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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Saturday 4 November 2017

पति और माँ-बाप के सहयोग से हर स्ट्रगल आसान हो गया : निभा श्रीवास्तव, एंकर (दूरदर्शन बिहार) एवं भोजपुरी कम्पियर (आकाशवाणी पटना)

वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'

दूरदर्शन बिहार के 'कृषिदर्शन' में एंकरिंग करते हुए और
आकाशवाणी पटना में भोजपुरी एनाउंसर के रूप में निभा श्रीवास्तव 
मेरा ससुराल है आरा, बड़का डुमरा और मायका है आरा, रामगढ़िया में. मेरे पति श्री कृष्ण भूषण प्रसाद स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में अधिकारी हैं. बचपन से ही मेरा कला के प्रति रुझान रहा. मेरे पिता जी शिक्षक थें लेकिन शिक्षा के साथ साथ उनका संगीत एवं नाटकों से बहुत लगाव था. वे मानते थें कि मेरी बेटी बेटा से कम नहीं है. उन्हें बहुत शौक था कि हमलोग संगीत सीखें और इस क्षेत्र में आगे बढ़ें. 1982 में मैंने मैट्रिक किया और उस ज़माने में छोटे से शहर आरा में आप सोच सकते हैं कितना ताना सुनने को मिलता होगा. हमलोग संगीत सीखने जाते थें, नाटक-स्टेज शो करते थें. उस वक़्त लोग बहुत ताना मारते थें पिता जी को सम्बोधित करते हुए कि 'ये खुद टीचर हैं और नाच-गाना का घर में टीम तैयार कर रहे हैं.' सुनकर बुरा तो लगता था कि हम आखिर क्या गलत कर रहे हैं जो लोग ऐसा बोल रहे हैं. लेकिन फिर भी हमलोग उसपर ध्यान नहीं देते थें और आगे बढ़ते रहें. कॉलेज के समय से ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते रहें. मगध यूनिवर्सिटी में क्लासिकल संगीत का कम्पटीशन हुआ तो उसमे मैंने फर्स्ट प्राइज जीता. आरा में 'नागरिक प्रचारिणी' एक हॉल था जहाँ नाटक और गायन होता था. वहां हमलोग भी लोकगीत गाते थें. चूँकि भोजपुर की रहनेवाली हूँ तो भोजपुरी से बहुत लगाव है. घर में दादी-नानी जो गीत गति थीं तो इच्छा होती थी कि इसको हम मरने नहीं दें. ये हमारी संस्कृति है, और अपनी संस्कृति को हम खत्म नहीं होने दें. इनसे यदि हम सीखते हैं तो अपनी अगली पीढ़ी को बता सकते हैं. और इसको हम जिवंत रख सकते हैं. इसलिए लोकगीत की तरफ भी हमारा रुझान गया.

कॉलेज के दिनों में स्टेज शो करते हुए निभा श्रीवास्तव 
जब कॉलेज में म्यूजिक सीख रहे थें तभी नवोदय विधालय में वेकैंसी निकला तो उसमे अप्लाई कर दिए और मेरा वहां म्यूजिक टीचर के रूप में ज्वाइनिंग हो गया. वहां हम 6 महीना नौकरी किये. उसी समय मेरी शादी तय हो गयी. तब हसबेंड की पोस्टिंग पटना में थी और शादी के बाद मैं हसबेंड के साथ पटना रहने आ गयी. पटना में मेरा कोई जान-पहचान वाला नहीं था, अकेलापन महसूस होता था. पति के ऑफिस चले जाने के बाद टाइम काटने के लिए रेडिओ सुनती थी क्यूंकि रेडियो से मेरा नाता शादी के पहले से ही रहा है. कॉलेज के दिनों में ही मेरे पिता जी मुझे पटना रेडियो स्टेशन ले आते थें लोकगीत गाने के लिए. हम दो बहनें सीमा श्रीवास्तव-निभा श्रीवास्तव ऑडिशन देने पटना आये और 1983 में पास करके हम दोनों ग्रुप में साथ गाने लगें. लेकिन जब दीदी की शादी हुई, वो ससुराल चली गयी. बाद में हम भी पटना आ गए तो ऐसे में कभी कार्यक्रम मिलता तो हमदोनों के अलग-अलग होने से रिहर्सल-रियाज नहीं हो पाता था जिस वजह से हमारी जोड़ी टूट गयी. फिर 1992 में मैंने आकाशवाणी में एकल गायन के लिए ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होने के बाद आजतक मैं लोकगीत गा रही हूँ. फिर मैं 'कला संगम' नाट्य संस्था से जुड़ी. सतीश आनंद, हृषिकेश सुलभ जैसे दिग्गजों के साथ काम करने का मुझे मौका मिला. उसके बाद मैं पटना की नाट्य संस्था 'प्रांगण' और 'कला जागरण' से जुड़ी. आज करीब 20 -25 साल हो गए मुझे नाटक प्ले करते और म्यूजिक टीचर के रूप में काम करते हुए. जब 1991 में आकाशवाणी में वेकैंसी निकला कि भोजपुरी कम्पियर की आवश्यकता है तो चूँकि भोजपुरी मेरी मतृभाषा भी है तो मैंने एक्जाम दिया और पास करके भोजपुरी कम्पियर के रूप में जुड़ गयी. उसके बाद पटना दूरदर्शन में 2002 के बाद एक्जाम देकर बतौर एंकर 'कृषि दर्शन' प्रोग्राम से जुड़ी और अभी तक कार्यरत हूँ.

भोजपुरी फिल्म में अभिनेता पवन सिंह के साथ
 उनकी माँ के किरदार में निभा श्रीवास्तव
 
उसी दरम्यान स्टेज शो करने के दरम्यान हमारे एक साथी ने कहा- 'भोजपुरी फिल्म करोगी?' मैंने कहा- 'बिलकुल करुँगी.' उसके बाद एक भोजपुरी फिल्म में सीनियर एनाउंसर सुमन कुमार ने अभिनेता पवन सिंह के पिता और मैंने माँ का रोल निभाया. मेरी पहली फिल्म थी 'प्यार बिना चैन कहाँ रे' जिसमे पवन सिंह की माँ बनी थी. इसके निर्देशक थें मनोज श्रीपति. फिल्म की शूटिंग मोतिहारी में हुई थी. उसके बाद फिर पवन सिंह की माँ के ही रोल में 'लागल नथुनिया के धक्का' किया जिसके निर्देशक सुनील सिन्हा थें. उसके बाद मैंने लगभग10 शॉर्ट फ़िल्में कीं जिसमे इसी साल 2017 में कालिदास रंगालय में हुए शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल में 'ए बार्गेन टू टिल डेथ' दिखाई गयी थी. उसमे मेरा करेक्टर गरीब मजदूर की पत्नी का था जो कैंसर से पीड़ित है. वह घर में बीमारी की अवस्था में मूर्तियां बना-बनाकर रखती थी और उसकी बेटी ले जाकर मूर्तियां बेच आती थी. और उन्हीं पैसों से वो माँ का इलाज कराती थी. अंत में मेरे किरदार की मृत्यु हो जाती है. इस फिल्म और मेरे किरदार को बहुत सराहना मिली. जी-पुरवईया चैनल पर एक सीरियल चला था 'बस एक चाँद मेरा भी' जिसमे मैंने माँ का ही करेक्टर निभाया. इन सब के दरम्यान स्ट्रगल बहुत रहा क्यूंकि तब बच्चे छोटे थें. पहले तो मुझे लगा कहीं बाहर शूटिंग में मुझे जाने की इजाजत मेरे पति शायद ना दें लेकिन उन्होंने मुझे फुल सपोर्ट किया. मगर समस्या थी कि पटना से बाहर शूटिंग में बच्चों को छोड़कर कैसे जाऊँ? लेकिन वो मुश्किल भी दूर हो गयी मेरी माँ के सपोर्ट से. जब जब मुझे फिल्म-सीरियल के लिए शूटिंग में जाना होता मेरी माँ आरा से हमारे पास पटना चली आती और बच्चों को संभालती-देखती. शुरू-शुरू में बाहर काम के दौरान मुझे घर की ही चिंता लगी रहती कि बच्चे कैसे होंगे, मेरी कमी महसूस कर रहे होंगे. लेकिन फिर धीरे धीरे माँ की वजह से मेरी वो टेंशन दूर होने लगी और मैं मन लगाकर अपने काम पर ध्यान देने लगी. मैं मानती हूँ कि आज मैं पति और माँ के सहयोग से इतना आगे बढ़ पायी हूँ. उन दिनों और आज भी जब फिल्म करने के बाद घर या ससुराल जाना होता है तो इधर-उधर से जान-पहचानवाले थोड़ी चुटकी लेते कि जब भाभी जी के ओरिजनल पति मौजूद हैं तो फिल्मों में किसी और के साथ कपल वाला सीन करती हैं. पतिदेव को बुरा नहीं लगता होगा...?' हालाँकि यह टोन मजाक में ही मारे जाते हैं लेकिन कभी-कभी यह मजाक मेरा मन सीरियसली ले लेता था. मेरे कार्य को कुछ लोग शायद आज भी बुरा मानते हों लेकिन मेरे पति का फुल सपोर्ट मेरे साथ रहता है इसलिए मुझे बाकि दुनिया की परवाह नहीं रहती. अब तो मेरे बच्चों का भी मुझे सपोर्ट मिलने लगा है. मेरे तीन बच्चे हैं, दो बेटियां ग्रेजुएशन करके कम्पटीशन की तैयारी में लगी हैं और छोटा बेटा 10 वीं में है. बेटियां भी संगीत सीखी हैं और बेटा गिटार बहुत अच्छा बजाता है, वह कहानी-कविता भी अच्छा लिख लेता है.
        स्ट्रगल फेज को याद करते हुए मैंने एक बात गौर की है कि जब कॉलेज में थी और नाटक-गायन करती थी और आज शादी बाद भी वह करती हूँ तब मैं पाती हूँ कि आज भी लड़कियों-महिलाओं के प्रति समाज की सोच नहीं बदली है. मतलब 30 साल पहले जो सोच थी वही आज भी है. हांलाकि उस वक़्त हमें बहुत ज्यादा सुनने को मिलता था. तब हम ध्यान नहीं देते थें. बोलनेवाले बोल रहे हैं फिर भी हमारा जो काम है उसे करना है, आगे बढ़ना है यही हमारी सोच थी. मेरे माता-पिता हमारे साथ थें. जहाँ भी जाना होता कभी पिता जी तो कभी माँ हमें लेकर जाती थी. और ऐसे में बोलनेवाले तो चलते समय राह में पीछे से भी अनाप-शनाप बोलते थें. लेकिन हम नजरअंदाज कर देते थें. अभी भी पर्मानेंट की जगह एक कैजुअल कम्पियर के रूप में हम काम कर रहे हैं तो यहाँ भी स्ट्रगल है. स्ट्रगल तो पूरी लाइफ चलती रहेगी लेकिन इसमें ही हम सबको निखरकर आगे बढ़ना है.

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