वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'
मेरा जन्म पटना के गोपालपुर तिनेरी गांव में हुआ. मेरे पिता जी श्री शिव लखन सिंह किसान हैं. हम 6 भाई बहन हैं. हमारी हाई स्कूल तक की पढ़ाई गांव में हुई फिर इंटर की पढ़ाई जहानाबाद के एस.एस. कॉलेज से हुई. उसके बाद मैं पटना आ गया फिर एम.ए. और बी.एड. तक की पढ़ाई पटना विश्वविधालय से की. गाने का शौक स्कूल से ही था. हमारे मिडिल स्कूल में तब शनिवारीय सभा होती थी. एक दफा स्कूल के एक मास्टर साहब ने जब मुझे क्लास में गाते सुना तो बोले 'शनिवार वाले कार्यक्रम में तुम्हारा गाना होगा.' फिर उस सभा में मेरा गाना हुआ और वहां से उस बात का प्रचार हो गया कि हम गाना गाते हैं. मेरे गांव में तब नाटक हुआ करते थें उसमे मेरा सलेक्शन हुआ गाने के लिए और मंच पर पहली बार जब एकल गायन के लिए पहुंचा तो पाँव कांप रहे थें. हम क्या गायें, कैसे गायें हमें कुछ ध्यान नहीं रहा बस किसी तरह गा दिए. लेकिन अगली सुबह जब हम गांव में निकलें तो कोई चाचा तो कोई बड़े भाई सब तारीफ करने लगें 'बड़ा अच्छा गाए तुम' और इससे मेरा मनोबल बढ़ा. मेरे घर परिवार में तब संगीत का कोई माहौल नहीं था. लेकिन तब साल में एक बार होली के समय पिता जी ढ़ोलक बजाते थें और मेरे बड़े बाबू जी पूजा के समय आरती बहुत अच्छा गाते थें. मेरी माँ भी बहुत अच्छा गुनगुना लेती थीं. लेकिन तब भी हमारे यहाँ संगीत सीखने वगैरह की कभी बात नहीं होती थी. जब मैं मैट्रिक में था तो पटना जिला के ही नौबतपुर के पास के गांव में मेरी छोटी बुआ के यहाँ कोई फंक्शन था तो मैं पहली बार पिता जी के साथ वहां गया. वहां देखा कि पूरा गाना-बजाना चल रहा है. चूँकि मुझे भी गाने का शौक था तो मैंने भी गाने गा दिए और लोगों की बहुत तारीफें मिलीं. मेरे फुफेरे भाई श्री श्यामदेव शर्मा जो गाने का शौक रखते थें ने मेरे पिता जी से कहा ' मामू, आप इसको संगीत सिखवाइये.' लेकिन पिता जी ने कहा ' नहीं, संगीत सीखेगा तो बच्चा बिगड़ जायेगा, पढ़ाई-लिखाई नहीं करेगा.' उसके बाद भी फुफेरे भाई और मैंने परिवार की बातों की अनदेखी करके मैट्रिक बाद खुद से संगीत सीखना शुरू किया. एक बार मुझे घर से 1000 -500 रूपए मिले बाजार से खाद खरीदकर लाने के लिए. उसे लेकर मैं अपने फुफेरे भैया श्यामदेव के पास चला गया और एक हारमोनियम खरीदकर ले आया. मुझे खूब डाँट पड़ी, हमारे एक चचेरे भाई माचिस लेकर आ गए हारमोनियम में आग लगाने के लिए. तब हमारे पिता जी एवं चाचा जी ने बीच बचाव किया और बोले 'हारमोनियम का हमें भी बहुत शौक था, अब जब आ गया है तो अच्छी बात है.' तब पारिवारिक वातावरण में विरोध था ही, हमारी सामाजिक बनावट भी ऐसी थी कि उसके बाद गांव के लोग मुझे टोकते कि ' सुने हैं जी, हारमोनियम लाये हो. लगता है गाँधी मैदान में जाकर बैठोगे. अब एक सारंगी भी ले आओ और खोल लो एक नाच पार्टी.' कोई कहता 'ये मैट्रिक पास किया और नचनिया-बजनिया वाला लाइन पकड़ लिया.' लेकिन फिर भी पता नहीं कहाँ से मेरे अंदर शक्ति थी कि तब उनकी आलोचनाओं को मैं अनसुना करता रहा. तब राजेश खन्ना की फिल्म का एक गाना मुझे हतोत्साहित नहीं होने देता था कि ' कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना.' हमारे यहाँ तब गांव के सारे लोग शाम में बैठकर रेडिओ पर गाने सुनते थें जिनमे बड़े बड़े कलाकारों का गायन होता था. और खत्म होते ही सबलोग वाह-वाह की आवाज के साथ तालियां बजाते थें. ये सभी चीजें मुझे अट्रैक्ट करती थीं और सोचने लगता कि मैं भी अगर रेडिओ स्टेशन जाकर गाऊं तो ऐसे ही हवा में मेरा गाना आएगा और सबलोग सुनकर वाह-वाह करेंगे.' फिर मैं जब ग्रेजुएशन करने पटना आया तो स्टेशन के बगल में एक ममेरे भाई राजेश के साथ रूम शेयर करके रहने लगा. 1991 में वहीँ रहते रहते मैं बिहार के प्रतिष्ठित संगीतज्ञ पं.श्यामदास मिस्र जी के शरण में गया. वो गुरु जी के नाम से विख्यात थें. तब तक मैं रॉ-मेटेरियल था, गांव में नाटक और रेडियो से ही कुछ सीखा था. वहां हमने विधिवत संगीत सीखना शुरू किया. तब पैसे की दिक्क्त थी और मुझे गुरु जी को फ़ीस भी देनी थी. कॉलेज की पढ़ाई का खर्चा घर से मिल रहा था. जब फॉर्म भरने का समय आता तो घर जाते थें, फिर अनाज बिकता था, फिर बनिया दो-चार दिन में पैसे लेकर देता था तब जाकर हमें पढ़ाई के लिए पैसे मिलते थें. तो इस पैसे के दर्द को हम समझते थें कि कितनी मेहनत से धान-गेहूं उपजा और फिर वो बिका तब पैसा आया. इसलिए हमने सोचा कि गुरु जी के फ़ीस के पैसे अगर मांगूंगा तो घर में विरोध होगा तो क्यों नहीं खुद से कुछ कमाई की जाये. तब एक दिन राजेंद्र नगर गोलंबर के पास जहाँ से कभी कभी मैगजीन खरीदता था पता चला कि वो स्टॉल बिकने वाला है. तब मैंने उनके पास जाकर वो खरीद लिया और वो बुक-स्टॉल हम चलाने लगें. उसके साथ साथ ऑनर्स भी कर रहे थें और संगीत भी सीख रहे थें. हमने सोचा कि अब दिनभर तो बुक स्टॉल नहीं खोल सकते तो हमने वहां कम्पटीटिव बुक्स और कुछ स्टेश्नरी का सामान भी रखना शुरू किया. शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक स्टॉल चलता था. वहां पढ़नेवाले बच्चों का ही आना-जाना था इसलिए मेरी दुकान चलने लगी. उसकी आमदनी से मैंने एक साइकल खरीदी और उसी से पटनासिटी संगीत सीखने जाता था. हमारे सेवा भाव एवं लगन से खुश होकर एक दिन हमारे गुरुदेव ने कहा कि 'तुम इतनी दूर से आते हो, तुम्हारा बहुत वक़्त बर्बाद हो जाता है और भी तुम क्या क्या करते हो इसलिए छोडो सब, तुम यहीं मेरे पास रहने आ जाओ.' उनका आदेश होते ही बुक स्टॉल का शटर डाउन हो गया. मैंने वो स्टॉल बेच दिया और पटनासिटी रहने आ गया. गुरु जी के घर के नीचे बने एक कमरे में रहने लगा. पहले कुछ दिन खुद से ही बनाकर खाता था फिर बाद में गुरु जी अपने घर में ही मुझे खिलाने लगें. खूब लगन से सीखते हुए मैंने संगीत में मास्टर डिग्री ली. उधर मेरा एम.ए. के बाद बी.एड. भी हो गया. उसके बाद मेरी गांव में शादी हो गयी. शादी के बाद मैंने सोचा कि संगीत से अब कुछ कमाई की जाये. मैंने गुरु जी से पूछा कि 'क्या मैं इस काबिल हूँ कि किसी को संगीत सीखा सकता हूँ.?' फिर उनका आदेश मिलते ही मैं पटना आकर संगीत का ट्यूशन देने लगा. कुछ दिनों बाद मैं एक स्कूल में बच्चों को सप्ताह में दो दिन म्यूजिक सिखाने लगा. इसी तरह दो दो दिन के लिए दो और स्कूल ज्वाइन कर लिया जहाँ 2 घंटे की क्लास देनी होती थी. मेरा काम था बच्चों को संगीत सिखाना, उनसे गवाना और स्कूल के प्रोग्राम में भाग लिवाना. उसके बाद मैंने आकाशवाणी में सुगम संगीत के लिए ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होकर वहां से भी गाने लगा. पहली बार जब पटना रेडियो स्टेशन से मेरा गाना प्रसारित हुआ तो उसके पहले मैं गांव गया और सबको बताया कि आज रेडियो पर मेरा गाना होगा. सभी लोगों ने चाव से सुना और तब लोगों की नचनिया-बजनिया वाली बात वहीँ दब गयी. वे बोले - 'अब तो ये रेडियो स्टेशन का कलाकार हो गया है.' उन दिनों गांव में ऐसे ही किसी के गाने का कोई मोल नहीं था लेकिन रेडियो के कलाकार को इज्जत मिलती थी. उसी दौरान जब 1990 में पटना दूरदर्शन केंद्र की स्थापना हुई तो उसपर भी कुछ कार्यक्रम आने लगें. और फिर टीवी पर लोगों ने मुझे देखा तो बहुत तारीफ मिली.
तब मेरा रहना पटना ट्रेनिंग कॉलेज के हॉस्टल में होता था. तब हॉस्टल में रहनेवाले, साइकल से चलनेवाले आदमी को तीन - चार हजार महीना मिल जाये तो पॉकेट कभी खाली ही नहीं होता था. न मुझे कुछ खाने-पीने की तलब थी और न मैं फिजूल खर्च करता था तो ऐसे में मुझे एहसास होता कि मेरे पास बहुत पैसे हैं. इसी दौरान मैं ट्यूशन और स्कूल में पढ़ाने के साथ साथ खुद का एक इंस्टीच्यूट भी चलाने लगा जहाँ बच्चे संगीत सीखने आने लगें. फिर हम पत्नी को गांव से पटना ले आएं और कंकड़बाग में किराये के मकान में साथ रहने लगें. धीरे धीरे यूँ ही संघर्ष की गाड़ी चलती रही और फिर हम परफॉर्मिंग लाइन में आ गएँ. उन्हीं दिनों 1997 में बिहार सरकार के एक कार्यक्रम 'युवा महोत्सव' में गाँधी मैदान में मुझे गाने का अवसर मिला जहाँ कला संस्कृति विभाग के पधादिकारी भी बैठें थें. वहां गाने का लाभ मुझे मिला और उस आयोजन के तुरंत बाद बोध गया में होने जा रहे बौद्ध महोत्सव में मुझे बुलाया गया जहाँ मैंने सुन रखा था कि हेमा मालिनी जैसे बड़े बड़े कलाकार भाग लेने आते हैं. उस कार्यक्रम के बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और लगातार मुझे मौका मिलने लगा. एक कार्यक्रम में जब पहली बार मुझे 10 हजार मिला तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा ये सोचकर कि ये तो पूरा एक फ्रिज का दाम है. और वाकई उस समय मेरे पास फ्रिज नहीं था तो मैंने उस पैसे का फ्रिज खरीद लिया. उन दिनों को याद करके अजीब सी फीलिंग होती है कि एक वो दिन था और एक आज का दिन कि एक कार्यक्रम में मुझे 2 लाख तक मिलते हैं. तब जब मेरे जीवन स्तर में सुधार होने लगा मैंने स्कूटर ख़रीदा , फिर हीरो हौंडा मोटरसाइकल खरीदी जिसका तब बहुत क्रेज था , फिर उसके बाद अल्टो कार खरीदी और फिर उसे बेचकर वैगन आर ले आया. उन दिनों टी.सीरीज की सारी रीजनल रिकॉर्डिंग पटना में हुआ करती थी. मेरी पहचान के एक सज्जन उस कम्पनी से जुड़े थें तो एक दिन उन्होंने कहा कि 'आप आइये और एलबम में गाइये.' जब स्टूडियो पहुंचा तो देखा वहां भोजपुरी इंडस्ट्री के बड़े बड़े चोटी के कलाकार बैठे हुए हैं जिनका एलबम हमेशा आते रहता है. लेकिन वहां मुझे अश्लील शब्दों वाला गीत मिला. उसका ट्रैक बना और मैंने गा भी दिया. जब घर आया तो एकांत में बैठकर यही सोचने लगा कि ये गाना जो मैं गाने जा रहा हूँ, जो रिकॉर्ड होगा, इसको मैं उसे नहीं सुना सकता जिसने मुझे जन्म दिया और उसे भी नहीं सुना सकता जिसको मैं जन्म दूंगा. जो मेरा फैमली बैकग्राउंड है, जो संस्कार है उसके विपरीत हम ऐसा गाना गाकर भी क्या करेंगे. इसलिए हमें नहीं चाहिए ऐसी फूहड़ पॉपुलैरिटी. और अगले दिन जाकर मैंने उनका ऑफर ठुकरा दिया. उनलोगों ने कहा कि 'पछताइयेगा, ऐसा अवसर सबको नहीं मिलता है.' और वो ऐसा इसलिए बोले कि आज के अधिकांश बड़े बड़े गायकों ने भी तब शॉर्टकट अपनाते हुए एलबमों में गंदे गाने गाए थें. लेकिन मैंने निश्चय किया कि सफलता के लिए मैं कोई भी शॉटकट रास्ता नहीं अपनाउंगा क्यूंकि मैंने एक बहुत ही अच्छे गुरु से संगीत सीखा है. तब एक चीज हमने डेवलप किया कि जहाँ गजल होता वहां गजल, जहाँ भजन होता वहां भजन, जहाँ लोक संगीत होता वहां लोक संगीत और जहाँ फ़िल्मी गाने की मांग होती वहां फ़िल्मी गाना गाने लगता. पब्लिक नाचे इसके लिए मैं अश्लील गाऊं ऐसा कभी नहीं सोचें. हम वो दम लगाने लगें कि अच्छा गाना गाकर पब्लिक को झूमने पर मजबूर कर दें. इसी दरम्यान एक टर्निग पॉइंट आया. दैनिक जागरण ग्रुप का आईनेक्स्ट अख़बार उस समय युवाओं को ध्यान में रखकर लांच हुआ था. उसने अपना वेबसाइट बनाया था जिसके लिए एक प्रोग्राम बना 'इकतारा'. वो पूरे इण्डिया का फोक सिंगिंग कम्पटीशन था जिसमे रीजनल लैंग्वेज में कुछ अपना रिकॉर्ड करके भेजना था. तब मेरे मना करने के बावजूद मेरे एक शिष्य ऋषि ने जिद करके मेरा गाना रिकॉर्ड किया और उसकी सीडी बनाकर उस कम्पनी को भेज दिया. 18 हजार लोगों में से सिर्फ 100 लोग सलेक्ट हुए जिनमे मेरा भी नाम था. फिर कई ऑडिशन के बाद अंतिम 8 में जगह बना ली. तब मेरे जितने भी नए पुराने स्टूडेंट थें सबने अख़बारों में मुझे देखकर एस.एम.एस. से मेरे पक्ष में वोटिंग करना शुरू किया. फिर लखनऊ के ग्रैंड फिनाले में जोरदार क्राउड के बीच कई राउंड चले और सबकी दुवाओँ की वजह से अंततः मैं विजयी हुआ. और 2012 में मुझे फोकस्टार ऑफ़ द इंडिया का ख़िताब मिला.
जब पटना जंक्शन उतरा तो मेरा भव्य स्वागत हुआ. उसके बाद आये दिन मेरा इंटरव्यू होने लगा, बड़े-बड़े कार्यक्रम में बुलाया जाने लगा. मुंबई के एक म्यूजिक कम्पनी हंट इंटरटेनमेंट ने मेरी लोकप्रियता देखकर मुझे अपना ब्रैंड एम्बेसडर बना दिया. फिर हिंदुस्तान अख़बार के इण्डिया भर के एडिशन में 2 दिन फुल पेज पर मेरी तस्वीर के साथ कम्पनी का एड छपा जिसमे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के हाथों मिले सम्मान 'बिहार गौरव' की तस्वीर भी छपी थी. और उस एड ने रातों-रात मुझे स्टार गायक बना दिया. उसके बाद तो मेरा मानदेय और मंच ऊँचा हो गया. कई चैनलों पर विभिन्न पर्व त्योहारों के कार्यक्रमों के लिए बुलाया जाने लगा. बिहार और भारत सरकार के बड़े बड़े कार्यक्रमों में भी गाने के अवसर मिलने लगें. फिर देश के कोने कोने में स्टेज प्रोग्राम करने लगा जहाँ हिट एलबमों वाले गायक जाते थें. फिर इतना कुछ हासिल होने के बाद मुझे कहीं से भी यह एहसास नहीं हुआ कि मैं आज एलबमों से पॉपुलर नहीं हूँ. उसके बाद मैं मंच से लगातार अश्लील गानेवालों को चुनौती देने लगा कि तुम अच्छा गाना गाओ और उसी से पब्लिक को झुमाओ.'
By : Rakesh Singh 'Sonu'
मेरा जन्म पटना के गोपालपुर तिनेरी गांव में हुआ. मेरे पिता जी श्री शिव लखन सिंह किसान हैं. हम 6 भाई बहन हैं. हमारी हाई स्कूल तक की पढ़ाई गांव में हुई फिर इंटर की पढ़ाई जहानाबाद के एस.एस. कॉलेज से हुई. उसके बाद मैं पटना आ गया फिर एम.ए. और बी.एड. तक की पढ़ाई पटना विश्वविधालय से की. गाने का शौक स्कूल से ही था. हमारे मिडिल स्कूल में तब शनिवारीय सभा होती थी. एक दफा स्कूल के एक मास्टर साहब ने जब मुझे क्लास में गाते सुना तो बोले 'शनिवार वाले कार्यक्रम में तुम्हारा गाना होगा.' फिर उस सभा में मेरा गाना हुआ और वहां से उस बात का प्रचार हो गया कि हम गाना गाते हैं. मेरे गांव में तब नाटक हुआ करते थें उसमे मेरा सलेक्शन हुआ गाने के लिए और मंच पर पहली बार जब एकल गायन के लिए पहुंचा तो पाँव कांप रहे थें. हम क्या गायें, कैसे गायें हमें कुछ ध्यान नहीं रहा बस किसी तरह गा दिए. लेकिन अगली सुबह जब हम गांव में निकलें तो कोई चाचा तो कोई बड़े भाई सब तारीफ करने लगें 'बड़ा अच्छा गाए तुम' और इससे मेरा मनोबल बढ़ा. मेरे घर परिवार में तब संगीत का कोई माहौल नहीं था. लेकिन तब साल में एक बार होली के समय पिता जी ढ़ोलक बजाते थें और मेरे बड़े बाबू जी पूजा के समय आरती बहुत अच्छा गाते थें. मेरी माँ भी बहुत अच्छा गुनगुना लेती थीं. लेकिन तब भी हमारे यहाँ संगीत सीखने वगैरह की कभी बात नहीं होती थी. जब मैं मैट्रिक में था तो पटना जिला के ही नौबतपुर के पास के गांव में मेरी छोटी बुआ के यहाँ कोई फंक्शन था तो मैं पहली बार पिता जी के साथ वहां गया. वहां देखा कि पूरा गाना-बजाना चल रहा है. चूँकि मुझे भी गाने का शौक था तो मैंने भी गाने गा दिए और लोगों की बहुत तारीफें मिलीं. मेरे फुफेरे भाई श्री श्यामदेव शर्मा जो गाने का शौक रखते थें ने मेरे पिता जी से कहा ' मामू, आप इसको संगीत सिखवाइये.' लेकिन पिता जी ने कहा ' नहीं, संगीत सीखेगा तो बच्चा बिगड़ जायेगा, पढ़ाई-लिखाई नहीं करेगा.' उसके बाद भी फुफेरे भाई और मैंने परिवार की बातों की अनदेखी करके मैट्रिक बाद खुद से संगीत सीखना शुरू किया. एक बार मुझे घर से 1000 -500 रूपए मिले बाजार से खाद खरीदकर लाने के लिए. उसे लेकर मैं अपने फुफेरे भैया श्यामदेव के पास चला गया और एक हारमोनियम खरीदकर ले आया. मुझे खूब डाँट पड़ी, हमारे एक चचेरे भाई माचिस लेकर आ गए हारमोनियम में आग लगाने के लिए. तब हमारे पिता जी एवं चाचा जी ने बीच बचाव किया और बोले 'हारमोनियम का हमें भी बहुत शौक था, अब जब आ गया है तो अच्छी बात है.' तब पारिवारिक वातावरण में विरोध था ही, हमारी सामाजिक बनावट भी ऐसी थी कि उसके बाद गांव के लोग मुझे टोकते कि ' सुने हैं जी, हारमोनियम लाये हो. लगता है गाँधी मैदान में जाकर बैठोगे. अब एक सारंगी भी ले आओ और खोल लो एक नाच पार्टी.' कोई कहता 'ये मैट्रिक पास किया और नचनिया-बजनिया वाला लाइन पकड़ लिया.' लेकिन फिर भी पता नहीं कहाँ से मेरे अंदर शक्ति थी कि तब उनकी आलोचनाओं को मैं अनसुना करता रहा. तब राजेश खन्ना की फिल्म का एक गाना मुझे हतोत्साहित नहीं होने देता था कि ' कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना.' हमारे यहाँ तब गांव के सारे लोग शाम में बैठकर रेडिओ पर गाने सुनते थें जिनमे बड़े बड़े कलाकारों का गायन होता था. और खत्म होते ही सबलोग वाह-वाह की आवाज के साथ तालियां बजाते थें. ये सभी चीजें मुझे अट्रैक्ट करती थीं और सोचने लगता कि मैं भी अगर रेडिओ स्टेशन जाकर गाऊं तो ऐसे ही हवा में मेरा गाना आएगा और सबलोग सुनकर वाह-वाह करेंगे.' फिर मैं जब ग्रेजुएशन करने पटना आया तो स्टेशन के बगल में एक ममेरे भाई राजेश के साथ रूम शेयर करके रहने लगा. 1991 में वहीँ रहते रहते मैं बिहार के प्रतिष्ठित संगीतज्ञ पं.श्यामदास मिस्र जी के शरण में गया. वो गुरु जी के नाम से विख्यात थें. तब तक मैं रॉ-मेटेरियल था, गांव में नाटक और रेडियो से ही कुछ सीखा था. वहां हमने विधिवत संगीत सीखना शुरू किया. तब पैसे की दिक्क्त थी और मुझे गुरु जी को फ़ीस भी देनी थी. कॉलेज की पढ़ाई का खर्चा घर से मिल रहा था. जब फॉर्म भरने का समय आता तो घर जाते थें, फिर अनाज बिकता था, फिर बनिया दो-चार दिन में पैसे लेकर देता था तब जाकर हमें पढ़ाई के लिए पैसे मिलते थें. तो इस पैसे के दर्द को हम समझते थें कि कितनी मेहनत से धान-गेहूं उपजा और फिर वो बिका तब पैसा आया. इसलिए हमने सोचा कि गुरु जी के फ़ीस के पैसे अगर मांगूंगा तो घर में विरोध होगा तो क्यों नहीं खुद से कुछ कमाई की जाये. तब एक दिन राजेंद्र नगर गोलंबर के पास जहाँ से कभी कभी मैगजीन खरीदता था पता चला कि वो स्टॉल बिकने वाला है. तब मैंने उनके पास जाकर वो खरीद लिया और वो बुक-स्टॉल हम चलाने लगें. उसके साथ साथ ऑनर्स भी कर रहे थें और संगीत भी सीख रहे थें. हमने सोचा कि अब दिनभर तो बुक स्टॉल नहीं खोल सकते तो हमने वहां कम्पटीटिव बुक्स और कुछ स्टेश्नरी का सामान भी रखना शुरू किया. शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक स्टॉल चलता था. वहां पढ़नेवाले बच्चों का ही आना-जाना था इसलिए मेरी दुकान चलने लगी. उसकी आमदनी से मैंने एक साइकल खरीदी और उसी से पटनासिटी संगीत सीखने जाता था. हमारे सेवा भाव एवं लगन से खुश होकर एक दिन हमारे गुरुदेव ने कहा कि 'तुम इतनी दूर से आते हो, तुम्हारा बहुत वक़्त बर्बाद हो जाता है और भी तुम क्या क्या करते हो इसलिए छोडो सब, तुम यहीं मेरे पास रहने आ जाओ.' उनका आदेश होते ही बुक स्टॉल का शटर डाउन हो गया. मैंने वो स्टॉल बेच दिया और पटनासिटी रहने आ गया. गुरु जी के घर के नीचे बने एक कमरे में रहने लगा. पहले कुछ दिन खुद से ही बनाकर खाता था फिर बाद में गुरु जी अपने घर में ही मुझे खिलाने लगें. खूब लगन से सीखते हुए मैंने संगीत में मास्टर डिग्री ली. उधर मेरा एम.ए. के बाद बी.एड. भी हो गया. उसके बाद मेरी गांव में शादी हो गयी. शादी के बाद मैंने सोचा कि संगीत से अब कुछ कमाई की जाये. मैंने गुरु जी से पूछा कि 'क्या मैं इस काबिल हूँ कि किसी को संगीत सीखा सकता हूँ.?' फिर उनका आदेश मिलते ही मैं पटना आकर संगीत का ट्यूशन देने लगा. कुछ दिनों बाद मैं एक स्कूल में बच्चों को सप्ताह में दो दिन म्यूजिक सिखाने लगा. इसी तरह दो दो दिन के लिए दो और स्कूल ज्वाइन कर लिया जहाँ 2 घंटे की क्लास देनी होती थी. मेरा काम था बच्चों को संगीत सिखाना, उनसे गवाना और स्कूल के प्रोग्राम में भाग लिवाना. उसके बाद मैंने आकाशवाणी में सुगम संगीत के लिए ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होकर वहां से भी गाने लगा. पहली बार जब पटना रेडियो स्टेशन से मेरा गाना प्रसारित हुआ तो उसके पहले मैं गांव गया और सबको बताया कि आज रेडियो पर मेरा गाना होगा. सभी लोगों ने चाव से सुना और तब लोगों की नचनिया-बजनिया वाली बात वहीँ दब गयी. वे बोले - 'अब तो ये रेडियो स्टेशन का कलाकार हो गया है.' उन दिनों गांव में ऐसे ही किसी के गाने का कोई मोल नहीं था लेकिन रेडियो के कलाकार को इज्जत मिलती थी. उसी दौरान जब 1990 में पटना दूरदर्शन केंद्र की स्थापना हुई तो उसपर भी कुछ कार्यक्रम आने लगें. और फिर टीवी पर लोगों ने मुझे देखा तो बहुत तारीफ मिली.
तब मेरा रहना पटना ट्रेनिंग कॉलेज के हॉस्टल में होता था. तब हॉस्टल में रहनेवाले, साइकल से चलनेवाले आदमी को तीन - चार हजार महीना मिल जाये तो पॉकेट कभी खाली ही नहीं होता था. न मुझे कुछ खाने-पीने की तलब थी और न मैं फिजूल खर्च करता था तो ऐसे में मुझे एहसास होता कि मेरे पास बहुत पैसे हैं. इसी दौरान मैं ट्यूशन और स्कूल में पढ़ाने के साथ साथ खुद का एक इंस्टीच्यूट भी चलाने लगा जहाँ बच्चे संगीत सीखने आने लगें. फिर हम पत्नी को गांव से पटना ले आएं और कंकड़बाग में किराये के मकान में साथ रहने लगें. धीरे धीरे यूँ ही संघर्ष की गाड़ी चलती रही और फिर हम परफॉर्मिंग लाइन में आ गएँ. उन्हीं दिनों 1997 में बिहार सरकार के एक कार्यक्रम 'युवा महोत्सव' में गाँधी मैदान में मुझे गाने का अवसर मिला जहाँ कला संस्कृति विभाग के पधादिकारी भी बैठें थें. वहां गाने का लाभ मुझे मिला और उस आयोजन के तुरंत बाद बोध गया में होने जा रहे बौद्ध महोत्सव में मुझे बुलाया गया जहाँ मैंने सुन रखा था कि हेमा मालिनी जैसे बड़े बड़े कलाकार भाग लेने आते हैं. उस कार्यक्रम के बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और लगातार मुझे मौका मिलने लगा. एक कार्यक्रम में जब पहली बार मुझे 10 हजार मिला तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा ये सोचकर कि ये तो पूरा एक फ्रिज का दाम है. और वाकई उस समय मेरे पास फ्रिज नहीं था तो मैंने उस पैसे का फ्रिज खरीद लिया. उन दिनों को याद करके अजीब सी फीलिंग होती है कि एक वो दिन था और एक आज का दिन कि एक कार्यक्रम में मुझे 2 लाख तक मिलते हैं. तब जब मेरे जीवन स्तर में सुधार होने लगा मैंने स्कूटर ख़रीदा , फिर हीरो हौंडा मोटरसाइकल खरीदी जिसका तब बहुत क्रेज था , फिर उसके बाद अल्टो कार खरीदी और फिर उसे बेचकर वैगन आर ले आया. उन दिनों टी.सीरीज की सारी रीजनल रिकॉर्डिंग पटना में हुआ करती थी. मेरी पहचान के एक सज्जन उस कम्पनी से जुड़े थें तो एक दिन उन्होंने कहा कि 'आप आइये और एलबम में गाइये.' जब स्टूडियो पहुंचा तो देखा वहां भोजपुरी इंडस्ट्री के बड़े बड़े चोटी के कलाकार बैठे हुए हैं जिनका एलबम हमेशा आते रहता है. लेकिन वहां मुझे अश्लील शब्दों वाला गीत मिला. उसका ट्रैक बना और मैंने गा भी दिया. जब घर आया तो एकांत में बैठकर यही सोचने लगा कि ये गाना जो मैं गाने जा रहा हूँ, जो रिकॉर्ड होगा, इसको मैं उसे नहीं सुना सकता जिसने मुझे जन्म दिया और उसे भी नहीं सुना सकता जिसको मैं जन्म दूंगा. जो मेरा फैमली बैकग्राउंड है, जो संस्कार है उसके विपरीत हम ऐसा गाना गाकर भी क्या करेंगे. इसलिए हमें नहीं चाहिए ऐसी फूहड़ पॉपुलैरिटी. और अगले दिन जाकर मैंने उनका ऑफर ठुकरा दिया. उनलोगों ने कहा कि 'पछताइयेगा, ऐसा अवसर सबको नहीं मिलता है.' और वो ऐसा इसलिए बोले कि आज के अधिकांश बड़े बड़े गायकों ने भी तब शॉर्टकट अपनाते हुए एलबमों में गंदे गाने गाए थें. लेकिन मैंने निश्चय किया कि सफलता के लिए मैं कोई भी शॉटकट रास्ता नहीं अपनाउंगा क्यूंकि मैंने एक बहुत ही अच्छे गुरु से संगीत सीखा है. तब एक चीज हमने डेवलप किया कि जहाँ गजल होता वहां गजल, जहाँ भजन होता वहां भजन, जहाँ लोक संगीत होता वहां लोक संगीत और जहाँ फ़िल्मी गाने की मांग होती वहां फ़िल्मी गाना गाने लगता. पब्लिक नाचे इसके लिए मैं अश्लील गाऊं ऐसा कभी नहीं सोचें. हम वो दम लगाने लगें कि अच्छा गाना गाकर पब्लिक को झूमने पर मजबूर कर दें. इसी दरम्यान एक टर्निग पॉइंट आया. दैनिक जागरण ग्रुप का आईनेक्स्ट अख़बार उस समय युवाओं को ध्यान में रखकर लांच हुआ था. उसने अपना वेबसाइट बनाया था जिसके लिए एक प्रोग्राम बना 'इकतारा'. वो पूरे इण्डिया का फोक सिंगिंग कम्पटीशन था जिसमे रीजनल लैंग्वेज में कुछ अपना रिकॉर्ड करके भेजना था. तब मेरे मना करने के बावजूद मेरे एक शिष्य ऋषि ने जिद करके मेरा गाना रिकॉर्ड किया और उसकी सीडी बनाकर उस कम्पनी को भेज दिया. 18 हजार लोगों में से सिर्फ 100 लोग सलेक्ट हुए जिनमे मेरा भी नाम था. फिर कई ऑडिशन के बाद अंतिम 8 में जगह बना ली. तब मेरे जितने भी नए पुराने स्टूडेंट थें सबने अख़बारों में मुझे देखकर एस.एम.एस. से मेरे पक्ष में वोटिंग करना शुरू किया. फिर लखनऊ के ग्रैंड फिनाले में जोरदार क्राउड के बीच कई राउंड चले और सबकी दुवाओँ की वजह से अंततः मैं विजयी हुआ. और 2012 में मुझे फोकस्टार ऑफ़ द इंडिया का ख़िताब मिला.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा 'बिहार गौरव' से सम्मानित होते हुए |
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