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Tuesday 15 August 2017

गाँधी जी से नहीं मिल पाने का मलाल रहा : डॉ. रज़ी अहमद, फाउंडर एवं डायरेक्टर, पटना गाँधी संग्रहालय

जब हम जवां थें
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म बिहार के बेगूसराय जिले के नूरपुर गांव में हुआ. वो बहुत पढ़े -लिखे लोगों का गांव रहा है. मेरी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के ही मदरसे में हुई और वहीँ से आगे की पढ़ाई हम बीहट के मीडिल स्कूल से किये. इंटर के बाद बेगूसराय के ही जे.डी. कॉलेज से हिस्ट्री में बी.ए. ऑनर्स किये. फिर पटना यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. किये 1960 में. रिसर्च के दौरान ही मेरा झुकाव गांधीवाद की तरफ हो गया. उस वक़्त हमने खास तौर से बिहार और चम्पारण के सिलसिले में गाँधी जी से जुड़े कई लोगों का इंटरव्यू किया था जिनमे जे.वी. कृपलानी, दिवाकर जी, बलवंत राय मेहता थें जो गाँधी जी के साथ काम कर चुके थें. तब राजेंद्र प्रसाद देश के प्रधानमंत्री थें और गाँधी स्मारक निधि बन चुकी थी. और उस समय गाँधी संग्रहालय के प्रोजेक्ट को लेकर कमिटी बन चुकी थी जो इन एक्टिव थी. उसमे जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग जुड़े थें. उस समय बलवंत राय मेहता ने मुझसे कहा कि ' क्या आप इसमें आना चाहेंगे?' उस समय मैं नौजवान था, मेरी शादी भी नहीं हुई थी. मेरे राजी होने पर चम्पारण में मुझे एक रिसर्च प्रोजेक्ट मिला कि वहां गाँधी संग्रहालय बनाना है. मैं तब किताबों के माध्यम से ही गाँधी जी को जान-समझ पाया था. अजीब इक्तेफाक ये है कि गाँधी जी बिहार आएं थें और गंगा के उस पार वे गए थें. बेगूसराय भी वे एक दिन के लिए आये थें तब जब विभाजन के वक़्त बिहार में दंगे हो रहे थें. लेकिन हमलोगों के इलाके में दंगा नहीं हुआ था इसलिए गाँधी जी उधर गए नहीं. इस मामले में हमलोग खुशनसीब रहें कि हमारे इलाके में दंगा नहीं हुआ और बदकिस्मत रहें कि हमलोगों ने गाँधी जी को देखा नहीं. तब हमलोग मीडिल स्कूल में बीहट में पढ़ते थें जो तब आजादी की लड़ाई का हॉट बेल्ट था. तब हमलोग बहुत एक्टिव थें. जुलूस निकालने से लेकर आजादी के कई मोमेंट  में सक्रीय रहते थें. डॉ. श्री कृष्ण सिंह जो बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री रहें उन्हें हमारे इलाके से पहचान मिली. 1930 के गढ़पुरा नमक सत्याग्रह से श्री बाबू का नाम आगे बढ़ा और उस सत्याग्रह की सारी ज़मीन तैयार की थी हमारे लीडर रामचरित्र बाबू ने. हमलोगों का परिवार पढ़े लिखों का परिवार रहा इसलिए हम सभी एजुकेशन की तरफ रहें. हम पहली बार पटना आये जब ग्रेजुएशन कर रहे थें और हमें ऑनर्स की किताब खरीदनी थी. उस वक़्त गंगा ब्रिज नहीं था, यहाँ से मोकामा जाकर गंगा नदी पार करके फिर सिमरिया घाट आदि से गुजरते हुए घर पहुंचना होता था जिसमे 24 घंटे लग जाते थें. तभी बहुत बड़ा स्टूडेंट मूवमेंट हो गया और पटना में कर्फ्यू लग गया था. तब पटना यूनिवर्सिटी में हुए इस मूवमेंट में वहां के स्टूडेंट्स ने 15 अगस्त आने पर तिरंगा को जला दिया था. उसी वजह से हंगामा हुआ और बी.एन.कॉलेज के सामने फायरिंग हुई थी जिसमे बी.एन.कॉलेज के स्टूडेंट दीनानाथ पांडे मारे गए थें. तब बहुत बड़ा स्टूडेंट मूवमेंट हुआ जिसमे शहाबुद्दीन की लीडरशिप उभरी थी. तब जे.पी. और श्री कृष्ण सिंह के बीच कंट्रोवर्सी हो गयी थी. जय प्रकाश नारायण का स्टेटमेंट आया कि यहाँ पीस ऑफ़ रेक के लिए नौजवानों का क़त्ल किया जा रहा है. उन्होंने कह दिया कि 'अगर तिरंगे के वैल्यू पर अमल नहीं किया जाये तो यह एक कपड़े का टुकड़ा है. यहाँ नौजवानों की ज़िन्दगी ज्यादा वैल्यूवल है.' और यही बात श्री कृष्ण सिंह को बुरी लग गयी. इस बात को जवाहरलाल नेहरू ने सीरियस ले लिया. तब दो जातों के बीच यहाँ कंट्रोवर्सी का पीरियड हो गया. और उसी कंट्रोवर्सी पर बहुत बाद में एन.एम.पी. श्रीवास्तव जी ने एक किताब लिख डाली. तब अनुग्रह नारायण सिंह के साथ पटना यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स ने बहुत मिस विहेब किया, उनका कुर्ता फाड़  दिया. यह 1954 -55 की बात है जब स्टूडेंट्स ने अपना पैरलर 15 अगस्त मनाया. तब एक हफ्ते तक कर्फ्यू लगा रहा और मैं तब पटना आकर फंस गया था. हमलोगों के गांव के एक टीचर थें जो यहीं मुरादपुर में रहते थें और तब हम उन्हीं के घर में शरण लिए हुए थें.

 
पटना का गाँधी संग्रहालय 
अभी का पटना संग्रहालय तब मोतिहारी में बनना था.जब मेरी पी.एच.डी. हो गयी तब मेरे लिए कोई नौकरी की समस्या नहीं थी. तमाम कॉलेजों से ऑफर थें लेकिन मैंने उसी वक़्त तय कर लिया था कि सरकारी नौकरी नहीं करेंगे. तब बड़े लोगों ने मुझे ऑफर किया जिनमे गुजरात के मुख्यमंत्री और गाँधी संग्रहालय सेन्ट्रल कमिटी के चेयरमैन बलवंत मेहता शामिल थें. मैं उनकी वजह से ही इस क्षेत्र में आया. जब मोतिहारी में संग्रहालय के लिए ज़मीन लेने की बात हुई तो एक एक्सपर्ट कमिटी आई जिसमे 4-5  लोग शामिल थें. तब पटना से मोतिहारी जाने में 24 घंटा लगता था. मोतिहारी जैसी बीहड़ जगह पर पहुंचकर फिर वहां से नरकटियागंज जाने में उन लोगों को पसीना छूट गया. हम तो कहीं भी चले जाते थें, कहीं भी सो जाते थें. उन्होंने कहा कि ' चूँकि एक बड़ी चीज बनने जा रही है इसलिए वहां नहीं बननी चाहिए. फिर 1967 में तय हुआ कि संग्रहालय वहां नहीं पटना में बनेगा. तब पटना में कहाँ बने ये समस्या थी. तब बिहार सरकार ने हमें 4 अल्टरनेटिव दिए थें . उन 4 जगहों में से एक जमीन वो थी जहाँ आज पटना दूरदर्शन है, आस-पास के दो जगह वहां के थें जहाँ आज मौर्या होटल मौजूद है. और चौथी जगह वो जमीन थी जहाँ वैशाली सिनेमा हॉल बना. लेकिन हमारे दिमाग में वो जगह थी जहाँ आकर गाँधी जी ठहरे थें. 1947 में सैयद महमूद जो तत्कालीन शिक्षा मंत्री थें के साथ पटना में गाँधी जी 29 दिन जिस आउट हॉउस में  ठहरे थें वो हमें तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण वल्लभ सहाय ने संग्रहालय के लिए दे दिया.  हमने सोचा अब कहाँ खोजबीन की जाये, इन्ही में से एक को चुनना होगा. जहाँ अभी वर्तमान में संग्रहालय है वहां तब जाफ़र इमाम जो कृष्ण वल्लभ सहाय के कैबिनेट में मिनिस्टर थें रहते थें. लेकिन तब तक दूसरी सरकार आ चुकी थी और जाफ़र इमाम मिनिस्टर नहीं रहें तो उनसे हमलोग जाकर मिलें. उनसे रिक्वेस्ट की कि  'अब तो आप कैबिनेट मेंबर नहीं हैं, आज ना कल आपको यह जगह खाली करनी ही है. अगर यह जगह हमें संग्रहालय के लिए मिल जाती तो सबके लिए अच्छा होगा.'  उन्होंने कहा - ' तो हमें जितना जल्दी हो सके एक मकान दिला दीजिये.' हमने उन्हें वीरचंद पटेल मार्ग में एक खाली मकान दिलवा दिया. उन्होंने तुरंत खाली कर दिया और हमलोगों को जगह हैंडओवर हो गया. हमने वहां पहले लायब्रेरी खोल दी. फिर छोटे छोटे कमरे में म्यूजियम शुरू किया. तब हमलोगों के पास पैसा नहीं था. श्री कृष्ण जी के समय यह तय हुआ था कि संग्रहालय के लिए सरकार 5 लाख देगी. लेकिन वो पैसा हमें मिला नहीं. गाँधी संग्रहालय समिति से हमलोगों को 6  लाख रूपए का 4 % इंट्रेस्ट एलॉट हुआ यानि हमें 24 हजार सालाना मिलता था. उसी में हमें काम चलाना था. उसी में तीन स्टाफ का भी खर्चा वहन करना था. और उस वक़्त हम 150 रूपए महीना लेते थें और हमारे अन्य वर्कर को 100 रूपए मिलता था. तब हमें उसी बजट में से बिजली और टेलीफोन बिल भी देना था. 1969  में जब गाँधी संग्रहालय समिति का दफ्तर यहाँ खुला तब हमें राहत मिली कि बिजली और टेलीफोन बिल का खर्चा समिति पर चला गया. उन दिनों का एक वाक्या याद आता है जब 1960 में ए.एच.वेस का यहाँ गाँधी संग्राहलय में आना हुआ. गाँधी जी साऊथ अफ्रीका में जब इंडियन अख़बार निकालते थें तब उनके जेल चले जाने पर यही ए. एच. वेस. इंडियन ओपिनियन को एडिट करते थें. वे अंग्रेज थें लेकिन गाँधी जी के मूवमेंट को सपोर्ट करते थें. 1960 में वे गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के गेस्ट की हैसियत से हिंदुस्तान देखने-समझने के लिए आये थें. वे जब बिहार आये और घूम रहे थें तो उन्हें हमलोगों ने पटना गाँधी संग्रहालय में भी बुलाया था.
संग्रहालय बनने के क्रम में सरकारें भी बदलीं और मंत्रालय में नए लोग आ गएँ. तब म्यूजियम को लेकर हमें काफी पापड़ बेलना पड़ा और बहुत भाग दौड़ करनी पड़ी. फिर आगे चलकर 2006 में नीतीश सरकार ने पटना गाँधी संग्रहालय का डेवलपमेंट कराया. जवानी के दिनों में हमने सपना देखा था कि मोतिहारी में भी म्यूजियम बने तो वहां हमलोगों ने भारत सरकार से पैसे लेकर म्यूजियम बनाया. फिर भितहरवा म्यूजियम को भी डेवलप करवाया और मुज्जफरपुर में भी म्यूजियम बन गया. यह हमलोगों के लिए ख़ुशी की बात है कि जो 6 गाँधी संग्रहालय पूरे हिंदुस्तान में हैं उनमे से वन ऑफ़ द बेस्ट एक्टिव संग्रहालय पटना का है. जवानी के दिनों का हमने वो दौर देखा है जब आजादी की लड़ाई की बातें हिंदुस्तान की फिजाओं में घूम रही थीं कि एक नया हिंदुस्तान बनेगा. तब जवाहर लाल नेहरू की बातें कानों में गूंज रही थीं कि देश बनाना है और आराम हराम है. किसी ने तब सोचा नहीं था कि जिस गाँधी ने देश के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया उनकी भी हिंदुस्तान में हत्या हो जाएगी. तब पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी थी. गाँधी जी के शहादत के बाद एक कमिटी बनी जिसमे देश के तमाम बड़े नेता एकजुट हुए और यह बात निकली कि गाँधी को हम ज़िंदा बचा नहीं सकें ये हमारे लिए काफी शर्म की बात है लेकिन अब गाँधी के विचारों को बचाना है और उसी का नतीजा है गाँधी संग्रहालय. 

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