जब हम जवां थें
By : Rakesh Singh 'Sonu'
मेरा जन्म देवघर में हुआ. मेरा गांव है चिंताप जो बिहार के गया जिले में पड़ता है. मेरे पिता जी स्व. जगदानंद 1951 बैच के आई.पी.एस. थें. 1985 में वो भी बिहार के 28 वें डीजीपी बने थें. ये इक्तेफाक है कि 2011 में मैं भी बिहार का 48 वां डीजीपी बना. उसी पद पर और उसी कुर्सी पर. मुझे बताया जाता था कि छपरा के एक ब्रज किशोर हाई स्कूल में के.जी. तक मैं पढ़ा जब मेरे पिता जी छपरा के एस.पी. थें. फिर 2 क्लास में मेरा एडमिशन पटना के संत जेवियर्स स्कूल में हो गया. उस ज़माने में स्कूल में 11 वीं तक की पढ़ाई होती थी और उसके बाद कॉलेज हो जाता था. 11 वीं करने के बाद एक साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ा. मगर किसी व्यक्तिगत कारण से वापस पटना चला आया और पटना यूनिवर्सिटी के साइंस कॉलेज से फिजिक्स ऑनर्स में ग्रेजुएशन किया. 1972 -1974 का शेषन था लेकिन जे.पी. आंदोलन की वजह से इक्ज़ामिनेशन एक साल डिले हुआ. फिर रिजल्ट 1976 में निकला. तब मैं बेस्ट ग्रेजुएट और फिजिक्स में गोल्ड मेडलिस्ट भी रहा. कॉलेज में फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट था और फिजिक्स- मैथेमैटिक्स में मेरा इंट्रेस्ट बहुत ज्यादा था. मुझे तब कुछ ऐसी चीजें दिखती थीं जो साधारणतः किताब में नहीं लिखी रहतीं. जब मेरा बी.एस.सी.ऑनर्स का एक्जाम हुआ था तो हमारे एक लैब असिस्टेंट थें उन्होंने मुझसे रिजल्ट आने के पहले एक बात कही थी. उन्होंने कहा कि 'आपके बारे में एक एक्जामिनर हमसे पूछ रहे थें कि वो किस लेवल का विद्यार्थी है.' मैंने पूछा- 'तो आपने क्या बताया?' वे बोले- 'यही कि जो प्रयोग दिया गया है वो आप कर लेंगे उसके बाद फिर उसे दूसरे तरीके से सोचते हैं कि इसको और कैसे किया जा सकता है.' फिर उन्होंने मुझे बताया कि प्रोफ़ेसर साहब कह रहे थे कि 'एक खास सवाल हमने सेट किया था ये मानते हुए कि इसका जवाब कोई नहीं दे सकेगा और आपने उसका एकदम सही हल कर दिया. उनको उम्मीद नहीं थी और शायद अकेला ही मेरा पेपर था जिसमे उनको वो सही हल मिला था. वो बहुत प्रसन्न थें कि ऐसा भी स्टूडेंट है.'
तब बी.एस.सी. के रिजल्ट के आधार पर मुझे स्कॉलरशिप मिला था और मैंने एम.एस.सी. में एडमिशन भी ले लिया था. लेकिन पटना यूनिवर्सिटी का लेवल दिल्ली यूनिवर्सिटी की तुलना में बहुत नीचे था. मैं जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में था तब तक कभी सोचा भी नहीं था कि सरकार की कोई नौकरी करूँगा. क्यूंकि इंट्रेस्ट फिजिक्स में था. मुझे ऐसा लगा कि अगर दिल्ली यूनिवर्सिटी में रहता तो निश्चित स्कॉलरशिप के साथ विदेश जाने को मिलता. और जब पटना यूनिवर्सिटी में पढ़ा तो मुझे लगा शायद मैं फिजिक्स में पीछे चला गया. मैं बात कर रहा हूँ 1970 -1971 की. इसलिए मुझे सेकेण्ड च्वाइस यू.पी.एस.सी. लगा और मेरा पहला प्रयास ही सफल रहा. पुलिस सर्विस में आ तो गया लेकिन फिजिक्स कहीं ना कहीं रह गया था मेरे जेहन में. मैथेमैटिक्स बुरी तरह फंसा हुआ था मेरे दिलो-दिमाग में. तो वो बार-बार उफान ले लेता था. अपने बच्चों को मैंने पढ़ाया और मेरे दोनों बच्चे आई.आई.टी. में आ गए. इसी क्रम में फिजिक्स और मैथेमैटिक्स हमेशा पुनर्जीवित होता रहा. पढ़ाने की कला मैंने खुद के बच्चों को पढ़ाते हुए सीखी. फिर मैंने समय का सदुपयोग करते हुए गरीब बच्चों की शिक्षा पर ध्यान दिया. उसी कड़ी में एक कॉन्सेप्ट अभ्यानंद सुपर 30 का जन्म हुआ.
1989 में जब मैं नालंदा का एस.पी. था और जीप में बैठकर कहीं बहार जा रहा था. जैसे ही हम नालंदा से बाहर करीब 10 किलोमीटर निकले होंगे मुझे वायरलेस पर सूचना मिली कि एक जगह लगभग दंगा जैसी स्थिति हो गयी है. शहर के अंदर आग लगा दी गयी थी. मैं तुरंत लौटकर आया. वहां दोनों समुदाय के बीच टेंशन का माहौल था. मैं वहां सादे लिबास में पहुंचा. पुलिस फ़ोर्स थोड़ी दूरी पर थी. मैं एकदम उनके बीच गया और एक जगह कुछ मिट्टी का ढ़ेर था उसपर खड़ा हो गया क्यूंकि मेरी हाइट कम है इसलिए लोग देख नहीं पा रहे थें. और फिर दोनों साइड के लोगों को वहीँ से समझाना शुरू किया. मेरे साथ सिर्फ एक बॉडीगार्ड था और लगभग मैं अकेला था. मैंने करीब 15 मिनट उन्हें सम्बोधित किया. फिर दोनों पक्ष के लोगों ने मेरी बात मानी और कहा- 'सर जैसा कहियेगा वैसा हमलोग करेंगे. लेकिन ये घटना नहीं होनी चाहिए थी.' मैंने कहा- 'जो हुआ है उसकी समीक्षा भी हम करेंगे लेकिन पहले आपस का तनाव तो बंद कर दो.' आधे घंटे के अंदर मामला सेटल हो गया. उनलोगों ने कहा कि आपकी बात हमने इसलिए सुन ली क्यूंकि जब हमलोग आते थें आपके घर या ऑफिस में तो चाहे रात हो या दिन आप एकदम सहजता से हमलोगों से बात कर लेते थें. आपने कभी भी एस.पी. की तरह व्यवहार नहीं किया इसलिए हमलोगों ने आपकी बात मान ली अन्यथा वो बात उस माहौल में माननेवाली थी नहीं.' तब मैंने महसूस किया कि एक डिस्ट्रिक्ट एस.पी. की विश्वसनीयता समाज के हर अंग में जितनी अधिक होती है उतनी ही जल्दी लॉ एन्ड ऑर्डर कंट्रोल हो सकता है. क्राइम अपनी जगह पर है, वो अलग विधा है. मगर लॉ एन्ड ऑर्डर के लिए एस.पी. की विश्ववसनीयता सबसे अधिक मायने रखती है. ये जो तरीका है गोली चलाओ, लाठी चलाओ ये अंतिम साधन है.
ऐसे ही एक घटना मेरे एडीजी रहने के दौरान भागलपुर के कहलगाँव में हुई थी. वहां भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या हो गयी थी और मुझे हेलीकॉप्टर से भेज दिया गया कहकर कि जाइये और वहां सम्भालिये. मैं वहां पहुंचा तो देखा पब्लिक ने ही 144 लगा दिया था. 6 -7 पुलिस की गाड़ियां जला दी जा चुकी थीं. सी.आई.एस.एफ. के कई जवान बंधक बना लिए गए थें. स्थिति इतनी भयावह थी कि मीडिया के लोग भी उस अनियंत्रित भीड़ के पास नहीं जा पा रहे थें. डर इतना था कि मीडिया के लोग थाने में ही एकत्रित हो गए थें. माहौल पूरा पुलिस के अगेंस्ट था. उनकी डिमांड थी कि एस.पी. को फांसी दो, डी.एम. को मौत के घाट उतार दो. हालत इतनी खराब थी कि बाजार में पुलिस के पैसे देने पर भी लोगों ने खाना देना मुनासिब नहीं समझा. अगर हम पुलिसवाले चाहते कि कहीं होटल में बैठकर खा लें तो वो संभव नहीं था. मैंने तय किया कि मैं अकेला निकलूंगा. मैं अकेला सादे लिबास में सड़क पर हाथ जोड़े निकल गया. सड़क किनारे एक मकान की खिड़की से एक आदमी झांक रहा था. मैंने उसके पास जाकर अपना नाम बताया और कहा कि 'पटना से आया हूँ आपलोगों से बात करने के लिए.' वो बाहर निकला और कहा- 'चलिए आपके साथ चलते हैं, फिर एक-दो और लोग निकल गए और इस तरह से छोटा सा एक कारवां बन गया. करीब 3 -4 किलोमीटर चलने के बाद जब मैं शहर के बीच में पहुंचा उस समय तक अँधेरा होने लगा था. वहां पर एक व्यक्ति मिला तो उसने कहा- ' आप शहर में कहाँ जाइएगा, आप आ जाइये मैदान में पब्लिक यहीं आ जाएगी. कहलगाँव में एक गांगुली मैदान है रेलवे स्टेशन के पास, उसी मैदान में मैं खड़ा हुआ और करीब 10 हजार की भीड़ जमा हुई. एक माइक और लाऊड स्पीकर कहीं से लाया गया. और पब्लिक ने भाषण देना शुरू किया. पुलिस को चुन-चुनकर गलियां पड़ रही थीं. मैं शांत था. तब किसी ने कहा कि ये आये हैं पटना से तो इनको भी बोलने दिया जाये.'तो मैंने शुरू किया कि 'चार दिनों से फायरिंग हो रही है यहाँ, बहुत से लोग शहीद हो गए हैं. पहले हम चाहेंगे उन दिवंगत आत्माओं के लिए 2 मिनट का मौन रखा जाये. उसके बाद हमलोग बात करेंगे.' फिर मेरे सुझाव को मानकर लोगों ने मौन रखा. उसके बाद मैंने उनसे बात करनी शुरू की और ये बातचीत बहुत लम्बी चली. मुझे याद है 6 बजे शाम से करीब रात 10 बज गया तब जाकर मामला तय हुआ. उन लोगों का कहना था कि आपलोग तो इन्वेस्टीगेट कीजियेगा नहीं. मैंने कहा- 'एकदम थाना खुला हुआ है, जिसके खिलाफ आपको एफ.आई.आर. करनी है आइये और कीजिये. मैं कराऊंगा इन्वेस्टिगेशन. उन लोगों ने बात मानी और फिर रात 10 बजे पूरे चार दिन का माहौल शांत हुआ. उधर से जब मैं पैदल ही लौट रहा था तो मेरे साथ करीब 40 -50 जवान लड़के हो गएँ और उन्होंने अपनी लोकल भाषा में कहा कि 'चलिए आपको थाना तक पहुंचाते हैं.' और वे रास्ते में हमसे बात करते जा रहे थें. तब उनमे से एक ने कहा कि 'सर आप गलत समय पर आ गए हैं. अगर अच्छे समय पर आये रहते तो हमलोग पढ़ने-पढ़ाने की बात करतें. तब मुझे एहसास हुआ कि ये सुपर 30 का जो चैप्टर है ये मेरे पुलिस की छवि से ऊपर है. और इसलिए वे लोग मेरी बात सुन रहे थें. मेरा मानना है कि ये जो सरकारी तंत्र का इमेज होता है उतना काम नहीं करता है जितना आपका जो व्यक्तिगत इमेज है वो काम करता है.
By : Rakesh Singh 'Sonu'
मेरा जन्म देवघर में हुआ. मेरा गांव है चिंताप जो बिहार के गया जिले में पड़ता है. मेरे पिता जी स्व. जगदानंद 1951 बैच के आई.पी.एस. थें. 1985 में वो भी बिहार के 28 वें डीजीपी बने थें. ये इक्तेफाक है कि 2011 में मैं भी बिहार का 48 वां डीजीपी बना. उसी पद पर और उसी कुर्सी पर. मुझे बताया जाता था कि छपरा के एक ब्रज किशोर हाई स्कूल में के.जी. तक मैं पढ़ा जब मेरे पिता जी छपरा के एस.पी. थें. फिर 2 क्लास में मेरा एडमिशन पटना के संत जेवियर्स स्कूल में हो गया. उस ज़माने में स्कूल में 11 वीं तक की पढ़ाई होती थी और उसके बाद कॉलेज हो जाता था. 11 वीं करने के बाद एक साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ा. मगर किसी व्यक्तिगत कारण से वापस पटना चला आया और पटना यूनिवर्सिटी के साइंस कॉलेज से फिजिक्स ऑनर्स में ग्रेजुएशन किया. 1972 -1974 का शेषन था लेकिन जे.पी. आंदोलन की वजह से इक्ज़ामिनेशन एक साल डिले हुआ. फिर रिजल्ट 1976 में निकला. तब मैं बेस्ट ग्रेजुएट और फिजिक्स में गोल्ड मेडलिस्ट भी रहा. कॉलेज में फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट था और फिजिक्स- मैथेमैटिक्स में मेरा इंट्रेस्ट बहुत ज्यादा था. मुझे तब कुछ ऐसी चीजें दिखती थीं जो साधारणतः किताब में नहीं लिखी रहतीं. जब मेरा बी.एस.सी.ऑनर्स का एक्जाम हुआ था तो हमारे एक लैब असिस्टेंट थें उन्होंने मुझसे रिजल्ट आने के पहले एक बात कही थी. उन्होंने कहा कि 'आपके बारे में एक एक्जामिनर हमसे पूछ रहे थें कि वो किस लेवल का विद्यार्थी है.' मैंने पूछा- 'तो आपने क्या बताया?' वे बोले- 'यही कि जो प्रयोग दिया गया है वो आप कर लेंगे उसके बाद फिर उसे दूसरे तरीके से सोचते हैं कि इसको और कैसे किया जा सकता है.' फिर उन्होंने मुझे बताया कि प्रोफ़ेसर साहब कह रहे थे कि 'एक खास सवाल हमने सेट किया था ये मानते हुए कि इसका जवाब कोई नहीं दे सकेगा और आपने उसका एकदम सही हल कर दिया. उनको उम्मीद नहीं थी और शायद अकेला ही मेरा पेपर था जिसमे उनको वो सही हल मिला था. वो बहुत प्रसन्न थें कि ऐसा भी स्टूडेंट है.'
जब अभयानंद हाई स्कूल के स्टूडेंट थें |
1989 में जब मैं नालंदा का एस.पी. था और जीप में बैठकर कहीं बहार जा रहा था. जैसे ही हम नालंदा से बाहर करीब 10 किलोमीटर निकले होंगे मुझे वायरलेस पर सूचना मिली कि एक जगह लगभग दंगा जैसी स्थिति हो गयी है. शहर के अंदर आग लगा दी गयी थी. मैं तुरंत लौटकर आया. वहां दोनों समुदाय के बीच टेंशन का माहौल था. मैं वहां सादे लिबास में पहुंचा. पुलिस फ़ोर्स थोड़ी दूरी पर थी. मैं एकदम उनके बीच गया और एक जगह कुछ मिट्टी का ढ़ेर था उसपर खड़ा हो गया क्यूंकि मेरी हाइट कम है इसलिए लोग देख नहीं पा रहे थें. और फिर दोनों साइड के लोगों को वहीँ से समझाना शुरू किया. मेरे साथ सिर्फ एक बॉडीगार्ड था और लगभग मैं अकेला था. मैंने करीब 15 मिनट उन्हें सम्बोधित किया. फिर दोनों पक्ष के लोगों ने मेरी बात मानी और कहा- 'सर जैसा कहियेगा वैसा हमलोग करेंगे. लेकिन ये घटना नहीं होनी चाहिए थी.' मैंने कहा- 'जो हुआ है उसकी समीक्षा भी हम करेंगे लेकिन पहले आपस का तनाव तो बंद कर दो.' आधे घंटे के अंदर मामला सेटल हो गया. उनलोगों ने कहा कि आपकी बात हमने इसलिए सुन ली क्यूंकि जब हमलोग आते थें आपके घर या ऑफिस में तो चाहे रात हो या दिन आप एकदम सहजता से हमलोगों से बात कर लेते थें. आपने कभी भी एस.पी. की तरह व्यवहार नहीं किया इसलिए हमलोगों ने आपकी बात मान ली अन्यथा वो बात उस माहौल में माननेवाली थी नहीं.' तब मैंने महसूस किया कि एक डिस्ट्रिक्ट एस.पी. की विश्वसनीयता समाज के हर अंग में जितनी अधिक होती है उतनी ही जल्दी लॉ एन्ड ऑर्डर कंट्रोल हो सकता है. क्राइम अपनी जगह पर है, वो अलग विधा है. मगर लॉ एन्ड ऑर्डर के लिए एस.पी. की विश्ववसनीयता सबसे अधिक मायने रखती है. ये जो तरीका है गोली चलाओ, लाठी चलाओ ये अंतिम साधन है.
ऐसे ही एक घटना मेरे एडीजी रहने के दौरान भागलपुर के कहलगाँव में हुई थी. वहां भी हिन्दू-मुस्लिम समस्या हो गयी थी और मुझे हेलीकॉप्टर से भेज दिया गया कहकर कि जाइये और वहां सम्भालिये. मैं वहां पहुंचा तो देखा पब्लिक ने ही 144 लगा दिया था. 6 -7 पुलिस की गाड़ियां जला दी जा चुकी थीं. सी.आई.एस.एफ. के कई जवान बंधक बना लिए गए थें. स्थिति इतनी भयावह थी कि मीडिया के लोग भी उस अनियंत्रित भीड़ के पास नहीं जा पा रहे थें. डर इतना था कि मीडिया के लोग थाने में ही एकत्रित हो गए थें. माहौल पूरा पुलिस के अगेंस्ट था. उनकी डिमांड थी कि एस.पी. को फांसी दो, डी.एम. को मौत के घाट उतार दो. हालत इतनी खराब थी कि बाजार में पुलिस के पैसे देने पर भी लोगों ने खाना देना मुनासिब नहीं समझा. अगर हम पुलिसवाले चाहते कि कहीं होटल में बैठकर खा लें तो वो संभव नहीं था. मैंने तय किया कि मैं अकेला निकलूंगा. मैं अकेला सादे लिबास में सड़क पर हाथ जोड़े निकल गया. सड़क किनारे एक मकान की खिड़की से एक आदमी झांक रहा था. मैंने उसके पास जाकर अपना नाम बताया और कहा कि 'पटना से आया हूँ आपलोगों से बात करने के लिए.' वो बाहर निकला और कहा- 'चलिए आपके साथ चलते हैं, फिर एक-दो और लोग निकल गए और इस तरह से छोटा सा एक कारवां बन गया. करीब 3 -4 किलोमीटर चलने के बाद जब मैं शहर के बीच में पहुंचा उस समय तक अँधेरा होने लगा था. वहां पर एक व्यक्ति मिला तो उसने कहा- ' आप शहर में कहाँ जाइएगा, आप आ जाइये मैदान में पब्लिक यहीं आ जाएगी. कहलगाँव में एक गांगुली मैदान है रेलवे स्टेशन के पास, उसी मैदान में मैं खड़ा हुआ और करीब 10 हजार की भीड़ जमा हुई. एक माइक और लाऊड स्पीकर कहीं से लाया गया. और पब्लिक ने भाषण देना शुरू किया. पुलिस को चुन-चुनकर गलियां पड़ रही थीं. मैं शांत था. तब किसी ने कहा कि ये आये हैं पटना से तो इनको भी बोलने दिया जाये.'तो मैंने शुरू किया कि 'चार दिनों से फायरिंग हो रही है यहाँ, बहुत से लोग शहीद हो गए हैं. पहले हम चाहेंगे उन दिवंगत आत्माओं के लिए 2 मिनट का मौन रखा जाये. उसके बाद हमलोग बात करेंगे.' फिर मेरे सुझाव को मानकर लोगों ने मौन रखा. उसके बाद मैंने उनसे बात करनी शुरू की और ये बातचीत बहुत लम्बी चली. मुझे याद है 6 बजे शाम से करीब रात 10 बज गया तब जाकर मामला तय हुआ. उन लोगों का कहना था कि आपलोग तो इन्वेस्टीगेट कीजियेगा नहीं. मैंने कहा- 'एकदम थाना खुला हुआ है, जिसके खिलाफ आपको एफ.आई.आर. करनी है आइये और कीजिये. मैं कराऊंगा इन्वेस्टिगेशन. उन लोगों ने बात मानी और फिर रात 10 बजे पूरे चार दिन का माहौल शांत हुआ. उधर से जब मैं पैदल ही लौट रहा था तो मेरे साथ करीब 40 -50 जवान लड़के हो गएँ और उन्होंने अपनी लोकल भाषा में कहा कि 'चलिए आपको थाना तक पहुंचाते हैं.' और वे रास्ते में हमसे बात करते जा रहे थें. तब उनमे से एक ने कहा कि 'सर आप गलत समय पर आ गए हैं. अगर अच्छे समय पर आये रहते तो हमलोग पढ़ने-पढ़ाने की बात करतें. तब मुझे एहसास हुआ कि ये सुपर 30 का जो चैप्टर है ये मेरे पुलिस की छवि से ऊपर है. और इसलिए वे लोग मेरी बात सुन रहे थें. मेरा मानना है कि ये जो सरकारी तंत्र का इमेज होता है उतना काम नहीं करता है जितना आपका जो व्यक्तिगत इमेज है वो काम करता है.
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