ticker

'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Thursday, 31 August 2017

तब ससुरालवालों के कमेंट सुनकर गुस्सा आ जाता था : डॉ. शेफाली राय, एच.ओ.डी.,पोलिटिकल साइंस, पटना वीमेंस कॉलेज

ससुराल के वो शुरूआती दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'

हमारा था तो प्रेम विवाह लेकिन दोनों तरफ के परिवारों ने मिलकर अरेंज्ड बना दिया. इससे हम अपनी उपलब्धि पर काफी खुश थें. मजे की बात यह थी कि मायका-ससुराल दोनों पटना में ही था. हालाँकि शादी के पहले भी मैं अपने ससुराल जा चुकी थी लेकिन शादी के बाद पहली बार ससुराल जाने का अनुभव ही कुछ और था. रिश्तेदारों से घर भरा हुआ था. शर्म और डर का एक मिश्रित भाव मन में था. आम शादियों की तरह मेरी माँ ने शौक के कुछ सामान साथ दिए थें. टी.वी. देखकर मेरा चचेरा देवर बोला - ' टी.वी. है या डब्बा, चलता ही नहीं.' मैंने मन ही मन सोचा कैसा गंवार है, पहले कभी टी.वी. नहीं देखा है क्या? गुस्सा भी आया लेकिन चुप रही. मेरे पति आनंद की बुआ आयी थीं जो जरा ऊँचा सुनती थीं और जोर से बोलती भी थीं. साथ लाये पीतल के तसले को देख बोलीं - 'अच्छा है लेकिन छोटा है, हमारे बेटे की शादी में बहू इससे बड़ा लायी थी. खैर मेरा परिवार भी बड़ा है.'  तब मुझे गुस्से से रोना आ रहा था. किसी तरह खुद को संभाला. सुकून इस बात का था कि मेरे सास-ससुर एवं पति ऐसा कुछ नहीं कह रहे थें. शादी के तीसरे दिन मेरी बड़ी ननद का सालगिरह था. हमारी आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी. आनंद ने कहा कि जीजा जी को माँ अंगूठी देना चाहती है. मुझे जो चढ़ा है उसमे से एक दे दूँ ?' इतना कहना था कि मैं आपे से बाहर हो गयी और स्पष्ट रूप से ना कह दिया. वे चुपचाप चले गए. फिर मैंने सोचा कि दो हज़ार रूपए दे देती हूँ, कुछ खरीद लेंगे. आनंद तुरंत दो हज़ार रूपए गिनकर दीदी को दे आये. फिर आई बारी मेरे खाना बनाने की. मायके में शायद ही कभी किचन में गयी थी फिर भी अपनी बड़ी बहन से रेसिपी लेकर डरते-डरते पनीर की सब्जी बनायी. मेरी ननद ने कहा- 'कोशिश करती रहो, सीख जाओगी खाना बनाना.' सासु माँ ने कमेंट किया- 'रोगी का सब्जी बना है.' मैंने तपाक से अपने पति आनंद को कह दिया- 'सुनो मुझसे यह मत एक्सपेक्ट करना कि मैं रोज खाना बनाऊं, कॉलेज में पढ़ाऊँ और तुम्हारी फैमली के कमेंट सुनूं.'  आनंद परेशान सा मुझे देखते रहें. मैंने उन्हें कुछ बोलने का मौका भी नहीं दिया. वैसे मेरे पति बहुत अंडरस्टैंडिंग रहें. वे शांत प्रकृति के हैं और मुझे प्यार से समझाते रहें. हाँ एक बात तो बताना भूल गयी. मेरी एक छोटी ननद भी है जो दिव्यांग है. जब भी कोई गेस्ट मेरे घर आता तो वो सामने आ जाती और मुझे तब बहुत बुरा लगता था. मगर आज मेरी सास की मृत्यु के बाद वो हमारे साथ ही रहती है. अब मैं खुद उसे ड्राइंगरूम में गेस्ट के साथ बैठाती हूँ. शायद वो मेरा लड़कपन था.

शेफाली राय अपने पति आनंद जी के साथ 
हाँ तो मैं बता रही थी ससुराल के शुरूआती दिन. धीरे-धीरे घर खाली हो गया. रिश्तेदार वापस चले गए. आनंद और मैंने मुंह दिखाई के पैसे जोड़े और हनीमून को चल दिए. पैसे कम थे मगर पति का प्यार बहुत था. लौटते समय सबके लिए छोटे-छोटे गिफ्ट खरीदें. धीरे-धीरे ससुराल वालों की आदत से मैं परिचित हुई. उनलोगों ने भी मेरे स्वभाव को परखा. और इस तरह हम कब एक परिवार हो गए पता भी नहीं चला. मैं रम गयी पर हाँ अब कुछ बातों को याद कर हंसी आती है. अब लगता है कि काश फिर से वो पल आयें तो हम सभी प्रेम से अनमोल रिश्तों को जी पाते. एक बात और कहना चाहूंगी कि माँ की भूमिका अहम होती है. जब मैं गुस्से में मायके आ जाती थी तो मेरी माँ मुझे प्यार से मेरी गलती बताती फिर शाम तक मेरा गुस्सा शांत हो जाता और आनंद मुझको घर ले जाते. धन्य थी मेरी माँ. मैं भी अपनी बिटिया को यही संस्कार देना चाहती हूँ. लचीलापन आवश्यक होता है नए परिवेश में जीने के लिए. आज अकेलापन महसूस होता है. सासु माँ की कमी खलती है. काश वो वक़्त लौट पाता.

Tuesday, 29 August 2017

जिसमे जोश, जुनून और जिज्ञासा नहीं वो पत्रकार नहीं : अमिताभ ओझा, ब्यूरो चीफ, न्यूज 24 (बिहार, झाड़खंड)

वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा गांव 'कोइल भूपत' बिहार के अरवल जिले में है. पटना के कंकड़बाग में हमारा पुस्तैनी मकान है. मेरा पूरा फैमली बैकग्राउंड जर्नलिस्टों वाला रहा है. मेरे पिता स्व. सर्वदेव ओझा सर्च लाइट' न्यूज पेपर के एडिटर थें. एक बार वे रिक्शे से जा रहे थें कि उनका एक्सीडेंट हो गया. वे रिक्शे से गीर गएँ और हार्ट अटैक से उनका देहांत हो गया. उस वक्त मेरी उम्र महज ढ़ाई साल थी और मेरे छोटे भाई की उम्र एक साल. पांच भाई-बहनों में तीनों बहनें मुझसे बड़ी थीं. हमारे परिवार के एक भईया अवधेश ओझा भी प्रसिद्ध पत्रकार थें. पहले 'आज' में काम करने के बाद वे 'दैनिक हिन्दुस्तान' में गए थें. उनके साथ ही हमलोग रहने लगें और बचपन से ही  मैंने पत्रकार और पत्रकारिता के माहौल को बहुत ही नजदीक से देखा था. पापा के नहीं रहने से थोड़ी आर्थिक परेशानी आई. हम पांच भाई-बहन और भईया के भी पढ़नेवाले तीन बच्चे सभी ज्वाइंट फैमली में थें जिससे परिवार पर बहुत ज्यादा लोड था. इस वजह से ज्ञान निकेतन प्राइवेट स्कूल में हमलोग 6 क्लास तक ही पढ़े फिर 7 वीं में सर गणेश दत्त पाटलिपुत्रा हाई स्कूल में आ गए जो गवर्नमेंट स्कूल था. वहीँ से 1994 में मैंने मैट्रिक फर्स्ट डिवीजन से पास किया. उसके बाद प्लस टू की पढ़ाई किये पटना यूनिवर्सिटी से फिर ए. एन. कॉलेज से ग्रेजुएशन किये. लेखन एवं जर्नलिज्म में मेरा शुरू से ही रुझान था. मैट्रिक के बाद 'लेटर टू एडिटर' के साथ फीचर आर्टिकल लिखना शुरू कर दिया. मेरी पहली स्टोरी 'आज' में प्रकाशित हुई थी. तब मैं फीचर एडिटर के सामने नहीं जाता था इस डर से कि मुझे देखने के बाद कहीं वे मुझे बच्चा समझकर जो भी छप रहा है वो भी नहीं छापेंगे. इसलिए शाम की बजाये मैं दोपहर में जब भीड़ नहीं होती तब अलग अलग कॉलम के लिए स्टोरी लेकर जाता और बिना अपना चेहरा दिखाए वहां बने बॉक्स में डालकर चुपचाप लौट आता था. और मेरी स्टोरी अख़बार में छप जाती थी. जब इंटर में गया तो बाहर के मैगजीनों में भी लिखना शुरू किया. जब बी.ए. पार्ट -1 में था तब के एक बड़े जर्नलिस्ट अमरेंद्र किशोर की दिल्ली से एक मैगजीन निकलती थी 'युग' जिसके लिए मैंने फोन से कॉन्टेक्ट किया तो उन्होंने स्टोरी भेजने को कह दिया. उसी दरम्यान एक और अख़बार था 'राष्ट्रिय नवीन मेल' जो डाल्टेनगंज से छपता था उसमे भी फोन से ही बात करके मैंने भेजना शुरू किया. चूँकि तब मेरी उम्र कम थी इसलिए मैं सबसे अपनी उम्र छुपाता था. 'राष्ट्रिय नवीन मेल' में खबरें छपती थीं और वे मुझे डाक से अख़बार भेजते थें. तब एक्साइटमेंट इतना ज्यादा रहता था कि 2 से 3 बजे के करीब अख़बार आने का टाइम होते हुए भी मैं 12 बजे से ही पोस्टमैन का इंतज़ार करने लगता था. पार्ट-2 में पढ़ने के दौरान राष्ट्रिय स्तर की एक चर्चित पत्रिका आती थी जिसके संपादक से भी मैंने फोन पर बात की थी. उन्होंने कहा कि ' हमारा तो पटना में रिपोर्टर और ब्यूरो भी है फिर भी तुम स्टोरी भेजो, अगर अच्छी हुई तो हम छापेंगे.' फिर मैंने पटना से उस पत्रिका के लिए स्टोरी भेजनी शुरू की. कुछ समय बाद ऐसा हुआ कि उनके रिपोर्टर की जगह मेरी स्टोरी छप जाती थी. इसपर उनके रिपोर्टर को बहुत बुरा लगता था. मुझे याद है कि उन दिनों मौर्यालोक में अशोक जी का बहुत फेमस बुक स्टॉल था जहाँ देशभर के सारे मैगजीन रहते थें और वहां सभी सीनियर जर्नलिस्ट लोग मैगजीन लेने आते थें . बुक स्टॉल के ऑनर अशोक जी मुझे छोटे भाई की तरह मानते थें. एक दफा उस चर्चित पत्रिका के स्थानीय रिपोर्टर जो मुझसे खफा थें वहीँ आये हुए थें और मुझे देखकर उन्होंने कहा कि 'तुम लिखना बंद कर दो वरना ठीक नहीं होगा.'  मैंने कहा - 'ठीक है, आपको बुरा लग रहा है तो मैं नहीं लिखूंगा, लेकिन मैं तो आपके ऑफबीट स्टोरी भेजता हूँ.'  फिर भी उन्होंने कहा - 'नहीं, कुछ भी नहीं भेजना है.'  खैर, उनके मना करने के बावजूद भी मैं स्टोरी भेजता रहा. 'आज' अख़बार में भी कंटीन्यू लिख रहा था और तब राकेश प्रवीर जी इंचार्ज बनकर आ गए थें. मैंने तब 'आज' अख़बार में धीरे धीरे फुल पेज स्टोरी लिखनी शुरी कर दी थी. 'आज' के ही कुछ लोगों ने कहा - 'अरे तुम इतना बढ़िया लिखते हो, ऐस करो 'आज' में ज्वाइन कर लो.'  मुझे याद है जिस दिन पटना में विमान हादसा हुआ था वेणी माधव चटर्जी जिसे सब दादा कहते थें का मेरे पास फोन आया और वे बोले - ' ऐसा करिये, आप आज से ही काम शुरू कर दीजिये और जाइये जहाँ विमान हादसा हुआ है वहां से स्टोरी लेकर आइये.'

तब मैं बी.ए.पार्ट 3 में था. फिर मैंने विमान हादसे पर दो-तीन स्टोरी किया. शाम में 6 पेज का विमान हादसे पर स्पेशल एडिसन निकला और उसमे मेरी स्टोरी कवर पेज पर छपी थी. देखकर पहले तो मुझे खुद यकीं नहीं हुआ क्यूंकि उस एडिसन में कई बड़े पत्रकारों की स्टोरी भी थी. उसी दिन 'आज' में मेरी विधिवत शुरुआत हुई थी. तब मेरा इंट्रेस्ट क्राइम रिपोर्टिं में था. और इसके पहले मैं दिल्ली से आनेवाली एक क्राइम पत्रिका 'मनोरम कहानियां' में स्टोरी लिखा करता था. और धीरे धीरे इंडिया टुडे और माया को छोड़ दें तो हिंदी का शायद ही कोई मैगजीन था जिसमे मेरी स्टोरी नहीं छपती थी. तब मेल करने की सुविधा नहीं थी और कुरियर करने में 4  दिन लग जाते थें. ऐसे में हम रातभर स्टोरी लिखते जो ए फोर साइज पेपर में 18 -20 पेज की स्टोरी होती थी. उसे पैक करके कुरियर से न भेजकर सुबह सुबह 4 बजे स्टेशन चले जाते वहां से अमृतसर मेल जाती थी और उस ट्रेन के कोच अटेंडेंट को 10 रूपए देकर लिफाफा पकड़ा देते थें. फिर कोच अटेंडेंट का नाम और बोगी नंबर दिल्ली फोन करके बता देते थें और अगले दिन वे लोग रिसीव कर लेते थें. ऐसा बहुत दिनों तक चला. उन मैगजीनों से अच्छा पेमेंट आ जाता था. 'आज' अख़बार ज्वाइन करने के बाद दादा बोले कि 'जब क्राइम रिपोर्टिंग करना चाहते हो तो जो सारे बाहुबली जेल में हैं उनका इंटरव्यू करके लाओ.' मैं गया और जेल में मुझे बृज बिहारी हत्याकांड का दोषी कैप्टन सुनील मिल गया जो कंकड़बाग का ही रहनेवाला था. उससे मैंने कहा कि मैं भी कंकड़बाग का हूँ तो फिर वही मुझे बाहुबली सूरजभान सिंह के पास लेकर गया. फिर मैंने उनका इंटरव्यू किया उसके बाद राजन तिवारी का किया. जब दोनों बाहुबली का इंटरव्यू लेकर दिया तो दादा को यकीं नहीं हुआ कि नया नया छोकरा कैसे जेल में बंद इन बाहुबलियों का आसानी से इंटरव्यू लेकर आ गया. फिर जब मैंने उनको हाथ में लगा जेल का मोहर जो अंदर जाते वक़्त लगता है दिखाया तब उन्हें यकीन हुआ. और उन दोनों का इंटरव्यू छप गया. उसके बाद हमने और भी कई बाहुबलियों का इंटरव्यू किया. इस बीच मुझे लगा की पोलिटिसियन से ज्यादा ये लोग कम्फर्टेवल होते हैं बात करने में. क्राइम रिपोर्टिंग में मेरी पहचान बनी बूटन सिंह हत्याकांड के वक़्त. बूटन सिंह समता पार्टी का पूर्णिया जिला अध्यक्ष था और पूर्णिया कोर्ट में उसकी हत्या कर दी गयी थी. मुझे एक सुराग मिला जिसके दम पर मैंने बताया कि पूरी हत्याकांड की साजिश बेउर जेल में रची गयी थी और सारे शूटर भी यहीं से गए थें. जब ये स्टोरी फ्रंट पेज पर छपी तो कुछ लोगों को यह सच्चाई  हजम नहीं हुई. एक सीनियर पत्रकार तो मेरे 'आज' दफ्तर में आएं और आवेशित होकर बोले कि 'जो लिखे हो ये सब बनावटी बातें हैं जिनका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है.' उस समय मेरे चीफ रिपोर्टर थें अरुण अशेष जिन्होंने उनकी बातों को काटा और कहा कि 'नहीं, हमको अमिताभ पर भरोसा है और ये स्टोरी किया है तो सही ही होगा.' बाद में बूटन सिंह हत्याकांड की जांच सी.बी.आई. को सौंपी गयी और सी.बी.आई. ने भी अपने इन्वेस्टिगेशन में लाया कि इस कांड का बेउर जेल से लिंक था. तब आज अख़बार में मैंने एक कॉलम शुरू किया 'मोस्ट वांटेड' जिसमे शुरूआती दौर में पटना में फिर बिहार के जितने मोस्ट वांटेड थें उनकी तस्वीरों के साथ उनका क्राइम रिकॉर्ड, उनकी कमजोरी, उनकी ताकत आदि का ब्यौरा रहता था जो अपने समय में बहुत चर्चित हुआ था. उन्हीं दिनों मुझे बाहुबलियों से धमकी भी मिली और कुछ दोस्त भी बने. फिर क्राइम वर्ल्ड में बहुत अंदर तक मेरी पैठ बन गयी. तब उनकी धमकियों से मुझे डर नहीं लगता था क्यूंकि मेरा मानना था कि क्रिमनल बुरा नहीं है अगर आप उसके दिल की बात जान रहे हैं और उसके निगेटिव पॉइंट को अपने से मिर्च मसाला नहीं लगा रहे हैं तो वह आपका बुरा नहीं करेगा. मुझे याद है जब पटनासिटी में कमलिया हत्याकांड हुआ था और मैं घटना स्थल पर गया था. वहां से मुआयना करके आने के बाद स्टोरी लिखी कि इसमें सुल्तान मियां गैंग का हाथ है. लेकिन तब पटना पुलिस लोकल क्रिमनल का नाम ले रही थी. मेरी स्टोरी छपने के बाद सुल्तान मियां ने मुझे फोन किया 'आप मेरा नाम क्यों दिए?' मैंने कहा - ' इससे पहले तुम तीन मर्डर किये और तीनों मर्डर एक ही स्टाइल में हुई है.' उसने कहा - 'आप बहुत तेज बन रहे हो, गोली मार देंगे.'  मैंने कहा - 'तुमको मारना है तो मारो, मैं  'आज' अख़बार में खिड़की के पास बैठता हूँ. मैं पुलिस का अफसर तो हूँ नहीं कि मेरे पास बॉर्डीगार्ड रहे. अगर तुम्हारा ईमान बोलता है कि मेरी बात गलत है तो फिर मार दो कोई दिक्कत नहीं है.'  इस घटना के बाद सुल्तान मियां मेरा मुरीद हो गया. तब पटना में सुल्तान का खौफ इतना ज्यादा था कि उस समय के जो डी.जी.पी. थें उसे बिहार का लादेन कहते थें. फिर सुल्तान मियां को मेरी ईमानदारी पर इतना भरोसा हो गया कि उसने मुझे अपनी शादी में भी बुलाया और मैं गया भी था. जब उसने एक पार्लर में काम करनेवाली ब्राह्मण लड़की से शादी किया जो बाद में हिन्दू बनाम मुस्लिम मामला बन गया और काफी हाइलाइट हुआ था नेशनल लेवल पर कि पटना का इतना बड़ा एक मुस्लिम क्रिमनल एक हिन्दू लड़की को अगवा करके शादी कर लिया और पुलिस कुछ नहीं कर रही है. जब ये मामला हाईलाइट हुआ तो मैंने अख़बार में खबर छापी कि 'कई लाल बत्तीवाले आये थें सुल्तान की शादी में और पटना के बीचो बीच शादी हुई. मोस्ट वांटेड होने के बावजूद भी उसकी शादी में इतने वी.आई.पी. शरीक हुए थें. लेकिन हिन्दू बनाम मुस्लिम मामला हाईलाइट होते ही राष्ट्रिय महिला आयोग ने इस मामले को नोटिस कर लिया था. उस समय महिला आयोग की राष्ट्रिय अध्यक्ष थीं पूर्णिमा आडवाणी जो अपनी टीम के साथ बिहार आयी इस मामले की जाँच करने. जिस दिन वे पटना आयीं उसके एक दिन पहले मैंने कुछ एस्क्लुसिव तस्वीरों के साथ स्टोरी छापी थी कि सुल्तान मियां और उस हिन्दू लड़की का प्रेम प्रसंग था, कोई जबर्दस्ती शादी का मामला नहीं था. तो पूर्णिमा आडवाणी ये खबर देखने के बाद गुस्से से गरम हो गयीं. उसके बाद पाटलिपुत्रा थाने में जहाँ ये केस दर्ज था मुझे बुलाया गया और मुझसे कहा गया कि 'कुछ नहीं करना है, मैडम जो पूछेंगी बस उसका जवाब दे देना है.' तब नोटिस भेजा गया 'आज' दफ्तर में जिससे संपादक जी डर गए थें. बोलने लगें -'अरे ये क्या छाप दिए हो, कौन सा बवेला खड़ा हो गया है.' फिर स्टेट गेस्टहाउस में मैं पूर्णिमा जी के पास गया फिर बंद कमरे में उनके दो-तीन सहयोगियों के बीच मुझसे पूछा गया कि 'इस प्रकरण को आप इतना अंदर तक कैसे जानते हैं?' मैंने कहा- 'मैं एक क्राइम रिपोर्टर हूँ, मेरे पास इन्फॉर्मेशन आयी थी और उसी आधार पर मैंने स्टोरी किया.' उन्होंने कहा -'पुलिस को खबर नहीं और आपके पास खबर है ?' मैंने कहा- 'ये तो पुलिस की समस्या है मेरी नहीं.' उन्होंने पूछा -'आपने जो तस्वीरें छापी हैं ये कौन दिया आपको ?' मैंने कहा- 'जब मामला चल रहा था तभी सुल्तान के लोगों ने मुझसे संपर्क किया था. तो मैंने बोला था कि अगर वो लड़की कंचन मिश्रा अपनी मर्जी से शादी की है तो उसे प्रूव करना चाहिए. तब जाकर उन लोगों ने मुझे फोटो भिजवाया था.' कुछ और भी फोटो मैंने उन्हें दिखाया जो पेपर में पब्लिश नहीं हुआ था. फिर पूछा गया कि 'आप और क्या जानते हैं?' मैंने कहा -' कंचन मिश्रा के माँ-बाप दिव्यांग थें और वो ब्यूटी पार्लर में काम करती थी. उस पार्लर का मालिक उससे तीन बार रेप की कोशिश कर चुका था. सुल्तान मियां ने कंचन को बचाते हुए वार्निंग दी थी कि उस पर गलत निगाह रखोगे तो अच्छा नहीं होगा. लेकिन फिर जब पार्लर मालिक ने चौथी बार रेप की कोशिश की तब सुल्तान ने उसका मर्डर कर दिया. और उसके बाद कंचन ने अपनी मर्जी से सुल्तान के साथ शादी कर लिया.' फिर महिला आयोग की टीम वहीँ से मेरे बयान से संतुष्ट होकर वापस दिल्ली लौट गयी. बाद में जब उनका रिपोर्ट आया तो उसमे मेरे बयान का मेंशन था. उन्हीं दिनों का एक और वाक्या याद है जब मेरे साथ तीन बार लूटपाट हुई थी. रात में दो बजे हम एडिसन छोड़कर पैदल ही घर निकल जाते थें. एक बार रास्ते में मुझपर पिस्तौल भिड़ाया गया और चुपचाप मैंने मोबाईल वगैरह दे दिया फिर सुबह में जाकर उसी क्रिमनल से मांग भी लिया. चूँकि होता ये है कि क्रिमनल जब क्राइम करने जाता है तो वो आपसे सौ गुणा ज्यादा टेंशन में होता है. अगर आप थोड़ा सा उसे दिखाएंगे कि आप उसे जान गए हैं या उसे इरिटेट कीजियेगा तो वो आपको मार देगा.  करीब 2002 में मैंने क्राइम हेड,ब्यूरो के पोस्ट पर 'दैनिक हिन्दुस्तान' ज्वाइन किया. एक क्राइम रिपोर्टर मेरी सबसे ज्यादा पहचान 'हिंदुस्तान' से ही बनी. मेरा एक चर्चित कॉलम आता था 'पुलिस डायरी'. तब हिंदुस्तान अख़बार के इतिहास में सबसे कम उम्र के रिपोर्टर का यह पहला कॉलम था. शुरुआत में पटना एडिसन छपा फिर देखते -देखते ये बिहार के सभी एडिसन में फॉलो किया जाने लगा. उसी दरम्यान मुझे ऑफर मिला बी.ए.जी. फिल्म्स की तरफ से. अजित अंजुम जी आये थें जिन्होंने इंटरव्यू लिया फिर मेरा सेलेक्शन हुआ. तब बड़ा मुश्किल था डिसीजन लेना प्रिंट मीडिया छोड़कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाना और वो भी हिंदुस्तान जैसे अख़बार में इतने अच्छे पोस्ट पर रहते हुए . तब 'हिंदुस्तान' में मैंने कई केस किये थें जिनमे पटना सिविल कोर्ट इक्जाम का पेपर लिक मामला बहुत चर्चित हुआ था. उन ढ़ाई साल के पीरियड में ही बहुत अच्छा काम रहा और तब शायद ही कोई इलाका ऐसा हो जहाँ के अपराधी, जहाँ के माफिया से मेरे ताल्लुकात नहीं हुए. इसलिए तब असमंजस में था कि प्रिंट मीडिया छोडूं कि नहीं. तब सौ में से नब्बे लोगों ने मना किया मुझे. लेकिन मेरे दिमाग में था कि 'अख़बार में तो सबलोग काम किये हैं, कुछ नया करना चाहिए.' और जिस दिन मेरा इंटरव्यू हुआ उसके एक दिन पहले मेरा इंगेजमेंट हुआ था. फिर 1 नवम्बर, 2005 से बी.ए.जी. से जुड़ गया.

अमिताभ ओझा बाढ़ में रिपोर्टिंग करते हुए 
मैं तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए एकदम नया नया था लेकिन अजित अंजुम काफी मोटिवेट करते थें. फिर कई अच्छी स्टोरी की मैंने चाहे वो किडनैपिंग हो, बाहुबलियों पर आधारित सीरीज हो. सनसनी और रेड अलर्ट के लिए काम करने के दौरान कई जगह खतरा भी हुआ. सबसे बढ़िया अनुभव रहा जब हम बगहा के जंगलों में गए थें जहाँ डकैतों का राज चलता था. उन लोगों के पास जाकर इंटरव्यू करना तब अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती थी. तब बी.ए.जी. के लिए पहली बार बिहार में हमने स्टिंग ऑपरेशन किया. पहला स्टिंग किया 'डॉकटर कंस' जिसमे भ्रूण हत्या को लेकर टॉप के डाक्टरों की संलिप्तता उजागर की थी. तब बड़े बड़े 7 -8 स्टिंग हमने किये थें. तब अख़बार से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  में खुद को स्थापित करना बहुत बड़ी चुनौती थी जिसे मैंने पूरा किया. तब लोग बोले कि 'यहाँ भी आकर ये जम गया.'  बी.ए.जी. के अंतर्गत जब 2007 में न्यूज 24 की लॉन्चिंग हुई तो हमारे पास दो ऑप्शन थें. या तो न्यूज 24 में रहिये या स्टार प्लस के 'सनसनी' प्रोग्राम में चले जाइये. लेकिन चूँकि अजित अंजुम सर न्यूज 24 में थें और हमलोगों को लेकर वही आये थें. फिर मेरे दिल में था कि वही मेरे आइडियल हैं तो मैं न्यूज 24 में ही रह गया. फिर 2005 से लगातार बीएजी फिल्म्स और न्यूज 24 से जुड़ा हूँ. यह मेरे लिए परिवार के जैसा है और यही वजह है कि कभी ख्याल ही नहीं आता कि अपने परिवार से अलग जाऊं. मैं बिहार का ब्यूरो चीफ हूँ लेकिन साथ ही पश्चिम बंगाल और नेपाल की खबरें भी देखता हूँ.  2015 में नेपाल में आये जबर्दस्त भूकंप के वक़्त कैमरामैन के साथ वहीँ काठमांडू में 15 दिनों तक रहकर मैंने रिपोर्टिंग की थी. बंगाल में जब बड़ा बाजार में आग लगी तब वहां भी हम गए. बिहार में नकली खून के कारोबार का भी पर्दाफाश किये. शराबबंदी में हमने दिखया कि कैसे नए नए शराब माफिया बन रहे हैं. फिर 2017 में जब नोटबंदी हुई तब उस समय हम नेपाल बॉर्डर पर गए थें और स्टिंग में दिखाए की ब्लैक मार्केटिंग में कैसे पैसा जाता है. इस  खबर से बिल्डरों में खलबली मच गयी और फिर पटना में इंकमटैक्स की रेड पड़नी शुरू हो गयी. अभी बाढ़ में मैं अकेला चम्पारण से लेकर किशनगंज तक कवर करने गया. मेरा मानना है कि जिसमे जोश, जुनून और जिज्ञासा नहीं वो पत्रकार नहीं. जब रिपोर्टर में काम करने की क्षमता खत्म हो जाएगी तब वो रिपोर्टर नहीं रहेगा. न्यूज 24 में रहते हुए भी मैं सोशल इशू पर ज्यादा जोर देता हूँ. मैं फेसबुक पर भी होता हूँ तो लोग सबसे ज्यादा मेरे क्राइम न्यूज को ही देखने वाले होते हैं. और अभी का जो दौर है वो चेंजेवल है, बहुत ज्यादा चैलेंजिंग है, क्यूंकि आज सोशल मीडिया के रूप में लोगों के पास बहुत बड़ा हथियार है. थोड़ा सा भी अगर गलत दिखाते हैं या डायवर्ट करने की कोशिश करते हैं तो आपके पास तुरंत रिएक्शन आने शुरू हो जाते हैं. इसलिए मैं जितना चैनल पर एक्टिव हूँ उतना ही सोशल मीडिया पर भी हूँ. कई लोग मुझे फेसबुक पर ही खबर भेजते हैं या उनकी जो प्रॉब्लम होती है कोशिश करता हूँ कि सबको मैं शॉर्टआउट करूँ.


Thursday, 24 August 2017

सफलता के लिए कभी शॉर्टकट रास्ते पर नहीं चला : सत्येंद्र कुमार 'संगीत', गायक

वो संघर्षमय दिन 
By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म पटना के गोपालपुर तिनेरी गांव में हुआ. मेरे पिता जी श्री शिव लखन सिंह किसान हैं. हम 6  भाई बहन हैं. हमारी हाई स्कूल तक की पढ़ाई गांव में हुई फिर इंटर की पढ़ाई जहानाबाद के एस.एस. कॉलेज से हुई. उसके बाद मैं पटना आ गया फिर एम.ए. और बी.एड. तक की पढ़ाई पटना विश्वविधालय से की. गाने का शौक स्कूल से ही था. हमारे मिडिल स्कूल में तब शनिवारीय सभा होती थी. एक दफा स्कूल के एक मास्टर साहब ने जब मुझे क्लास में गाते सुना तो बोले 'शनिवार वाले कार्यक्रम में तुम्हारा गाना होगा.' फिर उस सभा में मेरा गाना हुआ और वहां से उस बात का प्रचार हो गया कि हम गाना गाते हैं. मेरे गांव में तब नाटक हुआ करते थें उसमे मेरा सलेक्शन हुआ गाने के लिए और मंच पर पहली बार जब एकल गायन के लिए पहुंचा तो पाँव कांप रहे थें. हम क्या गायें, कैसे गायें हमें कुछ ध्यान नहीं रहा बस किसी तरह गा दिए. लेकिन अगली सुबह जब हम गांव में निकलें तो कोई चाचा तो कोई बड़े भाई सब तारीफ करने लगें  'बड़ा अच्छा गाए तुम' और इससे मेरा मनोबल बढ़ा. मेरे घर परिवार में तब संगीत का कोई माहौल नहीं था. लेकिन तब साल में एक बार होली के समय पिता जी ढ़ोलक बजाते थें और मेरे बड़े बाबू जी पूजा के समय आरती बहुत अच्छा गाते थें. मेरी माँ भी बहुत अच्छा गुनगुना लेती थीं. लेकिन तब भी हमारे यहाँ संगीत सीखने वगैरह की कभी बात नहीं होती थी. जब मैं मैट्रिक में था तो पटना जिला के ही नौबतपुर के पास के गांव में मेरी छोटी बुआ के यहाँ कोई फंक्शन था तो मैं पहली बार पिता जी के साथ वहां गया. वहां देखा कि पूरा गाना-बजाना चल रहा है. चूँकि मुझे भी गाने का शौक था तो मैंने भी गाने गा दिए और लोगों की बहुत तारीफें मिलीं. मेरे फुफेरे भाई श्री श्यामदेव शर्मा जो गाने का शौक रखते थें ने मेरे पिता जी से कहा ' मामू, आप इसको संगीत सिखवाइये.' लेकिन पिता जी ने कहा ' नहीं, संगीत सीखेगा तो बच्चा बिगड़ जायेगा, पढ़ाई-लिखाई नहीं करेगा.' उसके बाद भी फुफेरे भाई और मैंने परिवार की बातों की अनदेखी करके मैट्रिक बाद खुद से संगीत सीखना शुरू किया. एक बार मुझे घर से 1000 -500 रूपए मिले बाजार से खाद खरीदकर लाने के लिए. उसे लेकर मैं अपने फुफेरे भैया श्यामदेव के पास चला गया और एक हारमोनियम खरीदकर ले आया. मुझे खूब डाँट पड़ी, हमारे एक चचेरे भाई माचिस लेकर आ गए हारमोनियम में आग लगाने के लिए. तब हमारे पिता जी एवं चाचा जी ने बीच बचाव किया और बोले 'हारमोनियम का हमें भी बहुत शौक था, अब जब आ गया है तो अच्छी बात है.' तब पारिवारिक वातावरण में विरोध था ही, हमारी सामाजिक बनावट भी ऐसी थी कि उसके बाद गांव के लोग मुझे टोकते कि ' सुने हैं जी, हारमोनियम लाये हो. लगता है गाँधी मैदान में जाकर बैठोगे. अब एक सारंगी भी ले आओ और खोल लो एक नाच पार्टी.'  कोई कहता 'ये मैट्रिक पास किया और नचनिया-बजनिया वाला लाइन पकड़ लिया.' लेकिन फिर भी पता नहीं कहाँ से मेरे अंदर शक्ति थी कि तब उनकी आलोचनाओं को मैं अनसुना करता रहा. तब राजेश खन्ना की फिल्म का एक गाना मुझे हतोत्साहित नहीं होने देता था कि ' कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना.' हमारे यहाँ तब गांव के सारे लोग शाम में बैठकर रेडिओ पर गाने सुनते थें जिनमे बड़े बड़े कलाकारों का गायन होता था. और खत्म होते ही सबलोग वाह-वाह की आवाज के साथ तालियां बजाते थें. ये सभी चीजें मुझे अट्रैक्ट करती थीं और सोचने लगता कि मैं भी अगर रेडिओ स्टेशन जाकर गाऊं तो ऐसे ही हवा में मेरा गाना आएगा और सबलोग सुनकर वाह-वाह करेंगे.' फिर मैं जब ग्रेजुएशन करने पटना आया तो स्टेशन के बगल में एक ममेरे भाई राजेश के साथ रूम शेयर करके रहने लगा. 1991 में वहीँ रहते रहते मैं बिहार के प्रतिष्ठित संगीतज्ञ पं.श्यामदास मिस्र जी के शरण में गया. वो गुरु जी के नाम से विख्यात थें. तब तक मैं रॉ-मेटेरियल था, गांव में नाटक और रेडियो से ही कुछ सीखा था. वहां हमने विधिवत संगीत सीखना शुरू किया. तब पैसे की दिक्क्त थी और मुझे गुरु जी को फ़ीस भी देनी थी. कॉलेज की पढ़ाई का खर्चा घर से मिल रहा था. जब फॉर्म भरने का समय आता तो घर जाते थें, फिर अनाज बिकता था, फिर बनिया दो-चार दिन में पैसे लेकर देता था तब जाकर हमें पढ़ाई के लिए पैसे मिलते थें. तो इस पैसे के दर्द को हम समझते थें कि कितनी मेहनत से धान-गेहूं उपजा और फिर वो बिका तब पैसा आया. इसलिए हमने सोचा कि गुरु जी के फ़ीस के पैसे अगर मांगूंगा तो घर में विरोध होगा तो क्यों नहीं खुद से कुछ कमाई की जाये. तब एक दिन राजेंद्र नगर गोलंबर के पास जहाँ से कभी कभी मैगजीन खरीदता था पता चला कि वो स्टॉल बिकने वाला है. तब मैंने उनके पास जाकर वो खरीद लिया और वो बुक-स्टॉल हम चलाने लगें. उसके साथ साथ ऑनर्स भी कर रहे थें और संगीत भी सीख रहे थें. हमने सोचा कि अब दिनभर तो बुक स्टॉल नहीं खोल सकते तो हमने वहां कम्पटीटिव बुक्स और कुछ स्टेश्नरी का सामान भी रखना शुरू किया. शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक स्टॉल चलता था. वहां पढ़नेवाले बच्चों का ही आना-जाना था इसलिए मेरी दुकान चलने लगी. उसकी आमदनी से मैंने एक साइकल खरीदी और उसी से पटनासिटी संगीत सीखने जाता था. हमारे सेवा भाव एवं लगन से खुश होकर एक दिन हमारे गुरुदेव ने कहा कि 'तुम इतनी दूर से आते हो, तुम्हारा बहुत वक़्त बर्बाद हो जाता है और भी तुम क्या क्या करते हो इसलिए छोडो सब, तुम यहीं मेरे पास रहने आ जाओ.' उनका आदेश होते ही बुक स्टॉल का शटर डाउन हो गया. मैंने वो स्टॉल बेच दिया और पटनासिटी रहने आ गया. गुरु जी के घर के नीचे बने एक कमरे में रहने लगा. पहले कुछ दिन खुद से ही बनाकर खाता था फिर बाद में गुरु जी अपने घर में ही मुझे खिलाने लगें. खूब लगन से सीखते हुए मैंने संगीत में मास्टर डिग्री ली. उधर मेरा एम.ए. के बाद बी.एड. भी हो गया. उसके बाद मेरी गांव में शादी हो गयी. शादी के बाद मैंने सोचा कि संगीत से अब कुछ कमाई की जाये. मैंने गुरु जी से पूछा कि 'क्या मैं इस काबिल हूँ कि किसी को संगीत सीखा सकता हूँ.?' फिर उनका आदेश मिलते ही मैं पटना आकर संगीत का ट्यूशन देने लगा. कुछ दिनों बाद मैं एक स्कूल में बच्चों को सप्ताह में दो दिन म्यूजिक सिखाने लगा. इसी तरह दो दो दिन के लिए दो और स्कूल ज्वाइन कर लिया जहाँ 2 घंटे की क्लास देनी होती थी. मेरा काम था बच्चों को संगीत सिखाना, उनसे गवाना और स्कूल के प्रोग्राम में भाग लिवाना. उसके बाद मैंने आकाशवाणी  में सुगम संगीत के लिए ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होकर वहां से भी गाने लगा. पहली बार जब पटना रेडियो स्टेशन से मेरा गाना प्रसारित हुआ तो उसके पहले मैं गांव गया और सबको बताया कि आज रेडियो पर मेरा गाना होगा. सभी लोगों ने चाव से सुना और तब लोगों की नचनिया-बजनिया वाली बात वहीँ दब गयी. वे बोले - 'अब तो ये रेडियो स्टेशन का कलाकार हो गया है.'  उन दिनों गांव में ऐसे ही किसी के गाने का कोई मोल नहीं था लेकिन रेडियो के कलाकार को इज्जत मिलती थी. उसी दौरान जब 1990 में पटना दूरदर्शन केंद्र की स्थापना हुई तो उसपर भी कुछ कार्यक्रम आने लगें. और फिर टीवी पर लोगों ने मुझे देखा तो बहुत तारीफ मिली.

तब मेरा रहना पटना ट्रेनिंग कॉलेज के हॉस्टल में होता था. तब हॉस्टल में रहनेवाले, साइकल से चलनेवाले आदमी को तीन - चार हजार महीना मिल जाये तो पॉकेट कभी खाली ही नहीं होता था. न मुझे कुछ खाने-पीने की तलब थी और न मैं फिजूल खर्च करता था तो ऐसे में मुझे एहसास होता कि मेरे पास बहुत पैसे हैं. इसी दौरान मैं ट्यूशन और स्कूल में पढ़ाने के साथ साथ खुद का एक इंस्टीच्यूट भी चलाने लगा जहाँ बच्चे संगीत सीखने आने लगें. फिर हम पत्नी को गांव से पटना ले आएं और कंकड़बाग में किराये के मकान में साथ रहने लगें. धीरे धीरे यूँ ही संघर्ष की गाड़ी चलती रही और फिर हम परफॉर्मिंग लाइन में आ गएँ. उन्हीं दिनों 1997 में बिहार सरकार के एक कार्यक्रम 'युवा महोत्सव' में गाँधी मैदान में मुझे गाने का अवसर मिला जहाँ कला संस्कृति विभाग के पधादिकारी भी बैठें थें. वहां गाने का लाभ मुझे मिला और उस आयोजन के तुरंत बाद बोध गया में होने जा रहे बौद्ध महोत्सव में मुझे बुलाया गया जहाँ मैंने सुन रखा था कि हेमा मालिनी जैसे बड़े बड़े कलाकार भाग लेने आते हैं. उस कार्यक्रम के बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और लगातार मुझे मौका मिलने लगा. एक कार्यक्रम में जब पहली बार मुझे 10 हजार मिला तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा ये सोचकर कि ये तो पूरा एक फ्रिज का दाम है. और वाकई उस समय मेरे पास फ्रिज नहीं था तो मैंने उस पैसे का फ्रिज खरीद लिया. उन दिनों को याद करके अजीब सी फीलिंग होती है कि एक वो दिन था और एक आज का दिन कि एक कार्यक्रम में मुझे 2 लाख तक मिलते हैं. तब जब मेरे जीवन स्तर में सुधार होने लगा मैंने स्कूटर ख़रीदा , फिर हीरो हौंडा मोटरसाइकल खरीदी जिसका तब बहुत क्रेज था , फिर उसके बाद अल्टो कार खरीदी और फिर उसे बेचकर वैगन आर ले आया. उन दिनों टी.सीरीज की सारी रीजनल रिकॉर्डिंग पटना में हुआ करती थी. मेरी पहचान के एक सज्जन उस कम्पनी से जुड़े थें तो एक दिन उन्होंने कहा कि  'आप आइये और एलबम में गाइये.' जब स्टूडियो पहुंचा तो देखा वहां भोजपुरी इंडस्ट्री के बड़े बड़े चोटी के कलाकार बैठे हुए हैं जिनका एलबम हमेशा आते रहता है. लेकिन वहां मुझे अश्लील शब्दों वाला गीत मिला. उसका ट्रैक बना और मैंने गा भी दिया. जब घर आया तो एकांत में बैठकर यही सोचने लगा कि ये गाना जो मैं गाने जा रहा हूँ, जो रिकॉर्ड होगा, इसको मैं उसे नहीं सुना सकता जिसने मुझे जन्म दिया और उसे भी नहीं सुना सकता जिसको मैं जन्म दूंगा. जो मेरा फैमली बैकग्राउंड है, जो संस्कार है उसके विपरीत हम ऐसा गाना गाकर भी क्या करेंगे. इसलिए हमें नहीं चाहिए ऐसी फूहड़ पॉपुलैरिटी. और अगले दिन जाकर मैंने उनका ऑफर ठुकरा दिया. उनलोगों ने कहा कि 'पछताइयेगा, ऐसा अवसर सबको नहीं मिलता है.' और वो ऐसा इसलिए बोले कि आज के अधिकांश बड़े बड़े गायकों ने भी तब शॉर्टकट अपनाते हुए एलबमों में गंदे गाने गाए थें. लेकिन मैंने निश्चय किया कि सफलता के लिए मैं कोई भी शॉटकट रास्ता नहीं अपनाउंगा क्यूंकि मैंने एक बहुत ही अच्छे गुरु से संगीत सीखा है. तब एक चीज हमने डेवलप किया कि जहाँ गजल होता वहां गजल, जहाँ भजन होता वहां भजन, जहाँ लोक संगीत होता वहां लोक संगीत और जहाँ फ़िल्मी गाने की मांग होती वहां फ़िल्मी गाना गाने लगता. पब्लिक नाचे इसके लिए मैं अश्लील गाऊं ऐसा कभी नहीं सोचें. हम वो दम लगाने लगें कि अच्छा गाना गाकर पब्लिक को झूमने पर मजबूर कर दें. इसी दरम्यान एक टर्निग पॉइंट आया. दैनिक जागरण ग्रुप का आईनेक्स्ट अख़बार उस समय युवाओं को ध्यान में रखकर लांच हुआ था. उसने अपना वेबसाइट बनाया था जिसके लिए एक प्रोग्राम बना 'इकतारा'. वो पूरे इण्डिया का फोक सिंगिंग कम्पटीशन था जिसमे रीजनल लैंग्वेज में कुछ अपना रिकॉर्ड करके भेजना था. तब मेरे मना करने के बावजूद मेरे एक शिष्य ऋषि ने जिद करके मेरा गाना रिकॉर्ड किया और उसकी सीडी बनाकर उस कम्पनी को भेज दिया. 18 हजार लोगों में से सिर्फ 100 लोग सलेक्ट हुए जिनमे मेरा भी नाम था. फिर कई ऑडिशन के बाद अंतिम 8 में जगह बना ली. तब मेरे जितने भी नए पुराने स्टूडेंट थें सबने अख़बारों में मुझे देखकर एस.एम.एस. से मेरे पक्ष में वोटिंग करना शुरू किया. फिर लखनऊ के ग्रैंड फिनाले में जोरदार क्राउड के बीच कई राउंड चले और सबकी दुवाओँ की वजह से अंततः मैं विजयी हुआ. और 2012 में मुझे फोकस्टार ऑफ़ द इंडिया का ख़िताब मिला.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा 'बिहार गौरव' से सम्मानित होते हुए 
जब पटना जंक्शन उतरा तो मेरा भव्य स्वागत हुआ. उसके बाद आये दिन मेरा इंटरव्यू होने लगा, बड़े-बड़े कार्यक्रम में बुलाया जाने लगा. मुंबई के एक म्यूजिक कम्पनी हंट इंटरटेनमेंट ने मेरी लोकप्रियता देखकर मुझे अपना ब्रैंड एम्बेसडर बना दिया. फिर हिंदुस्तान अख़बार के इण्डिया भर के एडिशन में 2 दिन फुल पेज पर मेरी तस्वीर के साथ कम्पनी का एड छपा जिसमे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के हाथों मिले सम्मान 'बिहार गौरव' की तस्वीर भी छपी थी. और उस एड ने रातों-रात मुझे स्टार गायक बना दिया. उसके बाद तो मेरा मानदेय और मंच ऊँचा हो गया. कई चैनलों पर विभिन्न पर्व त्योहारों के कार्यक्रमों के लिए बुलाया जाने लगा. बिहार और भारत सरकार के बड़े बड़े कार्यक्रमों में भी गाने के अवसर मिलने लगें. फिर देश के कोने कोने में स्टेज प्रोग्राम करने लगा जहाँ हिट एलबमों वाले गायक जाते थें. फिर इतना कुछ हासिल होने के बाद मुझे कहीं से भी यह एहसास नहीं हुआ कि मैं आज एलबमों से पॉपुलर नहीं हूँ. उसके बाद मैं मंच से लगातार अश्लील गानेवालों को चुनौती देने लगा कि तुम अच्छा गाना गाओ और उसी से पब्लिक को झुमाओ.' 

Wednesday, 23 August 2017

30 दिव्यांगों का दल निकला वैष्णोदेवी यात्रा पर

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi




पटना, 23 अगस्त को विकलांग अधिकार मंच के बैनर तले कुल 33 सदस्यों का एक दल देश भ्रमण के लिए निकला जिनमे 9 व्हील चेयर दिव्यांगों के साथ अन्य दिव्यांगजन एवं सहयोगी शामिल हैं जो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर, जालियावाला बाग, बाघा बॉर्डर के बाद पूरे 14 किलोमीटर पहाड़ पर माँ वैष्णो देवी का दर्शन करते हुए फिर और ऊंचाई पर चढ़ते हुए शिवखोड़ी के शिव बाबा के दर्शन करेंगे. यह दल 30 .08 .2017 को वापस पटना लौटेगा. दल का नेतृत्व कर रही विकलांग अधिकार मंच की अध्यक्ष कुमारी वैष्णवी ने बताया कि 'इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य दिव्यांगों को सतरंगी दुनिया से परिचित कराने के साथ साथ समाज में भी ये जागरूकता लाना है कि दिव्यांग बच्चे बोझ नहीं हैं.'  वहीँ विकलांग अधिकार मंच के सचिव दीपक कुमार ने कहा कि 'हमारे मंच के द्वारा निरंतर इस तरह की यात्रा आयोजित की जाती है. यह मंच वर्ष 2010 से लगातार एक परिवार (VAM परिवार) के तहत वैसे दिव्यांगों का दार्शनिक/ धार्मिक/ पर्यटक स्थलों का भ्रमण कराते रहा है जो कभी भी अपनी आर्थिक/ शारीरिक कारणों से न जाने की सोच सका और न ही जा सका.'

बाएं से भाजपा कला संस्कृति प्रकोष्ठ के संयोजक वरुण सिंह, 'बोलो ज़िन्दगी' 
के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू' और विकलांग अधिकार मंच की अध्यक्ष वैष्णवी 

पटना जंक्शन पर इस दल के हौसला अफजाई के लिए डॉ. दिवाकर तेजस्वी, डॉ. नीरज, लायंस क्लब के धनंजय कुमार, प्रदेश संयोजक कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ भाजपा बिहार के वरुण कुमार सिंह, सिनेमा इंटरटेनमेंट के रंजीत श्रीवास्तव एवं करण सिंह , 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू' आदि मौजूद हुए और सभी ने हरी झंडी दिखाकर इस प्रेरणास्रोत दल को जोशो खरोश के साथ रवाना किया. दिव्यांगों के इस जज्बे को 'बोलो ज़िन्दगी' का सलाम.

Friday, 18 August 2017

सब्जी बेचनेवाली अंशु आज है वुशू (मार्शल आर्ट) की नेशनल प्लेयर

शाबाश
By : Rakesh Singh 'Sonu'

कुर्जी, पटना की रहनेवाली अंशु गोसाईं टोला स्थित महंत हनुमान शरण उच्च विधालय में 12 वीं की छात्रा है. 2015 -16  के नेशनल वुशू (मार्शल आर्ट) प्रतियोगिता के लिए गोल्ड मैडल जीतकर बिहार से चयनित हो चुकी है.  2016 में अंशु पुणे में हुए 15 वीं जूनियर नेशनल वुशू चैम्पियनशिप में ब्रॉन्ज मैडल जीतकर आई. फिर इसी साल फरवरी 2017 में आंध्रप्रदेश में हुए 'खेलो इण्डिया' वुशू चैम्पियनशिप में गोल्ड मैडल जीतकर आयी.  इस बेहतरीन प्रदर्शन को देखते हुए 29 अगस्त 2017 को खेल दिवस के मौके पर होनेवाले सम्मान समारोह में बिहार के कला संस्कृति एवं युवा विभाग द्वारा अंशु को सम्मानित किया गया. लेकिन अंशु की इस सफलता के पीछे उसके कोच का बहुत बड़ा हाथ है. 2011 में जब अंशु बांकीपुर कन्या उच्च विद्यालय में 6 वीं कक्षा में पढ़ रही थी तभी कुर्जी, चश्मा सेंटर के पास सड़क पर सब्जी बेचने के दौरान उसका परिचय हुआ वर्तमान में उसके कोच एवं पटना वुशू एसोसिएशन के सचिव सूरज कुमार से फिर तो उसकी जिंदगी ही बदल गयी. अंशु के मम्मी-पापा नौबतपुर अपने गांव में रहते हैं और अंशु पटना के कुर्जी स्थित विकासनगर में अपनी नानी के साथ रहती है. चूँकि अंशु के कोई मामा नहीं हैं और नाना जी भी गुजर चुके हैं इसलिए नानी की देखभाल के लिए अंशु अपनी दो बहनों और इकलौता भाई के साथ ननिहाल में ही रहकर पढाई करती है. अंशु के पापा अरुण राय एक पेट्रोलपंप कर्मी हैं तो माँ आंगनबाड़ी शिक्षिका हैं . नौबतपुर से ही रोजाना उनके पापा खगौल स्थित पेट्रोलपंप पर ड्यूटी करने जाते हैं. हफ्ते में दो दिन उसके मम्मी-पापा कुर्जी आकर बच्चों से मिलजुल लेते हैं. बहुत पहले अंशु की नानी की आर्थिक स्थिति को देखकर किसी ने अपनी खाली पड़ी जमीन पर उन्हें सब्जी उगाने की इजाजत दे दी थी. चूँकि अंशु की नानी ही उसकी पढ़ाई-लिखाई का बोझ उठा रही थीं इसलिए उसने भी नानी के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया. स्कूल से घर आने के बाद वो खेत से सब्जियां उठाकर कुर्जी, चश्मा सेंटर के पास ले आती थीं जहाँ फिर नानी के साथ सब्जी बेचने में उनकी मदद करती थी.

खेल सम्मान समारोह में बिहार सरकार द्वारा
पुरस्कृत अंशु अपने कोच सूरज कुमार के साथ 
कुर्जी, चश्मा सेंटर के पास ही रहनेवाले वुशू गेम के पटना जिला के सक्रेटरी सूरज एक शाम सब्जी लेने इनके पास पहुंचे तो उन्हें यह देखकर हैरत हुई  कि स्कूल ड्रेस पहनी एक बच्ची सब्जी बेच रही है. पूछताछ के क्रम में जब सूरज जी को पता चला कि अंशु को खेल कूद में बहुत रूचि है और वह अपने स्कूल की स्पोर्ट्स टॉपर है तब उन्होंने अंशु को वुशू, मार्शल आर्ट मुफ्त में सीखने का ऑफर दिया. फिर अगले ही दिन से अंशु ने सूरज जी की कुर्जी स्थित संस्था में फ्री में वुशू मार्शल आर्ट सीखना शुरू कर दिया. बहुत कम समय में ही अंशु अपना जौहर दिखाने लगी. पहली बार अंशु बिहार कला संस्कृति व युवा विभाग के तत्वधान में आयोजित विधालय वुशू जिला प्रतियोगिता 2013 -14 में दिल्ली में आयोजित 59 वीं नेशनल स्कूल गेम्स 'अंडर 19' में हिस्सा लेकर क्वार्टर फाइनल तक पहुंची. 2014 में फिर एक बार नेशनल के लिए सेलेक्ट होकर 17 वीं जूनियर नेशनल वुशू प्रतियोगिता, छत्तीसगढ़ में हिस्सा लिया. 2015  में आरा में हुए राज्य वुशू प्रतियोगिता में गोल्ड मैडल प्राप्त किया. इसके आलावा सितंबर 2015  में नेशनल विंग चुन कुंगफू प्रतियोगिता, गौहाटी में गोल्ड मैडल जीता. एनसीसी की तरफ से 2014  में दिल्ली केंट में हुए  प्रतियोगिता में भाग लेकर निशानेबाजी में गोल्ड मैडल जीता.

अंशु वुशू (मार्शल आर्ट) की एक मुद्रा में 
उम्र कम होते हुए भी अंशु के इस प्रदर्शन को देखते हुए नॉट्रेडेम एकेडमी स्कूल की 'जूली' संस्था ने वहां पढ़नेवाली गरीब जूनियर बच्चियों के लिए अंशु को स्पोर्ट्स टीचर के रूप में नियुक्त कर लिया. अंशु अपने स्कूल की पढ़ाई करते हुए, वुशु , मार्शल आर्ट की प्रैक्टिस भी करती और जूली संस्था में बतौर स्पोर्ट्स टीचर अपनी सेवाएं देने लगी. लेकिन जब अंशु 10 वीं क्लास में गयी तो अपनी पढ़ाई की वजह से उसने 'जूली' संस्था जाना छोड़ दिया लेकिन वुशू की प्रैक्टिस चलती रही. अंशु की नज़र अब बड़े लेवल की प्रतियोगिताओं पर है जिसमे हिस्सा लेकर वो बिहार के लिए गोल्ड मैडल जितना चाहती है. उसे जो सुविधाएँ मिलनी चाहियें वो नहीं मिल पा रहीं, लेकिन पैसों के अभाव में भी अंशु का हौसला पस्त नहीं हुआ है और वह अपनी उम्र की लड़कियों के लिए एक रोल मॉडल बन गयी है. अंशु को तो सूरज के रूप में गॉडफादर मिल गया लेकिन ठीक उसी हालात से गुजर रही अन्य होनहार बच्चियों का भविष्य क्या होगा अब यह राज्य सरकार को देखना होगा.

Tuesday, 15 August 2017

गाँधी जी से नहीं मिल पाने का मलाल रहा : डॉ. रज़ी अहमद, फाउंडर एवं डायरेक्टर, पटना गाँधी संग्रहालय

जब हम जवां थें
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म बिहार के बेगूसराय जिले के नूरपुर गांव में हुआ. वो बहुत पढ़े -लिखे लोगों का गांव रहा है. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही मदरसे में हुई और वहीँ से आगे की पढ़ाई हम बीहट के मीडिल स्कूल से किये. इंटर के बाद बेगूसराय के ही जे.डी. कॉलेज से हिस्ट्री में बी.ए. ऑनर्स किये. फिर पटना यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. किये 1960 में. रिसर्च के दौरान ही मेरा झुकाव गांधीवाद की तरफ हो गया. उस वक़्त हमने खास तौर से बिहार और चम्पारण के सिलसिले में गाँधी जी से जुड़े कई लोगों का इंटरव्यू किया था जिनमे जे.वी. कृपलानी, दिवाकर जी, बलवंत राय मेहता थें जो गाँधी जी के साथ काम कर चुके थें. तब राजेंद्र प्रसाद देश के प्रधानमंत्री थें और गाँधी स्मारक निधि बन चुकी थी. और उस समय गाँधी संग्रहालय के प्रोजेक्ट को लेकर कमिटी बन चुकी थी जो इन एक्टिव थी. उसमे जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग जुड़े थें. उस समय बलवंत राय मेहता ने मुझसे कहा कि ' क्या आप इसमें आना चाहेंगे?' उस समय मैं नौजवान था, मेरी शादी भी नहीं हुई थी. मेरे राजी होने पर चम्पारण में मुझे एक रिसर्च प्रोजेक्ट मिला कि वहां गाँधी संग्रहालय बनाना है. मैं तब किताबों के माध्यम से ही गाँधी जी को जान-समझ पाया था. अजीब इक्तेफाक ये है कि गाँधी जी बिहार आएं थें और गंगा के उस पार वे गए थें. बेगूसराय भी वे एक दिन के लिए आये थें तब जब विभाजन के वक़्त बिहार में दंगे हो रहे थें. लेकिन हमलोगों के इलाके में दंगा नहीं हुआ था इसलिए गाँधी जी उधर गए नहीं. इस मामले में हमलोग खुशनसीब रहें कि हमारे इलाके में दंगा नहीं हुआ और बदकिस्मत रहें कि हमलोगों ने गाँधी जी को देखा नहीं. तब हमलोग मीडिल स्कूल में बीहट में पढ़ते थें जो तब आजादी की लड़ाई का हॉट बेल्ट था. तब हमलोग बहुत एक्टिव थें. जुलूस निकालने से लेकर आजादी के कई मोमेंट  में सक्रीय रहते थें. डॉ. श्री कृष्ण सिंह जो बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री रहें उन्हें हमारे इलाके से पहचान मिली. 1930 के गढ़पुरा नमक सत्याग्रह से श्री बाबू का नाम आगे बढ़ा और उस सत्याग्रह की सारी ज़मीन तैयार की थी हमारे लीडर रामचरित्र बाबू ने. हमलोगों का परिवार पढ़े लिखों का परिवार रहा इसलिए हम सभी एजुकेशन की तरफ रहें. हम पहली बार पटना आये जब ग्रेजुएशन कर रहे थें और हमें ऑनर्स की किताब खरीदनी थी. उस वक़्त गंगा ब्रिज नहीं था, यहाँ से मोकामा जाकर गंगा नदी पार करके फिर सिमरिया घाट आदि से गुजरते हुए घर पहुंचना होता था जिसमे 24 घंटे लग जाते थें. तभी बहुत बड़ा स्टूडेंट मूवमेंट हो गया और पटना में कर्फ्यू लग गया था. तब पटना यूनिवर्सिटी में हुए इस मूवमेंट में वहां के स्टूडेंट्स ने 15 अगस्त आने पर तिरंगा को जला दिया था. उसी वजह से हंगामा हुआ और बी.एन.कॉलेज के सामने फायरिंग हुई थी जिसमे बी.एन.कॉलेज के स्टूडेंट दीनानाथ पांडे मारे गए थें. तब बहुत बड़ा स्टूडेंट मूवमेंट हुआ जिसमे शहाबुद्दीन की लीडरशिप उभरी थी. तब जे.पी. और श्री कृष्ण सिंह के बीच कंट्रोवर्सी हो गयी थी. जय प्रकाश नारायण का स्टेटमेंट आया कि यहाँ पीस ऑफ़ रेक के लिए नौजवानों का क़त्ल किया जा रहा है. उन्होंने कह दिया कि 'अगर तिरंगे के वैल्यू पर अमल नहीं किया जाये तो यह एक कपड़े का टुकड़ा है. यहाँ नौजवानों की ज़िन्दगी ज्यादा वैल्यूवल है.' और यही बात श्री कृष्ण सिंह को बुरी लग गयी. इस बात को जवाहरलाल नेहरू ने सीरियस ले लिया. तब दो जातों के बीच यहाँ कंट्रोवर्सी का पीरियड हो गया. और उसी कंट्रोवर्सी पर बहुत बाद में एन.एम.पी. श्रीवास्तव जी ने एक किताब लिख डाली. तब अनुग्रह नारायण सिंह के साथ पटना यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स ने बहुत मिस विहेब किया, उनका कुर्ता फाड़  दिया. यह 1954 -55 की बात है जब स्टूडेंट्स ने अपना पैरलर 15 अगस्त मनाया. तब एक हफ्ते तक कर्फ्यू लगा रहा और मैं तब पटना आकर फंस गया था. हमलोगों के गांव के एक टीचर थें जो यहीं मुरादपुर में रहते थें और तब हम उन्हीं के घर में शरण लिए हुए थें.

 
पटना का गाँधी संग्रहालय 
अभी का पटना संग्रहालय तब मोतिहारी में बनना था.जब मेरी पी.एच.डी. हो गयी तब मेरे लिए कोई नौकरी की समस्या नहीं थी. तमाम कॉलेजों से ऑफर थें लेकिन मैंने उसी वक़्त तय कर लिया था कि सरकारी नौकरी नहीं करेंगे. तब बड़े लोगों ने मुझे ऑफर किया जिनमे गुजरात के मुख्यमंत्री और गाँधी संग्रहालय सेन्ट्रल कमिटी के चेयरमैन बलवंत मेहता शामिल थें. मैं उनकी वजह से ही इस क्षेत्र में आया. जब मोतिहारी में संग्रहालय के लिए ज़मीन लेने की बात हुई तो एक एक्सपर्ट कमिटी आई जिसमे 4-5  लोग शामिल थें. तब पटना से मोतिहारी जाने में 24 घंटा लगता था. मोतिहारी जैसी बीहड़ जगह पर पहुंचकर फिर वहां से नरकटियागंज जाने में उन लोगों को पसीना छूट गया. हम तो कहीं भी चले जाते थें, कहीं भी सो जाते थें. उन्होंने कहा कि ' चूँकि एक बड़ी चीज बनने जा रही है इसलिए वहां नहीं बननी चाहिए. फिर 1967 में तय हुआ कि संग्रहालय वहां नहीं पटना में बनेगा. तब पटना में कहाँ बने ये समस्या थी. तब बिहार सरकार ने हमें 4 अल्टरनेटिव दिए थें . उन 4 जगहों में से एक जमीन वो थी जहाँ आज पटना दूरदर्शन है, आस-पास के दो जगह वहां के थें जहाँ आज मौर्या होटल मौजूद है. और चौथी जगह वो जमीन थी जहाँ वैशाली सिनेमा हॉल बना. लेकिन हमारे दिमाग में वो जगह थी जहाँ आकर गाँधी जी ठहरे थें. 1947 में सैयद महमूद जो तत्कालीन शिक्षा मंत्री थें के साथ पटना में गाँधी जी 29 दिन जिस आउट हॉउस में  ठहरे थें वो हमें तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण वल्लभ सहाय ने संग्रहालय के लिए दे दिया.  हमने सोचा अब कहाँ खोजबीन की जाये, इन्ही में से एक को चुनना होगा. जहाँ अभी वर्तमान में संग्रहालय है वहां तब जाफ़र इमाम जो कृष्ण वल्लभ सहाय के कैबिनेट में मिनिस्टर थें रहते थें. लेकिन तब तक दूसरी सरकार आ चुकी थी और जाफ़र इमाम मिनिस्टर नहीं रहें तो उनसे हमलोग जाकर मिलें. उनसे रिक्वेस्ट की कि  'अब तो आप कैबिनेट मेंबर नहीं हैं, आज ना कल आपको यह जगह खाली करनी ही है. अगर यह जगह हमें संग्रहालय के लिए मिल जाती तो सबके लिए अच्छा होगा.'  उन्होंने कहा - ' तो हमें जितना जल्दी हो सके एक मकान दिला दीजिये.' हमने उन्हें वीरचंद पटेल मार्ग में एक खाली मकान दिलवा दिया. उन्होंने तुरंत खाली कर दिया और हमलोगों को जगह हैंडओवर हो गया. हमने वहां पहले लायब्रेरी खोल दी. फिर छोटे छोटे कमरे में म्यूजियम शुरू किया. तब हमलोगों के पास पैसा नहीं था. श्री कृष्ण जी के समय यह तय हुआ था कि संग्रहालय के लिए सरकार 5 लाख देगी. लेकिन वो पैसा हमें मिला नहीं. गाँधी संग्रहालय समिति से हमलोगों को 6  लाख रूपए का 4 % इंट्रेस्ट एलॉट हुआ यानि हमें 24 हजार सालाना मिलता था. उसी में हमें काम चलाना था. उसी में तीन स्टाफ का भी खर्चा वहन करना था. और उस वक़्त हम 150 रूपए महीना लेते थें और हमारे अन्य वर्कर को 100 रूपए मिलता था. तब हमें उसी बजट में से बिजली और टेलीफोन बिल भी देना था. 1969  में जब गाँधी संग्रहालय समिति का दफ्तर यहाँ खुला तब हमें राहत मिली कि बिजली और टेलीफोन बिल का खर्चा समिति पर चला गया. उन दिनों का एक वाक्या याद आता है जब 1960 में ए.एच.वेस का यहाँ गाँधी संग्राहलय में आना हुआ. गाँधी जी साऊथ अफ्रीका में जब इंडियन अख़बार निकालते थें तब उनके जेल चले जाने पर यही ए. एच. वेस. इंडियन ओपिनियन को एडिट करते थें. वे अंग्रेज थें लेकिन गाँधी जी के मूवमेंट को सपोर्ट करते थें. 1960 में वे गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के गेस्ट की हैसियत से हिंदुस्तान देखने-समझने के लिए आये थें. वे जब बिहार आये और घूम रहे थें तो उन्हें हमलोगों ने पटना गाँधी संग्रहालय में भी बुलाया था.
संग्रहालय बनने के क्रम में सरकारें भी बदलीं और मंत्रालय में नए लोग आ गएँ. तब म्यूजियम को लेकर हमें काफी पापड़ बेलना पड़ा और बहुत भाग दौड़ करनी पड़ी. फिर आगे चलकर 2006 में नीतीश सरकार ने पटना गाँधी संग्रहालय का डेवलपमेंट कराया. जवानी के दिनों में हमने सपना देखा था कि मोतिहारी में भी म्यूजियम बने तो वहां हमलोगों ने भारत सरकार से पैसे लेकर म्यूजियम बनाया. फिर भितहरवा म्यूजियम को भी डेवलप करवाया और मुज्जफरपुर में भी म्यूजियम बन गया. यह हमलोगों के लिए ख़ुशी की बात है कि जो 6 गाँधी संग्रहालय पूरे हिंदुस्तान में हैं उनमे से वन ऑफ़ द बेस्ट एक्टिव संग्रहालय पटना का है. जवानी के दिनों का हमने वो दौर देखा है जब आजादी की लड़ाई की बातें हिंदुस्तान की फिजाओं में घूम रही थीं कि एक नया हिंदुस्तान बनेगा. तब जवाहर लाल नेहरू की बातें कानों में गूंज रही थीं कि देश बनाना है और आराम हराम है. किसी ने तब सोचा नहीं था कि जिस गाँधी ने देश के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया उनकी भी हिंदुस्तान में हत्या हो जाएगी. तब पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी थी. गाँधी जी के शहादत के बाद एक कमिटी बनी जिसमे देश के तमाम बड़े नेता एकजुट हुए और यह बात निकली कि गाँधी को हम ज़िंदा बचा नहीं सकें ये हमारे लिए काफी शर्म की बात है लेकिन अब गाँधी के विचारों को बचाना है और उसी का नतीजा है गाँधी संग्रहालय. 

Monday, 14 August 2017

देशभक्ति कार्यक्रम के साथ साथ पटना में रही जन्माष्टमी की धूम

सिटी हलचल 
Reporting : Bolo Zindagi 



वन्देमातरम सांस्कृतिक संध्या


पटना, 14 अगस्त, भारतीय जानत पार्टी कला संस्कृति मंच के तत्वाधान में प्रदेश कार्यालय परिसर में 'वन्देमातरम सांस्कृतिक संध्या' का आयोजन किया गया. इसमें मुख्य रूप से बिहार सरकार के पथ निर्माण मंत्री श्री नंदकिशोर यादव, प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष श्री नित्यानंद राय एवं राज्यसभा सांसद श्री रविंद्र किशोर सिन्हा उपस्थित रहें. पथ निर्माण मंत्री नन्दकिशोर यादव ने कहा कि 'देशभक्ति गीतों के माध्यम से हम सब राष्ट्रहित में अपना योगदान बेहतर ढ़ंग से देने में प्रेरित होते हैं.'  अंतर्ज्योति बालिका विधालय की नेत्रहीन  छात्राओं द्वारा देशभक्ति गीत गाए गए. इसके आलावा अमरेंद्र कुमार, रानी राजपूत, तनु गांगुली, विनय कुमार,पापिया गांगुली, कोमल कश्यप एवं चंदू आर्यन ने अपने देश भक्ति गीतों से श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर दिया. पवन डांस एकेडमी और सर्वोदय डांस एकेडमी के बच्चों द्वारा देशभक्ति गीतों पर डांस की मनमोहक प्रस्तुति की गयी. देशभक्ति से ओतप्रोत नाटक का मंचन भी हुआ जिसमे मुख्य रूप से रंजीत श्रीवास्तव, अमरजीत, सुनील सिंह, विक्की सिंह एवं आराधना गुप्ता ने सराहनीय अभिनय किया लेकिन क्लाइमेक्स सीन में ह्रदय परिवर्तन कर चुके  आतंकवादी बने रंजीत श्रीवास्तव ने दर्शकों को बहुत इमोशनल कर दिया. कार्यक्रम का नेतृत्व कला संस्कृति मंच के प्रदेश संयोजक वरुण सिंह ने किया. मंच संचालन अमित पराशर और माही खान ने किया. इस कार्यक्रम को सफल बनाने में नीरज झा, आनंद पाठक, विनीता मिश्रा, नीरज दुबे, शैलेश महाजन एवं करण सिंह का विशेष योगदान रहा.


 राधाकृष्ण द्वारिका मंदिर में धूमधाम से मना श्री कृष्ण जन्मोत्सव





14 अगस्त, बोरिंग कैनाल रोड, पटना के राधा कृष्ण द्वारिका मंदिर में बहुत ही हर्षोल्लास के साथ कान्हा का जन्मोत्सव मनाया गया जहाँ आस-पास के इलाकों से सैकड़ों की संख्या में महिलाएं, बच्चें एवं युवा शामिल हुए. रात 12 बजे कान्हा को भोग लगाकर श्रधालुओं के बीच प्रसाद वितरण किया गया. मौके पर मौजूद राधा कृष्ण द्वारिका मंदिर पूजा समिति के संस्थापक रंजन यादव 'नवीन' ने बताया कि जन्माष्टमी महोत्सव 19 अगस्त तक चलेगा. दिनांक 18 अगस्त को शाम 4 बजे भव्य शोभा यात्रा निकाली जाएगी और 19 अगस्त को मदन गोपाल के छठिहार और प्रसाद वितरण के साथ महोत्सव का समापन किया जायेगा.

Thursday, 10 August 2017

हमने लोगों के हंसने की कभी परवाह नहीं की: चंचला देवी एवं अर्चना कुमारी,पेट्रोलपंप कर्मी,पटना

सशक्त नारी
By : Rakesh Singh 'Sonu'

चंचला देवी एवं अर्चना कुमारी
लोहानीपुर, पटना की रहनेवाली चंचला देवी एवं अर्चना कुमारी ने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए जो कदम उठायें उससे पूरा का पूरा समाज चौंक पड़ा. फैसला था मर्दों के कार्यक्षेत्र में कदम बढ़ाना. मतलब दोनों ने पटना के डाकबंग्ला चौराहा स्थित पेट्रोल पम्प पर पेट्रोलपम्प कर्मी का काम शुरू कर दिया. लोगों के हंसने और टोकने की कभी परवाह नहीं की. जहाँ अर्चना कुमारी इस पेशे में 6 साल से हैं तो वहीँ चंचला कुमारी लगभग 13 सालों से इस पेशे से जुड़ी हैं. डाकबंगला पेट्रोलपंप की मालकिन नीता शर्मा के प्रोत्साहन का नतीजा है कि ये महिलाएं आज पुरुषों के क्षेत्र में भी डटकर सम्मान के साथ खड़ी हैं.
चंचला जी के पति जयपुर के एक दवा फैक्ट्री में काम करते हैं और उनका एकलौता लड़का पुणे से बी.टेक की पढ़ाई कर रहा है. लेकिन आज से कुछ सालों पहले जब इनके घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होने लगी और सिर्फ इनके पति की कमाई से घर चलाना मुश्किल हो गया तो इन्होंने निर्णय लिया कि अब वे भी घर की चहारदीवारी लांघकर परिवार को संवारने में पति का सहयोग करेंगी. लेकिन ज्यादा पढ़ी लिखी ना होने की वजह से इनको बड़ा जॉब मिलना मुश्किल था लेकिन इतना ज़रूर पढ़ी थीं कि कोई भी ढंग का काम कर सकती थीं. फिर काम की तलाश में शुरू हुई एक जद्दोजहद लेकिन कई जगह से निराशा ही मिली. इनके पड़ोस में ही डाकबंग्ला पेट्रोलपंप की नीता शर्मा जी के एक रिश्तेदार रहते थें और उन्हें जब यह पता चला कि चंचला जी को काम की तलाश है तो उन्होंने बुलाकर पूछा कि 'पेट्रोलपंप पर वर्कर की ज़रूरत है, अगर आपको कोई दिक्कत नहीं तो मैं आपके लिए वहां बात करूँ?' चंचला जी ने हाँ कहने से पहले एक बार पति से पूछना ज़रूरी समझा. उनके पति को कोई एतराज नहीं हुआ बल्कि उन्होंने कहा कि 'कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता, अगर काम और वहां का वातावरण अच्छा है तो तुम कर सकती हो.' अब जब चंचला जी को पति का सपोर्ट मिल गया तो उन्होंने बाकी परिवार और समाज की परवाह नहीं की और अपना काम शुरू कर दिया.

डाकबंग्ला पेट्रोलपंप पर ड्यूटी के वक़्त 
शुरू शुरू में पेट्रोलपंप पर खड़े खड़े काम करते हुए दिक्कत महसूस होती लेकिन फिर धीरे धीरे सब एडजस्ट होने लगा. आज से 12-13 साल पहले एक महिला के लिए यह काम पटना जैसे शहर के लिए बिल्कुल नया और चुनौतीपूर्ण था. चंचला जी बताती हैं कि 'शुरू शुरू में पेट्रोलपंप पर ड्यूटी करते वक़्त मैं लोगों के बीच एक तमाशा बन गयी थी. कुछ लोग चौंककर देखते तो कुछ हंसकर अशोभनीय कमेंट करते हुए निकल जाते. मोहल्ले में भी आस-पड़ोस के लोग ताने मारते और खिल्ली उड़ाते. लेकिन मुझे ये अच्छे से पता था कि मैं कोई गलत काम नहीं कर रही और मुझपर हँसनेवाला यह समाज मुझे रोटी नहीं देगा. इसलिए उनकी टिप्पणियों को अनदेखा करके मैं ईमानदारी से अपने काम में लगी रही और फिर धीरे धीरे मेरी आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर हो गयी.' चंचला जी के मोहल्ले में ही अर्चना जी रहती थीं. एक दिन अचानक जब उनके पति की मौत हो गयी तो उनका अकेले दो छोटे छोटे बच्चों को देखते हुए घर चलाना मुश्किल हो गया. वे चंचला जी से मिलीं और पेट्रोलपंप पर काम दिलाने की बात कही. फिर चंचला जी ने उन्हें मालकिन से मिलवा दिया और चूँकि महिला होने की वजह से वे दूसरी महिलाओं का बहुत सपोर्ट करती थीं इसलिए उन्होंने अपने पेट्रोलपंप पर अर्चना जी को भी रख लिया. जब अर्चना जी इस पेशे से जुड़ी तब तक लोगों का नज़रिया कुछ बदल गया था और फिर धीरे धीरे यही समाज उन्हें और उनके काम को सैल्यूट करने लगा. आज इन दोनों महिलाओं से प्रेरणा लेकर अन्य महिलाएं भी मर्दों के इस पेशे में बेझिझक आ रही हैं और उन्हें यही समाज एक्सेप्ट भी कर रहा है.


2015 में सिनेमा इंटरटेनमेंट द्वारा सम्मानित होती हुई 
चंचला और अर्चना जी के इस कार्य के लिए सिनेमा इंटरटेनमेंट ने 2015 में दोनों को 'सशक्त नारी सम्मान' से सम्मानित किया था. सशक्त नारी सम्मान समारोह के लिए महिलाओं का रिसर्च वर्क करनेवाले राकेश सिंह 'सोनू' जब डाकबंग्ला पेट्रोलपंप पर इनसे मिलने पहुंचे थें तो इन्हें यह जानकर ख़ुशी का ठिकाना ना रहा कि उनको सम्मानित किया जानेवाला है. आश्चर्य करते हुए ख़ुशी से तब दोनों ने कहा था कि ' बाबू, हमारे पास तो साल में सिर्फ एक बार मार्च महीने में महिला दिवस के अवसर पर पत्रकार लोगों का आना होता है. हर साल महिला दिवस के दिन अख़बार में हमारी फोटो छपती है लेकिन आजतक कभी हमें किसी मंच पर सम्मानित नहीं किया गया और कभी ऐसा भी होगा हमने तो इसकी कल्पना तक नहीं की थी.' बिहार की महिलाओं को सम्मानित करनेवाले इस प्रोग्राम में जब ये दोनों महिलाएं कृष्ण मेमोरियल हॉल के मंच पर सम्मनित होने के साथ साथ अभिनेत्री रतन राजपूत जैसी नामचीन हस्तियों के बीच बैठीं तो खुद को गौरान्वित महसूस कर रही थीं. 

Wednesday, 9 August 2017

पति के देहांत के बाद लगा कि जैसे सबकुछ बिखर जायेगा : सीता साहू , मेयर, पटना नगर निगम

वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा मायका नेपाल के जयनगर में है, पिता जी जमींदार थें. हमारा एक घर भारत-नेपाल बॉर्डर पर बसे एक छोटे से कस्बे मारर में भी था जहाँ मेरा जन्म हुआ. उस ज़माने में जयनगर में बस की सवारी नहीं थी तो खेत पर जाने के लिए घर से लोग घोड़े पर बैठकर जाते थें. 10 वीं तक मेरी पढ़ाई वहीँ के एक सरकारी स्कूल में हुई. मैं बचपन से ही खेल में अव्वल आती थी. अपने स्कूल की खेल-कूद प्रतियोगिता में फर्स्ट आती थी. जब 8 वीं 9 वीं की छात्रा थी एक बार स्कूल में राजा हरिश्चंद्र का नाटक हुआ, उसमे मैं माँ की बनारसी साड़ी और गहने पहनकर रानी का किरदार निभाई थी. तब कम उम्र में ही बेटियों की शादी हो जाता थी इसलिए बोर्ड एक्जाम देने के बाद ही 1973 में मेरी शादी हो गयी. मैं हाजीपुर में महनार अपने ससुराल आ गयी. तब एक दो महीना ही वहां रहने के बाद मैं पति के साथ पटना शिफ्ट हो गयी. चूँकि मेरे पति का 1970 से ही पटना में दाल का मिल था जहाँ मसूर और रहर दाल बनता था. मेरे ससुर स्व. रामलखन जी के पांच बेटे थें और उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में ही पांचों को अलग-अलग जगहों पर सेट करा दिया. एक बेटे को पटना, एक को पूर्णिया, एक को महनार और दो बेटों को पटोरी में भेज दिया. फिर वे खुद सभी के यहाँ घूमते रहते थें. तब पटनासिटी के मीना बाजार हाट के पास हमलोग किराये के मकान में रहते थें और उसी में हमारा दाल का मिल हुआ करता था. मेरे मायके एवं ससुराल में बहुत बड़े-बड़े घर थें. लेकिन किराये के माकन में बहुत छोटे छोटे दो ही कमरे थें फिर भी हमें कभी दुःख का एहसास नहीं हुआ. बाद में व्यापार में हुई आमदनी से मेरे पति ने 1979 में खुद का मकान बड़ी पटन देवी जी के पास बनाया. तब फिर दाल का मिल किराये के मकान से अपने खुद के मकान में शिफ्ट हो गया. मैं पढ़ने में बहुत तेज थी और आगे भी पढ़ना चाहती थी. ससुराल में ससुर जी और पति के सपोर्ट से मैंने जयनगर के ही एक कॉलेज से पत्राचार द्वारा हिंदी में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. पटना में तब अक्सर गांव-ससुराल के लोग इलाज कराने ,घूमने और मार्केटिंग के लिए आते ही रहते थें. तब सभी की सेवा करने में मुझे ख़ुशी होती थी, परिवार के प्रति एक समर्पण का भाव था. घर  हमेशा परिवार से भरा रहता था. कभी-कभी मेरे पति चिंतित हो जाते ये सोचकर कि ये अकेले कैसे सबके लिए इतना काम करेगी. लेकिन मैं उन्हें समझाती कि 'सब हो जायेगा आप चिंता न करें, इतने लोगों का मुझे प्यार मिल रहा है वह कम है क्या.?'

अपने पति स्व. वैजनाथ साहु जी के साथ सीता साहू जी के यादगार पल 
मुझे फिल्मों का बहुत शौक रहा है. मायके में भी मैं बहुत फ़िल्में देखा करती और फिर ससुराल आने के बाद भी फ़िल्में बड़े चाव से देखती. तब हर सन्डे पटना के अशोक, रूपक या वैशाली सिनेमा हॉल में पति के साथ फिल्म देखने चली जाती थी. तब मुझमें अमिताभ बच्चन की फिल्मों का बहुत क्रेज था और वहीदा रहमान एवं  माला सिन्हा मेरी फेवरेट हीरोइनें थीं. पति को भी फिल्में देखनी पसंद थीं इसलिए एक बार तो ऐसा हुआ कि एक हॉल से हम 3 से 6 की फिल्म देखकर निकले और फिर 6 से 9 की दूसरी फिल्म देखने चले गए. तब फिल्मे देखकर अक्सर होटल में खाना खाकर ही घर लौटते थें. तब मुझे ज़रा सा भी एहसास नहीं था कि हमारी इन खुशियों को किसी की बुरी नज़र लग जाएगी. अब तो फिल्मों का मोह ऐसा छूट गया है कि सिर्फ समाज की भलाई में ही वक़्त देने को दिल करता है. मेरे पति नेता स्वभाव के थें. चूँकि मेरे ससुर स्व. रामलखन जी भी अपने गांव-समाज के अच्छे नेता हुआ करते थें जिन्हे आस-पड़ोस के गांववाले भी प्रधान जी कहकर बुलाते थें. अक्सर वे गांव के गरीब गुरबों की मदद किया करते थें. तो उन्हीं का संस्कार और परछाई मेरे पति एवं बच्चों पर पड़ गयी. उनकी तरह ही मेरे पति तब मोहल्ले में निस्वार्थ भाव से दूसरों की मदद करने लगें. वे मोहल्ले में सर्वप्रिय थें. इसी वजह से समाज के लोग उन्हें नेता जी कहकर बुलाते थे. लेकिन हमारी ही जाति के वहां के कुछ लोगों से उनकी तरक्की देखी नहीं गयी कि गंगा उस पार का महज 40 साल की उम्र का एक आदमी हमारे बीच आकर इतनी तरक्की कैसे कर रहा है, लोगों के बीच लोकप्रिय बन रहा है और इसी जलनवश 23 जुलाई, 1990 को मेरे पति स्व. वैजनाथ प्रसाद साहू की हत्या कर दी गयी. तब बच्चे बहुत छोटे थें. दो लड़का एवं एक लड़की में से तब बड़ी बेटी बोर्ड का एक्जाम दे चुकी थी, रिजल्ट आनेवाला था. दोनों लड़के डॉनबास्को स्कूल के हॉस्टल में पढ़ रहे थें. पति की अचानक मौत के बाद लगा कि जैसे सबकुछ बिखर जायेगा. तब हम माँ बेटी ही घर में रहते थें. हादसे के बाद ससुराल से हमारे भैंसुर कभी-कभी यहाँ आकर हमारी देखरेख कर लिया करते थें. बिजनेस में भी उन्होंने 2 साल तक हमारी मदद की. फिर कुछ सालों तक मुझे गद्दी पर बैठकर पति का बिजनेस संभालना पड़ा. जब मेरा बड़ा बेटा बोर्ड एक्जाम दे दिया तो बिजनेस में मेरी कुछ मदद करने लगा. फिर जब कॉमर्स कॉलेज में ग्रेजुएशन करने लगा तो उसने पूरी तरह से बिजनेस संभाल लिया. आगे चलकर अपनी मेहनत की बदौलत मेरा बेटा शिशिर कुमार महाराजगंज खाद व्यवसायी संघ का सचिव भी बन गया. उसके बाद मेरी चिंता कुछ कम हुई और मैं पूरी तरह से हाउसवाइफ बन गयी. मेरे स्वर्गवासी पति का सपना था कि मैं भी राजनीति में आकर समाज की सेवा करूँ. शुरू में मुझे राजनीति से कोई लगाव नहीं था लेकिन मुझे पति का सपना पूरा करना था. फिर बच्चों और पति के शुभचिंतक समाज के कई लोगों के सहयोग से मैं वार्ड पार्षद का चुनाव जीत गयी. तब वार्ड चुनावों में पटना में सबसे ज्यादा वोट मुझे ही मिले.


2017 में चुनाव जीतकर पटना की पहली महिला मेयर बनने की ख़ुशी 
तभी महापौर (मेयर) के चुनाव में भी महिला की आरक्षित सीट से मैंने पर्चा भरा और पहली बार ही चुनाव लड़कर मैं पटना की पहली महिला मेयर बन गयी. मेरे पति के नहीं रहने के बाद भी उनका स्वभाव हमने अपनाया और अपने बेटे के साथ हर किसी को अपनी क्षमता के अनुसार मदद करने लगी. शायद उसी वजह से समाज के लोगों के बीच मेरे और मेरे परिवार की अच्छी छवि बन चुकी थी जो जीत में मददगार साबित हुई. तब हम ये कभी नहीं सोचे थें कि एक दिन वार्ड का चुनाव लड़ेंगे. जब मैं वार्ड चुनाव में घर-घर वोट मांगने जाती तो लोग उल्टा हाथ जोड़कर कहते कि ' आप यहाँ आकर वोट मांगने का कष्ट नहीं कीजिये, हमलोग आप ही को वोट देंगे.' चुनाव के वक़्त तब सबलोग मेरे बारे में यही जानते थें कि मैं घर से निकलती नहीं हूँ. लेकिन मैं प्रचार में दो दो बार सभी के घर पर गयी. उस दौरान मुझे जाननेवाले आश्चर्य करते कि मौसी सब जगह घूमने जा रही है !  मैं तीन-चार घंटे धूप में सुबह 9 बजे निकलती तो 12 -1 एक बजे घर आती थी. फिर शाम में 5 -6 बजे निकलती तो घर आते आते 9 -10 बज जाता था. मेरी टीम के सहयोगी पुरुष सदस्य एक टाइम घूमकर ही पस्त हो जाते थे लेकिन मुझे सुबह-शाम दोनों टाइम घूमने के बाद भी कोई दिक्कत महसूस नहीं होती थी. शायद मेरे पति का आशीर्वाद था मेरे साथ. पहले तो मुझे सिर्फ अपने ही वार्ड के देखरेख की जिम्मेदारी मिली थी लेकिन अब मुझे पटना के सभी वार्डों को देखना है. अब तो मुझे अपने स्वर्गवासी पति का सपना साकार  करना है और पटना शहर को स्वच्छ  बनाना है. 

Sunday, 6 August 2017

'सावन की उमंग दिव्यांगों के संग' कार्यक्रम में सम्मानित हुए दिव्यांग कलाकार

सिटी हलचल
Reporting : Bolo Zindagi

कार्यक्रम का उद्घाटन करते केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद 

पटना, 6 जुलाई, भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय प्रांगण में भाजपा कला संस्कृति प्रकोष्ठ के तत्वाधान में 'सावन की उमंग दिव्यांगों के संग' कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम का उद्देश्य था राज्य के कोने कोने से दिव्यांग कलाकरों को बुलाकर उन्हें प्रतिभा दिखाने का मौका देते हुए उन्हें सम्मानित एवं प्रोत्साहित करना . इस कार्यक्रम की परिकल्पना एवं कुशल नेतृत्व के लिए भाजपा कला संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक बरुण सिंह का योगदान बहुत ही सराहनीय रहा जिन्होंने विकलांग अधिकार मंच की प्रदेश अध्यक्ष वैष्णवी जी के सहयोग से इस कार्यक्रम को न सिर्फ सफल बनाया बल्कि राज्यभर के दिव्यांग कलाकारों में एक नयी ऊर्जा एवं जोश भरने का कार्य किया. कार्यक्रम का उद्घाटन केंद्रीय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद के द्वारा किया गया. इस अवसर पर उन्होंने कहा कि 'यह कार्यक्रम निश्चित रूप से समाज में दिव्यांगों के प्रति सोच को और प्रबल करने में सहायक सिद्ध होगा.' दिव्यांगों को समाज का एक प्रमुख अंग बताते हुए कहा कि 'देश को विकास की और अग्रसर करने में इनकी भी महत्वपूर्ण भागीदारी होनी चाहिए.' वहीँ इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के तौर पर मौजूद केंद्रीय राज्यमंत्री रामकृपाल यादव जी ने कहा कि - 'दिव्यांगों के लिए ऐसे प्रतिभा निखारने के कार्यक्रम और ज्यादा संख्या में होने चाहिए जिससे इनका मनोबल ऊँचा हो एवं ये भी समाज में अपनी जगह मजबूती से बनाते हुए राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका तय कर सकें.'


मधु जायसवाल 'बोलो ज़िन्दगी' के एडिटर राकेश सिंह 'सोनू' 
और कोच अमलेश कुमार के साथ 
इस कार्यक्रम में विकलांग अधिकार मंच के दूर दूर से आये कलाकारों एवं अंतरज्योति विधालय की नेत्रहीन छात्राओं ने अपनी प्रतिभा दिखाई. दिव्यांग फुटबॉल टीम के राष्ट्रिय खिलाडियों, विकलांग अधिकार मंच के कलाकारों, डेफ लॉन टेनिस की इंटरनेशनल प्लेयर मधु जायसवाल और डेफ नेशनल अवार्ड विनर पेंटर शुभ्रा को भाजपा कला संस्कृति प्रकोष्ठ द्वारा सम्मानित किया गया.


विकलांग अधिकार मंच की टीम 
विकलांग अधिकार मंच के दिव्यांग कलाकारों और अंतरज्योति विधालय की नेत्रहीन छात्रों ने रैम्प शो, डांस, नाटक एवं कजरी गीत के गायन से सबका दिल जीत लिया. इस अवसर पर ओम साईं भारत गैस के वितरक अमित कुमार द्वारा नवविवाहित दिव्यांग जोड़े को अपने नए जीवन की शुरुआत हेतु उपहार स्वरूप गैस कनेक्शन भेंट किया गया. पटना की पहली मेयर बनी सीता साहू ने भी वहां उपस्थित होकर कलाकारों का उत्साहवर्धन किया. कार्यक्रम को सफल बनाने में पूर्व कार्यकारिणी सदस्य आनंद पाठक, विनीता मिश्रा एवं सिनेमा इंटरटेनमेंट की पूरी टीम का योगदान महत्वपूर्ण रहा. दिव्यांगों के इस सांस्कृतिक कार्यक्रम को और भी सावनमय बनाने के लिए वहां लोकप्रिय गायकों की टोली मौजूद थी जिसमे मुख्य रूप से सत्येंद्र कुमार संगीत, अमर आनंद, पापिया गांगुली, तनु गांगुली, रानी राजपूत, खुशबू उत्तम, कोमल कश्यप, अमित पराशर एवं चंदू आर्यन ने अपनी गायिकी से श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर दिया. इसके साथ ही साथ परिसर में दिव्यांग कलाकारों की पेंटिंग प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसमे मुख्य तौर पर ममता भारती एवं बाल कलाकार शुभ्रा की पेंटिंग ने लोगों की वाहवाही बटोरी. 

Latest

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष्य में पटना में बाईक रैली Ride For Women's Safety का आयोजन किया गया

"जिस तरह से मनचले बाइक पर घूमते हुए राह चलती महिलाओं के गले से चैन छीनते हैं, उनकी बॉडी टच करते हैं तो ऐसे में यदि आज ये महिला...