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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Wednesday, 8 November 2017

मैं गांव-ससुराल में टीवी वाली बहू के नाम से फेमस हो गयी थी : प्रतिभा सिंह, एंकर, पटना दूरदर्शन (बिहार बिहान)

ससुराल के वो शुरूआती दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'

टीवी चैनल में एंकरिंग करती प्रतिभा सिंह 
मेरा ससुराल भोजपुर जिले के पडुंरा रामपुर गांव में है. मायका भी भोजपुर में ही है लेकिन गांव से कनेक्शन कभी नहीं रहा क्यूंकि गांव पर कोई रहता ही नहीं, सारे लोग पटना शहर में ही रहते हैं. मैं शुरू से पुनाईचक,पटना में ही रही. अक्सर सुना करती थी कि गांव में ऐसा माहौल होता है, ऐसे लोग करते हैं, महिलाएं ऐसे रहती हैं. तो वो चीज बस सुनी-सुनाई थी और लगता था कि कभी मौका मिला वहां रहने का तो मैं कैसे रहूंगी ? क्यूंकि जन्म मेरा कोलकाता में हुआ फिर पटना आयी तो यहीं से मेरी संत कैरेंस से स्कूलिंग हुई, मगध यूनिवर्सिटी के जे.डी.वीमेंस कॉलेज से ग्रेजुएशन हुआ. मतलब शुरुआत से ही शहर में रहते हुए गांव की कभी झलक तक नहीं देखी थी. जब मैं जयपुर में न्यूज इंडिया चैनल में जॉब कर रही थी तो ऐसे ही एक दिन मम्मी ने कहा -'तुम्हारे लिए एक लड़का देखा है, हमलोगों को बहुत पसंद है.' जब किसी शख्स के जीवन में निरसता आ जाती है और अकेले रहते रहते इंसान ऊब जाता है तो लगता है कि चलो शादी कर लें. उस टाइम मैंने समझा नहीं था कि शादी के बाद क्या अनुभव होता है, क्या जिम्मेदारियां रहती हैं. हवा महल जैसा लोग जैसे सोचते हैं ना कि हाँ शादी के बाद बहुत अच्छा होगा, ऐसे घुमेंगे-फिरेंगे, हसबेंड खूब घुमायेगा. तो इस तरह का कॉन्सेप्ट मेरे मन में भी था. मैंने सोचा कि ठीक है वैसे भी अब शादी की उम्र हो चली है तो मैंने हाँ कर दी. और जयपुर से आकर पटना में दूरदर्शन ज्वाइन कर लिया. फिर जल्दी से इंगेजमेंट हुई और शादी हो गयी.

पति राहुल और बच्ची के साथ प्रतिभा 

मुझे पता चला कि अब मुझे कुछ दिन के लिए ससुराल जाना है गांव में जो पहले से तय नहीं था. मैं थोड़ी घबराई लेकिन पति ने समझाया कि एक बार गांव जाना होगा. मेरे सास-ससुर तो अब नहीं हैं लेकिन जेठ-जेठानी गांव में ही रहते हैं. मेरे पति बैंक में हैं और उनकी फर्स्ट पोस्टिंग शिमला थी फिर वे पटना शिफ्ट हो गए थे. पति के समझाने के बाद मैं पटना से विदाई करके ससुराल गांव में पहुंची. वहां जाने के बाद एक कम्प्लीटली चेंज नज़र आया मुझे. वो घूँघट करना, अपने रूम से बाहर नहीं निकलना, भैंसुर-ससुर के सामने नहीं जाना. मतलब सारी चीजें एकदम से चेंज हो गयीं. मैं कहाँ थी और एकदम से उठाकर एक अलग बैकग्राउंड में मुझे रख दिया गया. बहुत सारे नियम के बीच कि ये नहीं करना, वो नहीं करना है. चूँकि मैं अपने मम्मी-पापा की इकलौती लड़की हूँ और एक भाई है मेरा. मेरे ऊपर कोई बंदिश नहीं थी. जिस फिल्ड में आना था मैं आयी, जो करना था किया. ये पहना वो पहना, डिस्को गयी, खूब घूमी और कभी मेरे ऊपर कोई जिम्मेदारियां नहीं थी. ऐसे में गांव-ससुराल में पहुंचकर अजीब लगने लगा.

शादी के पहले मस्ती के मूड में प्रतिभा 
हिन्दू रीति-रिवाज के तहत नयी बहू को सवा महीना तक सुबह-सुबह उठकर सिंदूर करना होता है. साल 2016, अप्रैल का महीना था. सुबह-सुबह 4 बजे मुझे उठा दिया जाता था फिर नहाकर- तैयार होकर जल्दी से सिंदूर करना होता था. और सुबह 6 बजते बजते मैं ऊँघने लगती थी. मतलब लगता था कि अब मेरे सोने का सेकेंड फेज आ गया है. ससुरालवालों ने भी समझा कि बहू ये सब चीजें कभी देखी नहीं है, शहर से है इसलिए इसे सब नहीं पता. तो मुझे वे 6 बजे सो जाने देते थें और सुबह-सुबह नहाकर-सिंदूर करके, खोइंछा में दी जानेवाली मिठाई खाकर मैं फिर से सो जाती थी. वहां गांव में एक ब्रह्मस्थान है मतलब कुल देवता का मंदिर, जहाँ पूजा करने जाना होता था. अप्रैल की गर्मी और ऊपर से लू बहुत चल रही थी. जिस दिन मैं गांव पहुंची थी उसी दिन चौठारी भी था जिसे शहर में रिसेप्शन कहते हैं. मड़वा,शादी फिर चौठारी तीनों एकदम बैक-टू-बैक पड़ गया था तो तीन-चार दिन से मैं लगभग भूखी थी, ठीक से खाना-पीना नहीं हो पाया था. चौठारी के दिन उस गर्मी में इतना बड़ा घूँघट डाले मुझे मंदिर जाना पड़ा था वो भी एक दो किलोमीटर उबड़-खाबड़ रास्ते में पैदल चलते हुए. एक साड़ी का पल्लू, एक शादीवाले दुपट्टे का पल्लू डाले हुए मैं बस किसी तरह पैर बढ़ा रही थी और मेरी चार ननदें दोनों साइड से मुझे पकड़कर संभाले हुए थीं. शहरों में शादी के बाद का ट्रेडिशनल कल्चर शॉर्टकट में निपटा दिया जाता है लेकिन गांव में पूरे नियम से फॉलो करना पड़ता है. वो 10 दिन जो मैंने काटे वहां पर एकदम चेंज नज़र आया मुझमे. लाइट भी वहां सुबह-सुबह कट जाती थी और 9-10 बजते बजते लगता था जैसे आग बरस रही है गर्मी से. मेरे घर में किसी को यकीं नहीं था कि ये लड़की गांव में इतने अच्छे से सब मैनेज कर लेगी. क्यूंकि मैं लाइफ में फर्स्ट टाइम गांव गयी थी. इससे पहले मैंने गांव का 'ग' भी नहीं देखा था.
     
गांव में छठ के दौरान पर्पल साड़ी में लम्बा घूंघट डाले हुए प्रतिभा सिंह 
फिर शादी बाद पहला छठ करने जब गांव गयी तो वहां मैं लम्बा सा घूँघट करके पैदल घाट तक जाती थी, वहीँ पर बैठती और अर्घ्य देती थी. तब जानबूझकर मैंने ट्रांसपैरेंट साड़ी पहनी थी यह सोचकर कि चलो आर-पार दिखेगा, मैं गिरूँगी तो नहीं. अर्घ्य देने के लिए जैसे ही थोड़ा सा घूँघट हटाया मैंने तो वहां घाट पर जितने भी यंग लोग थें सब अपना काम छोड़ मुझे गौर से देखने-हुलकने लगें कि देखो अरे ये फलाने घर की बहू है. वहां पहले से मेरी चर्चा थी कि गांव में टीवी वाली बहू आ रही है. शादी के पहले से ही गांव में हल्ला मच गया था कि फलाने घर की बहू टीवी में काम करती है. तो गांव के लोगों में एक उत्सुकता थी कि टीवी में काम करनेवाली कैसी होती है, जरा शक्ल देखनी चाहिए क्यूंकि मैं हमेशा घूँघट में ही रहती थी. शादी करके जब गयी थी तो दिनभर में 50 -60 महिलाएं आ जाती थीं रोजाना मुँह दिखाई के लिए. महिलाओं के आलावा छोटे बच्चे भी आकर तक-झांक करते ये कहते हुए कि टीवी की हीरोइन आई है. और मैं तब तक बैठी रहती थी सज-धजकर आदर्श बहू की तरह जब तक सभी चले नहीं जाते. पहले मम्मी बताया करती थी कि गांव में ऐसा होता है, वैसे होता है. लेकिन जो एक्सपीरियंस आप मायके में लेते हैं वो ससुराल में नहीं ले सकते क्यूंकि वहां आपको नियम-कानून से रहना है. तो हमारे ग्रामीण कल्चर में आज भी नयी बहू के लिए पर्दा सिस्टम है. ऐसे में मुझे वहां समझाया जाता कि जेठ जी आएं तो तुमको उधर रूम में चले जाना है. और होता यह था कि मुझे जैसे भनक लगती कि कोई अंदर आ रहा है फिर मैं साड़ी पकड़कर दौड़ते हुए अंदर रूम में भाग पड़ती थी. यह देखकर मेरी ननदें बहुत हंसती और कहतीं कि 'ये इस तरह से दौड़ने की वजह से एक दिन गिर जाएगी.' गांव के उन कड़े रीति-रिवाजों को अच्छे से फॉलो किया मैंने और फिर जब मेरी विदाई हुई, मैं पटना आयी फिर सबको बताई तो लोग आश्चर्य कर रहे थें कि ये शहर की मॉडर्न लड़की कैसे गांव में 24 घंटे साड़ी-गहने पहने हुए हँसते-हँसते सारा विध कर गई. शुरू-शुरू में मैं सोचती कि मम्मी-पापा ने मुझे कहाँ भेज दिया. जब 10 दिन गांव में रहकर मेरी हालत पतली हो गयी तो अक्सर होली-दिवाली-छठ आदि पर्व त्योहारों में गांव आना जाना तो पड़ेगा ही फिर मैं कैसे बर्दाश्त करुँगी. लेकिन फिर धीरे-धीरे मैं गांव के माहौल में एडजस्ट होती चली गयी और अब पटना में रहते हुए हमेशा उत्सुकता रहती है कि फिर कब गांव चलें. मैं आज की लड़कियों को यही कहना चाहूंगी कि आप कभी भी अपने कल्चर-अपने ट्रेडिशन को ठुकराओ नहीं. जैसा देश वैसा वेश की तर्ज पर हर माहौल में एडजस्ट करना चाहिए और इसी में असली मजा है. 

4 comments:

  1. Great message for all the young ladies who takes pride in aping the western culture .

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  2. नज़रों के सामने पूरी कहानी चल पड़ी।
    बहुत हि अच्छे से अपनी मिट्टी कि खुशबू बिखेरी है आपने।
    शुभकामनाये😊🙏

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