड़ेगी नहीं तो ऐसे ही डेस्क पर सड़ जायेंगे. तब तक भाग-दौड़ के लिए मैंने कायनेटिक होंडा स्कूटी भी ले लिया था. और एक दिन बॉस के सामने इच्छा जाहिर कर दी - 'मुझे भी पोलिटिकल रिपोर्टर बनना है,कोई पोलिटिकल पार्टी करना चाहती हूँ.'  मेरे बॉस ने सोचा कि इसको सबक सिखाते हैं तो इसको ऐसी पार्टी दे दो कि पोलिटिकल रिपोर्टिंग भूल जाएगी. तो उन्होंने आदेश दिया -'ऐसा है, आप बसपा कवर करिये आज से.' तब बहुजन समाज पार्टी नई नई उभर रही थी और कांसीराम एवं मायावती का डंका बज रहा था. तब बसपा पत्रकारों को लगाती नहीं थी. ना खबरें देती, ना मिलने देती थी. तब मुझे कुछ ठीक से पता नहीं था तो मैंने वहीँ बैठे एक मित्र से पूछा कि 'क्या है ये बसपा?'  वे बोले 'तुमको बलि का बकरा बनाया गया है, कटना तुम्हारा तय है.'  मैंने कहा- 'अच्छा, तो नंबर दे दीजिये.' उन्होंने मुझे एक लैंड लाइन नंबर दिया. मैंने ऑफिस से फोन मिलाया और जैसे ही उधर से किसी ने उठाया मैंने कहा- 'मैं स्वतंत्र भारत से गीताश्री बोल रही हूँ मुझे कांसीराम जी से मिलना है.'  उधर से आवाज आयी 'क्यों मिलना है?' मैंने कहा - 'मुझे ये बीट मिला है, कांसीराम जी से बात करनी है, खबरें चाहिए मुझे.' तो उधर से आवाज आयी 'तो आ जाइये मिलने.' मैंने कहा - 'बाहर बारिश हो रही है, तो एक घंटे बाद आती हूँ.'  फिर आवाज आयी 'नहीं, आप रुकिए, आपके पास गाड़ी पहुँच जाएगी, गाड़ी में बैठकर आइये.' मैंने फोन रखते हुए सोचा कोई मजाक कर रहा था. लेकिन 10 मिनट बाद गाड़ी आ गयी और कांसीराम के सेक्रेट्री राजन ऊपर आकर बोले 'चलिए मैम, आपको मान्यवर ने बुलाया है.' सारा दफ्तर चकित कि गाड़ी कैसे आ गयी वो भी बसपा की. मैं उनकी गाड़ी से वहां पहुंची तो देखा ड्राइंगरूम में कांसीराम बैठे हैं और सामने तरह तरह की खाने की चीजें रखी हुई हैं. वे बोले - 'मैं ही कांसीराम हूँ'. और सच में तब मैंने कांसीराम को पहले देखा नहीं था. मैंने पूछा - 'आपने फोन उठा लिया था !'  वे बोले - 'हाँ, मैंने ही उठाया था.' मैं चौंक गयी क्यूंकि तब बसपा का कोई दूसरा व्यक्ति फोन उठा ले तो वो अपने नेता से मिलने नहीं देता था लेकिन मेरी किस्मत अच्छी थी. फिर कांसीराम ने वहां रखी खाने की चीजों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि 'सही समय पर आयी हैं. थोड़ा आपके लिए और थोड़ा एक बड़े नेता के लिए.' मैंने पूछा - 'कौन आ रहे हैं?' वे बोले 'अटल जी आ रहे हैं.' मैंने कहा- 'फिर मैं जाऊं क्या?' वे बोले 'नहीं, आप बैठिये.' और फिर मेरे सामने अटल जी और उनकी यू.पी. में सरकार बनाने की बातचीत हुई. जब अटल जी ने पूछा कि ये कौन हैं?' तो वे बोले - ' मेरी फैमली मेंबर है, कोई दिक्कत नहीं है.' बाद में जब अटल जी ने मुझे पार्लियामेंट में देखा तो मुझे पहचानी नजरों से घूरा और मैं नज़र बचाकर भाग गयी. उस दिन जब कांसीराम ने मुझे गाड़ी से वापस छुड़वाया और मैं खबर लेकर आयी तो मेरा बॉस खबर लेने को तैयार नहीं हुआ. बोला - 'मैं मान ही नहीं सकता, आपको किसी सूत्र ने बताया होगा.' मैंने कहा- 'नहीं, मेरे सामने हुई है सरकार बनने की बैठक.'  वो मेरी पहली ब्रेकिंग न्यूज थी जिसे ब्यूरो चीफ ने अपनी खबर के साथ लगाकर नीचे गीताश्री लिखकर भेज दिया. वो खबर छपी जो ब्रेकिंग थी और कहीं दूसरी जगह नहीं छपी थी. अगले दिन जब बसपा और भाजपा का साझा प्रेस रिलीज जारी हुआ तब बॉस को यकीं हुआ कि ये सही खबर थी. उस दिन से मैं जब तक स्वतंत्र भारत अख़बार में रही मुझे बसपा कवर करने में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. पहली मुश्किल मैंने पार कर ली थी. उसके बाद मुझे क्षेत्रीय पार्टियों का कवरेज मिला. वहां अच्छा काम किया तो कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टी की कवरेज भी की. मैं 'स्वतंत्र भारत' में सब एडिटर से स्पेशल कॉरेस्पोंडेंट तक बनी और 5-6  साल वहां रही. वहां से अक्षर भारत साप्ताहिक अखबार में ब्यूरो रिपोर्टिंग की. फिर 'नयी दुनिया' के 'वेब दुनिया' हिंदी के पहले न्यूज पोर्टल की इंचार्ज बनी. मैं इंटरनेट की शुरुआती दौर की रिपोर्टर रही हूं. तब हिंदी पोर्टल नहीं होते थे. हमारी रिपोर्टिंग को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता था. आज वह छा गई है. तब हमें अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ता था. प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के बीच इंटरनेट पत्रकारिता को कौन भला गंभीरता से लेता. नेताओ को बहुत कंवींश करना पड़ता था. हमने उस दौरान कई बड़े नेताओ और शख्सियतो का लाइव चैट करवाया, इंटरव्यू किए. तब बड़ा तामझाम लेकर चलना पड़ता था और साथ में पूरी टेकनीकल टीम चलती थी कंप्यूटर के साथ. ये सिलसिला बहुत लंबा नहीं चला. बेवदुनिया सिमट गई और मैंने आउटलुक ज्वाइन कर लिया. हिंदी आउटलुक के डमी अंक से लेकर 10 साल तक अबाध वहां काम करती रही. कॉपी एडीटर से सहायक संपादक तक पहुंची और जमकर मनचाही पत्रकारिता की. मनलायक काम किया और खूब उपलब्धियां हासिल की. चुनौतीपूर्ण नाइट डयूटी भी की. लेकिन यहां पोलिटिकल रिपोर्टिंग बिल्कुल छूट गई थी. मुझे डेस्क के काम में मजा आने लगा था. कई चीजें सीखीं. ले-आउट और डिजाइनिंग की समझ, पत्रिका और बाजार के रिश्ते ,पाठको की पसंद जैसी बातें समझीं. साहित्य की जमीन पर यहीं रहते हुए वापस लौटी, जो कॉलेज के बाद छूट गया था. रिपोर्टिंग के बाद सीधे डेस्क पर काम करना भी कम दुष्कर न था. नए सिरे से सब सीखना पड़ा. गलतियां करते करते सीखीं. रेगुलर रिपोर्टिंग छूट गई थी जिससे मन कसमसाता था. लेकिन मौका मिला और ऑफबीट स्टोरी खूब लिखी, खूब यात्राएं की, खूब फैलोशिप मिले, रिसर्च किए, और रिपोर्ट लिखे. डेस्क पर पत्रकार के गुम होने का खतरा रहता है. मैंने खुद को बचाए रखा. संपादक बनने के बाद भी मेरे भीतर का रिपोर्टर मरा नहीं था. आज भी ऑफबीट रिपोर्टिंग मेरी पहली पसंद है. यहां से पर्ल ग्रुप की महिला केंद्रित पत्रिका 'बिंदिया' की एडिटर बनी. उसके बाद लाइव इंडिया चैनल की वेबसाइट की एडिटर होकर आयी. वहां माहौल जमा नहीं, सो जल्दी मुक्त होकर फ्रीलांसिंग करने लगी.

उसके बाद से अबतक मैं फ्रीलांस पत्रकारिता कर रही हूँ और क्रिएटिव राइटिंग में भी आ गयी हूँ. सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए क्रिएटिव राइटिंग की रफ्तार सुस्त थी. बमुश्किल दो तीन किताबें छपी थीं. जबकि मैं कहानी-उपन्यास लिखना चाहती थी. अबतक मेरे तीन कहानी संग्रह आ चुके हैं. पहला उपन्यास छपकर आनेवाला है वाणी प्रकाशन से. जीने को और क्या चाहिए. पत्रकारिता में जितना संघर्ष किया, जितनी चुनौतियां मिली, उतनी ही सफलता और नाम हासिल भी किया. पत्रकारिता ने बहुत तपाया, बहुत अनुभव दिए और ठोस बनाया. मेरा स्वाभिमान और साहस उसी की देन है. संघर्ष का माद्दा वही से सीखा. पत्रकारिता के बड़े बड़े पुरस्कार और फेलोशिप हासिल हुए. संपादक बनने का ख्वाब भी पूरा हुआ. भले इस ख्वाब की अवधि छोटी रही. संघर्ष कभी खत्म नहीं होता यहां. पहले पाने का संघर्ष फिर टिके रहने का संघर्ष. स्त्रियों के लिए वैसे भी पत्रकारिता में ग्लास सिलिंग है...ऊपर तक जाने के संघर्ष बहुत घने हैं और पहुंचना आज भी दुष्कर.

Monday, 18 September 2017

पुलिस सर्विस में आने के बाद भी फिजिक्स- मैथेमैटिक्स बुरी तरह से मेरे दिलो-दिमाग में फंसा हुआ था : अभयानंद, पूर्व डीजीपी,बिहार

जब हम जवां थें 
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म देवघर में हुआ. मेरा गांव है चिंताप जो बिहार के गया जिले में पड़ता है. मेरे पिता जी स्व. जगदानंद 1951 बैच के आई.पी.एस. थें. 1985 में वो भी बिहार के 28 वें डीजीपी बने थें. ये इक्तेफाक है कि 2011 में मैं भी बिहार का 48 वां डीजीपी बना. उसी पद पर और उसी कुर्सी पर. मुझे बताया जाता था कि छपरा के एक ब्रज किशोर हाई स्कूल में के.जी. तक मैं पढ़ा जब मेरे पिता जी छपरा के एस.पी. थें. फिर 2 क्लास में मेरा एडमिशन पटना के संत जेवियर्स स्कूल में हो गया. उस ज़माने में स्कूल में 11 वीं तक की पढ़ाई होती थी और उसके बाद कॉलेज हो जाता था. 11 वीं करने के बाद एक साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ा. मगर किसी व्यक्तिगत कारण से वापस पटना चला आया और पटना यूनिवर्सिटी के साइंस कॉलेज से फिजिक्स ऑनर्स में ग्रेजुएशन किया. 1972 -1974  का शेषन था लेकिन जे.पी. आंदोलन की वजह से इक्ज़ामिनेशन एक साल डिले हुआ. फिर रिजल्ट 1976 में निकला. तब मैं बेस्ट ग्रेजुएट और फिजिक्स में गोल्ड मेडलिस्ट भी रहा. कॉलेज में फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट था और फिजिक्स- मैथेमैटिक्स में मेरा इंट्रेस्ट बहुत ज्यादा था. मुझे तब कुछ ऐसी चीजें दिखती थीं जो साधारणतः किताब में नहीं लिखी रहतीं. जब मेरा बी.एस.सी.ऑनर्स का एक्जाम हुआ था तो हमारे एक लैब असिस्टेंट थें उन्होंने मुझसे रिजल्ट आने के पहले एक बात कही थी. उन्होंने कहा कि 'आपके बारे में एक एक्जामिनर हमसे पूछ रहे थें कि वो किस लेवल का विद्यार्थी है.' मैंने पूछा- 'तो आपने क्या बताया?' वे बोले- 'यही कि जो प्रयोग दिया गया है वो आप कर लेंगे उसके बाद फिर उसे दूसरे तरीके से सोचते हैं कि इसको और कैसे किया जा सकता है.'  फिर उन्होंने मुझे बताया कि प्रोफ़ेसर साहब कह रहे थे कि 'एक खास सवाल हमने सेट किया था ये मानते हुए कि इसका जवाब कोई नहीं दे सकेगा और आपने उसका एकदम सही हल कर दिया. उनको उम्मीद नहीं थी और शायद अकेला ही मेरा पेपर था जिसमे उनको वो सही हल मिला था. वो बहुत प्रसन्न थें कि ऐसा भी स्टूडेंट है.'

जब अभयानंद हाई स्कूल के स्टूडेंट थें 
तब बी.एस.सी. के रिजल्ट के आधार पर मुझे स्कॉलरशिप मिला था और मैंने एम.एस.सी. में एडमिशन भी ले लिया था. लेकिन पटना यूनिवर्सिटी का लेवल दिल्ली यूनिवर्सिटी की तुलना में बहुत नीचे था. मैं जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में था तब तक कभी सोचा भी नहीं था कि सरकार की कोई नौकरी करूँगा. क्यूंकि इंट्रेस्ट फिजिक्स में था. मुझे ऐसा लगा कि अगर दिल्ली यूनिवर्सिटी में रहता तो निश्चित स्कॉलरशिप के साथ विदेश जाने को मिलता. और जब पटना यूनिवर्सिटी में पढ़ा तो मुझे लगा शायद मैं फिजिक्स में पीछे चला गया. मैं बात कर रहा हूँ 1970 -1971 की.  इसलिए मुझे सेकेण्ड च्वाइस यू.पी.एस.सी. लगा और मेरा पहला प्रयास ही सफल रहा. पुलिस सर्विस में आ तो गया लेकिन फिजिक्स कहीं ना कहीं रह गया था मेरे जेहन में. मैथेमैटिक्स बुरी तरह फंसा हुआ था मेरे दिलो-दिमाग में. तो वो बार-बार उफान ले लेता था. अपने बच्चों को मैंने पढ़ाया और मेरे दोनों बच्चे आई.आई.टी. में आ गए. इसी क्रम में फिजिक्स और मैथेमैटिक्स हमेशा पुनर्जीवित होता रहा. पढ़ाने की कला मैंने खुद के बच्चों को पढ़ाते हुए सीखी. फिर मैंने समय का सदुपयोग करते हुए गरीब बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया. उसी कड़ी में एक कॉन्सेप्ट अभ्यानंद सुपर 30 का जन्म हुआ.
    1989 में जब मैं नालंदा का एस.पी. था और जीप में बैठकर कहीं बहार जा रहा था. जैसे ही हम नालंदा से बाहर करीब 10 किलोमीटर निकले होंगे मुझे वायरलेस पर सूचना मिली कि एक जगह लगभग दंगा जैसी स्थिति हो गयी है. शहर के अंदर आग लगा दी गयी थी. मैं तुरंत लौटकर आया. वहां दोनों समुदाय के बीच टेंशन का माहौल था. मैं वहां सादे लिबास में पहुंचा. पुलिस फ़ोर्स थोड़ी दूरी पर थी. मैं एकदम उनके बीच गया और एक जगह कुछ मिट्टी का ढ़ेर था उसपर खड़ा हो गया क्यूंकि मेरी हाइट कम है इसलिए लोग देख नहीं पा रहे थें. और फिर दोनों साइड के लोगों को वहीँ से समझाना शुरू किया. मेरे साथ सिर्फ एक बॉडीगार्ड था और लगभग मैं अकेला था. मैंने करीब 15 मिनट उन्हें सम्बोधित किया. फिर दोनों पक्ष के लोगों ने मेरी बात मानी और कहा- 'सर जैसा कहियेगा वैसा हमलोग करेंगे. लेकिन ये घटना नहीं होनी चाहिए थी.'  मैंने कहा- 'जो हुआ है उसकी समीक्षा भी हम करेंगे लेकिन पहले आपस का तनाव तो बंद कर दो.' आधे घंटे के अंदर मामला सेटल हो गया. उनलोगों ने कहा कि आपकी बात हमने इसलिए सुन ली क्यूंकि जब हमलोग आते थें आपके घर या ऑफिस में तो चाहे रात हो या दिन आप एकदम सहजता से हमलोगों से बात कर लेते थें. आपने कभी भी एस.पी. की तरह व्यवहार नहीं किया इसलिए हमलोगों ने आपकी बात मान ली अन्यथा वो बात उस माहौल में माननेवाली थी नहीं.' तब मैंने महसूस किया कि एक डिस्ट्रिक्ट एस.पी. की विश्वसनीयता समाज के हर अंग में जितनी अधिक होती है उतनी ही जल्दी लॉ एन्ड ऑर्डर कंट्रोल हो सकता है. क्राइम अपनी जगह पर है, वो अलग विधा है. मगर लॉ एन्ड ऑर्डर के लिए एस.पी. की विश्ववसनीयता सबसे अधिक मायने रखती है. ये जो तरीका है गोली चलाओ, लाठी चलाओ ये अंतिम साधन है.
   
ऐसे ही एक घटना मेरे एडीजी रहने के दौरान भागलपुर के कहलगाँव में हुई थी. वहां भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या हो गयी थी और मुझे हेलीकॉप्टर से भेज दिया गया कहकर कि जाइये और वहां सम्भालिये. मैं वहां पहुंचा तो देखा पब्लिक ने ही 144 लगा दिया था. 6 -7 पुलिस की गाड़ियां जला दी जा चुकी थीं. सी.आई.एस.एफ. के कई जवान बंधक बना लिए गए थें. स्थिति इतनी भयावह थी कि मीडिया के लोग भी उस अनियंत्रित भीड़ के पास नहीं जा पा रहे थें. डर इतना था कि मीडिया के लोग थाने में ही एकत्रित हो गए थें. माहौल पूरा पुलिस के अगेंस्ट था. उनकी डिमांड थी कि एस.पी. को फांसी दो, डी.एम. को मौत के घाट उतार दो. हालत इतनी खराब थी कि बाजार में पुलिस के पैसे देने पर भी लोगों ने खाना देना मुनासिब नहीं समझा. अगर हम पुलिसवाले चाहते कि कहीं होटल में बैठकर खा लें तो वो संभव नहीं था. मैंने तय किया कि मैं अकेला निकलूंगा. मैं अकेला सादे लिबास में सड़क पर हाथ जोड़े निकल गया. सड़क किनारे एक मकान की खिड़की से एक आदमी झांक रहा था. मैंने उसके पास जाकर अपना नाम बताया और कहा कि 'पटना से आया हूँ आपलोगों से बात करने के लिए.' वो बाहर निकला और कहा- 'चलिए आपके साथ चलते हैं, फिर एक-दो और लोग निकल गए और इस तरह से छोटा सा एक कारवां बन गया. करीब 3 -4 किलोमीटर चलने के बाद जब मैं शहर के बीच में पहुंचा उस समय तक अँधेरा होने लगा था. वहां पर एक व्यक्ति मिला तो उसने कहा- ' आप शहर में कहाँ जाइएगा, आप आ जाइये मैदान में पब्लिक यहीं आ जाएगी. कहलगाँव में एक गांगुली मैदान है रेलवे स्टेशन के पास, उसी मैदान में मैं खड़ा हुआ और करीब 10 हजार की भीड़ जमा हुई. एक माइक और लाऊड स्पीकर कहीं से लाया गया. और पब्लिक ने भाषण देना शुरू किया. पुलिस को चुन-चुनकर गलियां पड़ रही थीं. मैं शांत था. तब किसी ने कहा कि ये आये हैं पटना से तो इनको भी बोलने दिया जाये.'तो मैंने शुरू किया कि 'चार दिनों से फायरिंग हो रही है यहाँ, बहुत से लोग शहीद हो गए हैं. पहले हम चाहेंगे उन दिवंगत आत्माओं के लिए 2 मिनट का मौन रखा जाये. उसके बाद हमलोग बात करेंगे.' फिर मेरे सुझाव को मानकर लोगों ने मौन रखा. उसके बाद मैंने उनसे बात करनी शुरू की और ये बातचीत बहुत लम्बी चली. मुझे याद है 6 बजे शाम से करीब रात 10 बज गया तब जाकर मामला तय हुआ. उन लोगों का कहना था कि आपलोग तो इन्वेस्टीगेट कीजियेगा नहीं. मैंने कहा- 'एकदम थाना खुला हुआ है, जिसके खिलाफ आपको एफ.आई.आर. करनी है आइये और कीजिये. मैं कराऊंगा इन्वेस्टिगेशन. उन लोगों ने बात मानी और फिर रात 10 बजे पूरे चार दिन का माहौल शांत हुआ. उधर से जब मैं पैदल ही लौट रहा था तो मेरे साथ करीब 40 -50 जवान लड़के हो गएँ और उन्होंने अपनी लोकल भाषा में कहा कि 'चलिए आपको थाना तक पहुंचाते हैं.' और वे रास्ते में हमसे बात करते जा रहे थें. तब उनमे से एक ने कहा कि 'सर आप गलत समय पर आ गए हैं. अगर अच्छे समय पर आये रहते तो हमलोग पढ़ने-पढ़ाने की बात करतें. तब मुझे एहसास हुआ कि ये सुपर 30 का जो चैप्टर है ये मेरे पुलिस की छवि से ऊपर है. और इसलिए वे लोग मेरी बात सुन रहे थें. मेरा मानना है कि ये जो सरकारी तंत्र का इमेज होता है उतना काम नहीं करता है जितना आपका जो व्यक्तिगत इमेज है वो काम करता है. 

Thursday, 14 September 2017

फणीश्वरनाथ रेणु की वजह से पहली बार मैंने पी ली थी : कृष्णानंद, भूतपूर्व सहायक संपादक, इंडियन नेशन, पटना एवं ऐतिहासिक उपन्यासकार

जब हम जवां थें
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म बिहार के गया में हुआ. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई. उस ज़माने में जब महिलाएं पढ़ना-लिखना नहीं जानती थीं मेरी माँ मिडिल पास थी. जब मैं 8 वीं - 9 वीं में था मुझे याद है पिता जी माँ के पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से साहित्य की किताबें लाया करते थें. माँ जब काम कर रही होतीं तो मैं वो किताबें लेकर पढ़ने बैठ जाता था. और बचपन में ही मैंने शरतचंद्र, बंकिमचंद्र और प्रेमचंद सबकी किताबें पढ़ ली थीं. शायद इसी वजह से साहित्य के प्रति मेरी रूचि जगी और लिखने की प्रवृति ने जन्म लिया. इंटर मैंने गया कॉलेज से किया. गया कॉलेज खोलने वाले सज्जन हमारे पिता के मित्र थें. वे पिता जी से बोले- 'हम कॉलेज खोल रहे हैं और घर का लड़का पढ़ने पटना जायेगा.' फिर पिता के कहने पर मैंने वहीँ से आई.ए. में एडमिशन कराया. आई.ए. में तब के शिवनंदन बाबू बहुत नामी हिन्दी के प्रोफेसर थें जो बाद में पटना कॉलेज चले गए. उन्होंने इंटर यूनिवर्सिटी स्टोरी कम्पटीशन आयोजित करवाया था जिसमे मेरी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला. कहानी का शीर्षक था 'थप्पड़ - ए- इश्क'. उसके बाद मैं पटना कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स में ग्रेजुएशन करने चला आया. ऑल इण्डिया रेडियो, पटना से बहुचर्चित नाटक लोहा सिंह लिखने और लोहा सिंह का किरदार निभानेवाले रामेश्वर सिंह कश्यप तब मेरे क्लासमेट थें और हम दोनों हिन्दी ऑनर्स क्लास में अगल-बगल बैठते थें. देवेंद्र नाथ शर्मा जो बाद में वाइस चांसलर भी हुए थें तब एक दिन क्लास में हिन्दी में अलंकार पढ़ा रहे थें. उसी दरम्यान रामेश्वर सिंह कश्यप ने एक कविता बनाकर सुनाई जो आज भी मुझे याद है. उस वक़्त कंडोम फ्रेंच लेदर कहलाता था और नया नया निकला था. कविता कंडोम पर आधारित थी कि  'एक लड़की भड़की, जब लड़के ने कहा, छूट गयी थैली रबड़ की.' सुनकर मुझे जोर की हंसी आ गयी तभी प्रोफ़ेसर साहब ने हमें देख लिया और सोचा कि गप्प कर रहे हैं तो हम दोनों पर बहुत बिगड़े.  कुछ ही महीनों बाद वहां साइकोलॉजी का नया विभाग खुल गया तो हम भी आकर्षित होकर हिन्दी ऑनर्स छोड़कर उसमे चले गए. उसके पहले फर्स्ट टर्मिनल एक्जाम में रामेश्वर कश्यप फर्स्ट और मैं सेकेण्ड आया था. फिर पटना यूनिवर्सिटी में हम साइकोलॉजी के फर्स्ट बैच के स्टूडेंट बनें. बी.ए. के बाद मैंने एम.ए. भी किया.

जवानी के दिनों में पत्नी के साथ कृष्णानंद जी
पटना कॉलेज में 26 जनवरी 1950 के दिन पहला रिपब्लिक डे सेलिब्रेशन हुआ जिसमे पटना कॉलेज के फाइन आर्ट सोसायटी का सेक्रेट्री मैं था और प्रेसिडेंट थें एस.के.घोष जो इंग्लिश के एवर ग्रीन प्रोफेसर कहलाते थें. उसी के तहत आर्ट कम्पटीशन ऑर्गेनाइज हुआ था जिसमे मैंने अपनी पत्नी का प्रोट्रेट बनाया था. तब तक मेरी शादी हो चुकी थी. मेरी शादी 27 मई 1948 में आजादी के 9 महीने बाद हुई थी. पटना कॉलेज फाटक के सामने एक बहुत बड़े फेमस आर्टिस्ट थें जिनकी प्रोट्रेट पेंटिंग की दुकान थी. जब मेरा पीरियड नहीं रहता तो उन्हीं के पास बैठकर उनसे मैं प्रोट्रेट बनाना सीखा करता था. तो उस कम्पटीशन में प्रोट्रेट बनाने में मैं और लैंडस्केप में शिवेंद्र सिन्हा फर्स्ट आये. फाइन आर्ट सोसायटी का सेक्रेट्री तो मैं था लेकिन हर क्लास का एक रिप्रजेंटेटिव भी चुना जाता था. शिवेंद्र क्लास का रिप्रजेंटेटिव होने के लिए प्रेसिडेंट एस.के.घोष के पास नामांकन देने गया तो उन्होंने कहा कि अपना फॉर्म सेक्रेट्री को दे दो. जब शिवेंद्र ने कहा कि 'हम उन्हें नहीं पहचानते हैं' तो प्रेसिडेंट साहब बोले 'कृष्णानद को नहीं पहचानते हो? कॉलेज में घूम जाओ और जिसके गले में सबसे सुन्दर टाई लटकी हो उसके हाथ में फॉर्म थमा देना.' फिर शिवेंद्र सिन्हा आया और मुझसे बोला - 'आप ही कृष्णानंद हैं ना, मुझे प्रेसिडेंट साहब ने आपके पास भेजा है.' शिवेंद्र सिन्हा पटना के रीजेंट सिनेमा के मालिक का भाई था जो पटना कॉलेज में पढ़ने के बाद बी.बी.सी. लन्दन चला गया. वहां से लौटने के बाद जब दिल्ली में दूरदर्शन की स्थापना हुई तो पहला प्रोड्यूसर वही बना. उसने एक फिल्म बनायी थी जिसे तब नेशनल अवार्ड मिला था. दूसरी फिल्म उसने बनाई 'किस्सा कुर्सी का' जो इंदिरा गाँधी पर आधारित थी और कंट्रोवर्सियल हो जाने की वजह से रिलीज ही नहीं हो पायी. दिल्ली दूरदर्शन में एक्जक्यूटिव के पोस्ट पर हमारे एक साढ़ू थें किरण जी. जब एक दफा मैं दिल्ली गया तो किरण जी के यहाँ ही ठहरा था और उनसे मिलने जब शिवेंद्र पहुंचा तो हमारे साढ़ू बोले 'आओ तुम्हें हम पटना के एक जर्नलिस्ट से मिलवाते हैं.'  मेरा नाम सुनते ही शिवेंद्र बोला 'उनसे हमें मिलवाइयेगा, उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए तो हम आज इस पोस्ट पर पहुंचे हैं.'
    मुझे फ़िल्में बनाने का भी शौक था. सर्विस करने के दौरान ही 1978 में मैंने ब्लैक एन्ड वाइट शार्ट फिल्म 'पाबन्दी' बनायीं जो पुरुषों की नसबंदी पर थी. इंडिया गवर्नमेंट ने उसके 64 प्रिंट खरीदें और गांव देहात में प्रचार किया. फिर दूसरी कलर फिल्म बनाई 1980 में 'सुरा, स्वप्न और सत्य' जो शराबबंदी पर थी. दो शॉर्ट फिल्मों के बाद हम फुललेंथ की फिल्म बनाना चाह रहे थें. सबकुछ सेट हो गया था, पी.एल.संतोषी तब के बहुत बड़े डायरेक्टर मेरी फिल्म को डायरेक्ट करने वाले थें. 'रूप,रोटी और रुपया' स्टोरी भी उन्हीं की लिखी हुई थी. म्यूजिक डायरेक्टर थीं उषा खन्ना और इन सबको साइन करके मैं जब मुंबई से पटना आया तो जिन लोगों ने मुझे फाइनेंस करने का वायदा किया था वो पीछे हट गए और फिर फिल्म नहीं बन पायी. तब इंडिया के सभी आर्टिस्ट मुझे जानते थें. सोनल मान सिंह से लेकर बिस्मिल्ला खां सभी की मैंने फोटो खींची थी अपनी स्टोरी के लिए. पहले ज़माने में मैटर की किल्लत रहती थी, बाजारवाद नहीं था. पहले जैसे नेहरू जी का भाषण आ गया तो हमलोगों को फायदा होता था कि सिर्फ इंट्रो बना दिया और पूरा भाषण छाप दिया. पहले डांस-ड्रामा जो होता था तो उसके ऑर्गनाइजर सिर्फ एक पैरा में न्यूज भेज देते थें कि फलां ड्रामा हुआ और फलां -फलां ने पार्टिशिपेट किया. तब हम खुद जाकर ड्रामा देखना शुरू किये और उसपर बड़े-बड़े आर्टिकल निकालने लगें. उसके बाद नाटकों की बाढ़ आनी शुरू हो गयी, बहुत सी संस्थाएं कायम हो गयीं. और सब चाहते थें कि मैं ही आकर रिपोर्टिंग करूँ. जिस फंक्शन में मैं नहीं जा पाता वो मायूस हो जाते थें. फिर भी जो वहां गए थें उनसे पूछकर मैं उनका कमेंट छाप देता था. हर साल होनेवाले फिल्म फेस्टिवल में बिहार से मैं ही बुलाया जाता था. 1969 से 1984 तक जितने फिल्म फेस्टिवल हुए मैंने सब अटैंड किये. उसी दरम्यान बहुत से अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के फोटो खीचा मैंने.

कृष्णानंद जी द्वारा खींची गयी मशहूर फ़िल्मी हस्तियों की तस्वीरें 
एक बार दिल्ली के अशोका होटल में बॉबी फिल्म की पार्टी चल रही थी और मैं राजकपूर जी के साथ एक टेबल पर बैठा था. मेरे सामनेवाले टेबल पर ऋषि कपूर और नीतू सिंह दोनों बैठकर एक ही प्लेट में खा रहे थें. मैंने फोटो लेने की कोशिश की तो उन्होंने देख लिया और चेहरा छुपा लिया. फिर मैंने भी अपना कैमरा नीचे छुपा लिया और बात करते-करते मौका देखकर चुपके से उनकी फोटो खींच ली जो तब अख़बार में छपी भी थी. उन दिनों बिहार में फिल्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन के लिए हमने लिखना शुरू किया कि सब जगह है बिहार में ये नहीं है. एक बार प्लानिंग कमीशन के जो सेक्रेट्री थें उन्होंने कहा कि फिल्म बेकार और वाहियात चीज है. यह बात हमको उनके ही आदमी ने बता दिया कि सब कमेंट आपके खिलाफ गया है. तो हमने उस कमेंट का जो पॉइंट था उसका जवाब छाप दिया.  जगन्नाथ मिश्रा दुबारा जब बिहार के मुख्यमंत्री बनें तो उनके ज्वाइन करने के पहले हमने एक लेख छापा ' एन ओपेन लेटर टू चीफ मिनिस्टर एन्ड इंडस्ट्री मिनिस्टर' और उसमे फिल्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन की वकालत की गयी थी. एक बार रविंद्र भवन में एक फंक्शन के दौरान मैं बैठा हुआ था तो जगन्नाथ मिश्रा जी मेरे पास आये और बोले 'कृष्णानंद जी, आपकी बात हमने मान ली है.' फिर बिहार में फिल्म डेवलपमेंट कॉरपरेशन की शुरुआत हुई. उसके जो सेक्रेट्री बने वो हमारे क्लास फ्रेंड थें. तब आर.एन .दास पटना के डी.एम.थें और बाद में एडुकेशन कमिश्नर भी बने. फिल्म में उनको भी बहुत इंट्रेस्ट था. तब दास जी मुझसे बोले कि 'आपका नाम कॉरपरेशन में आया था तो आपके दोस्त ने ही आपका नाम नहीं जाने दिया ये कहकर कि 'कृष्णानंद रहेगा तो हमलोगों को खाने-पीने नहीं देगा. हमेशा टोकते रहेगा कि ये काम नहीं हो रहा है वो नहीं हो रहा है. इसलिए उसका नाम ही काट दो.' तब कॉरपरेशन सिर्फ नाम का था, कुछ काम नहीं होता था. सारा पैसा कहाँ चला जाता पता ही नहीं चलता था. पहले मैंने बतौर सब एडिटर 'सर्चलाइट' ज्वाइन किया था फिर कुछ ही दिनों बाद 'इंडियन नेशन' में मैगजीन एडिटर ज्वाइन कर लिया. मेरा ससुराल वैसे तो गया में है लेकिन चूँकि मेरे ससुर एडवोकेट थें और जब वे पटना हाईकोर्ट शिफ्ट हुए तो पटना के लोहानीपुर में घर बना लिया. उन्हें कोई बेटा नहीं था इसलिए उन्होंने मुझसे कहा कि आप मेरे साथ ही रहिये. मेरी पत्नी पांच बहन थी और जब सबका परिवार बढ़ने लगा तो हमने रिक्वेस्ट किया कि हमें अलग रहने जाने दीजिये. फिर पत्नी के साथ नालारोड किराये के माकन में चला आया. एक बार का वाक्या है कि राजेंद्रनगर में लेखक फणीश्वरनाथ रेणु रहते थें जिनसे मेरी दोस्ती थी. वे एक बार रिक्शा से आ रहे थें तो मुझे नालारोड में देखकर पुकारे फिर सामने आने पर कहे कि 'चलिए आज आपको 'सेंट्रल' ले चलते हैं. सेन्ट्रल एक होटल था रिजर्व बैंक के पास तो मैंने सोचा कि वहां ले जाकर कुछ खिलाएंगे. लेकिन 'सेंट्रल' गया तो देखा वहां शराब पीने की व्यवस्था है. मैं शराब पीता नहीं था तो मैंने कहा- ' रेणु जी, मैं नहीं पीता.'  वे बोले- 'जब आये हैं और साथ नहीं दीजियेगा तो हम भी नहीं पीयेंगे, इसलिए साथ दीजिये.' मैंने कहा- ' अच्छा तो ठीक है, दो बून्द ग्लास में गीरा दीजिये और उसमे पानी मिला दीजिये.' वे बोले - ' ऐसे नहीं ना होता है' और जिद करके हमको पिला दिए. पहले एक पैग पीकर हम मना किये तो वे बोले 'क्या कृष्णानंद जी, मतलब हमको भी नहीं पीने दीजियेगा. आपका ग्लास खाली रहेगा तो हम कैसे पीयेंगे?' ऐसे करते करते मुझे दो-तीन पैग पिला दिए. मेरा माथा घूमने लगा. घर जाते जाते सीढ़ी के नजदीक हम उल्टी करने लगें. रेणु जी बोले - 'आप बेकार आदमी हैं, अब आपके साथ कभी सेंट्रल नहीं जायेंगे.' मैंने कहा - 'हम खुद ही नहीं जायेंगे.' तब रेणु जी की कहानी 'तीसरी कसम' की शूटिंग हो चुकी थी और फिल्म रिलीज होनी बाकी थी. रेणु जी का नाम इतना था कि उनके साथ पीने की वजह से घर में पत्नी से मुझे डांट नहीं सुननी पड़ी थी.

शर्म से हीरोइन की आँखों से आँखें नहीं मिला पा रहा था : आलोक पाण्डेय , लोक गायक

वो मेरी पहली शूटिंग
By: Rakesh Singh 'Sonu'


जब महुआ चैनल के 'सुर संग्राम' से मेरी पहचान बनी तो मैंने 2012 में पहला म्यूजिक एलबम किया 'तू राजा बाबू हउअ'. उस एलबम में 8 गाने थें जिनमे एक-दो गीत मैंने अपने पिता जी के गाये गीतों से लिया था. सभी गाने बहुत क्लास के थें. एलबम में अश्लीलता के बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं क्यूंकि मैं बहुत ही मर्यादित घराने से हूँ और मेरे पिता पं श्री रामेश्वर पाण्डे बहुत बड़े संगीताचार्य हैं. उन्होंने अपने जीवन में संगीत को कभी बेचा नहीं, बाजारीकरण से बहुत दूर रहें. उन्ही की शैली में मैं गाता हूँ. एलबम का टाइटल सांग 'तू राजा बाबू  हउअ' जिसे पिता जी 25 वर्षों से गाते आएं जिनको स्व. रामजीवन सिंह बावला जिन्होंने पूरी रामायण भोजपुरी में लिखी थी ने ही इस चर्चित गीत को भी लिखा था. इस गाने की धुन मेरे पिता जी ने बनाई है. एलबम की शूटिंग यू.पी. के विंध्याचल धाम में हो चुकी थी लेकिन एक गाने से हमलोग संतुष्ट नहीं थें. फिर उस गाने को किसी दूसरी हीरोइन को लेकर दुबारा शूट करने का प्लान हुआ क्यूंकि डायरेक्टर को वह हीरोइन कैमरे में मेरे सामने ज्यादा मैच्योर दिख रही थी. तो एलबम के एक रोमांटिक गीत 'चाँद जइसन रुपवा गजबे लागेलु तू गोरी.' की फिर से शूटिंग के लिए हमलोग मुंबई चले गए. वहां से प्लान करके एक दूसरी हीरोइन के साथ फिर से शूट करने हम दिल्ली गए. शूट हो भी गया लेकिन संयोग देखिए कि एडिटिंग टेबल पर किसी को भी उस दूसरी हीरोइन के साथ मेरी जोड़ी जम नहीं रही थी. फिर डायरेक्टर साहब बोले कि 'यार क्या किया जाये, इस गाने को कैसे शूट किया जाये. कहाँ से और किस हीरोइन को लाया जाये जो फिट बैठे.'  तो फिर दिल्लीवाला शूट भी कैंसल करके फाइनली एक बड़ी हीरोइन को लेकर एक कमरे में क्रोमा शूट हुआ. हमारे इस म्यूजिक वीडियो एलबम के डायरेक्टर हैं भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर डांस डायरेक्टर कानू मुखर्जी. तो कानू मुखर्जी ने ही भोजपुरी फिल्म की चर्चित हीरोइन तनु श्री से बात किया और कहा - 'तुम्हारे अपोजिट एक नया लड़का है आलोक जो बिहार के सिवान का रहनेवाला है और जो महुआ चैनल के 'सुर संग्राम' में हिस्सा लेकर उप विजेता बना है. लेकिन मैं चाहूंगा कि तुम एक बार गाना सुन लो.' फिर गाना सुनने के तुरंत बाद ही तनु श्री ने हाँ कर दिया. तब तनु श्री हीरोइन तो नयी थीं लेकिन दो-तीन फिल्में हिट हो जाने की वजह से उनकी पहचान बन चुकी थी.

यू.पी. और दिल्ली के लोकेशन छोड़कर फाइनली 'चाँद जइसन रुपवा..' गाने की शूटिंग मुंबई में कानू दादा के घर में हुई. उनके फ्लैट के हॉल में क्रोमा लगाकर बस चार कदम में गाने की शूटिंग संम्पन्न हुई. तनु श्री ने उस गाने में बहुत बेहतरीन नृत्य एवं अभिनय किया और उनके चेहरे के एक्सप्रेशन का तो मैं कायल हो गया था. टी- सीरीज से एलबम रिलीज हुआ जो बहुत पसंद किया गया. शूटिंग के वक़्त मैं नर्वस हो जा रहा था क्यूंकि मैं सिंगर हूँ और इससे पहले कभी एक्टिंग नहीं किया था. आज जब सोचता हूँ तो हैरान हो जाता हूँ कि तब तनु श्री ने चार कदम की दूरी में ही मुझसे रोमांटिक सीन करवा लिया था. सीन में उनके हाथों को चूमना, चेहरे से जुल्फों को हटाना, एक-दूसरे के करीब आकर एक-दूसरे की आँखों में देखना ये सब मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण था. पहले तो मैं उनकी आँखों में देख ही नहीं पा रहा था. डायरेक्टर ने कहा कि आप आँखों में देखिये और मैं देखते ही जल्दी आँखें झुका लेता था. जबकि तनु श्री एकटक से देखते ही रह जाती थीं. मेरी तरफ से कई बार रीटेक देने के बाद तनु ने मुझसे कहा- ' नर्वस क्यों हो रहे हैं, आप एकदम बेफिक्र होकर हमारे साथ काम कीजिये. कोई संकोच नहीं, हमलोग आर्टिस्ट हैं, अच्छे से काम करना है. ये नहीं सोचिये कि मैं आप से सीनियर हूँ और आप नए हैं.'  उनकी बातों से मेरी झिझक कुछ कम हुई और फिर अच्छे से मेरे पहले एलबम की शूटिंग कम्प्लीट हो गयी. 

Wednesday, 6 September 2017

संघर्ष ही आपकी उपलब्धियां हैं अगर आप सफल हैं : आर.जे. शशि, रेडियो मिर्ची, पटना

वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'


मैं पटना का ही रहनेवाला हूँ. मेरी स्कूल से लेकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पटना से ही हुई है. हम चार भाई-बहन हैं और दो भाई व दो बहनों में मैं सबसे छोटा हूँ. मेरे पिता जी बिजनेसमैन थें और आज से 16 साल पहले जब हम छोटे थें उनका लिवर क्लोसिस की वजह से देहांत हो गया. मेरी माँ भी किडनी की बीमारी  की वजह से 2014 में हमारा साथ छोड़कर चली गईं. कहते हैं जब आपके ऊपर माता-पिता का साया होता है चाहे आप जॉब क्यों ना कर रहे हों या फिर आप बाल-बच्चेदार हों पारिवारिक जीवन में आपके माता-पिता हैं तो एक बहुत बड़ी शक्ति होती है, मेंटल सपोर्ट रहता है. अगर आप जिंदगी में सफल भी हो गए हैं लेकिन आपके पास माँ-बाप नहीं हैं तो ये जिंदगी का सबसे बड़ा खालीपन है. भगवान ने आपको सबकुछ दिया लेकिन जब आप बहुत कमा रहे हैं, नेम-फेम कर रहे हैं और आपके माँ-बाप यह देखने के लिए नहीं हैं तो फिर मन में बहुत टीस होती है. मैं उस मामले में अभागा रहा क्यूंकि मुझे बहुत छोटी उम्र में पिता जी छोड़कर चले गए और मेरी कामयाबी नहीं देख पाएं. लेकिन माँ ने मेरी सफलता को करीब से देखा, मेरी सफलता से उसे ख़ुशी मिलती थी. लेकिन फिर उसे खो देने के बाद मुझे आज भी जिंदगी में खालीपन सा महसूस होता है. पिता जी का साया जब बचपन में ही उठ गया तो काफी स्ट्रगल झेलनी पड़ी. माँ एक गृहणी थीं और बड़े भाई एक छोटा सा बिजनेस करते थें जिससे हमारा घर-परिवार चलता था. जैसे ही हम क्लास 10 वीं में पहुंचे तो खुद से कमाई करना शुरू कर दिए. एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगें जहाँ से 1500 - 2000  मिलने लगा. एक टाइम था जब हम कार्यक्रमों में स्टेज एंकरिंग के लिए जाया करते थें और लोग मेरा मजाक उड़ाते थें कि नाच-गाने में जाता है, ऐसा करता है, वैसा करता है. तब उस समय हमको लगता कि अरे यार बड़ा टफ है, कैसे लोगों के बीच जायेंगे, कैसे आगे बढ़ेंगे. लेकिन फिर भी कहते हैं ना कि हँसता घर ही बसता है. लोग आपके लिए तालियां बजायेंगे तभी आपका नाम होगा. मेरे दादा जी का कहना था कि 'बेटा तमाशा देखो नहीं, तमाशा बनो. तमाशा बनोगे तभी तुम्हारे लिए लोग तालियां बजायेंगे. नहीं तो तमाशा देखनेवालों की भीड़ में खड़े रह जाओगे फिर तुम्हारी पहचान कभी नहीं बन पायेगी.'

आर.जे.शशि जब हाई स्कूल के स्टूडेंट थें 
जब पिता का साया रहता है तो बचपन में आपको हर चीज आसानी से मिल जाती है. लेकिन जब वही साया उठ चुका होता है तो उस समय से ही आपके पास खुद्दारी चली आती है कि जिनसे मांगने का अधिकार था वो तो चले गए, अब आपको खुद से करना है. तो हम जानते थें कि मेरी माँ के पास उतने पैसे नहीं हैं कि वो मेरी और जरूरतों को भी पूरी करें इसलिए तब मेरा शौक कब मेरी जरुरत बन गयी मुझे एहसास भी नहीं हुआ. कलाकारी तो बचपन से थी ही मेरे पास. तब मेरे घर के पड़ोस में एक इमाम साहब रहते थें वहां जाकर मैंने उनसे उर्दू सीख ली. फिर जब स्टेज पर माइक में बोला करते तो भारी-भरकम आवाज निकलती. लोग बोलते कि ये कौन लौंडा है जो एकदम बड़ों जैसा बोल रहा है. डिमांड थोड़ा बढ़ने लगा. उस समय एक शो का 300 -400, बहुत ज्यादा हुआ तो 500 मिल जाता था. जब आप स्ट्रगल पीरियड में रहते हैं तो मार्केट में बने रहने के लिए बहुत सी चीजें सीखने को मिलती हैं. बहुत जगह ताली तो बहुत जगह गाली मिलती है. संघर्ष आपको हर एक जगह करना है. तब संघर्ष में भी आप मजा कीजियेगा तभी आप मजेदार व्यक्ति बन सकते हैं. अगर मैं अपने आज की बात करूँ तो लगेगा कि अब मेरा संघर्ष नहीं है लेकिन ऐसा नहीं है, हमने अगर संघर्ष करना छोड़ दिया तो इसका मतलब कि हम रिटायर्ड हो चुके हैं. आज भी जब हम रेडियो मिर्ची से बोलते हैं तो दिमाग में भी एक संघर्ष चल रहा होता है कि हमें कौन सी ऐसी चीज बोलनी है कि सुननेवाले इंजॉय करें, हंस पड़ें. तो स्ट्रगल चलता रहता है. तब बचपन में जो पैसे स्टेज शो से मिलते थें वो पढ़ाई पर, कपड़ों पर, छोटी छोटी खुशियों पर खर्च करते थें. स्टेशन के फुटपाथ पर का शर्ट भी खरीद लिए तो बड़ा खुश हो जाते थें. टी-शर्ट दो आ गया तो बड़ा खुश हो जाते थें. धीरे-धीरे खुद की कमाई से खुद पर खर्च करने की जब आदत पड़ जाती है तो बड़ा कॉन्फिडेंस आता है इसलिए हर किसी को स्ट्रगल करना चाहिए. अगर जो चीज आसानी से आपको मिल जा रही है तो समझिये आप बहुत जल्द रिटायरमेंट की तरफ जानेवाले हैं. ऐसे में हम संघर्ष को याद करते हैं तो दुखी नहीं होते हैं. सोचते हैं कितना मजेदार दिन था. फिर धीरे-धीरे मैंने अपनी पढ़ाई भी पूरी कर ली. ग्रेजुएश करने के बाद दिल्ली चला गया वहां मास कम्युनिकेशन करने लगा और फिर एक निजी न्यूज चैनल में इंटर्नशिप शुरू हो गयी. उसी चैनल के जरिये मैंने एक ख्याति प्राप्त नेशनल न्यूज चैनल में फ्रीलांसिंग करनी शुरू कर दी. वहां असिस्टेंट प्रोड्यूसर और वॉइस आर्टिस्ट भी रहा. 2006 में अचानक मैंने देखा कि रेडियो मिर्ची का ऐड आया है. हमारे न्यूज चैनल के बहुत सारे दोस्तों ने कहा कि 'यार ये जो तेरी आवाज है वो सिर्फ और सिर्फ रेडियो मिर्ची के लिए ही हो सकती है.'  तभी उसके पहले की एक घटना मुझे याद आ गयी. स्टेज एंकरिंग मैं क्लास 7 से ही करते आ रहा था. उस समय से ही मैं बाहर-बाहर बड़े-बड़े कार्यक्रमों में शिरकत करने जाया करता था. तो न्यूज चैनल में आने से पहले यानि 14 साल पहले अचानक मुझे एक बड़े कार्यक्रम में एंकरिंग करने के लिए दिल्ली जाना पड़ा. वहीँ खाना खाते समय जितने भी बड़े बड़े ऑफिसर थें उनकी पत्नियां मेरे पास आयीं और बहुत गुस्से में कहने लगीं  'अरे इतनी अच्छी आवाज है तुम्हारी, तुम रेडियो मिर्ची में क्यों नहीं जाते?'  मैं चौंक गया कि इतने गुस्से में क्यों बोल रही हैं. तब मैंने रेडियो मिर्ची का नाम भी नहीं सुना था. मैंने ऐसे ही घबराकर कह दिया 'हाँ-हाँ जाना चाहिए.' लेकिन जब चैनल में काम करते हुए वो ऐड देखा और दोस्तों ने भी कहा तब ध्यान आया कि अच्छा तो वे महिलाएं इसी रेडियो मिर्ची के बारे में बता रही थीं. फिर दोस्तों के कहने पर 2006 में मैं मौर्या होटल इंटरव्यू देने गया जहाँ मुझे उनलोगों ने बोलने को कहा. उसके बाद कहा गया कि आप ऑडियो टेस्ट के लिए चले आओ. मैं ऑडियो टेस्ट के लिए पहुंचा तो देखा वहां पर बहुत लम्बी कतार लगी है. बहुत लोग आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसी जगहों से ऑडियो टेस्ट के लिए आये हुए थें. जब वे मुझसे लगातार सवाल पूछे जा रहे थें तो बार बार यही बोल रहे थें 'अब अपनी आवाज में बोलो.' मैंने कहा- 'मेरी यही आवाज है.' तो वे बोले - 'देखने में छोटे हो और इतनी भारी आवाज कैसे हो सकती है !' हम बोले- 'यही वजह है कि मेरा ऑडियो और वीडियो मैच नहीं करता है.' तब उन्होंने कहा - 'आजतक हमने बहुत आवाजें सुनी हैं मगर इतनी कम उम्र में इस तरह की आवाज वाकई नहीं सुनी थी.' फिर उन्होंने कहा कि 'गेट रेडी फॉर मिर्ची.' फिर दूसरे ही दिन एच. आर. से फोन आ गया और हम अहमदाबाद के मुद्रा इंस्टीच्यूट ट्रेनिंग के लिए चले गए. वहां बहुत कड़ी ट्रेनिंग थी लेकिन उत्सुकता के साथ मजा आ रहा था. फिर इंडक्शन के लिए कुछ दिन दिल्ली में रखा गया. वहां पर अलग अलग प्रदेश के पंजाब, दिल्ली, गुजरात आदि जगहों से लोग आये थें क्यूंकि अलग-अलग प्रदेशों में सभी एफ.एम.एक साथ खुल रहे थें. ट्रेनिंग में उनलोगों को मेरा बिहारी टोन सुनने में बड़ा मजा आता था. यहाँ तक कि हमारे एच.आर भी एक दिन मुंबई से अहमदाबाद पहुँच गए मुझसे मिलने. बात ये थी कि एच. आर. मुझे ट्रेनिंग में आने से पहले रोज फोन किया करते थें और रोज एक ही सवाल पूछते - 'हाँ-हाँ तो कैसे कैसे जाना होगा शशि जी?' रोज हम उनको बताते कि 'सर ऐसा करेंगे कि ट्रेन पकड़ेंगे और फिर वहां से फ्लाइट पकड़कर चले आएंगे कोई दिक्कत नहीं है.' और एकदम ठीक 5- 5 : 30 बजे शाम को उनका कॉल आ जाता था जो लगभग 20-25 दिन तक आया मेरे पास. तो मैंने उन्हें अहमदाबाद में सामने से पूछा कि 'सर तब आप एक ही चीज पूछने के लिए रोज क्यों फोन करते थें?' वे बोले- 'मैं अपने मोबाईल को स्पीकर पर रखता था और पूरे ऑफिस को तुम्हारी आवाज सुनाता था. फिर इतना मजा आता था तुम्हारा टोन सुनकर कि मत पूछो, हमलोग हँसते हुए कहते कि ये है बिहारी पकड़ शशि की. यार, तभी से मैं तेरे को देखने को तरस रहा था कि कौन है ये बंदा ! इसलिए मैं सिर्फ तुझसे ही मिलने के लिए यहाँ आया हूँ. पंजाबी, गुजरती तो आप कहीं पर भी सुन लोगे,  लेकिन खांटी बिहारी जो टोन होता है, जिस टोन में तुम बात करते हो वो सुनने के लिए हम रोज जब मूड ऑफ होता बस तुम्हें फोन लगा के स्पीकर ऑन कर दिया करते थें. और हमलोगों का मूड एकदम फ्रेश हो जाता था.'   जब फेस टू फेस मुलाकात हुई तो सर बहुत खुश हुए और बोले - 'तुम्हारी आवाज सुनकर ऐसा लगता कि कोई भारी-भरकम पर्सनालिटी होगी, लेकिन तुम तो देखने में बच्चे जैसे हो.' फिर वहां हंसी-मजाक के माहौल में वो कड़ी ट्रेनिंग भी पूरी हो गयी. फिर इंडक्शन में वहां से हम दिल्ली गए जहाँ हमलोगों की ऑन एयर ट्रेनिंग हुई. तब मैं दिल्ली में रहते हुए एक पॉपुलर म्यूजिक कम्पनी में जाता और कैसेट के पीछे अपनी आवाज देकर अपना खर्च निकाल लेता था. रात में हमलोग 11 बजे रेडियो मिर्ची में बोला करते थे. हमने सोचा रात में कम लोग सुनते हैं तो एक कॉल नंबर बताया था. लेकिन इतने फोन आने शुरू हो गए कि मत पूछिए. तब बहुत बिहारी भाइयों का फोन आ जाता था. 'ए शशि भाई, हियाँ चले आये.' हम बोलते- 'हाँ हियाँ पर आ गएँ.'  कोई बोलता 'अरे शशि भाई, आप रेडियो मिर्ची पटना में नज़र आइयेगा. अरे हमलोग जब पटना आएंगे तो सुनेंगे भाई.' तब उनकी बातें सुनकर बहुत बढ़िया लगा.  उधर दिल्ली वाले आश्चर्य में कि बताओ, एक बार इसने कॉल किया और देखो धड़ाधड़ लोगों के कॉल पहुँच रहे हैं.' तब जितने भी टैक्सी-ऑटोवाले बिहारी थें वे सुनते थें और उन्हें लगता कि 'अरे मेरा भाई मिर्ची में जायेगा और बोलेगा.' फाइनली दिल्ली से हमलोग पटना आये और अप्रैल 2007 में रात के ठीक 12 बजकर 1 सेकेण्ड पर रेडियो मिर्ची को पटना में ओपन कर दिया गया.

आर.जे. शशि रेडियो मिर्ची में शो के दौरान गायक
दलेर मेहंदी और अभिनेता मनोज वाजपेयी के साथ 
उसके बाद 2007 से हमारी शुरुआत हुई इन मशीनों में घिरे हुए तब से लोगों को खुश करते हुए अपने अंदाज में ये सफर चल रहा है. फर्स्ट प्रोग्राम था 'टोटल फ़िल्मी' जिसमे फिल्मों के बारे में बताते थें. अभी दोपहर का शो करते हैं 2 से 5 'मीठी मिर्ची' और एक कॉमेडी शो है 'ले लोट्टा'. मेरा हमेशा से यही मानना रहा है कि इंसान को खुश रहना या खुश करना बहुत जरुरी होता है. अगर आप खुश नहीं हैं तो इसका मतलब कि आप कहीं ना कहीं अपने आपको मिस कर रहे हैं, मतलब आप अपनी जिंदगी घटा रहे हैं. कम से कम हमारी वजह से दो-चार साल भी लोगों की जिंदगियां बढ़ जाएँ तो बहुत बड़ी बात है. क्यूंकि जो हमारे लिस्टनर हैं वो हमारे दोस्त होते हैं. उन्हें भी लगता है कि हमारा एक दोस्त यहाँ से बात कर रहा है इसलिए उसे सुनो. एक रेडियो जॉकी के लिए सबसे बड़ी तैयारी ये करनी होती है कि रास्ते में आप चल रहे हैं तो हर चीज को बारीकी से ऑब्जर्ब करें ना कि सिर्फ अपने महंगे जूतों को ही देखते रह जाएँ. इसलिए हम कार से ज्यादा बाइक से चलना पसंद करते हैं ताकि आस-पास हर चीज को बारीकी से देख सकें, उसे महसूस कर सकें. तब हम सोचते हैं कि यह आदमी जो जा रहा है अगर इसकी जगह हम खुद होते तो क्या होता. तो जरा सा हर इंसान अपनी जगह पर किसी वस्तु या किसी व्यक्ति को रखकर देखे ना तो उसकी फिलिंग को पकड़ सकता है. हमें अपडेट रहने के लिए पढ़ना भी पड़ता है. पढ़ने का मतलब किताबें ही नहीं बल्कि कुछ भी न्यूज, जानकारी चाहे वो इंटरनेट, मोबाईल पर ही क्यों ना पढ़े. और पढ़ने से भी ज्यादा जरुरी है उस चीज को समझना. आप किसी टॉपिक में मिर्च मसाला डाल रहे हैं तो आपके पास खुद-ब- खुद शब्द चले आएं. मतलब खाना तैयार है और आपको उसे लोगों के सामने परोसना है. उसे परोसने में थोड़ा ह्यूमर, थोड़ा इमोशन भी होना चाहिए. यहाँ हम किसी की तकलीफ को मजाक के रूप में नहीं उड़ा सकते. जब लाइव कॉल करता हूँ तो बहुत से ऐसे लोगों से भी बातें होती है जो डिप्रेशन में रहते हैं. कोई पढ़ाई को लेकर डिप्रेश रहता है तो उसे हम अपना एक्जाम्पल देते हुए समझाते हैं कि आई वाज नॉट गुड स्टूडेंट. लेकिन हमने हर चीज तजुर्बे से सीखी है. हर जगह से हर चीज को एडॉप्ट किया है और मेरे ख्याल से आज डिग्री के बजाये यही करना ज्यादा जरुरी होता है.
जब मुझे कोई अवार्ड या एचीवमेंट मिलता है तो रात को सोते समय यही सोचता हूँ कि काश पापा होते तो देखते, माँ होती तो देखती. याद करते हैं जब पापा के समय शो करने जाते तो घर में अक्सर डाँट सुनते थें. आस-पास के लोग पापा को भड़का देते कि 'ये पढ़ाई-लिखाई नहीं करता है, ऑलकेस्ट्रा में जाता है.'  तो पापा नजर रखते थें कि मैं भागा तो नहीं. एक बार हम खिड़की के रास्ते कपड़ा निकाले और पापा की नज़र बचाकर नौ दो ग्यारह हो गएँ. जब ढूँढना शुरू हुआ तब पता चला कि मैं शो के लिए नेपाल भाग गया हूँ. पापा को फ़िक्र रहती थी कि हम पढ़ाई में खराब ना करें. लेकिन तब हम स्कूल में पढ़ने में भी स्ट्रगल करते थें कि किसी तरह पास कर जाएँ. पहले स्टेज शो शौक था लेकिन पापा के नहीं रहने के बाद वो शौक मेरी जरुरत बन गयी. तब माँ डांटती तो नहीं लेकिन बहुत चिंता करती थीं कि अकेले दूर जा रहा है, रात को आ रहा है इसलिए वो खिड़की के पास खड़े होकर मेरा इंतजार करती थी. जबतक हम रात में नहीं लौटते तबतक वो भी खाना नहीं खाती थी. और फिर जब मैं जॉब में आया, स्थिरता आ गयी, बाहर आना जाना बंद हो गया तब माँ को बहुत सुकून मिला यह सोचकर कि अब बेटा सेट हो गया है. तब हम अपने कमाए पैसों से माँ के लिए घर बनवा रहे थें, उसी समय उनका देहांत हो गया तो मन बहुत उदास हो गया. मुझे याद है जब मेरी माँ मार्केट में सब्जी लेने जाती तो मार्केट में उसे 2 -3 घंटे लग जाते थें. होता ये था कि लोग उसे घेर लेते और उसे रिस्पेक्ट देते हुए अपनी अपनी समस्या बताते कि अपने बेटे को बोलियेगा तो काम हो जायेगा. और फिर लौटकर माँ आती और उनकी पैरवी करती तो कभी कभी मैं लोगों के काम करवा देता था. तब हमारे गांव के मुखिया जी को आराम मिलता और मुझे ज्यादा मेहनत हो जाती थी. तो ऐसे में जब आपसे लोगों का एक्सप्टेशन बढ़ जाता है तब उनकी कसौटी पर खरा उतरना भी एक तरह का स्ट्रगल होता है.

खेल और लेखन दोनों में उस्ताद : अभिनन्दन गोपाल, बाल कवि-लेखक एवं बॉल बैडमिंटन प्लेयर

तारे ज़मीं पर
By : Rakesh Singh 'Sonu'


सिर्फ अच्छी चीजें खाने और खेलने की लालसा लेकर 'किलकारी' बाल भवन जानेवाले एक बच्चे के हुनर को जैसे ही तराशा गया वो धीरे धीरे अपनी चमक बिखेरने लगा. बात हो रही है पटना, कदमकुआं के संत जेवियर्स हाई स्कूल, क्लास 9 वीं में पढ़नेवाले अभिनन्दन गोपाल की जो चार भाई-बहन में इकलौते भाई हैं. बचपन से ही लिखने की रूचि रखनेवाले अभिनन्दन की शुरुआत कविता लेखन से हुई. जब वह संत जोसफ प्राइमरी स्कूल में क्लास 4 में था तो स्कूल की निबंध प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू किया. तब एक ही साल में हुईं 4-5 निबंध प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर अभिनंदन सभी में प्रथम आया. क्लास 5 में पढ़ते हुए एक दिन अभिनंदन अपनी दीदी को 'किलकारी' बाल भवन जाता देखकर साथ में गया और मन लगने पर वहां हमेशा जाने लगा. वहां उसने देखा कि खेलने की बहुत सुविधा है, जो खेलना चाहो खेलो वो भी मुफ्त में और कोई रोक-टोक नहीं. अभिनंदन की दीदी किलकारी में लेखन क्लास करती थी जिसमे उसकी भी उम्र के बहुत सारे बच्चे थे. एक दिन लेखन क्लास की मधु जी उसे लेखन क्लास में ले गयीं. लेकिन तब अभिनंदन को वहां बहुत देर बैठना बोरिंग लगता था. कई बार किलकारी में वर्कशॉप होता जहाँ खाने को बहुत कुछ मिलता था और अभिनंदन खाकर वहां से खेलने भाग जाता था. जब जब लेखन क्लास से बोर होता पानी पीने का बहाना करके क्लास से बाहर आ जाता था. उन्ही दिनों लेखन क्लास की मधु जी ने उसे संपादक मण्डली में आने को कहा. तभी से अभिनन्दन ने अच्छे से लिखना शुरू किया. उसके बाद लेखन में आउट ऑफ़ किलकारी, आउट ऑफ़ स्कूल पार्टिशिपेट करना शुरू किया. तब पर्यावरण एवं वन विभाग द्वारा वन्य प्राणी सप्ताह के अवसर पर 'चिड़ियाघर में हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए' टॉपिक पर हुए निबंध प्रतियोगिता में अभिनंदन को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के हाथों प्रथम पुरुस्कार मिला. जाहिर है ऐसे में उत्साह का ग्राफ बढ़ना ही था. 2013 में हिंदी दिवस पर हिंदी पखवाड़ा में कॉलेज स्टूडेंट के लिए प्रतियोगिता हो रही थी. अख़बार में पढ़कर अभिनंदन छोटी बहन प्रियंतरा के साथ चला गया. वहां जाने पर पता चला कि यह प्रतियोगिता कॉलेज के युवाओं के लिए है. लेकिन वहां मौजूद जज को उन्हें यूँ खाली लौटाना अच्छा नहीं लगा इसलिए उन्होंने इन्हें भी शामिल कर लिया. युवाओं का टॉपिक था 'आज के संदर्भ में हिंदी की प्रासंगिता'. लेकिन इन दोनों भाई बहन को अलग से टॉपिक मिला 'माँ बाप' पर लिखने के लिए. उन्हें यह टॉपिक बहुत आसान लगा. फिर रिजल्ट निकला तो अभिनन्दन को फर्स्ट और बहन को सेकेण्ड प्राइज मिला. फिर यूँ ही बहुत सी प्रतियोगिताओं में भाग लेता रहा.

लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त करते हुए अभिनंदन 
फिर 2014 में साहित्य सम्मलेन में ही हिंदी दिवस के अवसर पर काव्य पाठ में प्रथम पुरस्कार मिला. 11 सितंबर, 2015 में कवि गोपाल सिंह नेपाली की पौत्री की मौजूदगी में नेपाली जी की कविता 'भाई-बहन' को प्रस्तुत किया था. 14 सितंबर 2015 में बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन में हुए काव्य पाठ प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार हासिल किया. 18 मई 2016, पटना म्यूजियम में कला संस्कृति युवा विभाग के सौजन्य से आयोजित निबंध प्रतियोगिता जिसमे 150 से अधिक बच्चे आये थें में सेकेण्ड प्राइज मिला.  उसके बाद बहुत सारे कम्पटीशन में जाना हुआ जहाँ थर्ड-फोर्थ प्राइज मिला जो अभिनन्दन को अच्छा नहीं लगा. उसने सोचा थर्ड-फोर्थ स्थान आ रहा है इसलिए अब कहीं भी भाग लेने नहीं जाऊंगा. लेकिन फिर बहन के कहने पर 2017 में पटना म्यूजियम के शताब्दी वर्ष पर टॉपिक 'मेरी नजर में पटना म्यूजियम' पर दिए स्पीच कम्पटीशन में तत्कालीन कला संस्कृति मंत्री के हाथों सेकेण्ड प्राइज मिला. वहीँ पर एक क्लब त्रिनेत्र आर्ट स्टूडियो जहाँ पोयट्री कम्पटीशन चल रहा था तो अभिनन्दन ने सोचा स्पीच देने से पहले यहाँ भी थोड़ा हाथ आजमाते हैं और वहां जाकर 5 -10  मिनट में एक कविता लिखकर चला आया. जब रिजल्ट की घोषणा हुई तो अभिनन्दन को फर्स्ट प्राइज के लिए बुलाया गया. उसके बाद 10 अप्रेल 2017, महिला चरखा समिति में जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी के ऊपर हुए स्पीच कम्पटीशन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की पौत्री डॉ. तारा सिन्हा के हाथों सेकेण्ड प्राइज मिला.

वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री डॉ. उषा किरण खान जी के साथ अभिनन्दन 
इसके आलावा भी वह पुस्तक मेला और अन्य कवि गोष्ठियों में भी भाग लेता रहा. किलकारी की टीम के साथ जाकर जगह जगह नुक्कड़ बाल कवि समेलन भी किया जिससे खुद को प्रेजेंट करने व बोलने का तरीका डेवलप हुआ और हिचकिचाहट खत्म हुई. 2015 में हैदराबाद में आयोजित 19 वीं इंटरनेशनल चिल्ड्रन फिल्म फेस्टिवल इण्डिया में बिहार से पांच बच्चों का चयन बाल प्रतिनिधि के रूप में हुआ था जिसमे अभिनन्दन भी शामिल था. 10 दिनों के उस फेस्टिवल में दूसरे देश के फिल्मकारों की 2  मिनट से लेकर 2 घंटे की फ़िल्में दिखायीं गयीं. जब और बच्चों के साथ अभिनंदन भी फिल्म देखकर निकलता तो वहां की सारी मीडिया आकर उससे फिल्मों के बारे में पूछती जो एक अलग ही अनुभव था. वहां फेस्टिवल के चेयरमैन अभिनेता मुकेश खन्ना और अभिनेत्री करीना कपूर, करिश्मा कपूर से भी मिलने का अवसर मिला.
अब बात करते हैं अभिनन्दन के खेल के प्रति लगाव की. पहले वह किलकारी में बैडमिंटन खेलता था. वहां बैडमिंटन के एक ही कोर्ट रहने और बच्चों की अधिक संख्या होने की वजह से दो दो घंटे तक अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था. वहीँ किलकारी के बाहर एक बालू का ग्राउंड है जिसमे एक साथ 10 प्लेयर बॉल बैडमिंटन खेल रहे थें. उस खेल में कम बच्चे थें तो फिर यही खेलना अभिनन्दन को उचित लगा और बॉल बैडमिंटन जो साऊथ का लोकप्रिय खेल है 2015 से खेलना शुरू कर दिया. इसमें स्टेट लेवल पर बहुत सारे ट्रूनामेंट खेलें. बिहार के सिवान जिले में अभिनन्दन की टीम 20 वीं बिहार स्टेट सब जूनियर बॉल बैडमिंटन चैम्पियनशिप अक्टूबर 2013 में विनर बनी. उसके बाद तो जीत का सिलसिला शुरू हो गया फिर अभिनन्दन कई स्कूली और स्टेट लेवल प्रतियोगिता में भाग लेता रहा. 2016  में उसकी टीम सेकेण्ड आयी. अभी अभिनन्दन खेल और लेखन दोनों पर ध्यान दे रहा है. कविता में बाल श्री के लिए डिस्ट्रिक्ट लेवल पर अभिनन्दन का सेलेक्शन हो चुका है. और स्टेट लेवल पर हुई परीक्षा दे चुका है बस रिज्लट का इंतजार है. अगर उसमे भी सेलेक्शन हो गया तो नेशनल के लिए बाल श्री में जाने का मौका मिलेगा. बचपन में जब एक बार अभिनन्दन को लिखने का सुर चढ़ा  तो एक ही साल में 300 कवितायेँ लिख डाली थीं. उसी को आधार बनाकर प्रभात खबर ने 2012 में उसपर एक खबर छापी थी 'ये हैं पटना के नन्हे शब्दशिल्पी'. उसके बाद दैनिक हिंदुस्तान में लघुकथा व कविता प्रकाशित हुई. दैनिक भास्कर के अहा जिंदगी मैगजीन में कविता एवं लेख, नंदन पत्रिका में कहानी, बालभास्कर में भी कई रचनाएँ छपीं. अभिनन्दन उस यादगार पल को कभी नहीं भूलता जब उसने बॉलीवुड के मशहूर गीतकार राज शेखर और गुलजार जी के सामने अपनी कवितायेँ सुनाई थीं. 

Tuesday, 5 September 2017

वृद्धजनों का खालीपन दूर करने व उनके कल्याणार्थ हेल्थ लाईन ने की 'पुरोधालय' की स्थापना

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi

बाएं से 'पुरोधालय' के सचिव श्री अवधेश कुमार, बागबान क्लब के अध्यक्ष पूर्व
आई.ए.एस. श्री श्याम जी सहाय एवं 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू'
पटना, 5 सितम्बर, समाज के वरिष्ठ नागरिकों एवं वृद्धजनों के खालीपन को दूर करने तथा उनके अकेलेपन भरे जीवन में आनंद के कुछ पल समाहित करने के लिए सामाजिक सरोकार के अंतर्गत शिक्षक दिवस के अवसर पर बोरिंग रोड, नागेश्वर कॉलोनी में स्वयं सेवी संस्था हेल्थ लाइन द्वारा 'पुरोधालय' की स्थापना की गयी. जिसका विधिवत उद्घाटन बागबान क्लब, दैनिक जागरण के अध्यक्ष (भू.पू.भा.प्र.से.) श्री श्याम जी सहाय के करकमलों द्वारा किया गया. पुरोधालय के सचिव श्री अवधेश कुमार ने बताया कि 'यहाँ एक साथ 20 -30 व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था, आंतरिक खेल- कैरम, शतरंज, कार्ड की व्यवस्था, समाचार पत्र/पत्रिकाओं की सुविधा, ब्लड प्रेशर एवं शुगर जाँच की व्यवस्था, कंप्यूटर एवं इंटरनेट की सुविधा, सामान्य योगाभ्यास की व्यवस्था, अध्यात्म पर चर्चा एवं गोष्ठी का आयोजन, सामान्य दवाओं की उपलब्धता और हेल्थ लाईन की मदद से उनकी समस्याओं के निराकरण आदि की सुविधाएँ मुहैया कराई जाएँगी.' वहीँ पुरोधालय के सी.ई.ओ. संजय कुमार सिन्हा ने बताया कि पुरोधालय का समय प्रातः 9 :30 बजे से संध्या 5 : 30 बजे तक है जो बिलकुल नि:शुल्क है जिसका संचालन संस्था अपने कोष से करेगी.'  सचिव अवधेश कुमार से जब 'बोलो ज़िंदगी' ने पूछा कि आखिर इसके शुरुआत का ख्याल कहाँ से और कैसे आया?' तो उन्होंने बताया कि हेल्थ लाईन के लिए वे लगातार हेल्थ कैम्प लगाने, सेमिनार करने आदि सामाजिक कार्यों में लगे हुए रहते ही हैं उसी दरम्यान कुछ वैसे मिडिल क्लास एवं संभ्रांत परिवार के बुजुर्गों से मिला जिनके बच्चे जानबूझकर या आउट ऑफ़ स्टेशन जॉब करने की वजह से उन्हें अकेला छोड़ गए हैं और यह बुजुर्ग अपने अकेलेपन से लगातार जूझ रहे हैं. तो मैंने सोचा क्यों ना इनके लिए कुछ करूँ और यही कुछ करूँ की जद्दोजहद में कुछ साल गुजरने के बाद अंततः आज 'पुरोधालय' की नीव पड़ी. इसके पीछे कई दिक्क़ते आयीं, कई बड़े बड़े प्रतिष्ठित लोगों के पास एक उम्मीद के साथ गया लेकिन जब कहीं से सहयोग नहीं मिला तो हमने खुद से ही इसे शुरू करने की ठानी. इस सार्थक दिशा में कदम तो बढ़ गए हैं, जैसे जैसे अन्य समाजसेवी लोग, हमारे अभिभावक बुजुर्ग जुड़ते जायेंगे हमारा कारवां यूँ ही मंजिल की तरफ बढ़ता जायेगा.'

इस अवसर पर मुख्य अतिथि बागबान क्लब के अध्यक्ष श्री श्याम जी सहाय जी ने 'पुरोधालय' की सराहना करते हुए कहा कि 'बुजुर्गों को ध्यान में रखकर हेल्थ लाइन द्वारा नि:शुल्क शुरू की गयी यह सेवा एक सार्थक प्रयास है.' मौके पर कई बुद्धिजीवी जनों जिनमे पूर्व उद्घोषक एवं रंगकर्मी श्री अशोक प्रियदर्शी, प्रो. श्रीमती माया शंकर, मोटिवेशनल गुरु श्री अमरेंद्र सिंह, रामसेवक सिंह, आर.के.मिश्रा, जोगेंद्र राम, मुख्तारुल हक़, ओम प्रकाश, नागेंद्र कुमार, लाफ्टर गुरु विश्वनाथ वर्मा और 'बोलो जिंदगी' के संपादक राकेश सिंह 'सोनू' इत्यादि ने भी अपने वक्तव्य रखकर 'पुरोधालय' के उज्जवल भविष्य की कामना की. 

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अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में पटना में बाईक रैली Ride For Women's Safety का आयोजन किया गया

"जिस तरह से मनचले बाइक पर घूमते हुए राह चलती महिलाओं के गले से चैन छीनते हैं, उनकी बॉडी टच करते हैं तो ऐसे में यदि आज ये महिला...