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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Tuesday 16 April 2019

'एक जुदा सा लड़का' के माध्यम से उपन्यासकार ने भटकते युवा मन को रोकने की कोशिश की है

पुस्तक समीक्षा 

कृति: एक जुदा सा लड़का (लघु उपन्यास)
कृतिकार: राकेश सिंह ‘सोनू’
प्रकाशकः जानकी प्रकाशन,
अशोक राजपथ, चैहट्टा
पटना-800004
पृष्ठः 96 मूल्यः 125/-
समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा

हम-आप प्रायः अखबारों को पढ़ते हैं। सरसरी तौर पर खबरों को पढ़कर अखबार को एक किनारे फेंक देते हैं। नकारात्मक खबरों को पढ़कर माथे पर सिकन तक महसूस नहीं करते। बेफिक्री से अखबार फेंककर हम निश्चिंत भाव से अपने कार्यों में जुट जाते हैं, मानों सब कुछ ठीक-ठाक हो! लेकिन, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अपनी संजीदगी का परिचय देते हैं। खबर पर रोते हैं, मायूस होते हैं, अफसोस जताते हैं। विचार लिखते हैं और प्रतिकार करते हैं।
राकेश सिंह ‘सोनू’ एक ऐसा ही नाम है, जो अखबार के संजीदा पाठक रहे हैं। नकारात्मक खबरों ने इन्हें उद्वेलित किया, सोचने को विवश किया। उद्वेलित मन ने ऐसे भावों को लिखने को बाध्य किया, फिर ऐसे भाव कागज पर उतरते चले गये। फिर, एक दिन ऐसा भी आया कि पन्ने-पन्ने को जोड़-जोड़कर एक उपन्यास की आधारशिला रख दी गयी। ‘एक जुदा सा लड़का’ के सृजन की यही कहानी है।

बकौल सोनू, ‘इस लघु उपन्यास की कल्पना कभी मैंने अपने काॅलेज के शुरुआती दिनों में की थी, जब सुबह का अखबार पढ़ने के क्रम में रोजाना महिलाओं एवं बच्चों के साथ छेड़खानी और बलात्कार की दिल दहला देने वाली खबरें पढ़कर मन घृणा और क्षोभ से भर उठता था। तब मैं ठीक उपन्यास के नायक राज की तरह ही देवी दुर्गा से मन ही मन ये आराधना करता था कि वे मेरे अंदर ऐसी दिव्य शक्ति दे दें, ताकि मैं अपने समाज में पीड़ित हो रही महिलाओं की आबरू बचा सकूँ।

उपन्यास का नायक ‘राज’ है। ‘राज’ एक साधारण लड़का है, लेकिन दैवीय शक्ति मिल जाने के बाद वह असाधारण हो जाता है। फिर, वह लेता है संकल्प समाज को सुधारने का, समाज को नई दिशा देने का। राज नवजवान है और वह भी अखबार में खबरें पढ़ता है, लेकिन अखबारों में खबरें पढ़कर वह शांत नहीं रहता, बल्कि मंथन करता है, मनन करता है। फिर, खुद के स्तर से कोशिश भी करता है समाज को सुधारने का। उसे माँ का आशीर्वाद मिला है, तो उसे कामयाबी भी हासिल होती है।
लघु उपन्यास में उपन्यासकार ने नई पीढ़ी को सीख और सलाह देने की कोशिश की है। साहित्य तो समाज का आईना होता है। साहित्यकार तो समाज को नई दिशा देते हैं। ऐसे में, राकेश सिंह ‘सोनू’ का यह प्रयास सफल है, बशर्ते नई पीढ़ी बस संदेश को दिल में उतार लें।

राज-कंचन के बीच संवाद के क्रम में राज ने कहा-जो लोग यह समझते हैं कि प्यार गहरा होने के लिए तन-मन का मिलना जरूरी है, वे कोई प्रेमी नहीं होते, बल्कि शारीरिक सुख पाने के लिए प्यार का नाटक करते हैं, क्यूँकि सच्चा प्यार अंग की खूबसूरती नहीं, मन की खूबसूरती पर टिका होता है। युवा कहानीकार की यह सीख है पाठकों को।

बिल्कुल प्यार का संबंध देह से कतई नहीं है, किंतु पश्चिमी सभ्यता ने युवाओं के पाँव को इस कदर भटका दिया है कि उनके लिए प्यार का मतलब केवल शरीर का भोग है। प्यार के नाम पर तरह-तरह के किस्से सुनने को मिलते हैं। दरअसल, अब प्यार होता कहाँ? प्यार में अपनत्व होता है, समर्पण होता है, त्याग होता है। लेकिन, अब प्यार का सीधा मतलब देह से हो गया है। देह का सुख ही प्यार है बस। ‘अंशु के सिर से उतरा प्रेम का भूत’ में लेखक ने ठीक कहा-आजकल प्यार एक फैशन बन गया है। कुछ को छोड़कर सभी प्रेमी एक-दूसरे से कुछ हासिल करने के फिराक में रहते हैं। कोई किसी के पैसे पर ऐश करने के लिए प्रेम करता है, तो कोई अपनी हवस की पूर्ति के लिए। सच्चा प्यार भावनाओं पर आधारित होता है, जो हृदय से होता है।
आज की युवा पीढ़ी प्यार-व्यार के चक्कर में फंसकर अपना कैरियर बर्बाद कर रही है। प्यार देह तक सिमट जा रहा है। राज और कंचन की शुरू हुई लव स्टोरी में राज ने कहा-देखो, पलभर के आकर्षण को प्यार नहीं कहा जाता और प्यार के लिए अभी बहुत उम्र पड़ी है। मुझे तो अपना कैरियर संवारना है, जो प्यार के चक्कर में चैपट हो जायेगा।

उपन्यासकार युवा हैं, उन्हें मालूम है युवाओं का मिजाज। इसलिए, लघु उपन्यास में युवाओं के मन और मिजाज को ही टटोलने की कोशिश की गयी है। गोलगप्पे वाले से गलती से प्राप्त दस रुपये वापस करने पर ममेरे भाई केशव द्वारा तर्क रखने पर राज ने कहा-अगर तुम्हारी नियत अच्छी है, तो फिर तुम जीवन भर अच्छे रास्ते पर चलोगे और बुरी नियत रखोगे, तो फिर तुम पहले ही राह से भटक जाओगे। वैसे भी छल-कपट एवं बेईमानी करने वाले इंसान को भगवान भी पसंद नहीं करते।

‘राज का जलवा’ के माध्यम से यह कहने की सफल कोशिश की गयी है कि न भूत होता है और न ही डायन। अपनी हनक कायम करने के लिए साजिशन किसी के मत्थे डायन का आरोप मढ़ दिया जाता है, ताकि अपनी गोटी लाल होती रहे। बीमारी में अस्पताल जाना चाहिए, न कि जादू-टोने बाजों के पास।

आस-पास की घटनाओं को आधार बनाते हुए उपन्यासकार ने अपनी बात कहने की कोशिश की है। उपन्यासकार ने जो कुछ भी देखा, उसे ही कहानी का अपना विषय बनाया है। आज देखिए न, जीवन में थोड़ी सी भी परेशानी आने पर लोग बौखला जाते हैं। असफल होते नहीं कि लोग मौत के दरवाजे पर दस्तक देने से बाज नहीं आते? ऐसे लोग बुजदिल होते हैं! दुनिया भी ऐसे लोगों के नाम पर थूकती है। उपन्यासकार ने लिखा-जीवन में किसे दुख नहीं झेलना पड़ता, लेकिन इसका मतलब ये थोड़े है कि आज इतनी जल्दी बिना लड़े ही परेशानियों से हार बैठें। यहाँ लगभग हर किसी को कड़ा संघर्ष करना पड़ता है आगे की जिंदगी को बेहतन बनाने के लिए।

राज के माध्यम से उपन्यासकार ने भटकते युवा मन को रोकने की कोशिश की है। साथ ही यह संदेश देने का प्रयत्न किया है कि जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है। इसलिए सार्थक कदम सार्थक दिशा की ओर बढ़ाने की जरूरत है।

युवा कहानीकार द्वारा लिखित यह उपन्यास नई पीढ़ी के लिए संजीवनी है। नई पीढ़ी इसे पढ़ेंगे, तो खुद में बदलाव पायेंगे। युवा की क्या अहमियत है देश और समाज में, यह राज के माध्यम से उपन्यासकार ने रेखांकित करने की उत्कृष्ट कोशिश की है। आखिर राज ने ही तो गाँव में बाल विवाह रूकवाया था और शराबबंदी करवायी।

राज का देवी माँ के प्रति आस्था है। चाहे बस लुटते लुटेरों की पुलिसिया गिरफ्तारी हो या फिर बैग में अश्लील साहित्य की जगह धार्मिक पुस्तक या फिर बेचैन माँ-बाप की तसल्ली के लिए पिता की पाती। इन सबमें माँ का चमत्कार है। लेकिन क्या यह आधुनिक युग में संभव है? क्या यह अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देता? क्या यह एक कल्पना से परे नहीं है? यह उपन्यासकार का अनूठा प्रयोग हो सकता है, लेकिन पाठक इसे किस रूप में लेते हैं, यह पाठकों पर निर्भर करता है। फिर भी लघु उपन्यास पाठकों को संदेश देने में सफल होती दिख रही है।

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