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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday 28 July 2017

पीड़ित-शोषित दिव्यांग महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं वैष्णवी


सशक्त नारी
By: Rakesh Singh 'Sonu'

बिहार के विक्रम प्रखंड के एक छोटे से गांव दतियाना की कुमारी वैष्णवी जो फ़िलहाल पटना के ट्रांसपोर्ट नगर इलाके में रहती हैं, खुद दिव्यांग होते हुए अन्य दूसरे दिव्यांगों के अधिकारों के लिए लड़ती हैं. आज पीड़ित-शोषित दिव्यांग महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं. बचपन से ही डांस का शौक रखनेवाली वैष्णवी गांव के ही प्रोग्रेसिव चिल्ड्रन एकेडमी में जब चौथी क्लास में थी तब स्कूल में हो रहे एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में डांस करते वक़्त अचानक से कांपने लगीं और फिर उन्हें बुखार चढ़ आया. जाँच कराने पर पता चला कि दोनों पैरों में ट्यूमर है. बाद में ऑपरेशन भी हुआ मगर कोई फायदा नहीं हुआ. ट्यूमर का असर पूरे शरीर में फैला और 1996  में न्यूरो फाइब्रो मेटॉसिस बीमारी की वजह से वे एक पैर से अपंग हो गयीं. उनका लम्बा समय इलाज में बीता. घरवाले उन्हें दिल्ली एम्स में ले गए जहाँ डॉक्टरों ने देखते ही हाथ खड़े कर लिए. फिर उन्हें मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में ले जाया गया जहाँ एक साल तक वहीँ रहकर कीमियो थैरेपी हुई . डॉक्टरों ने कह दिया- 'बहुत ज्यादा दिन जीने की उम्मीद नहीं है.' फिर बैशाखी के सहारे चलनेवाली वैष्णवी ने आगे की पढ़ाई घर पर रहकर पूरी की. किसी तरह 2004 में मैट्रिक की परीक्षा पास किया और अपने आगे की पढाई जारी रखी. 2007 में गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर उन्हें पटना के महावीर कैंसर संसथान में ले जाया गया जहाँ डॉक्टरों ने कह दिया - 'ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते की मेहमान हैं'. लेकिन वैष्णवी ने आत्मविश्वास नहीं खोया. उन्हें माँ दुर्गा में गहरी आस्था थी इसलिए तबसे ही वो घर में नियमित रूप से पूजा पाठ करने लगीं जिसकी वजह से उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से जीने की शक्ति मिलने लगी. फिर मन की ताक़त से वो अपनी जानलेवा बीमारी को छकाती रहीं. डॉक्टरों के अनुसार उनकी वह बीमारी स्थिर तो हो गयी थी लेकिन खतरा पूरी तरह से टला नहीं था. उनका बाबा रामदेव से मिलना 2009 में हुआ. फिर उनके बताए योगासन और आयुर्वैदिक दवाइयों से बहुत सुधार होने लगा. अब वैष्णवी को मौत से बिल्कुल डर नहीं लगता. इसलिए वो कहती हैं कि 'मैं जितने दिन ज़िंदा रही ज़िन्दगी को पूरी तरह से इंज्वाय करुँगी और समाज की पीड़ितों के दुःख-दर्द के लिए लगातार लड़ती रहूंगी.'

2010 में उन्होंने मगध यूनिवर्सिटी से इंटर किया फिर उसके बाद ग्रेजुएशन भी पूरा किया. फिर व्यावसायिक पुनर्वास केंद्र से टेलरिंग (सिलाई- कढ़ाई) में एक साल का प्रशिक्षण लेना शुरू किया. पहले खुद आत्मनिर्भर होकर अपने जैसी दूसरी लड़कियों के लिए वैष्णवी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया. सरकार द्वारा दिव्यांगों को मिलनेवाली सुविधा एवं छूट हासिल करने के लिए जब वह प्रमाणपत्र बनवाने निकलीं और उसके लिए उन्हें जब दो सालों तक सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाने पड़े तब खुद के इस स्ट्रगल से एहसास हुआ कि उनके जैसे और भी दिव्यांगों को ना जाने कितनी तकलीफें झेलनी पड़ती होंगी. फिर तभी से मन में यह इच्छा जन्मी कि अपने जैसे लोगों की भलाई के लिए उन्हें आगे आना पड़ेगा और इसी कड़ी में वे 'विकलांग अधिकार मंच' से जुड़ीं और फिर उन्होंने बिहार भर में घूम-घूमकर दिव्यांगों को संगठित करना शुरू कर दिया. उनके सराहनीय काम को देखकर 'विकलांग अधिकार मंच' का उन्हें राज्य स्तरीय अध्यक्ष बना दिया गया. इस संस्था के तहत वैष्णवी अपनी टीम के साथ दिव्यांगों का प्रमाण पत्र बनवाने से लेकर छात्रवृति दिलाने, अन्य सरकारी योजनाओं से जोड़ने आदि के कार्यों में लगी हुई हैं. कई दूर राज्यों से उन्हें सरकारी स्तर पर प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया जाता रहा है जहाँ वे दिव्यांग लड़कियों को लीडरशिप की ट्रेनिंग देती हैं.



वैष्णवी ने कई पुरस्कार और सम्मान भी हासिल किये हैं . 2008 में बिहार व्यावसायिक विकलांग पुनर्वास केंद्र के सौजन्य से जबलपुर में आयोजित ओलम्पिक में जहाँ 5 राज्यों के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था वहां हैण्ड निटिंग (बुनाई) में तृतीय स्थान प्राप्त कर कांस्य पदक जीता फिर 2010  में गोल्ड मैडल जीता. उसके बाद उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ा कि फिर कई जगहों पर आयोजित नृत्य, संगीत, हस्तकला आदि में ढ़ेरों पुरस्कार अपने नाम किये. 2009 में सामाजिक संस्था 'प्रयास' की तरफ से उन्हें दिव्यांगों के लिए किये गए प्रशंसनीय कार्यों के लिए पुरस्कृत किया गया. 2012 में मुंबई की एक संस्था द्वारा आयोजित प्रोग्राम में उन्हें महाराष्ट्र के गवर्नर ने सम्मानित किया. 2013 में उन्हें अहिल्या देवी महिला सशक्तिकरण अवार्ड दिया गया. 2013 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के हाथों बिहार महिला सशक्तिकरण अवार्ड से सम्मानित किया गया.

2014 में युवा रत्न अवार्ड दिया गया. इसके आलावा और भी कई संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. वैष्णवी बताती हैं कि 'गांव में, परिवारों में दिव्यांगों की विवाह-शादी को लेकर कोई पहल नहीं करता, कोई उनकी फीलिंग नहीं समझता, कोई ये नहीं समझ पाता कि उनके भी सपने हैं, वो किसी का बोझ ना बनकर आम लोगों की तरह खुद का घर बसाना चाहते हैं. तो यही सब सोचते-विचारते मन में यह बात आयी कि क्यों ना उनके इस सपने को पूरा कराया जाये. फिर हमने सरकार से बात की और 2016  में बिहार सरकार से प्रोत्साहन राशि पास करवाई. उसके बाद पहली बार हमने विकलांग अधिकार मंच के तहत 'अनोखा विवाह' के नाम से दिव्यांगों की सामूहिक शादियां करवायीं जिनमे 7 जोड़े थें. इस आयोजन में बिहार के तत्कालीन राजपाल श्री रामनाथ कोविंद जी जो वर्तमान में देश के राष्ट्रपति हैं , ग्रामीण विकास कार्य मंत्री और केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद भी शामिल हुए. 2017 में हमने 9 दिव्यांग जोड़ों की शादियां करवायीं. इस आयोजन में स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया का बहुत ज्यादा सहयोग मिला. उनकी तरफ से हर जोड़े को सिलाई मशीन, बर्तन और आलमीरा देकर उनके घर बसाने के सपने को पूरा किया गया. समाज के अन्य लोगों से भी अच्छा सहयोग मिला.'  एक बार वैष्णवी के मन में आया कि क्या वे भी कभी वैष्णो देवी के दर्शन कर सकती हैं? फिर अपने मित्रों के ग्रुप के साथ वहां जाने का प्लान बनाया. चढ़ाई घोड़े पर बैठकर की और वापस बैशाखी के सहारे पैदल लौटकर आयीं. उसके बाद 2012 से उन्होंने अपनी संस्था की तरफ से दिव्यांग लोगों के लोए धार्मिक -ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों की यात्रायें शुरू की. वैष्णवी जब घर से बाहर निकलकर दूर-दूर जाकर दूसरे दिव्यांग लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने लगीं तो ऐसे में उन्हें घरवालों का पूरा सपोर्ट मिला लेकिन पड़ोसी एवं रिश्तेदार ताना मारने लगें कि 'खुद का तो ठिकाना नहीं चली है दूसरों का भार उठाने.' लेकिन वैष्णवी ने कभी उनके तानों की परवाह नहीं की और सिर्फ अपने दिल की सुनी. आज वही ताना मारनेवाले लोग वैष्णवी के कार्यों की सराहना करते नहीं थकते.  वैष्णवी मानती हैं कि दिव्यांगों की आज गांव-घरवालों द्वारा कराई गयी 80 % शादियां सक्सेस नहीं हो पा रहीं. फिर बाद में उन्हें या तो छोड़ दिया जाता है या उनके रहते हुए दूसरी शादी कर ली जाती है जिससे उनकी ज़िन्दगी बद से बदतर हो जाती है. या फिर लोभ में की जा रही हैं. वैष्णवी चाहती हैं कि वे दिव्यांग लड़कियों को इतना सशक्त कर दें कि वे भविष्य में कभी कोई जुल्म ना सहें. अपने अधिकारों को समझें, उसके लिए खुद लड़ें. आज भी वे अकेली बाहर निकल पाएंगी कि नहीं ये उनका परिवार तय करता है, तो आगे से वे खुद निर्णय लेकर अकेले बहार निकले, पढ़े-लिखें और आत्मनिर्भर बनें, बोल्ड बने ताकि फिर कोई उन्हें बोझ और बेचारा न समझे.

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