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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday, 28 July 2017

पीड़ित-शोषित दिव्यांग महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं वैष्णवी


सशक्त नारी
By: Rakesh Singh 'Sonu'

बिहार के विक्रम प्रखंड के एक छोटे से गांव दतियाना की कुमारी वैष्णवी जो फ़िलहाल पटना के ट्रांसपोर्ट नगर इलाके में रहती हैं, खुद दिव्यांग होते हुए अन्य दूसरे दिव्यांगों के अधिकारों के लिए लड़ती हैं. आज पीड़ित-शोषित दिव्यांग महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं. बचपन से ही डांस का शौक रखनेवाली वैष्णवी गांव के ही प्रोग्रेसिव चिल्ड्रन एकेडमी में जब चौथी क्लास में थी तब स्कूल में हो रहे एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में डांस करते वक़्त अचानक से कांपने लगीं और फिर उन्हें बुखार चढ़ आया. जाँच कराने पर पता चला कि दोनों पैरों में ट्यूमर है. बाद में ऑपरेशन भी हुआ मगर कोई फायदा नहीं हुआ. ट्यूमर का असर पूरे शरीर में फैला और 1996  में न्यूरो फाइब्रो मेटॉसिस बीमारी की वजह से वे एक पैर से अपंग हो गयीं. उनका लम्बा समय इलाज में बीता. घरवाले उन्हें दिल्ली एम्स में ले गए जहाँ डॉक्टरों ने देखते ही हाथ खड़े कर लिए. फिर उन्हें मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में ले जाया गया जहाँ एक साल तक वहीँ रहकर कीमियो थैरेपी हुई . डॉक्टरों ने कह दिया- 'बहुत ज्यादा दिन जीने की उम्मीद नहीं है.' फिर बैशाखी के सहारे चलनेवाली वैष्णवी ने आगे की पढ़ाई घर पर रहकर पूरी की. किसी तरह 2004 में मैट्रिक की परीक्षा पास किया और अपने आगे की पढाई जारी रखी. 2007 में गंभीर रूप से बीमार पड़ने पर उन्हें पटना के महावीर कैंसर संसथान में ले जाया गया जहाँ डॉक्टरों ने कह दिया - 'ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ते की मेहमान हैं'. लेकिन वैष्णवी ने आत्मविश्वास नहीं खोया. उन्हें माँ दुर्गा में गहरी आस्था थी इसलिए तबसे ही वो घर में नियमित रूप से पूजा पाठ करने लगीं जिसकी वजह से उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से जीने की शक्ति मिलने लगी. फिर मन की ताक़त से वो अपनी जानलेवा बीमारी को छकाती रहीं. डॉक्टरों के अनुसार उनकी वह बीमारी स्थिर तो हो गयी थी लेकिन खतरा पूरी तरह से टला नहीं था. उनका बाबा रामदेव से मिलना 2009 में हुआ. फिर उनके बताए योगासन और आयुर्वैदिक दवाइयों से बहुत सुधार होने लगा. अब वैष्णवी को मौत से बिल्कुल डर नहीं लगता. इसलिए वो कहती हैं कि 'मैं जितने दिन ज़िंदा रही ज़िन्दगी को पूरी तरह से इंज्वाय करुँगी और समाज की पीड़ितों के दुःख-दर्द के लिए लगातार लड़ती रहूंगी.'

2010 में उन्होंने मगध यूनिवर्सिटी से इंटर किया फिर उसके बाद ग्रेजुएशन भी पूरा किया. फिर व्यावसायिक पुनर्वास केंद्र से टेलरिंग (सिलाई- कढ़ाई) में एक साल का प्रशिक्षण लेना शुरू किया. पहले खुद आत्मनिर्भर होकर अपने जैसी दूसरी लड़कियों के लिए वैष्णवी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया. सरकार द्वारा दिव्यांगों को मिलनेवाली सुविधा एवं छूट हासिल करने के लिए जब वह प्रमाणपत्र बनवाने निकलीं और उसके लिए उन्हें जब दो सालों तक सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाने पड़े तब खुद के इस स्ट्रगल से एहसास हुआ कि उनके जैसे और भी दिव्यांगों को ना जाने कितनी तकलीफें झेलनी पड़ती होंगी. फिर तभी से मन में यह इच्छा जन्मी कि अपने जैसे लोगों की भलाई के लिए उन्हें आगे आना पड़ेगा और इसी कड़ी में वे 'विकलांग अधिकार मंच' से जुड़ीं और फिर उन्होंने बिहार भर में घूम-घूमकर दिव्यांगों को संगठित करना शुरू कर दिया. उनके सराहनीय काम को देखकर 'विकलांग अधिकार मंच' का उन्हें राज्य स्तरीय अध्यक्ष बना दिया गया. इस संस्था के तहत वैष्णवी अपनी टीम के साथ दिव्यांगों का प्रमाण पत्र बनवाने से लेकर छात्रवृति दिलाने, अन्य सरकारी योजनाओं से जोड़ने आदि के कार्यों में लगी हुई हैं. कई दूर राज्यों से उन्हें सरकारी स्तर पर प्रशिक्षण देने के लिए बुलाया जाता रहा है जहाँ वे दिव्यांग लड़कियों को लीडरशिप की ट्रेनिंग देती हैं.



वैष्णवी ने कई पुरस्कार और सम्मान भी हासिल किये हैं . 2008 में बिहार व्यावसायिक विकलांग पुनर्वास केंद्र के सौजन्य से जबलपुर में आयोजित ओलम्पिक में जहाँ 5 राज्यों के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था वहां हैण्ड निटिंग (बुनाई) में तृतीय स्थान प्राप्त कर कांस्य पदक जीता फिर 2010  में गोल्ड मैडल जीता. उसके बाद उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ा कि फिर कई जगहों पर आयोजित नृत्य, संगीत, हस्तकला आदि में ढ़ेरों पुरस्कार अपने नाम किये. 2009 में सामाजिक संस्था 'प्रयास' की तरफ से उन्हें दिव्यांगों के लिए किये गए प्रशंसनीय कार्यों के लिए पुरस्कृत किया गया. 2012 में मुंबई की एक संस्था द्वारा आयोजित प्रोग्राम में उन्हें महाराष्ट्र के गवर्नर ने सम्मानित किया. 2013 में उन्हें अहिल्या देवी महिला सशक्तिकरण अवार्ड दिया गया. 2013 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के हाथों बिहार महिला सशक्तिकरण अवार्ड से सम्मानित किया गया.

2014 में युवा रत्न अवार्ड दिया गया. इसके आलावा और भी कई संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. वैष्णवी बताती हैं कि 'गांव में, परिवारों में दिव्यांगों की विवाह-शादी को लेकर कोई पहल नहीं करता, कोई उनकी फीलिंग नहीं समझता, कोई ये नहीं समझ पाता कि उनके भी सपने हैं, वो किसी का बोझ ना बनकर आम लोगों की तरह खुद का घर बसाना चाहते हैं. तो यही सब सोचते-विचारते मन में यह बात आयी कि क्यों ना उनके इस सपने को पूरा कराया जाये. फिर हमने सरकार से बात की और 2016  में बिहार सरकार से प्रोत्साहन राशि पास करवाई. उसके बाद पहली बार हमने विकलांग अधिकार मंच के तहत 'अनोखा विवाह' के नाम से दिव्यांगों की सामूहिक शादियां करवायीं जिनमे 7 जोड़े थें. इस आयोजन में बिहार के तत्कालीन राजपाल श्री रामनाथ कोविंद जी जो वर्तमान में देश के राष्ट्रपति हैं , ग्रामीण विकास कार्य मंत्री और केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद भी शामिल हुए. 2017 में हमने 9 दिव्यांग जोड़ों की शादियां करवायीं. इस आयोजन में स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया का बहुत ज्यादा सहयोग मिला. उनकी तरफ से हर जोड़े को सिलाई मशीन, बर्तन और आलमीरा देकर उनके घर बसाने के सपने को पूरा किया गया. समाज के अन्य लोगों से भी अच्छा सहयोग मिला.'  एक बार वैष्णवी के मन में आया कि क्या वे भी कभी वैष्णो देवी के दर्शन कर सकती हैं? फिर अपने मित्रों के ग्रुप के साथ वहां जाने का प्लान बनाया. चढ़ाई घोड़े पर बैठकर की और वापस बैशाखी के सहारे पैदल लौटकर आयीं. उसके बाद 2012 से उन्होंने अपनी संस्था की तरफ से दिव्यांग लोगों के लोए धार्मिक -ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों की यात्रायें शुरू की. वैष्णवी जब घर से बाहर निकलकर दूर-दूर जाकर दूसरे दिव्यांग लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने लगीं तो ऐसे में उन्हें घरवालों का पूरा सपोर्ट मिला लेकिन पड़ोसी एवं रिश्तेदार ताना मारने लगें कि 'खुद का तो ठिकाना नहीं चली है दूसरों का भार उठाने.' लेकिन वैष्णवी ने कभी उनके तानों की परवाह नहीं की और सिर्फ अपने दिल की सुनी. आज वही ताना मारनेवाले लोग वैष्णवी के कार्यों की सराहना करते नहीं थकते.  वैष्णवी मानती हैं कि दिव्यांगों की आज गांव-घरवालों द्वारा कराई गयी 80 % शादियां सक्सेस नहीं हो पा रहीं. फिर बाद में उन्हें या तो छोड़ दिया जाता है या उनके रहते हुए दूसरी शादी कर ली जाती है जिससे उनकी ज़िन्दगी बद से बदतर हो जाती है. या फिर लोभ में की जा रही हैं. वैष्णवी चाहती हैं कि वे दिव्यांग लड़कियों को इतना सशक्त कर दें कि वे भविष्य में कभी कोई जुल्म ना सहें. अपने अधिकारों को समझें, उसके लिए खुद लड़ें. आज भी वे अकेली बाहर निकल पाएंगी कि नहीं ये उनका परिवार तय करता है, तो आगे से वे खुद निर्णय लेकर अकेले बहार निकले, पढ़े-लिखें और आत्मनिर्भर बनें, बोल्ड बने ताकि फिर कोई उन्हें बोझ और बेचारा न समझे.

Monday, 24 July 2017

गीत-गजल संग्रह की पाण्डुलिपि खो जाने पर बहुत दुःख पहुंचा : डॉ. अनिल सुलभ, अध्यक्ष, बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन

वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म बिहार के शिवहर जिले के अम्बा गांव में हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई और स्कूली दिनों में ही मेरा कहानी, एकांकी नाटक एवं गीत लेखन शुरू हो गया था. मुझे अपनी पहली कहानी याद है 'दोस्तों के लिए दुआ' नाम से मैंने 6 ठी क्लास में लिखी थी जिसे पढ़कर हमारे स्कूल के हिंदी शिक्षक ने बहुत प्रशंसा की थी. उसी उम्र से मैंने गांव में होनेवाले सांस्कृतिक समारोहों, नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया था. तब गांव में रामलीला- कृष्णलीला का दौर था. तब मैं भी गांव की नाट्य मंडली में शामिल था. अलग अलग गाँवो में मंचन के लिए नाट्य मंडली को आमंत्रित किया जाता था. किसी एक गांव में जाते तो लगभग महीने तक वहां नाटक चलता था. शुरू- शुरू में जो शाम में हम नाटक देखते अगले दिन सुबह दोस्तों के संग मिलकर उसे दोहराने लगते. शायद इसी वजह से नाटकों के प्रति भी मेरा लगाव बढ़ा. गांव में धार्मिक कृतियों पर आधारित नाटकों का मेरे बालमन पर गहरा प्रभाव पड़ा. फिर आगे की पढाई करने मैं पटना आ गया. जब कॉलेज में गया तो वहां की नाट्य संस्था से जुड़ गया. उन दिनों नाटककार, साहित्यकार और पत्रकार कम होते थें और उन्हें आमलोगों से बहुत सम्मान मिलता था. मैं शौकिया तौर पर कॉलेज के नाटकों और खास तौर पर पटना के रविंद्र भवन एवं भारतीय नृत्य कला मंदिर में होनेवाले मंचन में भाग लेने जाया करता था. तब एक नाटक दो से तीन दिनों तक प्रदर्शित होता था और वह हाउसफुल जाता था. उन दिनों लोग टिकट लेकर नाटक देखने आते थें. कालिदास रंगालय या रविंद्र भवन में टिकट काउंटर बने होते थें. क्यूँकि तब स्वस्थ मनोरंजन का वही अच्छा साधन हुआ करता था. उन दिनों नाटकों में  हमें सम्मान के सिवा कुछ नहीं मिलता था. सिर्फ महिला पात्र निभा रही लड़कियों को घर से आने-जाने के लिए कुछ राशि मिलती थी. हम लड़के तो खुद ही अपने पैसों से आते-जाते थें. लेकिन फिर भी मन में कोई निरासा नहीं, कोई पैसों का लोभ नहीं था. बस नाटकों से जुड़ने का शौक और जुनून दिलो-दिमाग पर हावी रहा करता था. और सबसे बढ़कर सीखने की ललक थी. उन दिनों पटना में कला-साहित्य से जुड़े लोगों से मेरा परिचय बढ़ा जिनमे कवि तरुण जी और आकाशवाणी के कुछ एक लोग थें जिन्होंने 'साहित्यांचल' नाम से एक संस्था बनाई थी. 'साहित्यांचल' में प्रत्येक रविवार को गोष्ठियां आयोजित होतीं जिसमे पटना शहर के सभी प्रतिष्ठित कविजन आया करते थें. मैं प्रायः प्रत्येक गोष्ठी के लिए एक नई रचना लेकर जाता था तो इस बहाने से हफ्ते में कम से कम एक गीत या गजल तैयार हो जाता था. उन्हीं दिनों हम युवा लड़कों ने मिलकर साहित्य पत्रिका निकालने का मन बनाया. तब 1983 -84 में 'आर्याव्रत' अख़बार के संपादक थें पंडित जयकांत मिश्रा जो एक नया अख़बार निकालना चाहते थें. और चूँकि हमलोगों का उनसे अच्छा परिचय था इसलिए अपनी पत्रिका छपवाने का प्रस्ताव लेकर उनके पास गए. लेकिन उन्होंने अपना प्रस्ताव रख दिया कि 'क्यों नहीं हमलोग मिलकर एक अख़बार निकालें और जो आप पत्रिका में लिखना चाहते हैं वो उसी अख़बार में लिखें.' हमलोगों को बात पसंद आ गयी तो फिर हम तीन-चार लोगों ने मिलकर वह अख़बार शुरू किया. अख़बार का नाम था 'मगध मेल' लेकिन उसे हमने सांध्य दैनिक के रूप में प्रकाशित किया. तब हमलोगों के सामने समस्या ये होती कि प्रकाशन होते -होते ही शाम हो जाती थी और लोगों तक पहुँचाने में कठिनाई होती थी. कोई हॉकर या एजेंसी तैयार नहीं होती थी. उनका प्रस्ताव था कि दोपहर तक आप अख़बार दे दीजिये ताकि दिल्ली से जो अख़बार आते हैं उनके साथ ही साथ वितरण हो जाये. लेकिन ऐसा व्यवहारिक नहीं था चूँकि समाचार मिलते- तैयार होते फिर हैण्ड कम्पोजिंग में समय लग जाता था. अख़बार तो खूब पसंद किये जा रहे थें लेकिन समय पर न दे पाने की वजह से सर्कुलेशन का दायरा आगे नहीं बढ़ पता था. तो फिर हम दोस्तों ने ही मिलकर हॉकर टीम बनाई और रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि जो जिधर जाता वहां अख़बार ले जाकर बेच आता था. एक तो सर्कुलेशन की बाधा फिर कुछ और भी समस्याएं आयीं जिस वजह से वह अख़बार बंद हो गया. फिर मैं दूसरे अख़बारों में आलेख लिखने लगा. इसी सब चक्कर में मेरी ग्रेजुएशन की पढ़ाई बाधित हुई लेकिन फिर देर से वह पूरी की मैंने. ग्रेजुएशन बाद मैंने विमान उड़ान प्रशिक्षण में दाखिला लिया लेकिन बाद में एक साथ सभी प्रशिक्षु विमानों के लम्बी अवधि तक खराब हो जाने की वजह से वह पढ़ाई भी मुझे बीच में छोड़नी पड़ी. बहुत बाद में जाकर मैंने अलटरनेटिव मेडिसिन की पढ़ाई की और फिर हमने एक्यूप्रेशर-एक्यूपंक्चर शुरू किया. हालाँकि फिर से साहित्य सम्मलेन एवं संस्थाओं के चक्कर में उसकी सेवा मैं नहीं दे सका. मेडिसिन की तरफ आने की वजह ये रही कि उन दिनों मैं जब अख़बारों में लिखता था तो साहित्य के अतरिक्त शिक्षा और स्वास्थ भी मेरे दो अलग विषय थें. उसी क्रम में कुछ चिकित्सा विज्ञान के विद्धानों से भी मेरी निकटता बढ़ गयी. 1988 -89 में तब कुछ दिनों के लिए मैंने 'आज' अख़बार भी ज्वाइन कर लिए था. जब नया नया 'आज' का जमशेदपुर एडिसन शुरू हुआ था तो पटना से मुझे वहां भेज दिया गया. तब कानपुर के शर्मा जी प्रभारी संपादक थें जिन्होंने मेरा जबर्दस्त उपयोग किया. मैं तो वहां उप संपादक था लेकिन मुझसे सम्पादक जैसा काम लिया जाता था. उनलोगों को एक ऐसा व्यक्ति मिल गया था जो रिपोर्टिंग से लेकर एडिटिंग तक हर पेज का जाननेवाला था. तो जहाँ जहाँ कमी पड़ती या किसी पेज का इंचार्ज छुट्टी पर रहता तो मुझे वहां लगा देते थें. मैं परेशान हो जाता था लेकिन शायद तब जो भी हुआ वह मेरे आगे बढ़ने में मददगार साबित हुआ. तब जमशेदपुर एडिसन में हर हफ्ते मेरे तीन कॉलम आते थें. एक का नाम था 'अनिल सुलभ की डायरी' जिसमे मेरे खुद के विचार रहते, दूसरा कॉलम था 'उनकी व्यथा' जिसमे लोगों की आम समस्याओं पर केंद्रित आलेख हुआ करता था और तीसरा कॉलम था 'व्यथा कथा' जिसमे किसी प्रताड़ित-शोषित व्यक्ति की स्टोरी होती थी. मैं सोचता हूँ कि तब मेरे उन तीनो कॉलमों के चुनिंदा आलेख संकलित करके किताब छप सकती थी. मैं उसके कतरन लेकर वापस पटना आया भी था लेकिन वो कहीं गायब हो गया. मुझे याद है स्कूल-कॉलेज के दिनों में लिखे गीत-गजलों के संग्रह तैयार थें लेकिन उस समय मैं सक्षम नहीं था और बहुत ध्यान भी नहीं दिया जिस वजह से तब वह छप नहीं पाया और दोनों ही किताबों की पाण्डुलिपि मेरे स्थानांतरण के क्रम में कहीं गुम हो गयी. वो क्षति मेरे लिए हादसे से कम नहीं था.

उसके बाद से व्यस्तता इतनी बढ़ने लगी जिस वजह से मेरा साहित्य पर सक्रीय काम आगे नहीं बढ़ पा रहा था, गति बहुत धीमी थी. जो 2000  में लिखी चीजें थीं वो 2012 -13  में दस-बारह साल बाद छप पायीं. सामाजिक सरोकारों में उलझे रहने और समयाभाव की वजह से मेरा पहला कहानी संग्रह 'प्रियंवदा' काफी देर से 2017 में आया.  फिर से पुराने दिनों की तरफ लौटता हूँ . उन दिनों जमशेदपुर के 'आज' एडिसन में काम करने के दरम्यान जब मुझे 'सन्डे ऑब्जर्वर' हिंदी संस्करण के लिए पटना से ऑफर आया तो मैं वहां से छोड़कर वापस चला आया. फिर जो सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए हमारे साथ के लोग थें उनकी और मेरी खुद की भी इच्छा हुई कि एक ऐसी संस्था शुरू की जाये जहाँ से ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति तैयार किये जाएँ जो सोसायटी को, समाज को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाएं. तो बहुत चिंतन-मनन के बाद हम लोगों ने तय किया कि विकलांगता के क्षेत्र में जो सेवा देनेवाले विशेषज्ञ होते हैं उन्हें प्रशिक्षण देने का पाठ्यक्रम शुरू किया जाये जो कहीं नहीं है. फिर हमने 1990 में इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ हेल्थ एजुकेशन एन्ड रिसर्च नामक पारामेडिकल एवं पुनर्वास विज्ञान संस्थान की स्थापना की. उस समय पूरे देश में नॉन गवर्मेंट में कोई ऐसा इंस्टीच्यूट नहीं था. इसको डेवलप करने में बहुत बाधाएं आयीं क्यूंकि ये बिल्कुल नए तरह की चीज थी लोगों के लिए, सोसायटी के लिए. बिहार सरकार की स्वीकृति मिलते ही हमने डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू किया. लेकिन ये सब ऐसे पाठ्यक्रम थें जिसके बारे में लोगों को जानकारी न के बराबर थी. आम आदमी को तो छोड़ें तब मेडिकल सर्विसेज से जुड़े हुए लोगों को भी उतनी जानकारी नहीं थी. तो हमने इस कोर्स के प्रति जागरूकता लाने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया, फ्री हेल्थ कैम्प लगाने शुरू किये. और लगभग हर रविवार को हमने स्लम एरिया और झुग्गी झोपड़ियों में रहनेवाले लोगों के बीच अलग-अलग जगहों पर स्वास्थ शिविर लगाना शुरू किया. फिर धीरे धीरे लोग इस बात को समझते गए कि ये सब भविष्य बनाने वाले पाठ्यक्रम हैं और यह ऐसा क्षेत्र है जिसमे सबसे दुखी एवं पीड़ित रोगियों यानि विकलांगों की सेवा की जाएगी जिससे आत्मसंतुष्टि भी मिलेगी. यानि जो पोलियो ग्रसित है उसे उस लायक बना दें कि वह खुद से चल-फिर सके, अपना काम कर सके तो यह बहुत बड़ा काम हुआ. धीरे-धीरे प्रचार होने के बाद बच्चे इस क्षेत्र में आने लगें. और प्रशिक्षण एवं सेवा दोनों का कार्य हमने सामानांतर जारी रखा. मेरे इस क्षेत्र में आ जाने के कारण मेरी पत्रकारिता तो छूट गयी लेकिन मैं पत्रिकाओं में लिखता रहा. मेरे घरवाले चाहते थें कि मैं इंजीनियरिंग करूँ, सरकारी नौकरी करूँ लेकिन कभी मेरे ऊपर कोई दबाव नहीं रहा कि तुम यही करो ही. तब एक जगह सरकारी नौकरी मेरी लगभग तय हो गयी थी लेकिन मेरी तबियत नहीं हुई कि मैं उस तरफ जाऊँ इसलिए मना कर दिया. मेरे मन में चलता रहता था कि कुछ बड़ा काम करना है. नौकरी तो नहीं करनी है अगर संभव हुआ तो नौकरी देनी है. इसी मानसिकता के तहत मैंने टीम बनाई और मेडिकल क्षेत्र में आ गया और आज मैं इससे संतुष्ट हूँ. 

Friday, 21 July 2017

कल जो ताने मारते थें आज वही मुझसे रिश्ता जोड़ते हैं : सोमा चक्रवर्ती, टी.वी.ऐंकर, रेडिओ एनाउंसर, डांसर एवं थियेटर आर्टिस्ट

वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu' 

मैं पटना की ही रहनेवाली हूँ, यहीं मेरा जन्म हुआ. स्टैंडर्ड 3 तक मैं मिश्राज संत जोसफ प्राइमरी स्कूल में पढ़ी. फिर 4 स्टैंडर्ड से मैट्रिक तक मैंने माउंटकार्मल हाई स्कूल से पढ़ाई की. शुरुआत से ही मेरी मम्मी के ख्यालात थें कि 'हमलोग घर में भले नमक रोटी खाकर गुजारा कर लें लेकिन बच्चों को अच्छे एवं इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाएंगे ताकि आगे चलकर उनका भविष्य बेहतर हो.' मैंने इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन पटनावीमेंस कॉलेज से किया और उसके बाद मॉस कम्युनिकेशन में पी.जी. किया इग्नू से. उसके बाद ख्याल आया कि एडुकेशन को थोड़ा और बढ़ाया जाये तो मैंने पटना ट्रेनिंग कॉलेज से बी.एड. भी किया इसलिए कि कुछ ना कर सकी तो कम से कम टीचिंग लाइन में तो जा सकती हूँ. उस दौर में हर कोई चाहता था कि बाहर जाकर पढाई करें. तब शुरुआत में मेरी बड़ी बहन जे.एन.यू. दिल्ली से स्पेनिश कोर्स में ग्रेजुएशन कर रही थी. तो मैट्रिक करने के बाद कहीं ना कहीं मेरे मन में था कि मैं भी दिल्ली जाकर आगे की पढाई करूँ. लेकिन घर में थोड़ी आर्थिक प्रॉब्लम थी और तब दो-दो बेटियों को बाहर उच्च शिक्षा के लिए भेजना संभव नहीं लग रहा था. दूसरी तरफ मेरी प्रॉब्लम ये थी कि मैं होम सिकनेस की शिकार थी और मम्मी से बहुत अटैच थी. इसलिए मुझे ये भी लग रहा था कि मैं पटना से बाहर चली जाउंगी तो कैसे रहूंगी. फिर मैंने सभी हालातों को देखते हुए तय किया कि मुझे पटना में ही रहना है. मेरे पापा एल.आई.सी. में थें और एक समय में पापा का बहुत अच्छा इनकम हुआ करता था. तब हमलोग बहुत छोटे थें और हमलोगों की लक्जरी लाइफ हुआ करती थी. लेकिन लाइफ में अप्स एन्ड डाउन होते ही हैं तो हमलोगों की लाइफ में भी वो वक़्त आया जब हमलोग 13 -14 साल के टीन एजर हुए, जब हमलोगों की बुद्धि खुली कि अब ऐसा होना चाहिए लेकिन तब पापा का एल.आई.सी. में बिजनेस कम होने की वजह से उनका डाउन फॉल शुरू हो गया और हमलोग पहलेवाली लाइफ मिस करने लगें. उस हालात में भी मम्मी ने ये सोच लिया था कि कुछ भी हो कहीं से इन लोगों की फ़ीस जुगाड़ करके कम से कम मैट्रिक तक अच्छे से पढ़ाऊंगी. वैसे तो मम्मी एक हाउस वाईफ हैं लेकिन उनकी हिम्मत और परिवार के प्रति समर्पण देखकर हम भाई-बहनों में भी परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत आ जाती थी. मैं दो बहन एक भाई में सबसे छोटी हूँ. तब मैट्रिक के बाद हम तीनों भाई-बहनों ने अपनी आगे की पढाई ट्यूशन पढ़ाकर पूरी की. हमारे ट्यूशन पढ़ाने से एक तो फैमली में थोड़ा सपोर्ट मिला और दूसरा हम अपने शौक भी पूरे कर लेते. क्यूंकि पापा पर अपने खर्चों का बोझ नहीं डालना चाहते थें. 

स्कूल की फ्रेंडस के साथ सोमा दाएं से दूसरी येल्लो टीशर्ट में 
मैं जब क्लास 10 में पढ़ ही रही थी तब मेरी लाइफ में बहुत बड़ा टर्निंग पॉइंट आया जहाँ से मैं एक आर्टिस्ट के तौर पर अपनी पहचान बनाने की राह पर चल पड़ी. स्कूल के दिनों से ही डांसिंग का बहुत शौक था. बाहर सीखना चाहती थी लेकिन घर की आर्थिक स्थिति इसकी इजाजत नहीं दे रही थी. इसी बीच मुझे पता चला कि पटना से बिहार सरकार की तरफ से मॉरीशस के लिए एक टीम जानेवाली है जिसमे एक डांसर की तलाश है. प्रोफ़ेसर डॉ. एन.एन.पाण्डे जी एक टीम तैयार कर रहे थें डांस ड्रामा के लिए. किसी से उनको पता चला कि मैं डांसर हूँ तो उन्होंने मुझे बुलवाया. मैं उनसे मिली और उनके साथ उनकी टीम से जुड़ गयी. उस डांस ड्रामा टीम को मॉरीशस जाने के पहले बहुत सी झंझावातों से गुजरना पड़ा. कई जगह सेलेक्शन के लिए जाना पड़ा. पहले हमारी टीम बहुत बड़ी थी फिर आर्टिस्ट कम करने का आदेश हुआ तो हम डरे रहते कि न जाने कब हम छंट जाएँ. लेकिन टीम में दो ही मुख्य डांसर थें जिसमे से एक मैं थी. फिर किसी तरह सेलेक्ट होकर पटना से हम दिल्ली पहुंचे. दिल्ली में भी हमें ट्रायल देना पड़ा. वो 1987 की बात है तब मैं सागर महोत्सव में बिहार को रिप्रजेंट करने के लिए अपनी टीम के साथ मॉरीशस गयी. तब मैं आज के बच्चों की तरह ज्यादा मैच्योर नहीं थी, बहुत शर्मीली स्वभाव की भी थी. लेकिन मैंने पहले ही ठान लिया था कि किसी तरह मुझे इस फेस्टिवल में जाना है, अपने बिहार और मम्मी-पापा का नाम रौशन करना है. जब मैं मॉरीशस के लिए चली गयी तो पटना में मेरी फोटो अख़बार में छपी. उस समय पापा इतने उत्साहित हुए कि वे सारे रिश्तेदारों के बीच जाकर पेपर बाँट आये ये कहने के साथ कि 'पूरे खानदान में मेरी यही बेटी है जो प्लेन से विदेश गयी है.'  क्यूंकि तब प्लेन से कहीं जाना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी. मॉरीशस से लौटकर आने के बाद ही मेरे ऊपर आर्टिस्ट का टैग लग चुका था. वहां से आने के बाद मैं बहुत से लोगों से मिली और कई सारे प्रोग्राम करने लगी. मैंने सरकार के भी बहुत सारे प्रोग्राम किये. 

इसी दौरान मेरे गुरु स्व. गौतम घोष मुझे 'प्रांगण' संस्था में एक डांस ड्रामा के लिए ले गए. उसी समय 'प्रांगण' में प्ले 'तोता मैना की कहानी' की तैयारी चल रही थी जिसकी नायिका एक हफ्ते पहले नाटक छोड़कर दिल्ली कोई प्रोग्राम करने चली गयी थी उस वजह से सभी चिंतित थे कि अब कैसे होगा? फिर सबकी नज़र मुझपर पड़ी तो मुझे बोलने लगें कि ' ये डांसर है और नाटक में एक नर्तकी का ही किरदार है तो ये कर सकती है.' चूँकि मैं तो डांस ड्रामा के लिए वहां गयी थी इसलिए मैंने कहा - 'इसके पहले मैंने कभी प्ले नहीं किया है और इतना लम्बा-लम्बा डायलॉग बोलना मुझसे ये सब नहीं होगा. लेकिन वे बहुत रिक्वेस्ट करने लगें तब मुझे वो प्ले करना पड़ा. वो मेरी लाइफ का पहला प्ले स्टेज शो था. मेरे गुरु जी नाटक में तोता के किरदार में थें तो मैं मैना के किरदार में थी. वो प्ले इतना ज्यादा हिट हुआ कि जब अगले दिन अख़बार में बड़ी सी फोटो आयी तो मुझे लगा कि अब मैं फेमस हो गयी हूँ. तब लोगों की बहुत सराहना मिली. फिर एक-दो हफ्ते बाद ही मेरे घर में दो-तीन डायरेक्टर आ धमकें मुझे अपनी भोजपुरी फिल्म में लेने के लिए. लेकिन मैंने मना कर दिया क्यूंकि मुझे कभी फिल्मों का शौक नहीं रहा खासकर भोजपुरी में तो बिल्कुल नहीं. मुझे बस थियेटर और डांस करने में ही ज्यादा आनंद आता था. प्ले तो मैंने तब एक्सीडेंटली कर लिया था लेकिन तब थियेटर के कीड़े ने मुझे ऐसा काटा कि थियेटर मेरा पैशन बन गया. फिर मैं 'प्रांगण' ग्रुप के साथ जुड़ गयी और लगातार 1988 से अभी तक थियेटर कर रही हूँ. आदमी जब चलना शुरू करता है तो रास्ते धीरे-धीरे मिलने लगते हैं. इसी बीच थियेटर करने के दरम्यान मैंने आकशवाणी में ड्रामा आर्टिस्ट के रूप में ऑडिशन दिया और 1992 से मैं आकाशवाणी में बतौर ड्रामा आर्टिस्ट काम कर रही हूँ. उस वक़्त मेरा ग्रेजुएशन भी कम्प्लीट नहीं हुआ था. 1994 में ग्रेजुएशन करने के बाद 1995 से मैं आकाशवाणी में बतौर एनाउंसर जुड़ गयी. 21 जून,1996 को भारतीय नृत्य कला मंदिर में हुए कार्यक्रम में पहली बार मैंने स्टेज एंकर का काम किया. वो विश्व संगीत दिवस का कर्यक्रम था और कल्चरर डिपार्टमेंट के लोग मुझे जानते थें. तो हुआ यूँ कि सर ने कहा कि 'तुम तो रेडिओ में एनाउंसमेंट करती हो, तो क्यों नहीं ये प्रग्राम तुम होस्ट करो.' मैंने घबराकर कहा- 'इतने लोगों के बीच मैं स्टेज पर एंकरिंग करुँगी ?' वे बोले- ' हाँ, जब थियेटर करती हो, एनाउंसमेंट करती हो तो इस प्रोग्राम में भी एंकरिंग कर सकती हो .'  फिर मैं बतौर एंकर स्टेज पर आयी और फिर मेरा वहां से स्टेज प्रोग्राम करने का भी सिलसिला शुरू हो गया. उसी बीच मैंने दूरदर्शन में भी इंटरव्यू दिया और सेलेक्ट होकर वहां से भी एंकरिंग करने लगी. चूँकि मैं एक शर्मीले स्वभाव की लड़की थी लेकिन मेरी जो भी झिझक थी वो धीरे-धीरे थियेटर, डांस और एंकरिंग करते-करते खत्म हो गई थी इसलिए कैमरा फेस करने में मुझे प्रॉब्लम नहीं हुआ. 1997 में मुझे यूथ फेस्टिवल में हिस्सा लेने के लिए क्यूबा जाने का भी मौका मिला. तब से मैं डांस, थियेटर, टी.वी. एंकरिंग एवं रेडिओ एनाउंसर इन चारो को मैं मिलाकर चल रही हूँ. मुझे आकाशवाणी ने बहुत कुछ सिखाया है. एक बंगाली लड़की के लिए अच्छी हिंदी उच्चारण करना टफ समझा जाता है लेकिन पटना की होने की वजह से मेरी हिंदी अच्छी थी फिर भी सही उच्चारण, नुक्ता आदि का ज्ञान मुझे आकाशवाणी में सीखने को मिला. थियेटर करने के दौरान मुझे लगता था कि यदि मैं किसी और जगह शादी करुँगी तो हो सकता है मुझे ये सब चीजें नहीं करने दिया जायेगा. तो मैंने अपने थियेटर के करीबी मित्र अभय सिन्हा जी से शादी करने का फैसला किया. तब मेरे घरवाले भी उनको जानते थें. एक बार रसोई में मम्मी बुरी तरह से जल गयी थीं और उस स्थिति में अभय जी ने हर तरह से मेरा और मेरे परिवार का सपोर्ट किया था. हांलांकि तब वो भी मुझे पसंद करते थें लेकिन मुझे लगता था पता नहीं घरवाले दूसरी कास्ट में शादी के लिए तैयार होंगे कि नहीं. लेकिन जब मैंने यह सोचकर निश्चय किया कि आगे भविष्य में मुझे कुछ करना है तो फिर अपने फिल्ड के ही आदमी से शादी करना उचित रहेगा. जब हम दोनों तैयार हुए तो घरवाले तैयार नहीं हुए. फिर मनाने पर सब मान गए लेकिन मेरी मम्मी थोड़ी नाराज रहीं और गुस्से की वजह से मेरी शादी में भी शामिल नहीं हुईं. शादी के एक महीने बाद सबकुछ सेटल हो गया, मम्मी भी मान गयी. मम्मी ने तब गहराई से सोचा कि मेरी बेटी अभय जी के साथ रहेगी तो ही सही मायने में आगे बढ़ेगी. और हो सकता है हमलोग अपने पसंद से उसकी कहीं शादी करा दें लेकिन शादी के बाद वो खुश ना रहे या जो करना चाहती है वो आगे ना कर पाए. एक वो समय था और एक आज का समय है जब मम्मी गर्व से कहती है कि बहुत अच्छा दामाद मिला है जो फैमली के साथ साथ मेरी बेटी का भी सपोर्ट करता है. 

2014 में मुझे एक और झटका लगा जब मेरे पति की अचानक तबियत बहुत खराब हो गयी. पता चला कि उनके हार्ट में 90 % ब्लॉकेज है और पटना के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. तब हमलोग किसी तरह सोर्स लगा कर उन्हें वेदांता में ले गए. वहां के डॉकटर भी बोले- 'अभी तक तुम कैसे बचे हो?, तुरंत ऑपरेशन करना होगा.' फिर उनका पूरा बाईपास सर्जरी किया गया तब जाकर उनकी हालत में सुधार हुआ. उसके बाद गाड़ी सही तरीके से चलने लगी. 

2015 -16 में फोक डांस के लिए मुझे मुख्यमंत्री के हाथों बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उस वक़्त मैं खुश तो थी ही मगर रह रहकर एक पुरानी बात याद आ रही थी जब शुरू शुरू में थियेटर करती थी तो मुझे लेट नाइट लौटना पड़ता था. अड़ोस-पड़ोस के लोग ताने मरते कि ' बंगाली दादा की बेटी है, देखो ना इतनी रात में आती है. इनको शर्म भी नहीं आती.' क्यूंकि तब लड़कियों के लिए थियेटर करना अच्छा नहीं समझा जाता था. लेकिन मेरी मम्मी का कहना था कि ' अगर मेरी बेटी ठीक है और हम ठीक हैं तो फिर मुझे दुनिया की परवाह नहीं है.' तो मैं मानती हूँ कि पग-पग पर मेरी मम्मी का बहुत सपोर्ट मिला है मुझे. और तब जब मेरी तस्वीर न्यूज पेपर में छपने लगी, मेरा अच्छा नाम होने लगा तो वही ताना मारनेवाले लोग कहते-फिरते कि ' हम सोमा को जानते हैं, वो तो मेरी बेटी की तरह है, वो तो मेरे बगल में रहती है. अरे सोमा तो मेरी दोस्त है, मेरे साथ पढ़ी है -खेली है.'  साल 2017 में मुझे फिर से झटका लगा. जनवरी में मेरा ऐसा मेजर एक्सीडेंट हुआ कि बच जाने के बाद मैं इसे अपना दूसरा जन्म मानती हूँ. 5 महीने जो मैं लगातार बेड रेस्ट में रही तो हमेशा यही सोचती रहती कि मैं उठकर खड़ी हो पाऊँगी कि नहीं, चल पाऊँगी कि नहीं. चूँकि मुझे हमेशा लोगों के बीच रहने की आदत पड़ चुकी थी और तब रेडिओ, दूरदर्शन, एनाउंसमेंट सब छूट रहा था. फिर जब अपनी दो जुड़वां बच्चियों का ख्याल आया तो अंदर से हिम्मत पैदा हुई कि नहीं जैसे भी हो इनके लिए मुझे फिर से खड़े होना है. डॉक्टर के मना करने पर भी मैंने तय किया की दो घंटे के लिए ही जाउंगी नहीं तो मैं डिप्रेशन में चली जाउंगी. फिर मैंने जून, 2017 से स्टीक के सहारे चलकर ऑफिस जाना शुरू कर दिया.

Monday, 17 July 2017

तब विष्णु प्रभाकर को नहीं सुना होता तो आज मैं कुछ और कर रहा होता : हृषीकेश सुलभ, कहानीकार एवं नाटककार

जब हम जवां थें 
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म बिहार के सिवान जिले के लहेजी गांव में हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई. मेरे पिता स्वतंत्रता सेनानी थें जो घर-बार छोड़कर 1947  तक भटकते रहें. आजादी मिलने के बाद अचानक उनका राजनीति से मोहभंग हो गया. उसकी वजह थी कि तब आजादी के बाद राजनीति ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया था.फिर पिता जी गांव लौटकर खेतीबाड़ी देखने लगें. एक दिन वे मुझे 13 साल की उम्र में पटना ले आये ये सोचकर कि मुझे अच्छी शिक्षा देनी है. पटना कॉलेजिएट स्कूल और फिर बी.एन.कॉलेज में मेरी आगे की शिक्षा संपन्न हुई. उसके बाद पटना विश्वविधालय के हिंदी विभाग में  एम.ए.की पढ़ाई शुरू हुई. फिर वहीँ से एम.ए. पूरा किये बिना मैं नौकरी में चला गया. मध्य प्रदेश के बस्तर जिले के आकाशवाणी केंद्र में प्रसारण अधिकारी के रूप में मेरी नौकरी लगी. पढ़ाई बीच में छोड़ने के पीछे कई वजहें थीं. पहले तो लगता था एक ही वजह है परिवार की आर्थिक स्थिति लेकिन अब इस उम्र में पहुंचकर जब मैं उसका बार-बार विश्लेषण करता हूँ तो मुझे लगता है और भी कई कारण थें जो बहुत गहरे थें. मध्य प्रदेश से मेरा तबादला हुआ. मैं रांची आया फिर पटना आया. कुछ दिन वहां नौकरी करने के बाद मैंने यू.पी.एस.सी. परीक्षा दी और फिर से आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिशाषी के रूप में चुनकर आया. फिर विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करता रहा. नौकरी में आने से पहले ही मेरा लेखन जारी था और 1975  से ही मेरी रचनाओं का प्रकाशन शुरू हो गया था. सारिका में, प्रेमचंद जी के बड़े सुपुत्र श्रीपत राय जी एक पत्रिका एडिट करते थें 'कहानी' उसमे फिर धर्मयुग, रविवार आदि पत्रिकाओं में मेरी कहानियां छपने लगीं. मेरी पहली किताब आयी 1986  में. कहानी संकलन और अमली नाटक दोनों पुस्तकें एक साथ प्रकाशन में गयी थी लेकिन इक्तेफाक से नाटक की किताब पहले आ गयी क्यूंकि दोनों किताबों के प्रकाशक अलग थें. नाटक की किताब छपके आने से पहले ही मेरा लिखा नाटक पूरे देश में चर्चा के केंद्र में था. देश के विभिन्न हिस्सों में उसका मंचन हुआ. मेरा पहला कहानी संकलन 'पथरकट' आने के 8 साल के अंतराल के बाद दूसरा कहानी संकलन आया 'वध स्थल से छलांग' . फिर चार-पांच साल बाद तीसरा कहानी संकलन आया 'बंधा है काल'. फिर आगे चलकर प्रकाशक बदल गए और राजकमल प्रकाशन से मेरी किताबें प्रकाशित होने लगीं. फिर मेरे पुराने जो तीन कहानी संकलन थें उन तीनों संकलन की कहानियां एक जिल्द में आयीं 'तूती कीआवाज' शीर्षक से और ये सिलसिला चलता रहा. तब रेडिओ से मेरा रिश्ता सिर्फ नौकरी का रहा. मैं वहां नौकरी नहीं करता तो मुन्सिपल कॉरपरेशन में नौकरी कर सकता था. मेरी रेडिओ में नौकरी की जो दुनिया रही और जो मेरी साहित्य की दुनिया रही उसे मैंने कभी मिलाया नहीं. रेडिओ से मेरा कल भी बहुत गहरा लगाव नहीं था और आज भी नहीं है. एक लम्बा अरसा वहां बीता है तो जाहिर है कुछ लोग वहां ज़रूर रहे होंगे जिनसे मेरे गहरा लगाव रहा हो.

एक वाक्या तब का मुझे याद आता है जब हमलोग काफी नए थें एकदम युवा. तब हर चीज के प्रति गहरी उत्सुकता और जिज्ञासा का भाव था. उस समय कॉफी हॉउस का दौर था. तब पटना के डाकबंग्ला स्थित कॉफी हॉउस में हमलोग अक्सर जाते थें. वहीँ हमने साहित्य जगत के तमाम बड़े व्यक्तित्व को पहली बार करीब से देखा और उनका आचार-व्यवहार जाना. उस दौर में बहुत से साहित्यिक लोगों से हमारी मुलाकातें हुआ करती थीं. उन्ही दिनों की बात है पटना में मशहूर लेखक विष्णु प्रभाकर आये हुए थें. उस समय उनका 'आवारा मसीहा' जो शरतचंद्र के जीवन पर आधारित है प्रकाशित हो चुका था जिससे वे बेहद प्रसिद्ध हो चुके थें. पहली बार हिंदी में ऐसा हुआ था कि हिंदी का कोई बड़ा लेखक किसी भारतीय भाषा के दूसरे लेखक की जीवनी लिख रहा हो. और विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र की जीवनी पर 14 -15 वर्षों तक काम किया था तब जाकर पुस्तक आयी थी.  तब मैं बी.एन.कॉलेज के विद्यार्थी के रूप में वहां होनेवाली सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रीय रहता था. वहां हमलोगों की एक हरिश्चंद्र सभा थी जिसे बाद में बांटकर के नाट्य परिषद् को अलग किया गया. तब मैं नाट्य परिषद् का पहला सचिव था. एक दिन नाट्य परिषद् के काम से उत्साहित होकर बी.एन.कॉलेज के प्रिंसिपल एस.के.बोस साहब ने मुझे एक पुस्तक भेंट की और वह पुस्तक थी 'आवारा मसीहा'. और बाद में अचानक बिल्कुल अपने सामने उस पुस्तक के लेखक को पाकर मेरा मन आह्लाद से भर उठा. हमलोग विष्णु जी से मिले. एक छोटी सी बैठक हुई पटना के एस.पी.वर्मा रोड में. एक नाट्य संस्था की तरफ से यह बैठक आयोजित की गयी थी. वहां विष्णु प्रभाकर ने यह बताया कि कैसे शरतचंद्र के जीवन के बारे में जानने के लिए वे 14 वर्षों तक लगातार दर-दर भटकते रहें, वे कहाँ -कहाँ गए. एक-डेढ़ घंटे की उस बैठक में वे ये सारी बातें सुनाते रहें और हम मंत्रमुग्ध होकर बिल्कुल बच्चे की तरह उनके सामने बैठे हुए उनके मुख से सुनते रहें. यह मेरे जीवन का एक दुर्लभ अनुभव था. साथ-साथ मुझे ये लगा कि एक पुस्तक लिखने के लिए एक बड़ा लेखक जब इतना श्रम करता है तो साहित्य की जो यात्रा है वो कितनी कठिन है, किस तरह के समर्पण एवं निष्ठा की मांग करती है. तो इस विद्या को बहुत हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. तब विष्णु जी को सुनते हुए यही सब अपने मन में अर्जित करता रहा. विष्णु प्रभाकर जी को सुनना यह मेरे जीवन की बहुत बड़ी घटना थी. क्यूंकि वो नयी उमर थी, हर चीज के प्रति आकर्षण था. कभी यहाँ कभी वहां, कभी इस काम को छोड़कर कभी उस काम में लग जाना जो युवाओं में एक अधीरता या जल्दबाजी होती है वो सब मेरे अंदर भी था. तो उनकी बातों ने मुझे बहुत स्थिरचित्त किया, शांत किया और मुझे इसकी सीख दी कि किसी भी काम को करने के लिए आपको लगातार बने रहना है. साहित्य में अगर आपको महत्वपूर्ण लिखना है तो आपको पूरी तरह उसमे उतरना होगा. यही वजह थी कि तब आकाशवाणी जैसे ग्लैमरस संस्थान में नौकरी करते हुए भी रेडिओ मेरा मुख्य चुनाव नहीं रहा, वो सिर्फ मेरी नौकरी करने की जगह थी. वहां मैं ईमानदारी से अपना काम भर करता रहा और निरंतर लिखता रहा. तब विष्णु जी के भाषण ने मेरे अंदर बहुत गहरा प्रभाव डाला. मैं आज भी कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर तब विष्णु प्रभाकर को नहीं सुना होता तो शायद मैं कुछ और कर रहा होता. क्यूंकि तब साहित्य के प्रति उत्सुकता एवं लालसा तो थी मगर स्थायित्व नहीं था.

 
जीवन संगिनी से सम्बंधित वाक्या मुझे याद आता है. पत्नी मीनू से एक विवाह समारोह में मेरी मुलाकात हुई थी. तब वे बी.ए. की छात्रा थीं और मैं एम.ए. कर रहा था. मुझे पता चला कि उन्हें साहित्य के प्रति रूचि है. उन दिनों 'रविवार' पत्रिका जो कोलकाता के आनंद बाजार ग्रुप की पत्रिका थी में मैंने कुछ रिपोर्टें लिखी थीं.जमशेदपुर में हुए दंगे पर, गांव में नाच करनेवालों पर, खून के व्यापार पर लिखी रिपोर्टें तब चर्चित रही थीं. मुझे पता चला कि मीनू ये सारी चीजों को पढ़ती आयी हैं. फिर एक लेखक और एक पाठिका के रूप में हमदोनो की जान-पहचान हुई जो आगे चलकर अच्छी दोस्ती में तब्दील हो गयी. तब शायद वो मेरी लेखनी से आकर्षित थीं और मैं उनके स्वभाव से. तब मीनू जी हमसे बहुत दूर एक छोटे से शहर में रहती थीं और मैं राजधानी पटना में रहता था. तब हमलोगों के बीच बहुत खुला एवं बहुत गहन प्रेम नहीं था. जो भी था भीतर ही भीतर एक राग था एक शांत नदी की तरह. तब हमारे मध्यम वर्गीय समाज में वैसा खुलापन भी नहीं था और हमारी बहुत मुलाकातें भी नहीं होती थीं. लेकिन हमदोनों के परिवार पहले से परिचित थें. उन्हें लगा कि दोनों साझा जीवन जी सकते हैं तब मेरे पिता ने इस सम्बन्ध में मुझसे बातें की और मैंने हामी भर दी. फिर हमारा विवाह संपन्न हुआ. मेरी साहित्यिक यात्रा में मेरी पत्नी का शुरू से लेकर आजतक भरपूर सहयोग मिला और वे शुरू से ही अच्छी एवं गंभीर पाठिका रहीं. उन्होंने मुझे पर्याप्त अवकाश दिया पढ़ने-लिखने एवं मेरी साहित्यिक यात्राओं के लिए. 

Friday, 14 July 2017

अगर फुटपाथ की ज़िन्दगी नहीं जीता तो कार्टूनिस्ट नहीं बन पाता: पवन,कार्टूनिस्ट,दैनिक हिन्दुस्तान,पटना

वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा गांव ज़द्दोपुर, वैशाली में है और मेरा जन्म हुआ पटना के कंकड़बाग में. सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई स्कूल से स्कूलिंग हुई. इंटर और ग्रेजुएशन की पढ़ाई मैंने पटना कॉलेज से की. लेकिन ग्रेजुएशन पूरा नहीं कर पाया. शुरू में तो पढ़ाई काम की वजह से छोड़ी फिर जब दुबारा गया तो यूनिवर्सिटी की हालत देख दुःख हुआ. बस एक साल बचा था हम ग्रेजुएट हो जाते लेकिन व्यवस्था ऐसी थी कि विज्ञापन तक नहीं निकाला गया कि फॉर्म भरने की ये तारीख है और फिर जब भी कॉलेज में पढ़ने जाते हमेशा हड़ताल हो जाती. तब हड़ताल से ऐसी नफरत हुई कि मेरा पढ़ाई से मन भर गया. वैसे भी पढ़ाई में मुझे कभी इंटरेस्ट रहा नहीं. स्कूल से ही मैं काम करने लगा था. 7 वीं क्लास के बाद एक तरह से मेरा स्कूल छूट गया क्यूंकि मैं ज्यादातर बंक मारने लगा था. मैं सिर्फ 30 नंबर पास करने भर पढ़ लेता, बस यही सोच थी कि फेल ना करूँ. जिस समय मुझे स्कूल में कॉस थीटा बनाना था, जीव विज्ञान पढ़ना था उस समय मैं अख़बार पढ़ने लगा. स्कूल में तब तीन अख़बार आता था. नवभारत टाइम्स, पाटलिपुत्र टाइम्स और आज. मैं इस ताक में रहता कि सर लोग जितनी जल्दी अख़बार पढ़कर छोड़ दें और उसका एक पन्ना भी पढ़ने को मिल जाये तो बहुत है. उन दिनों कोई अख़बार बच्चों का कॉलम नहीं निकालता था, तो एक दफा मैं नवभारत टाइम्स के एक संपादक के पीछे पड़ा और जिद्द करके पहली बार मैंने बच्चों का कॉलम शुरू करवाया. उन दिनों हमारे दिलो-दिमाग पर कॉमिक्स का असर भी कुछ ज्यादा हुआ करता था. मैं इंद्रजाल कॉमिक्स का बेसब्री से इंतज़ार करता था. मुझे लगता है यदि मैं उस सरकारी स्कूल में न पढ़ा होता तो शायद उतना प्रोत्साहित नहीं हुआ होता. जब 7 वी क्लास में था मुझे एक जगह हुए पेंटिंग कॉम्पटीशन में फर्स्ट प्राइज मिला और मेरी तस्वीर भी अख़बार में छपी. संयोग से जब स्कूल के प्रिंसिपल ने यह देखा तो मुझे टीचर के साथ बुलवाया और जब पूछताछ करने लगें तो मैंने डरते-डरते कहा- 'सर मुझे यही काम करने का मन करता है'. तब प्रिंसिपल शाबाशी देते हुए बोले- 'जब इसमें ही मन लगता है तो कोई बात नहीं यही करो. तुम्हें कोई मारेगा तो नहीं लेकिन कोई भगाएगा भी नहीं, अगर खुद से भाग गए तो भाग गए. बस तुम 30 नंबर तक पढ़ लेना.' और उसके बाद से जब एक्जाम आता तो मैं दस दिन पहले पढ़ने की बजाये 2 दिन पहले पढ़ाई शुरू करता था, कुंजिका से पढ़कर पास नंबर ले आता था. तब मेरे मन में ये बात बैठ गयी कि जब स्कूल का प्रिंसिपल मुझसे खुश है तो फिर डर किस बात का. उसके बाद मेरी शैतानियों का दौर जमकर शुरू हो गया और तब मेरी सारी शैतानियां माफ़ थीं. मेरे घर में सुबह-सुबह खाना नहीं बनता था इसलिए मैं घर से कभी टिफिन लेकर नहीं जाता था. अक्सर दूसरे साथियों को पकड़कर टिफिन चेक करता. उसमे एकाध ऐसे होते जिनकी टिफिन में बिस्किट होता, काजू-किसमिस होता. यह देख मुझे आश्चर्य होता कि यहाँ रोटी पर आफत है और इनको गार्जियन काजू-किसमिस दे रहे हैं. उन्ही स्कूली दिनों में जब मैं नवभारत टाइम्स के लिए काम करता था पटना में दूरदर्शन की शुरुआत हुई. तब वहां की एक न्यूज ऐंकर पुष्पा चोपड़ा मेरी फेवरेट हुआ करती थीं. एक बार बच्चों के एक कार्यक्रम में मुझे भी दूरदर्शन बुलाया गया मेरा इंटरव्यू लेने के लिए. जब वो कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो फ़िल्मकार प्रकाश झा जिनकी तब किदवईपुरी में अनुभूति नाम से एक संस्था थी ने वो देखा और हमारे संपादक को कॉल करके मुझसे मिलने की बात कही. शाम को मैं कार्टून बनाने जाता था तो मुझे देखकर संपादक साहब एक पर्चा थमाते हुए बोले कि, 'ये प्रकाश झा का पता है, तुम जाकर उनसे मिल लेना.' मैं पता लेकर खोजते हुए किदवईपुरी उनकी संस्था के ऑफिस में पहुंचा. तब मैं उन्हें जानता नहीं था, मुझे लगा कोई अख़बार के संपादक होंगे. लेकिन जब मैंने उनका चेहरा देखा तो फ्लैशबैक में चला गया जब कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण पटना आये हुए थें. तब मुझे भी उनसे मिलने की बहुत इच्छा थी. लेकिन एक तो मैं सरकारी स्कूल का विद्यार्थी था जिसे अंग्रेजी नहीं आती थी और दूसरा ये कि मैं तब हवाई चप्पल में, ब्लू रंग के पैंट में और बिना बैच एवं टाई पहने आया था. वहां नॉट्रोडेम की बहुत सी लड़कियां उनको घेरे हुई थीं. मैं सोच रहा था कि लक्ष्मण जी के थोड़ा करीब जाऊँ लेकिन वहां मौजूद लड़कियों को सुन्दर फ्रॉक जैसी ड्रेस पहने और उनको अच्छे से अंग्रेजी बोलते देखकर शर्म एवं घबराहट से मैं खुद ही पीछे हट गया. उसी दरम्यान मैंने देखा कि यही प्रकाश झा वहां आये और आर.के.लक्षमण जी को अपने साथ लेकर चले गए. 'तुम्हारा इंटरव्यू और कार्टून देखे थें हम' जब प्रकाश झा ने मुझसे कहा तब मैं फ्लैशबैक से बाहर निकला और उनसे पूछ दिया 'सर आप ही थे न जो उस दिन आर.के.लक्ष्मण जी को अपने साथ ले गए थें.' तब प्रकाश झा मुस्कुराते हुए बोले - ' हाँ हम ही थें, उनपर हम आधे घंटे का फिल्म बनाये हैं और तब उन्हें इसी कमरे में लेकर आये थें. अच्छा तुम ये बताओ, मेरे साथ मुंबई चलोगे?'  चौंकाते हुए मेरे मुँह से निकल गया 'क्यों?' वे बोले -' तुम्हारे काम के लिए वहां ले जाना चाहते हैं. 'मैंने कहा- ' नहीं, हम नहीं जायेंगे. स्कूल और घर से परमिशन मिलेगा भी या नहीं मुझे पता नहीं.'  फिर उन्होंने पूछा- ' पिता जी क्या करते हैं, उनसे मेरी बात कराओ.'  मैंने कहा- 'कर्मचारी हैं, पटना से बाहर काम करते हैं. उन्हें चिट्ठी लिखनी पड़ेगी.' जब उन्होंने पिता जी का नाम पूछा तो मैं नहीं बताना चाहता था लेकिन घबराहट में गलती से उनका नाम बुला गया. जैसे ही उन्होंने पिता जी का नाम सुना फ़ौरन टेलीफोन से कहीं कॉल किया और बोले, 'आपका बेटा मेरे पास है और फिर उनसे बातें करने लगें. तब हमारे यहाँ टेलीफोन नहीं था और आश्चर्य लगता था कि टेलीफोन पर बात कैसे की जाती है. फिर वे फोन का चोंगा मुझे पकड़ाए और जब उधर से पिता जी की आवाज सुनाई दी तो मैंने उन्हें प्रणाम बोला. पिता जी कहने लगें- 'प्रकाश जी जैसा बोल रहे हैं वही करो और घर जाकर इनके साथ मुंबई जाने की तैयारी कर लो.' उसके बाद मेरी मुंबई की रोचक यात्रा शुरू हुई. वहां एनीमेशन और शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल चल रहा था. पटना से प्रकाश झा की पूरी टीम यानि लगभग 16 -17 लोग गए थें. मुझे मजा आ रहा था और मैं सोच रहा था कि मुझे अंदाजा नहीं था कि गार्जियन इतना सहज रूप से मुझे घूमने जाने छोड़ देंगे वो भी इतनी दूर.

मुंबई पहुंचकर मुझसे एनीमेशन का काम कराया गया. उसी दरम्यान स्वर्गीय अभिनेता सुनील दत्त जी की बेटी एक आधे घंटे की डॉक्यूमेंट्री बनायीं थीं जो एक सिनेमाहॉल में चल रहा था. बगल में सुनील दत्त जी बैठे थें और मैंने देखा कि एक दृश्य देखकर वे रुमाल से अपने आंसू पोंछ रहे हैं. कुछ देर हुआ ही था कि अचानक कभी बिजली चली जाये तो कभी साउंड चला जाये. इस वजह से सुनील दत्त जी खीजकर बोले- 'अरे यार ये क्या हो रहा है.' तब मेरे मुँह से निकल गया - ' सर, इस हालात पर तो कार्टून बनाया जा सकता है.' वे चौंककर पूछ बैठे  -' तुम कार्टून बनाते हो?' मैंने कहा- हाँ. फिर वे बोले कि तुम बनाकर दिखाओ. तब मुझे वहां डॉक्यूमेंट्री से कोई मतलब नहीं था इसलिए मैं बाहर गया और एक चार्ट पेपर खोलकर वहां चल रही परिस्थितियों पर मैंने कार्टून बनाकर उन्हें दिखाया जिसमे उनका रोते हुए का दृश्य भी था. वे बड़े खुश हुए और मुझे शाबाशी दी. और फिर उसी कार्टून को चल रहे फिल्म फेस्टिवल में लगाया भी गया. जब मैं लौटकर पटना आया तो अपने संपादक के कहने पर मैंने वहां का अनुभव लिखकर उन्हें दिया जो शायद छपा भी था. तब सबसे ज्यादा पैसा मेरे पास 'पराग' मैगजीन से आता था 50 रुपए के चेक के रूप में. जब बैंक में जाता तो 35 रुपया काट के मेरे हाथ में 15 रूपया ही आ पाता था. मेरा बैंक अकाउंट 6 ठी क्लास में ही खुल गया था. तब 'बालहंस' से 30 रुपया मिलता था. और भी कुछ मैगजीन थें जहाँ से 20 -30  रूपए का चेक आ जाता था. तो सब इकट्ठा करके उन पैसों से हम ज्यादा से ज्यादा डाक टिकट खरीदते थें इसलिए कि ज्यादा से ज्यादा कार्टून बनाकर डाक से बाहर भेज सकें. 4 -5 कार्टून भेजने में 60 पैसा लगता था. तब मैं चाहता तो उन पैसों से ऐश कर सकता था, अच्छी-अच्छी चीजें खरीदकर खा सकता था लेकिन तब मुझे घर से जेब खर्च नहीं मिलता था और इसलिए मैं अपने कमाए पैसे बचाकर बड़े हिसाब से खर्च करता था. उन्हीं कुछ बचाये पैसों से एक दिन श्रमजीवी ट्रेन का टिकट लेकर दिल्ली भाग गया वो भी बिना घर में बताए. वहां दुनिया विस्तार से देखी कि कार्टूनिस्ट क्या करते हैं और किसे कार्टून बोला जाता है. वो जो दौर था कार्टूनिस्टों का राजशाही दौर था.  मैं देखता कि बहुत बड़े कार्टूनिस्ट सुशिल कालरा साहब सूटकेस उठाये हुए चले आ रहे हैं और काफी पहले से लोग उनके इंतज़ार में पलकें बिछाएं खड़े हैं. मेरे आदर्श कार्टूनिस्ट रंगा थें. इक्तफाक से तीन दिन मुझे दिनमान टाइम्स के दफ्तर में उनके साथ समय बिताने का मौका हाथ लग गया. कार्टून बनाते वक़्त वे खेलते थें जैसे एक लाइन वो बनाते फिर दूसरी लाइन मुझे बनाने को देते फिर उस लाइन को वे आगे बढ़ाते. कार्टून की कुछ बारीकियां मैंने उनसे उन तीन दिनों में ज़रूर सीखी. विदा लेते समय उन्होंने मुझे भेंट स्वरुप एक स्केच पेन दिया जो बहुत ज़माने तक मेरे पास सहेजकर रखा था लेकिन फिर पता नहीं मैंने इतना घर बदला, इतना भागा जीवन से कि वो कहीं खो गया. लेकिन दिल्ली में मुझे ये सीखने को मिला कि कोई काम छोटा नहीं है, तुम जो कर रहे हो करते रहो. कोई समझेगा तो कोई नहीं समझेगा. उस ज़माने में पेंटिंग कर रहे बच्चे को दो चमाट मारकर पढ़ने पर विवश किया जाता था. हमलोगों के समय में आर्ट को बढ़ावा देने का माहौल घर में नहीं था. पटना में तब ना ही कार्टूनिस्ट थें और ना ही इस विद्या की सबको समझ थी. शुरू-शुरू में तब अख़बार में दिल्ली से ही कार्टून मंगवा लिए जाते थें.

एक दिन ऐसा आया कि कार्टून बनाने के जुनून में मुझे घर छोड़कर भागना पड़ा. पूरे सात साल मैंने तब यायावर सी ज़िन्दगी बितायी. मैंने तय किया कि पढ़े -लिखे लोगों के लिए नहीं बल्कि मुझे उनके लिए कार्टून बनाना है जो आम आदमी और जमीन से जुड़ा हो. मेरे कार्टूनों में दिमाग जैसा कुछ नहीं होता, सिर्फ सारा फोकस इस बात पर रहता कि जमीं पर लेटा हुआ उदास आदमी भी एकाएक कैसे मुस्कुरा दे. सीनियर कार्टूनिस्टों ने कहा था कि असली कार्टून वो होता है जब आप ज़िन्दगी को करीब से देखकर बनाते हो. सुशिल कालरा साहब बोले थें कि भिखारी की ज़िन्दगी देखने के लिए तुम्हें उसकी जगह पर जाकर बैठना होगा. इसलिए मैं भी ज़िन्दगी को बिल्कुल करीब से देखना चाहता था. तब मैं 9 वीं क्लास में था और मेरे मन में यही चल रहा था कि कोई वजह से मुझे घर से निकाल दिया जाये, फिर मैंने वजह खोजी. बड़े लेवल की बदमाशी की और फिर घर में झगड़ा कर के भाग गया. तब पटना का सारा फुटपाथ मेरा घर हो गया था. ज्यादातर फुटपाथ पर ही रहता था और सुलभ शौचालय में जाकर शौच और स्नान कर लेता था. करबिगहिया में स्कूल के एक दोस्त के पास मेरे तीन-चार कपड़ों का सेट रखा रहता था. उसकी बहन मेरे कपड़े धोकर आयरन कर देती थी. मैं दोस्तों के यहाँ मिलने जाता लेकिन शर्त थी कि रात में किसी के यहाँ मैं रुकूंगा नहीं. पूरी रात बाहर ही गुजरती थी. पटना का कोई ऐसा इलाका नहीं तब जिससे मैं वाकिफ नहीं हुआ. फुटपाथ पर रहते हुए तमाम गुंजाईश थी गलत राह पर जाने की. कोई स्कैम, गांजा बेचने का ऑफर देता तो कोई कुछ करने को. लेकिन मैं बच गया क्यूंकि मेरे पास एक ज़िद्द थी, एक जुनून था जिसकी वजह से मैंने घर छोड़ा था और वो था कार्टून और सिर्फ कार्टून. लोगों को यह मेरा संघर्ष लगेगा लेकिन मैं इंजॉय करता था. तब कई सारे लोग जिनमे दोस्त, शिक्षक और मेरे अख़बार के संपादक सारे लग गए मुझे घर लाने को. एक शाम जब मैं अख़बार के दफ्तर कार्टून देने गया तो संपादक डाँटते हुए बोले- 'चार कार्टून बनाने लगे तो हीरो बन गए हो, क्या लगता है घरवालों को तुम्हारी चिंता नहीं हो रही.' फिर उनका निर्देश हुआ कि मुझे पकड़कर घर पहुंचा दिया जाये. उनके सेक्रेटरी मुझे अपने स्कूटर से छोड़ने वाले थें. वे मुझे एक जगह बैठाकर बोले- 'जब तक नहीं आता यहाँ से हिलोगे नहीं.' वे जैसे ही बाथरूम गएँ मैं लिफ्ट से नीचे उतरकर वहां से भाग गया और पटना छोड़कर रांची आ गया. वहां एकाध साल रहा. जब मेरा सेंटअप एक्जाम हुआ तब मैं रांची से पटना लौटा. मैट्रिक एक्जाम खत्म होने के बाद मैं फिर वहां से कहीं और निकल गया. बीच बीच में दिल्ली आना-जाना चलता रहा और अपना काम करता रहा. पैसे के लिए नवभारत टाइम्स अख़बार में मेरा वीकली कॉलम शुरू हुआ, तब एहसास नहीं था कि लिख भी सकता हूँ. मेरे कॉलम के कैरेक्टर का नाम काठी बाबू था जो मुझे मालूम नहीं था कि तब इतना लोकप्रिय हो जायेगा. उसके लिए मुझे हर हफ्ते 400 रूपए मिलते थें. मैंने तब लगभग पटना के सारे अख़बारों में फ्रीलांस किया. एक दिन में 8 कार्टून बनाता. तब कभी मैंने साइकल सीट पर बैठकर नहीं चलाया बल्कि पैडल पर ही मुझे भागना पड़ता था, एक ही दिन एक अख़बार से दूसरे अख़बार, दूसरे से तीसरे अख़बार के दफ्तर. तब हालत ऐसी हो गयी कि डॉक्टर ने साइकल चलाने से मना कर दिया. फिर मेरी पैदल यात्रा शुरू हुई और मैं पैदल खूब घूमा. सात साल के अपने भागे हुए और फुटपाथ पर बिताये हुए जीवन पर मैंने एक डायरी लिखी है. और वो डायरी मैंने अपनी पत्नी को गिफ्ट किया है.
   

Tuesday, 11 July 2017

एनॉटमी हॉल में मुर्दों को देखकर लगा कि मैं डॉक्टर की पढाई छोड़कर भाग जाऊँ : डॉ. शांति राय, स्त्री रोग विशेषज्ञ एवं पूर्व एच.ओ.डी.,पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (पी.एम.सी.एच.)

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म सिवान जिले के गोरियाटोली गांव में हुआ. पहले सिवान, गोपालगंज और छपरा तीनों मिलाकर सारण जिला हुआ करता था लेकिन बाद में वो तीन भागों में बंट गया. गाँव में ही मेरी शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई. मेरी माँ स्कूल में शिक्षिका थीं और मेरे पिता जी किसान थें. उस समय भी मेरे गांव में एजुकेशन बहुत अच्छा था. वहीँ से मैंने 1955 में मैट्रिक फर्स्ट डिवीजन से पास किया. एक्जाम देने बहुत दूर जाना पड़ता था. गोपालगंज में मेरा सेंटर पड़ा था. मैट्रिक के बाद आई.एस.सी. करनी थी लेकिन उसकी सुविधा गांव में नहीं थी. इसलिए मुझे मुजफ्फरपुर चाचा के पास जाना पड़ा जो वहां के एक कॉलेज में लेक्चरर थें. आई.एस.सी. का एक वाक्या याद आता है. मेरा एक साल रोते -रोते बीता था क्यूंकि पहली बार मैं घर छोड़कर आयी थी. क्लास में बैठने पर भी मुझे छोटे भाई-बहनों और माँ की याद आती रहती थी. इसी वजह से मेरा पढ़ाई में मन नहीं लग पा रहा था. लेकिन फिर दूसरे साल मैंने बहुत मेहनत से पढाई की. एक्जामिनेशन के समय लास्ट पेपर बायोलॉजी का था. एक्जाम खत्म होने के थोड़ी देर पहले मैंने देखा कि मेरी सीट के आगे से शिक्षक ने आकर कोई पेपर सा उठाया जो दो-तीन पन्नों का था. शायद वो चोरी के लिए कोई स्टूडेंट लाया होगा और वहां फेंक दिया था. चूँकि वो मेरी ही सीट के आगे पड़ा था इसलिए शायद उनको लगा कि मैंने ही चोरी के लिए यूज किया होगा. वे पूछे कि, 'आपका कागज है?' मैंने कहा-'नहीं, मेरा तो नहीं है.' और तब मैं यह सोचकर थोड़ी देर के लिए इतना डर गयी कि कहीं मुझपर चोरी का इल्जाम ना लग जाये और कहीं मेरा रिजल्ट ना खराब हो जाये. लेकिन खैर, ईश्वर का शुक्रिया कि ऐसा कुछ हुआ नहीं. लेकिन उस थोड़ी देर में मेरे दिल और दिमाग की जो हालत हुई वो मैं आजतक नहीं भूली हूँ. मैं आभारी रहूंगी उन शिक्षक कि जिन्होंने मेरी बात पर यकीं किया और जिसकी वजह से मैं आई.एस.सी. में फर्स्ट डिवीजन से पास हुई.

उसी साल पटना मेडिकल कॉलेज के लिए कम्पटीटिव टेस्ट था. तब मैंने ऐसा कुछ खास सोचा नहीं था कि मुझे डॉक्टर की पढाई ही पढ़नी है. तब 60 साल पहले दो ही पेशे ज्यादा चलन में थें, या तो डॉक्टर या इंजीनियर. सच बताऊँ तो मुझे मेडिकल से ज्यादा अच्छा लगता था कि मैं मैथेमैटिक्स पढूं, इंजीनियर बनूँ. लेकिन चूँकि मेरे लड़की होने की वजह से शायद तब मेरे दादा जी को लगा कि मेडिकल क्षेत्र मेरे लिए ज्यादा अच्छा रहेगा. दादा जी फॉर्म भी ले आये और उसपर मेरा दस्तखत करा लिए. मैंने एक्जाम की कोई विशेष तैयारी नहीं की. जब एक्जाम के एक दिन पहले मैं पटना पहुंची तो यह सोचकर डर लगने लगा कि मैं कुछ भी नहीं पढ़ी हूँ और बेकार में एक्जाम देने जा रही हूँ. फिर जल्दी-जल्दी में मैंने रात में एक घंटा और सुबह एक्जाम के एक घंटा पहले किताब पलटकर कुछ रिवाइज किया. मैंने सोचा भी नहीं था कि एक्जाम कम्प्लीट करुँगी. लेकिन रिजल्ट आया तो मेरे नंबर बहुत अच्छे आये थे और सारी लड़कियों में मैं फर्स्ट पोजीशन पर थी. फिर तो एक तरह से मेरे लिए मज़बूरी हो गयी कि अब मुझे डॉकटरी ही पढ़नी पड़ेगी. एडमिशन होने के बाद की एक यादगार घटना है जो मुझे वहां से धकेल रही थी. जिस दिन मेरा पटना मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हुआ वहाँ कहा गया कि पूरे बैच को पहले मेडिकल कॉलेज दिखाया जाए. उसी क्रम में शुरुआत हुई एनॉटमी हॉल से जहाँ ढ़ेर सारे टेबल पर मुर्दे पड़े थें. उन सड़ी हुई लाशों में केमिकल डाला हुआ था. उसमे से जो बदबू आ रही थी पहले-पहल उससे हमारा वास्ता हुआ और वह मेरे लिए बिल्कुल असहनीय था. जीवन में वैसी भी बदबू झेलनी पड़ेगी ये कभी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. फिर मुझे लगा कि ये डॉक्टरी मैं नहीं पढ़ सकती, असंभव है मेरे लिए. अगर इस महकते हुए वातावरण में , इन मुर्दों के साथ मुझे रहना है तो मुझसे नहीं होगा. तब मैंने एकदम से फैसला लिया कि एडमिशन हो गया तो क्या, अब मैं यहाँ से भाग जाऊँगी. लेकिन वापस घर लौटकर एकांत में जब ठंढे दिमाग से सोचने लगी कि ' बाबा का इतना पैसा खर्च हो गया है, उन पैसों को बर्बाद कैसे करें.. फिर मजबूर होकर मुझे डॉक्टर की पढ़ाई करनी पड़ी और तब एनॉटमी हॉल में मेरे दो घंटे कैसे बीतते थें मैं ही जानती हूँ. फिर धीरे धीरे पढ़ाई में मन लगाने लगी और बहुत अच्छे रिजल्ट के साथ मैंने अपनी डॉक्टर की पढ़ाई पूरी की.

Saturday, 8 July 2017

वेजिटेरियन होते हुए नॉनवेज खाना महँगा पड़ गया: रितु रीना, शिक्षिका, डी.ए.वी.पब्लिक स्कूल, बी.एस.ई.बी.

ससुराल के वो शुरूआती दिन 
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मेरा मायका पटना के अनीसाबाद में है और ससुराल कृष्णा नगर में. मेरी शादी हुई 2007 में. शादी के पहले मैं प्योर वेजिटेरियन थी और यह बात ससुरालवालों को पता नहीं थी. लेकिन मन में यही सोचती थी कि अब तो कैसे भी वहां मुझे एडजस्ट करते हुए नॉनवेज की आदत डालनी पड़ेगी. जब ससुराल आयी तो एक दिन पति घर में मटन लेकर आ गए. मुझे बनाने तो आता नहीं था लेकिन मैंने किसी तरह बना ही लिया. सौभाग्य से मटन अच्छा बन गया था. मैं जब खाने बैठी तो बिना चबाये ही मटन धीरे धीरे निगल गयी. मेरा पेट एकदम भरा भरा सा लग रहा था. रात में जब डाइजेस्ट नहीं हुआ तो पूरा बोमेटिंग हो गया. बेसिन भर गया था और मेरी तबियत भी थोड़ी ख़राब हो गयी. तब मेरी सासु माँ ने मेरी बहुत हेल्प की और मेरे पति सोये ही रह गए उन्हें कुछ पता ही नहीं चला. फिर जब अगले दिन वहाँ सबको पता चला कि मैं नॉनवेज नहीं खाती हूँ तो मुझसे कहा गया कि, 'जब ऐसा है तो कोई जबरदस्ती थोड़े है, आईंदा से तुम नॉनवेज नहीं खाना.'  लेकिन फिर धीरे धीरे मैंने खुद ही आदत डाल लिया और थोड़ा थोड़ा करके खाने लगी. अब तो इतना पसंद आता है कि बिना नॉनवेज खाये हम से रहा नहीं जाता और खुद ही पति से कहते हैं कि 'आज नॉनवेज ले आइए, खाने का मन कर रहा है.'  उन्ही शुरूआती दिनों का एक और वाक्या याद है जब हम गाजर का हलवा बना रहे थें. तब नए नए हम रसोई में डब्बा भी नहीं पहचानते थें कि किसमे चीनी है और किसमे चावल. चूल्हे पर गाजर का हलवा चढ़ा था, उसमे दूध भी डाल दिए. जब चीनी डालने का समय आया तो एक डब्बे से चीनी समझकर डाल दिए और इंतज़ार करने लगे कि अब हलवा बनेगा. कुछ देर बाद मैंने देखा कि बर्तन में चावल जैसा पकने लगा. जब हम वो डब्बा चेक किये तो मालूम चला कि गलती से हम चीनी की जगह खीर के लिए रखा छोटा बासमती चावल डाल दिए हैं. फिर मैंने उसमे और दूध-चीनी डालकर फिर से पकाया और आखिर में गाजर का हलवा बन ही गया. जब मैंने हलवा घरवालों को परोसा तो किसी ने बुराई नहीं की और सब आराम से खा लिए.
  शुरू शुरू में मेरे पति की पोस्टिंग मुजफरपुर में थी. मुझे भी मन था कि उनके साथ वहाँ जाऊँ मगर वो कभी ले नहीं जाते थें. इसी बात को लेकर तब हम दोनों में बहुत झगड़ा होता था. एक दिन मैंने गुस्से में आलमीरा का पूरा कपड़ा निकालकर फेंक दिया था. फिर पति मनाने आये और जब मुझे ले जाने को राजी हुए तब जाकर मेरा गुस्सा शांत हुआ. मैं उनके साथ मुजफ्फरपुर गयी और उनके साथ वहाँ एक महीना रही भी, फिर उनका यहीं पटना में ट्रांसफर हो गया. 

Friday, 7 July 2017

ख्वाब था वकील बनूँ मगर बन गया पत्रकार : शैलेन्द्र दीक्षित, पूर्व संपादक, दैनिक जागरण, पटना

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में एक छोटे से गांव में हुआ जहाँ ना कोई सड़क थी ना बिजली और ना ही कोई डॉक्टर थें. वो मेरे मामा का गांव था. मेरे पिता रेलवे में थें और तब उनके साथ ही पूरा परिवार कानपुर में रहता था. मेरी पूरी शिक्षा कानपुर में ही समपन्न हुई. स्कूल की आरंभिक शिक्षा वहीँ कानपुर मॉन्टेसरी स्कूल में हुई. हाई स्कूल की पढाई दोसर वैश्य इंटर कॉलेज से हुई. फिर इंटरमीडियट से लेकर एम.ए. और लॉ की पढाई भी मेरी कानपुर में ही हुई. उन दिनों ग्रेजुएशन करके तुरंत निकला ही था कि पता चला 'आज हिंदी दैनिक' में ट्रेनी की ज़रूरत है. मुझे लिखने-पढ़ने का शौक भी था और कुछ एप्रोच होने की वजह से वहां मुझे मौका मिल गया. 'आज हिंदी दैनिक' में काम करते हुए ही मैंने एम.ए. किया और फिर लॉ की पढ़ाई पूरी की. तब लॉ की इवनिंग क्लास होती थी तो मैं शाम में दफ्तर से निकलकर सीधे अपनी साइकल से लॉ की क्लास करने चला जाता था. तब 1975 में रेलवे में ए.एस.एम. में जॉब लग गया था मगर मैं गया ही नहीं क्यूंकि मुझे सरकारी या दूसरी अन्य नौकरी के प्रति कोई रुझान नहीं था इसलिए कि मुझे वकील बनना था. लेकिन 1978 में एक ऐसा हादसा हुआ जिसकी वजह से मेरा ख्वाब अधूरा ही रह गया. मेरे मामा जी माँ के पास रहकर ही पढ़े थें इसलिए घर में वही मेरे स्कूल से लेकर कॉलेज तक की सारी व्यवस्था देखते थें. वे एक बहुत अच्छे वकील थें और मेरे आदर्श भी. उनकी ना किसी से कोई दुश्मनी थी ना कोई झगड़ा था. एक दिन अनजाने में उन्हें गोली लग गयी और उनका निधन हो गया. पूरे परिवार को सदमा पहुंचा और इसका सीधा असर मेरे ऊपर आ गया. मेरी माँ ने एकदम से स्टैंड लिया और जिद्द ठान ली कि मैं चाहे कुछ भी करूँ लेकिन वकालत नहीं करूँगा. तब माँ की ऐसी स्थिति थी कि मुझे उनका आदेश मानना ही पड़ा. लेकिन मुझे कोई और फिल्ड जँच नहीं रहा था तो जो मैं पहले से करता आ रहा था उसी में आगे बढ़ने का फैसला लिया. मेरा मूड चेंज हो चुका था, मैंने सोचा कि चलो मीडिया में रहूँगा तो नाम एवं शोहरत भी मिलेगी. मेरा संयोग अच्छा रहा कि जिन गुरुओं के सानिध्य में मुझे सीखने को मिला वे बहुत गुणी लोग थें. विधा भास्कर जी, दूधनाथ सिंह जी, चंद्रकुमार जी और एक बिहार में पुनपुन के रहनेवाले पारसनाथ सिंह जी ये कुछ ऐसे दिग्गज थें जिन्होंने स्वतन्त्रता की पूरी लड़ाई लड़के विशुद्ध पत्रकारिता की मिसाल पेश की थी. आज दैनिक में ही मैं परमानेंट हुआ और फिर सब एडिटर बना.

1986  में मुझे एक ब्रेक मिला तब तक मैं उप समाचार संपादक हो चुका था. आगरा में दैनिक जागरण का एडिशन लांच हो रहा था जहाँ मुझे एडिटोरियल इंचार्ज के रूप में मौका मिला तब मेरी उम्र 31 साल थी. आगरा में वहीँ दफ्तर के ऊपर हमलोगों के रहने की व्यवस्था थी. एक रूम में दो लोग शेयर करते थें. एक रात होटल से खाना खाकर हम सभी लड़के वापस लौटे और सोने की तैयारी करने लगें. मुझे तब सिखाया गया था कि चलते -चलते टेलीप्रिंटर ज़रूर देख लेना है. चूँकि तब मोबाईल और कंप्यूटर का ज़माना नहीं था, तब न्यूज के लिए रेडिओ और टेलीप्रिंटर पर ही निर्भर रहना पड़ता था. तो मेरी आदत बन गयी थी कि एक बार सोने से पहले टेलीप्रिंटर चेक कर लूँ कि कहीं कोई बड़ी खबर तो नहीं दिखाई दे रही है. तब जाड़े का मौसम था और ये खबर मुझे टेलीप्रिंटर के माध्यम से रात डेढ़-दो बजे मालूम चली कि उस ज़माने की मशहूर अभिनेत्री स्मिता पाटिल का निधन हो गया है. उस समय आमतौर पर रात 1 बजे अख़बार छोड़ दिए जाते थें, फिर 2 बजे के बाद प्रिंटिंग का काम शुरू हो जाता था. उस समय वहां अमर उजाला सबसे बड़ा अख़बार था और स्मिता पाटिल वाली खबर उसने तब मिस कर दिया. संयोग से हमने वो खबर दैनिक जागरण में निकाल दी और उसका माइलेज हमें मिल गया. अगले दिन चारों तरफ यही चर्चा थी कि स्मिता पाटिल के निधन की खबर जागरण में छपी है. और उस एक खबर ने तब जागरण को आगरा में स्टैब्लिश होने की दिशा में बड़ी भूमिका निभाई. सबकुछ अच्छा ही चल रहा था फिर भी मैं वहां 4 महीने से ज्यादा नहीं रुका और इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है. तब आज हिंदी दैनिक के मालिक पप्पू भैया जी जिन्हें सभी प्यार से भैया जी कहते थें आगरा में  'आज' का संस्करण खोलने पहुँच गए. मैं उनका बहुत खास था लिहाजा वहां आकर उन्होंने मुझे कॉल किया और कहा 'तुम कैसे चले आये यहाँ और मुझे बताया भी नहीं, इतना दुस्साहस !' उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि मैं कुछ बोल ही नहीं पाया. फिर उनके बुलावे पर मुझे होटल मुग़ल सलटेन जाना पड़ा जहाँ वे रुके थें. पप्पू भैया जी नाराजगी दिखा रहे थें इसलिए पहले तो मेरी तरफ देखा तक नहीं. फिर मेरी तरफ मुड़े और मुझे देखकर कहा - 'अरे तुम यहाँ कैसे?'  जब मैंने उन्हें प्रणाम किया तो फिर उनकी नाराज़गी दूर हुई. उन्होंने सूप मंगवाकर पिलाया और कहा - 'तुमको तो इतनी होम सिकनेस थी फिर तुम यहाँ कैसे चले आये?' तब मैं होम सिकनेस का बहुत आदि था. पहले कहीं कानपुर से दूर भी जाता था तो उसी रात घर लौट आता था. लेकिन अब घर ऐसा छूटा है कि 18 साल हो गए घर छोड़े हुए और अब बिहार मेरा घर हो चुका है. वहां फिर पप्पू भइया ने तब मुझसे कुछ और बात नहीं की. मैं भी खाना खाकर वहां से चला आया. अगले दिन उन्होंने मुझे फिर बुलाया बात करने के लिए. मैं जब उनके पास गया तो उन्होंने पूछा- 'क्या क्या लेकर आये हो यहाँ?' मैंने कहा -' कुछ नहीं चार कपड़े हैं और एक अटैची है बस.'  उन्होंने आदेश दिया, 'ठीक है तो आप अपनी अटैची उठाइये. मेरी गाड़ी में रखवाइये और सीधे मेरे साथ कानपुर वापस चलिए. और जो आप यहाँ हैं वहां 'आज हिंदी दैनिक' में वही पद पर आ जाइये.' मैंने सकपकाकर कहा 'मगर अभी के अभी कैसे चलना संभव होगा, उन्हें इन्फॉर्म तो करना होगा वरना मेरे करियर पर धब्बा लग जायेगा.' मैंने किसी तरह उन्हें समझाकर भेजा और उनसे एक हफ्ते बाद आने को कहा. अगले दिन मैं आगरा जागरण के दफ्तर में इन्फॉर्म करने पहुंचा. वहां मैनेजमेंट में नरेंद्र मोहन जी थे, उनसे कहा- 'सर, मैंने पप्पू भैया जी को जबान दे दिया है, वो मेरे पुराने मालिक हैं इसलिए मैं उन्हें मना नहीं कर सकता.'  लेकिन नरेंद्र जी ने इस बात का बुरा नहीं माना और फिर मैं वापस कानपुर लौट गया.

दैनिक जागरण,पटना से रिटायर्मेंट के दौरान

 एक और वाक्या याद आता है जब यू.पी. में डकैतों की बहुत बड़ी समस्या आ गयी थी. तब छवि राम, फूलन देवी, अनार सिंह जैसे कई नाम थें जिनका खौफ था. वे लगातार मारकाट मचाये हुए थे. तब घटनास्थल पर देशभर की मीडिया का जमावड़ा लगा रहता था. उस दौरान काम करने और खुद को साबित करने का मुझे बहुत मौका मिला. आज के समय में पत्रकारों को जो सुविधाएँ मिल रही हैं वो तब नहीं थी. साधन नहीं थें कि भाग के यहाँ से वहां चल जाएँ. जो अख़बार ढ़ोनेवाली टैक्सी थी उसी में बैठकर हमें दूर दूर खबर के लिए जाना पड़ता था. एक दफा मैनपुरी में डकैतों ने कइयों को मार दिया था और उसकी रिपोर्टिंग का मुझे मौका मिला. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जी वहां आयी थीं. उन दिनों सेक्यूरिटी की उतनी प्रॉब्लम नहीं थी. ज़रा सा हमें रिक्वेस्ट करने पर बड़े लोगों से मिलने की इजाजत मिल जाती थी. तब वहां उनका कोई इंटरव्यू नहीं हुआ. वे हादसे को लेकर वहां पूछताछ कर रही थीं और मैं ठीक उनके बगल में बैठा न्यूज इकट्ठा कर रहा था. और तब इतनी बड़ी हस्ती से मिलने का मुझे सौभाग्य भी मिला. उन दिनों समस्या ये थी कि घटना की रिपोर्टिंग हमें रात में ही जाकर करनी पड़ती थी. जैसे तैसे रिपोर्टिंग करने के बाद होता ये था कि कैमरामैन कैमरा वैसे ही लिए हुए, हम अपना नोट्स वैसे ही लिए हुए किसी तरह से भागकर वापस पहुँचते थें कि कम से कम सिटी एडिसन पकड़ा जाये. तब दैनिक दिनचर्या, नहाना-धोना जो भी था सब बिगड़ जाता था. पूरी रात जागना पड़ता था. फिर न्यूज निकालने की तैयारी. इस दौरान हमने जो भाग दौड़ किया उसी ने हमें माइलेज दिलाया आगे बढ़ने में. हमारी उम्र के ही कुछ साथी तब बीच रास्ते में ही ढेर हो जाते थें. लेकिन तब युवावस्था में मेरे अंदर एक जुनून हुआ करता था कि मीडिया फिल्ड में मुझे ऊंचाई पर जाना है. इसलिए खुद को बढ़ाने में मैंने रात-दिन नहीं देखा बस आगे बढ़ता ही चला गया और तब मंजिल तक पहुँचने में मेरे सीनियर्स ने पल पल मेरी मदद की.
    

Thursday, 6 July 2017

21 साले-सालियों के साथ फिल्म देखने जाना गजब ढ़ा गया : बीरेंद्र बरियार 'ज्योति', वरिष्ठ पत्रकार एवं चित्रकार

ससुराल के वो शुरूआती दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'




1993 में मेरी शादी पटना के कदमकुआं मोहल्ले में रहनेवाली अनुपम राज से हुई. हमारे ससुर जी 5  भाई और 5 बहन थें. पांचों भाई एक ही मकान में साथ रहते थें. मेरी पत्नी के पापा दस भाई-बहनों में सबसे बड़े थें. मेरी पत्नी उनकी बड़ी बेटी थी. उस जेनरेशन से परिवार में पहली शादी उसी की हुई. ससुराल में मेरे कुल 21 साला-साली हैं. शादी के बाद जब पहली दफा मैं ससुराल गया तो फिर हमलोगों का बाहर घूमने का प्लान बना. मैं मेरी पत्नी और सभी 21 साले-सालियाँ फिल्म 'हम आपके हैं कौन?' फिल्म देखने गए. ज्यादातर साले-सालियों की तब उम्र 5 से 15 साल के ही बीच थी. सभी का टिकट एक जगह नहीं मिल पाया लिहाजा सिनेमा देखने के दौरान सभी को हॉल में इधर-उधर बैठना पड़ा. जिसे जहाँ टिकट मिला वहां बैठ गया. कोई पूरब कोने में तो कोई पश्चिम कोने में बैठा. मैंने सबके लिए पॉपकॉर्न और कोल्ड्रिंक्स के ऑर्डर दे रखे थें. कुछ देर बाद मुझे बड़ी विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा. थोड़ी थोड़ी देर पर कोई साला चिल्लाता कि 'जीजा जी मुझे भी कोल्ड्रिंक्स पीना है'. किसी कोने से कोई साली चिल्लाती कि 'जीजा जी मुझे पॉपकॉर्न नहीं मिला.'  पूरी फिल्म के दौरान सभी हॉल में धमा चौकड़ी मचाते रहे और सिनेमा देखने का मजा किरकिरा करते रहें. तब शादी के शुरूआती दिनों में मुझे जीजा जी सुनने की आदत नहीं पड़ी थी. मुझे सिनेमा हॉल में जीजा जी सुनकर काफी शर्म आ रही थी. हॉल के सभी दर्शक गुस्से से मुझे देख रहे थें. कुछ एक झल्लाहट भरी  आवाज में कह रहे थें 'किन किन लोगों को लेकर आ गया है हॉल में !' इधर-उधर से जीजा जी सुनने के बाद भी झेंपते हुए मैं सिनेमा देखने का नाटक करता रहा. सोच रहा था कि जल्दी सिनेमा खत्म हो और मैं भागूँ यहाँ से. मैंने अपनी पत्नी से कहा कि 'सब को संभालो, शांत रहने को कहो.' लेकिन हालात ऐसे थें कि पत्नी भी चाहकर कुछ ना कर सकी. सिनेमा हॉल से निकलकर ससुराल लौटने के बाद मैंने कान पकड़ा कि आईन्दा से सभी साले-सालियों को लेकर कोई फिल्म देखने नहीं जाऊंगा.

Wednesday, 5 July 2017

कमजोरी को बनाई ताक़त : ममता भारती

सशक्त नारी
By: Rakesh Singh 'Sonu'






मधुबनी पेंटिंग में 2013 -14 में राज्य पुरस्कार जीत चुकीं दानापुर,पटना की ममता भारती को 5 साल की उम्र में ही पोलियो हो गया था. तब इनका पूरा परिवार भागलपुर के रगड़ा गांव में रहता था. बेटी की विकलांगता ने माँ-बाप की हिम्मत तोड़ कर रख दी. तब घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और इन्ही परिस्थितियों की वजह से ममता कभी स्कूल नहीं गयीं. घर पर ही पढाई कर मैट्रिक की परीक्षा दी. तब ममता के पिता आरा में जॉब करते थें और गाँव आते -जाते रहते थें. फिर जब उनके पिता का पटना में ट्रांसफर हो गया और पहले से उनकी स्थिति अच्छी हुई तो उन्होंने ममता के साथ साथ पूरे परिवार को गांव से अपने पास पटना बुला लिया. गांव से पटना शिफ्ट होने के बाद ममता ने आर्ट्स कॉलेज में एडमिशन लिया और कॉमर्शियल आर्ट में स्नातक किया. फिर पाटलिपुत्रा स्थित उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान में जाकर पेंटिंग की बारीकियां सीखने लगीं. वहां जब इनके शिक्षक की नज़र इनकी काबिलियत पर गयी तो उन्होंने ममता को बहुत प्रोत्साहित किया. और फिर बाद में उसी संस्था में स्टूडेंट को प्रशिक्षण देने के लिए ममता को आमंत्रित किया.विकलांगता की वजह से दिव्यांग ममता ने शादी ना करके पूरी ज़िन्दगी पेंटिंग के नाम गुजारने का फैसला किया. फिर उन्होंने अपनी कमजोरी को ही ताक़त बनाकर मिथिला पेंटिंग को करियर के रूप में अपनाया.

ज्यादा वक़्त घर में गुज़ारनेवाली ममता उससे पहले अपने बचपन के शौक पेंटिंग को ज्यादा वक़्त देने लगीं. उनके इस शौक को घरवाले हमेशा प्रोत्साहित किया करते थें. अपने इस शौक को विस्तार देने के लिए जब ममता 2007 के बाद घर से बाहर निकलने लगीं तो उनकी माँ ने उन्हें यही नसीहत दी कि,'' बेटा, आगे बढ़ना है तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना." उसके बाद ममता पेंटिंग की दुनिया में पूरी तरह से रम गयीं. गोलारोड स्थित एक निजी संस्था और पाटलिपुत्रा के उपेंद्र महारथी संस्था में आज भी ममता करीब 200 -300 महिलाओं और लड़कियों को मिथिला पेंटिंग का प्रशिक्षण दे रही हैं.


2009 से 2012 तक पटना बुक फेयर में और फरवरी, 2017 को सरस मेला में ममता का पेंटिंग एग्जीबिशन लग चुका है. 2014  में इन्हें महिला दिवस पर मोटिवेशन क्वीन अवार्ड एवं 14 वें बिहार अवार्ड सेरोमनी में अहिल्या देवी अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. विकलांगों के अधिकारों के लिए लड़ने एवं उनकी शादियां करानेवाली स्वयंसेवी संस्था 'विकलांग अधिकार मंच' जिसकी अध्यक्षा वैष्णवी हैं से भी ममता सक्रीय सदस्य के रूप में 2012 से लगातार जुड़ी हुई हैं . उनके इन्ही साहसिक प्रयासों को और प्रोत्साहित करने के लिए 'सिनेमा इंटरटेनमेंट' ने अक्टूबर, 2016 में ममता को 'सशक्त नारी सम्मान' से नवाजा है. 2017 के फरवरी में गाँधी मैदान पटना में बसंतोत्सव में संपन्न हुई पेंटिंग प्रतियोगिता में ममता को बतौर जज भी आमंत्रित किया जा चुका है.

Sunday, 2 July 2017

इलाहाबाद से पटना आया तो फिर यहीं पत्रकारिता का होकर रह गया : अवधेश प्रीत, पूर्व सहायक संपादक, दैनिक हिन्दुस्तान, पटना

जब हम जवां थें 
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मैं उत्तर प्रदेश के गाजीपुर का रहनेवाला हूँ. प्रारम्भिक शिक्षा गांव में हुई.चूँकि मेरे पिताजी शिक्षक थें तो उनकी जहाँ पोस्टिंग होती वहां रहकर के मुझे पढ़ने में सुविधा होती थी इसलिए 6 ठी के बाद मैं उनके साथ ही रहने लगा. 9 वीं तक की पढाई वहीँ गाजीपुर के एक कस्बे में रहकर पूरी हुई. बाद में मेरे पिताजी का ट्रांसफर तत्कालीन उत्तर प्रदेश के नैनीताल जिले में रुद्रपुर में हो गया जो अब उधम सिंह नगर के नाम से जाना जाता है. वहां से हाई स्कूल किया और इंटरमीडिएट भी मैंने यू.पी. बोर्ड से किया. फिर बी.एस.सी. करने के लिए मैं इलाहबाद यूनिवर्सिटी आया और वहां से सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज में एडमिशन लिया. वहां बहुत सारे अच्छे मित्र बने और वहां का जीवन बहुत ही रोचक था. उस ज़माने में घर से जो पैसे आते थें वो मनीऑर्डर के जरिये आते थें. एक बार ऐसा हुआ कि मेरा मनीऑर्डर पहुँचने में बहुत देर हो गया और किसी तरह से ये बात मेरे खास मित्रों को पता चल गयी. जब अगले दिन मैं कॉलेज पहुंचा तो क्लास में मेरे पीछे बैठे एक दोस्त ने जिसका नाम लाल नागेंद्र प्रताप सिंह था उसने कहा कि 'तुम अपनी फाइल देखो.' मैंने फाइल खोलकर देखी तो उसमे 10 -10 के पांच नोट पड़े मिले. फिर मैंने पीछे मुड़कर उससे पूछा कि ' ये क्या है..?' वह तब सिर्फ मुस्कुराकर रह गया फिर क्लास के बाहर उसने मुझसे कहा कि 'तुम्हारे मनीऑर्डर के पैसे नहीं आये थे और तुमने हमें बताये भी नहीं, ये तो बहुत गलत बात है. तुम्हारा काम कैसे चलेगा?' मैंने कहा - ' नहीं, एकाध दिन में आ जायेगा.' तो मित्र बोला -' ठीक है, जब आएगा तब तुम देना.' और जब मनीऑर्डर आया, मैं उस मित्र को वापस पैसे देने गया तो वो कहने लगा -' हम कहाँ भाग रहे हैं, तुमसे बाद में कभी ले लेंगे, अभी रखो.' फिर वो दिन है और आज का दिन कि उसने पैसे मुझसे कभी वापस नहीं लिए. ये एक दोस्ती के बीच मदद का जो जज़्बा था बगैर किसी स्वार्थ के ये मुझे इलाहबाद में देखने को मिला. तब से मैंने जाना कि अभाव में कोई हो तो आगे बढ़कर उसकी मदद करनी चाहिए. एक दूसरा वाक्या याद आता है जब मैं बिहार आया. मैं जब बी.एच.यू. में पी.एच.डी. कर रहा था तभी एक अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हो गयी. तब मेरे चाचा जो रेलवे में दानापुर, बिहार में पोस्टेड थें मैं उनके पास ये सोचकर चला आया कि जब हड़ताल खत्म होगी तब मैं वापस चला जाऊंगा. लेकिन यहाँ जब आया तो चूँकि मेरी रूचि लिखने-पढ़ने और सांस्कृतिक कार्यों से जुड़े रहने की रही है तो यहाँ उसी क्षेत्र के कई मित्रों से मिलना-जुलना शुरू हो गया और तब पटना मुझे अच्छा लगने लगा. मैंने तय किया कि मुझे अगर पी.एच.डी. करनी है तो मैं पटना यूनिवर्सिटी से कर लूंगा और फिर मैंने बी.एच.यू. का मोह छोड़ दिया. लेकिन मुझे आर्थिक  आधार चाहिए था. इस कोशिश में मैंने कुछ कॉलेजों में इंटरव्यू भी दिए. लेकिन उन दिनों डोनेशन लिया जाता था जो मेरे लिए संभव नहीं था और यह मुझे उचित भी नहीं लगा. फिर मैंने तय किया कि कुछ भी हो मैं लिखने-पढ़ने का ही काम करूँगा क्यूंकि मुझे यही आता था. कुछ समय पहले से ही मेरी छिट-पुट रचनाएँ- कहानियां छपने लगीं थीं. लेकिन लेखन को गंभीरता से करियर बनाने का ख्याल मुझे पटना आने के बाद ही आया. संयोगवश उसी वर्ष 1985 में पाटलिपुत्रा टाइम्स की शुरुआत होनेवाली थी और वहां मेरे एक परिचित पत्रकार मित्र विकास कुमार झा और एक वरिष्ठ कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प प्रबंधन की अनौपचारिक कमिटी से जुड़े हुए थें. वे जानते थें कि मैं स्ट्रगलर हूँ और लिखने-पढ़ने का शौक रखता हूँ इसलिए उन्होंने मुझे कहा कि 'बेहतर होगा तुम यहाँ ज्वाइन कर लो.' फिर मेरा छोटा सा इंटरव्यू हुआ और ट्रेनिंग के तौर पर मैंने पाटलिपुत्रा टाइम्स अख़बार ज्वाइन कर लिया. ये बिल्कुल नयी टेक्नोलॉजी का अख़बार था और जिसके पहले संपादक थें माधवकांत मिश्रा. वहां एक बहुत जोशीली टीम थी जिसके साथ मिलकर काम करने में बहुत ही मजा आया और सीनियर्स के साथ रहकर सीखने के बहुत अवसर मिले. इसी दरम्यान संपादक को यह पता चला कि मेरी रूचि साहित्य में भी है तो उन्होंने मुझे खासतौर पर फीचर का पन्ना सँभालने के लिए दे दिया. उस ज़माने में वह फीचर पन्ना बिहार में बहुत ही ज्यादा  लोकप्रिय हुआ. ठीक एक महीने बाद मुझे 50 रूपए का इंक्रीमेंट मिल गया. तो ये मेरे काम का रिवार्ड था जिससे मेरी पहचान बन रही थी. वो 1986 की बात है वहां तक़रीबन 8 -9  महीने काम करते हुए थे तभी पटना में दैनिक हिन्दुस्तान लॉन्च होने जा रहा था. तब वो अख़बार 'प्रदीप' के नाम से निकलता था और जल्द ही हिन्दुस्तान के रूप में कन्वर्ट होने वाला था. मैं उन दिनों ऐसे ही घूमते हुए शाम को 'प्रदीप' के दफ्तर में चला गया. तब 'पाटलिपुत्रा टाइम्स' में जो न्यूज एडिटर थें अशोक रजनीकर जिन्हें हमलोग चचा कहते थें, उन्होंने वहां हिन्दुस्तान  के लिए ज्वाइन कर लिया था. जैसे ही उनकी नज़र मुझपर पड़ी तो उन्होंने मुझसे कहा -' तुमने यहाँ हिन्दुस्तान के लिए अप्लाई किया है या नहीं..? मैंने कहा - 'नहीं चचा, नहीं किया है.' वे गाली- गलौज वाली भाषा में प्यार से बोलते थें. मुझसे बोलें -' अरे साले, तो तुम देख क्या रहे हो, जल्दी से एप्लिकेशन लिखकर ले आओ.' और मैं दफ्तर से बहार निकला. वहीँ एक फोटोस्टेटवाले से फुल स्केप कागज लिया और चाय की दुकान पर बैठकर अनौपचारिक रूप से एक एप्लिकेशन लिखा और फिर अशोक रजनीकर जी को दे आया. उन्होंने मेरा एप्लिकेशन फाइल में लगा दिया और कहा कि 'कल आ जाना, इंटरव्यू है.' अगले दिन रविवार था और उस दिन मेरी वीकली छुट्टी का दिन होता था. तो मैंने आराम से वीणा सिनेमा हॉल में 10 से 12 की फिल्म देखी और उसके बाद टहलते- घूमते हुए हिन्दुस्तान कार्यालय पहुंचा जहाँ इंटरव्यू के लिए पत्रकारों की बहुत भीड़ लगी हुई थी. थोड़ी देर बाद वहां प्रबंधन से एक प्यून आया और कहा-' अवधेश प्रीत को छोड़कर बाकी लोगों का इंटरव्यू कल होगा.' सबलोग भौंचक रह गए कि आखिर ये हुआ क्या? सबने कहा कि ' नहीं, हम छुट्टी लेकर आये हैं, इसलिए आज ही हमारा इंटरव्यू हो जाता तो ठीक रहता.' फिर प्रबंधन की तरफ से सूचना दी गयी कि ' ठीक है, अवधेश प्रीत के बाद आपलोगों का इंटरव्यू होगा'. और फिर मुझे बुलाया गया. तब इंटरव्यू लेने वालों में दैनिक हिंदुस्तान के होनेवाले पहले संपादक श्री हरिनारायण निगम, वाइस प्रेसिडेंट श्री वाई.सी.अग्रवाल और वाइस चेयरमैन नरेश मोहन मौजूद थें. उन्होंने इंटरव्यू लेना शुरू किया और बहुत ही अनौपचारिक बातचित शुरू हुई. उन्होंने जो कुछ मुझसे पूछा मैंने बताया. बाबा नागार्जुन का मैंने एक इंटरव्यू किया था जो उसी दिन पाटलिपुत्रा टाइम्स में फीचर के पहले पन्ने पर छपा था. उसे मंगाकर भी उनलोगों ने देखा और फिर मेरा इंटरव्यू संपन्न हुआ. बाहर निकलने के 5 मिनट बाद फिर मुझे बुलाया गया और पूछा गया कि 'कब से ज्वाइन कर रहे हो?' मुझे ख़ुशी हुई क्यूंकि दैनिक हिंदुस्तान तब एक राष्ट्रिय अख़बार था जिसकी एक पहचान थी और उसमे मुझे प्रवेश का मौका मिल रहा था. मैंने कहा -'आप जब कहें, मैं ज्वाइन कर लेता हूँ.' फिर चलते चलते उन्होंने एक सवाल पूछा कि 'अच्छा ये बताइये कि आजकल बिहार में दाढ़ी ना बनाने का फैशन है क्या..?' संयोग से उस दिन रविवार था और मैंने दाढ़ी नहीं बनवायी थी. मैंने कहा -' नहीं, ऐसा कुछ नहीं है, शेव तो मैं करना चाह रहा था लेकिन जिस सैलून में गया वहां सन्डे की वजह से बहुत भीड़ थी और मुझे यहाँ टाइम पर पहुंचना था. तो मुझे ये ज्यादा ज़रूरी लगा कि यहाँ समय पर पहुंचा जाये बजाये इसके कि शेव कराया जाये'. मेरा जवाब सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए. फिर सब एडिटर के पोस्ट पर मैं जब ज्वाइन करने पहुंचा तो देखा वहाँ सारे चयनित साथी भी प्रतीक्षा कर रहे थें. और देर शाम तक नामों की घोषणा होती रही क्यूंकि तब तक लेटर तैयार नहीं हो पाया था. लेकिन पूरी सूचि में मेरा नाम कहीं नहीं था इसलिए मेरे नाम की घोषणा नहीं हुई. मैं सीधे नरेश मोहन जी से जाकर मिला और उन्हें वस्तुस्थिति बताई. उन्होंने तुरंत विज्ञापन अधिकारी को तलब किया और पूछा कि ' अवधेश प्रीत के नाम की घोषणा क्यों नहीं हुई?' उसने लिस्ट देखकर कहा -' सॉरी सर, गलती से छूट गया है.' तब जाकर मैंने राहत की सांस ली. थोड़े दिनों पहले ही बिहार में नवभारत टाइम्स भी शुरू हो गया था जिससे हिंदुस्तान का कम्पटीशन बहुत तगड़ा हो गया था. बावजूद इसके हिन्दुस्तान ने बड़ी तेजी से यहाँ अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं और धीरे-धीरे ये बिहार का नंबर एक अख़बार बन गया. हिंदुस्तान का पहला संस्करण दिल्ली के बाद पहली बार तब पटना से ही शुरू हुआ था.


    एक बार मेरे जेहन में ये बात उठी कि अख़बार के कर्मचारियों के हितों के लिए भी काम किया जाये. और मैंने हिंदुस्तान टाइम्स इम्प्लाई यूनियन के महासचिव के पद के लिए नामांकन भरा. कुछ ऐसा संयोग हुआ कि तब बाकी साथियों ने मेरी वजह से अपने नाम वापस ले लिया. और फिर मैं निर्विरोध हिंदुस्तान टाइम्स इम्प्लाई यूनियन का महासचिव चुना गया. दो टर्म मैंने लगातार काम किया और मुझे इस बात का संतोष है कि मैंने उस दौरान कर्मचारियों के हितों के लिए बहुत से काम कराएं बल्कि जो पूर्व में काम नहीं हुए थें वो भी पूरे कराएं. पहली बार हिंदुस्तान टाइम्स के कैम्पस में यूनियन के लिए ऑफिस एलॉट कराया. पहली बार ऐसा हुआ कि कर्मचारियों के लिए मैंने वहां रेस्टरूम की व्यवस्था कराई. उनके स्वास्थ जाँच के लिए वहां डॉक्टर की बहाली कराई. खास तौर से नॉन जर्नलिस्ट और फोर्थ ग्रेड के कर्मचारियों के लिए एक यूनिफॉर्म की व्यवस्था कराई. एक लड़ाई लड़के नॉन जर्नलिस्टों की सैलरी में भी सुधार करवाया. तब मेरे सहयोगी साथियों ने भी मेरी बहुत मदद की. उन दिनों हम आंदोलनों से भी जुड़े रहें. खास तौर से पत्रकारिता के क्षेत्र में जहाँ कुछ गलत होता उसके लिए हम खड़े होते थें. इसी क्रम में हमने बिहार श्रमजीवी पत्रकार संघ के बैनर तले 'आर्यावर्त' एवं 'इंडियन नेशंस' के कर्मचारियों के हितों के लिए लम्बी लड़ाई भी लड़ी. दरभंगा जाकर धरना-प्रदर्शन भी किया.
   एक और वाक्या याद आता है जब सम्पादकीय विभाग में अचानक कुछ कुर्सियां कम पड़ गयीं. हमारे कई साथी खड़े रह गए. जब ये बातें तत्कालीन संपादक हरी नारायण निगम जी को पता चली तो उन्होंने प्रबंधन के एक व्यक्ति को अपने चेंबर में बुलाया और कहा कि ' मेरी कुर्सी उठाकर यहाँ से ले जाइये.' वो व्यक्ति यह सुनकर हक्का बक्का रह गया. फिर निगम जी ने उससे कहा -' जब मेरे स्टाफ को बैठने के लिए कुर्सी की व्यवस्था नहीं है तो मैं कुर्सी पर बैठकर क्या करूँगा?' तो उस समय के संपादक काफी जमीं से जुड़े हुए हुआ करते थें. खासतौर से हरिनारायण जी के अंदर मैंने कभी अहम बोध नहीं देखा. वे हमारे पत्रकार साथियों के साथ ही सड़क पर निकल जातें, उनके साथ ही चाय-नास्ता भी कर लेते थें. तब पत्रकार पत्रकार हुआ करता था और संपादक बॉस की तरह पेश नहीं आता था. एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि आज पत्रकारिता एवं साहित्य में जो रिश्ता है वो उतना प्रगाढ़ नहीं है. लेकिन हमने जब पत्रकारिता शुरू की थी तो वैसी बात नहीं थी. तब साहित्य के प्रति भी एक गहरा लगाव था और चूँकि मैं साहित्य का विद्यार्थी था. तब मेरी पहली कहानी 'मुल्क' जो बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुई 'हंस' मैगजीन में छपी थी. उसके बाद से अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी मेरी रचनाएँ-कहानियां छपने लगीं. 1987  में संयोग से ऐसा हुआ कि एक पब्लिशर हिंदुस्तान आया- जाया करते थें और उन्हें जब पता चला कि मैं कहानीकार भी हूँ और उन दिनों लगातार छप रहा हूँ तो व्यक्तिगत रूप से उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि ' आप अपनी पाण्डुलिपि दे दें.'  तो ऐसे में मुझे कोई प्रकाशन नहीं ढूँढना पड़ा. फिर उसी साल मेरा पहला कहानी संग्रह 'हस्तक्षेप' प्रकाशित हुआ. उसके बाद मैं लगातार साहित्य में लेखन के साथ पत्रकारिता भी करता रहा और सबसे अहम बात मेरे साथ ये रही कि मैंने लगातार युवाओं के साथ जुड़कर काम किया. कई ऐसे अवसर भी आये जब मैंने कुछ युवाओं को आर्थिक एवं दूसरे तरह की भी सहायता दी ताकि उनका स्ट्रगल कमजोर ना पड़े और मुझे ख़ुशी है कि उनमे से कई-एक आज विभिन्न मीडिआ क्षेत्रों में बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं.

Saturday, 1 July 2017

घरवाले मेडिकल डॉक्टर बनाना चाहते थें मगर मैं बन गया लिटरेचर का डॉक्टर : डॉ. किशोर सिन्हा, सहायक निदेशक, आकाशवाणी,पटना

वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मेरा जन्म पटनासिटी के दीवान मोहल्ले में हुआ था. स्कूल की प्रारम्भिक शिक्षा वहां के नगर निगम स्कूल से हुई जो घर के बिलकुल पास था. उसके बाद की शिक्षा पटना सिटी के प्राचीनतम एम.ए.ए. हाई सेकेंडरी स्कूल से हुई. कहने को वह मुस्लिम स्कूल था लेकिन उसमे सभी धर्मों के बच्चे पढ़ते थे और सभी विषयों की पढाई होती थी. उर्दू की पढाई मैंने 8 वीं तक की और इसके आलावा वहां छपाई का काम, पेंटिंग, बागवानी, कुछ इस तरह के विषय भी पढ़ाए जाते थें जिसका फायदा मुझे आगे चलकर मिला भी. घर में पांच भाई-बहनों में मैं सबसे छोटा हूँ. वहां से जब मैंने मैट्रिक किया उस समय तक मेरे सभी भाई नौकरीपेशा हो चुके थें. मेरे पिताजी सेमी गवर्मेन्ट सर्विस में थें इसलिए उन्हें रिटायरमेंट के बाद पेंशन नहीं मिल रहा था. पटनासिटी का जो मोहल्ला था वो नवाबों का एक रियासती इलाका था. नवाबों के यहाँ बहुत सारे कोर्ट-कचहरी के काम हुआ करते थें. उस समय कोर्ट के काम प्रायः कैथी लिपि में होते थें. पिताजी को कैथी लिपि की बहुत अच्छी समझ थी और कोर्ट-कचहरी का काम भी जानते थें. तो उन्हें बराबर न्योता उन नवाबों के यहाँ से आ जाता था. उस काम से उन्हें थोड़ी बहुत राशि मिलती थी. कितनी मिलती थी ये मैंने कभी जानने की कोशिश नहीं की और ना उन्होंने कभी बताया. लेकिन ये जरूर मैं देखता था कि खाने-पीने, हमलोगों के रहन-सहन में कभी कोई कमी पिताजी ने नहीं होने दी. उस वक़्त आज की तरह पॉकेटखर्च का कोई रिवाज नहीं था. हाँ ये ज़रूर था कि जब मैट्रिक करने के बाद मैंने बी.एन.कॉलेज में एडमिशन लिया तो आने-जाने के किराये के लिए कुछ पैसे ज़रूर मिला करते थें. वो प्रायः एक-दो रूपए की शक्ल में ही होता था और उस समय एक-दो रूपए का भी बहुत महत्व था. कई बार तो वो भी नहीं मिला करता तब ऑटो से आने के पैसे नहीं होते थें इसलिए मैं स्टूडेंट बस का इंतज़ार किया करता था. पीरियड खत्म होने के एक घंटे बाद बस आती थी तो उस समय तक मुझे इंतज़ार करना पड़ता था कि उससे जाऊँ तो पैसे नहीं लगेंगे. स्कूल में मैं विज्ञान का विद्यार्थी था लेकिन मेरा मस्तिष्क शायद विज्ञान की तरफ तो था लेकिन पढ़ने में मेरी बहुत रूचि नहीं थी. मेरे घरवाले मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थें मगर मेरी रूचि साहित्य एवं कला में ज्यादा थी. मैंने 8 वीं क्लास में ही एक छोटा सा उपन्यास लिखा था जो बहुत ही फ़िल्मी था. आगे चलकर जब मुझे लगा कि ये बहुत बेहूदा किस्म का उपन्यास है और तब मुझे ही खुद पसंद नहीं आया तो मैंने वो उपन्यास फाड़ डाला. लेकिन लिखने का शौक था. शुरुआत में कुछ कवितायेँ भी लिखी थीं. पिताजी चाहते थें कि मैं कॉलेज में साइंस लूँ लेकिन दुर्भाग्यवश मैट्रिक का रिजल्ट मेरा बहुत अच्छा नहीं गया. उस रिजल्ट से मैं साइंस ग्रेजुएट नहीं हो सकता था और चूँकि मेरी रूचि कला-साहित्य में थी तो मैंने पिताजी से कहा कि 'मैं आर्ट्स वो भी हिंदी लेकर पढूंगा, मुझे हिंदी में ही कुछ आगे करना है.' और मैं किसी दूसरी यूनिवर्सिटी में नहीं बल्कि पटना यूनिवर्सिटी में जाकर आर्ट्स में फार्म भर आया. मैंने इंटर किया, ग्रेजुएशन किया फिर मैंने तय किया कि मुझे पी.जी. भी करनी है. मुझे घरवाले डाक्टर बनाना चाहते थें लेकिन मैं डॉक्टर कौन सा बनूँगा ये घरवालों ने नहीं कहा था. शायद उन्होंने मुझे मेडिकल का डॉक्टर बनाने का सोच रखा होगा. मैंने भी निश्चय किया कि घरवालों की चाहत ज़रूर पूरी होगी , मैं डॉक्टर ज़रूर बनूँगा लेकिन लिटरेचर का डॉक्टर. खेल-कूद में भी मेरी रूचि थी. कॉलेज से लौटने के बाद मैं खेल के मैदान में क्रिकेट और वॉलीबॉल खेलता था. और रात का समय मेरी पढाई का होता था. ग्रेजुएशन में मेहनत करने के बावजूद मुझे फर्स्टक्लास हासिल नहीं हुआ. थोड़ी निराशा हुई और मेरे असली संघर्ष का दौर तभी से शुरू हो गया था. पिताजी ने एक दिन कहा - 'अब तुम्हारा ग्रेजुएशन हो गया है, जितना मैं तुम्हारे लिए कर सकता था मैंने किया, अब मेरे वश का नहीं है इसलिए अच्छा होगा तुम आगे की पढाई करने की बजाए लोन लेकर कोई छोटा सा बिजनेस करो.' लेकिन मेरी रूचि कभी बिजनेस में रही नहीं तो मैंने उन्हें साफ़ इंकार कर दिया. उनकी पीड़ा भी मुझे समझ में आती थी कि एक रिटायर्ड आदमी जिसे पेंशन नहीं मिलती है और जिसे आराम की ज़रूरत है वो घर परिवार के लिए, खासकर मेरे लिए अभी भी संघर्षरत है. मुझे अफ़सोस भी होता था, फिर मैंने सोचा कि मुझे कुछ करना चाहिए. मैंने बी.ए. की परीक्षा दे दी थी और रिजल्ट आने में अभी वक़्त था और रिजल्ट आने के बाद मुझे पी.जी. में एडमिशन लेना था. इसलिए समय का सदुपयोग करते हुए मैंने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू किया जहाँ 150  रूपए मिलते थें. उसी दौरान मुझे दोस्त के माध्यम से आकाशवाणी के बारे में पता चला. ये बात 1975 -76  की है जब रेडिओ पर युववाणी कार्यक्रम आया करता था. उस समय रेडिओ का ही जमाना था और घर-घर में रेडिओ सुना जाता था. मैं भी रेडिओ का जागरूक श्रोता था. तब रेडियो से प्रेम तो बहुत था लेकिन आकाशवाणी में कैसे भाग लिया जाये ये मुझे नहीं पता था. तब मेरा एक दोस्त गौरी शंकर मेहता जो मेरे साथ कॉलेज में था वही मुझे आकाशवाणी ले गया क्यूंकि वो जनता था कि मुझे लिखने -पढ़ने का शौक है. तब मैंने पहली बार दहेज़ के विषय पर वार्ता युववाणी में दी थी. जिसके लिए मुझे 15 रूपए का चेक मिला. फिर वहाँ से रेडिओ में वो सिलसिला शुरू हो गया. फिर तीन -चार महीने के अंतराल पर मैं कुछ कुछ कार्यक्रम देने लगा. इसके अलावा मैंने ट्यूशन करने शुरू किये क्यूंकि मुझे पैसों की ज़रूरत थी. तब मेरे भीतर साहित्य पढ़ने का बहुत शौक था और मैं कई पत्रिकाएं भी खरीदा करता था. धर्मयुग, सारिका और आजकल ये तीन पत्रिकाएं तो मैं नियमित खरीदता था. उसी दौरान मैंने अख़बारों और पत्रिकाओं में भी लिखना शुरू किया. कुछ पैसे वहां से भी आने लगें. उन पैसों को मैं बहुत बचाकर खर्च करता था. यह सब करते हुए मैंने अपनी पढाई जारी रखी.
 
उसी दरम्यान 1984  से 1988  तक मैंने रेडिओ युववाणी में एनाउंसर के तौर पर काम किया. मैं तब पटनासिटी से साइकल से रेडिओ स्टेशन आता था. तब वहां एनाउंसरों का हमारा एक बड़ा अच्छा ग्रुप बन गया था. उसी बीच घर में हम चार भाइयों के बीच में बंटवारा हो गया. बाकि भाइयों के हिस्से में तो बनी-बनाई प्रॉपर्टी आई और मेरे हिस्से में बूढ़े माँ-बाप आये. मुझे लगा जब माँ-बाप की जिम्मेदारी आ गयी है तो कुछ और भी काम करना चाहिए. फिर मैंने एक प्राइवेट फर्म ज्वाइन किया जो आज के मौर्या होटल की जगह पर हुआ करता था. उस समय मैंने अपने नेचर और पढाई के विरुद्ध एकाउंटेंट का जॉब किया. क्यूंकि मैथेमैटिक्स थोड़ी बहुत अच्छी थी इसलिए काम सीखने में ज्यादा समय नहीं लगा. तब सारा समय मेरा जॉब में निकल जाता था और शाम में घर आते आते इतना थक जाता था कि कुछ और करने की इच्छा नहीं होती थी. इसी बीच पटना- गया रोड में संपतचक के पास एक नया कॉलेज खुला था जिसका एडवर्टाइजमेंट मैंने देखा था. चूँकि मुझे लेक्चरर ही बनना था इसलिए मैं वहां इंटरव्यू देने पहुंचा. वहां ऑफर सुना तो विचित्र सी बात लगी. उन्होंने कहा कि आके पढ़ाइये लेकिन अभी तो पैसे मिलेंगे नहीं. जब रजिस्ट्रेशन का समय आएगा तब देखा जायेगा. उधर जो प्राइवेट जॉब मैं कर रहा था वो मुझे पसंद नहीं आ रहा था इसलिए छोड़ना चाहता था. फिर दो-चार लोगों से सलाह-मशविरा करके मैं कॉलेज जाने को तैयार हुआ तब कॉलेज मैनेजमेंट बहुत मुश्किल से इस बात पर राजी हुआ कि मुझे आने-जाने का भाड़ा दे देंगे, मैं आके यहाँ पढ़ाऊँ. मैंने सोचा चलो अपने पास से कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा और यहाँ पढ़ाने से कुछ एक्सपीरिएंस मिलेगा. 5 -6  महीना वहां पढ़ाने के बाद झाड़खंड, पतरातू से एक परिचित जो वहां के कॉलेज में पढ़ाते थे कि तरफ से ऑफर आया. मैं इस आश्वासन पर चला गया कि मेरा वहां परमानेंट हो जायेगा. वहां 450 रूपए मिलने लगें और रहने के लिए क्वार्टर मुफ्त में मिला था. लगभग 6 महीने मैंने वहां पढ़ाया और एक दिन मुझे पता चला कि जिस पोस्ट के लिए मैं रुका हुआ था वो वहां पढ़ा रही किसी और महिला को देने की चर्चा चल रही है जो फैकल्टी के रिलेशन में आती थीं. मुझे एहसास हुआ कि तब तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा. ऊपर से मेरी पी.एच.डी. भी नहीं हो पा रही है. फिर मैं बोरिया-बिस्तर समेटकर वहां से इस्तीफा देकर वापस पटना लौट आया. फिर मैं सबकुछ भूलकर पी.एच.डी. में लग गया. लगभग एक साल बर्बाद हो चुका था लेकिन फिर एक साल बाद मैंने अपनी पी.एच.डी पूरी की. 1985 में मेरे पी.एच.डी. करते ही चारों तरफ से मुझे सम्मान और बधाइयाँ मिलने लगीं. लेकिन जिसकी सख्त ज़रूरत थी यानि नौकरी की वो नहीं मिल रही थी. कई जगह ट्राई किया लेकिन मैं सफल नहीं हो सका. मेरे पी.एच.डी. करने तक सारा वातावरण बदल चुका था. कॉलेजों में वैकेंसी बंद हो गयी. छोटे -छोटे प्राइवेट कॉलेज कुकुरमुत्ते की तरह उग आये और उसमे डोनेशन लेकर लोगों को अपॉइंट किया जाने लगा. तब भी जॉब परमानेंट होगा कि नहीं इसकी गारंटी नहीं थी. लगातार असफलता देखकर मन बहुत दुखी था लेकिन रेडिओ और पत्र-पत्रिकाओं में लेखन ने तब मुझे बहुत ढाढ़स और हिम्मत दिया. तब इलाहबाद की रहनेवाली कुसुम जोशी, युववाणी की प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव हुआ करती थीं. उन्होंने एक दिन पेपर कटिंग लेकर दिखाया कि 'यू.पी.एस.सी. से प्रोग्राम एक्जक्यूटिव का निकला हुआ है तो तुम भर दो.' लेकिन मैं हताश हो चुका था इसलिए अब कहीं ट्राई करना ही नहीं चाहता था. लेकिन वो लगातार मुझे प्रेरित करती रहीं और उनके कहने पर मैंने फॉर्म भर दिया. तैयारी शुरू की और इंटरव्यू दे आया. मुझे लगा मैंने ठीक से बोर्ड को फेस नहीं किया लेकिन जब रिजल्ट आया तो मैं सेलेक्ट हो चुका था. तब मेरी जीत नहीं बल्कि जिन्होंने भी मुझपर भरोसा किया था ये उन सबकी जीत थी. 

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