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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday, 14 July 2017

अगर फुटपाथ की ज़िन्दगी नहीं जीता तो कार्टूनिस्ट नहीं बन पाता: पवन,कार्टूनिस्ट,दैनिक हिन्दुस्तान,पटना

वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा गांव ज़द्दोपुर, वैशाली में है और मेरा जन्म हुआ पटना के कंकड़बाग में. सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई स्कूल से स्कूलिंग हुई. इंटर और ग्रेजुएशन की पढ़ाई मैंने पटना कॉलेज से की. लेकिन ग्रेजुएशन पूरा नहीं कर पाया. शुरू में तो पढ़ाई काम की वजह से छोड़ी फिर जब दुबारा गया तो यूनिवर्सिटी की हालत देख दुःख हुआ. बस एक साल बचा था हम ग्रेजुएट हो जाते लेकिन व्यवस्था ऐसी थी कि विज्ञापन तक नहीं निकाला गया कि फॉर्म भरने की ये तारीख है और फिर जब भी कॉलेज में पढ़ने जाते हमेशा हड़ताल हो जाती. तब हड़ताल से ऐसी नफरत हुई कि मेरा पढ़ाई से मन भर गया. वैसे भी पढ़ाई में मुझे कभी इंटरेस्ट रहा नहीं. स्कूल से ही मैं काम करने लगा था. 7 वीं क्लास के बाद एक तरह से मेरा स्कूल छूट गया क्यूंकि मैं ज्यादातर बंक मारने लगा था. मैं सिर्फ 30 नंबर पास करने भर पढ़ लेता, बस यही सोच थी कि फेल ना करूँ. जिस समय मुझे स्कूल में कॉस थीटा बनाना था, जीव विज्ञान पढ़ना था उस समय मैं अख़बार पढ़ने लगा. स्कूल में तब तीन अख़बार आता था. नवभारत टाइम्स, पाटलिपुत्र टाइम्स और आज. मैं इस ताक में रहता कि सर लोग जितनी जल्दी अख़बार पढ़कर छोड़ दें और उसका एक पन्ना भी पढ़ने को मिल जाये तो बहुत है. उन दिनों कोई अख़बार बच्चों का कॉलम नहीं निकालता था, तो एक दफा मैं नवभारत टाइम्स के एक संपादक के पीछे पड़ा और जिद्द करके पहली बार मैंने बच्चों का कॉलम शुरू करवाया. उन दिनों हमारे दिलो-दिमाग पर कॉमिक्स का असर भी कुछ ज्यादा हुआ करता था. मैं इंद्रजाल कॉमिक्स का बेसब्री से इंतज़ार करता था. मुझे लगता है यदि मैं उस सरकारी स्कूल में न पढ़ा होता तो शायद उतना प्रोत्साहित नहीं हुआ होता. जब 7 वी क्लास में था मुझे एक जगह हुए पेंटिंग कॉम्पटीशन में फर्स्ट प्राइज मिला और मेरी तस्वीर भी अख़बार में छपी. संयोग से जब स्कूल के प्रिंसिपल ने यह देखा तो मुझे टीचर के साथ बुलवाया और जब पूछताछ करने लगें तो मैंने डरते-डरते कहा- 'सर मुझे यही काम करने का मन करता है'. तब प्रिंसिपल शाबाशी देते हुए बोले- 'जब इसमें ही मन लगता है तो कोई बात नहीं यही करो. तुम्हें कोई मारेगा तो नहीं लेकिन कोई भगाएगा भी नहीं, अगर खुद से भाग गए तो भाग गए. बस तुम 30 नंबर तक पढ़ लेना.' और उसके बाद से जब एक्जाम आता तो मैं दस दिन पहले पढ़ने की बजाये 2 दिन पहले पढ़ाई शुरू करता था, कुंजिका से पढ़कर पास नंबर ले आता था. तब मेरे मन में ये बात बैठ गयी कि जब स्कूल का प्रिंसिपल मुझसे खुश है तो फिर डर किस बात का. उसके बाद मेरी शैतानियों का दौर जमकर शुरू हो गया और तब मेरी सारी शैतानियां माफ़ थीं. मेरे घर में सुबह-सुबह खाना नहीं बनता था इसलिए मैं घर से कभी टिफिन लेकर नहीं जाता था. अक्सर दूसरे साथियों को पकड़कर टिफिन चेक करता. उसमे एकाध ऐसे होते जिनकी टिफिन में बिस्किट होता, काजू-किसमिस होता. यह देख मुझे आश्चर्य होता कि यहाँ रोटी पर आफत है और इनको गार्जियन काजू-किसमिस दे रहे हैं. उन्ही स्कूली दिनों में जब मैं नवभारत टाइम्स के लिए काम करता था पटना में दूरदर्शन की शुरुआत हुई. तब वहां की एक न्यूज ऐंकर पुष्पा चोपड़ा मेरी फेवरेट हुआ करती थीं. एक बार बच्चों के एक कार्यक्रम में मुझे भी दूरदर्शन बुलाया गया मेरा इंटरव्यू लेने के लिए. जब वो कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो फ़िल्मकार प्रकाश झा जिनकी तब किदवईपुरी में अनुभूति नाम से एक संस्था थी ने वो देखा और हमारे संपादक को कॉल करके मुझसे मिलने की बात कही. शाम को मैं कार्टून बनाने जाता था तो मुझे देखकर संपादक साहब एक पर्चा थमाते हुए बोले कि, 'ये प्रकाश झा का पता है, तुम जाकर उनसे मिल लेना.' मैं पता लेकर खोजते हुए किदवईपुरी उनकी संस्था के ऑफिस में पहुंचा. तब मैं उन्हें जानता नहीं था, मुझे लगा कोई अख़बार के संपादक होंगे. लेकिन जब मैंने उनका चेहरा देखा तो फ्लैशबैक में चला गया जब कार्टूनिस्ट आर.के.लक्ष्मण पटना आये हुए थें. तब मुझे भी उनसे मिलने की बहुत इच्छा थी. लेकिन एक तो मैं सरकारी स्कूल का विद्यार्थी था जिसे अंग्रेजी नहीं आती थी और दूसरा ये कि मैं तब हवाई चप्पल में, ब्लू रंग के पैंट में और बिना बैच एवं टाई पहने आया था. वहां नॉट्रोडेम की बहुत सी लड़कियां उनको घेरे हुई थीं. मैं सोच रहा था कि लक्ष्मण जी के थोड़ा करीब जाऊँ लेकिन वहां मौजूद लड़कियों को सुन्दर फ्रॉक जैसी ड्रेस पहने और उनको अच्छे से अंग्रेजी बोलते देखकर शर्म एवं घबराहट से मैं खुद ही पीछे हट गया. उसी दरम्यान मैंने देखा कि यही प्रकाश झा वहां आये और आर.के.लक्षमण जी को अपने साथ लेकर चले गए. 'तुम्हारा इंटरव्यू और कार्टून देखे थें हम' जब प्रकाश झा ने मुझसे कहा तब मैं फ्लैशबैक से बाहर निकला और उनसे पूछ दिया 'सर आप ही थे न जो उस दिन आर.के.लक्ष्मण जी को अपने साथ ले गए थें.' तब प्रकाश झा मुस्कुराते हुए बोले - ' हाँ हम ही थें, उनपर हम आधे घंटे का फिल्म बनाये हैं और तब उन्हें इसी कमरे में लेकर आये थें. अच्छा तुम ये बताओ, मेरे साथ मुंबई चलोगे?'  चौंकाते हुए मेरे मुँह से निकल गया 'क्यों?' वे बोले -' तुम्हारे काम के लिए वहां ले जाना चाहते हैं. 'मैंने कहा- ' नहीं, हम नहीं जायेंगे. स्कूल और घर से परमिशन मिलेगा भी या नहीं मुझे पता नहीं.'  फिर उन्होंने पूछा- ' पिता जी क्या करते हैं, उनसे मेरी बात कराओ.'  मैंने कहा- 'कर्मचारी हैं, पटना से बाहर काम करते हैं. उन्हें चिट्ठी लिखनी पड़ेगी.' जब उन्होंने पिता जी का नाम पूछा तो मैं नहीं बताना चाहता था लेकिन घबराहट में गलती से उनका नाम बुला गया. जैसे ही उन्होंने पिता जी का नाम सुना फ़ौरन टेलीफोन से कहीं कॉल किया और बोले, 'आपका बेटा मेरे पास है और फिर उनसे बातें करने लगें. तब हमारे यहाँ टेलीफोन नहीं था और आश्चर्य लगता था कि टेलीफोन पर बात कैसे की जाती है. फिर वे फोन का चोंगा मुझे पकड़ाए और जब उधर से पिता जी की आवाज सुनाई दी तो मैंने उन्हें प्रणाम बोला. पिता जी कहने लगें- 'प्रकाश जी जैसा बोल रहे हैं वही करो और घर जाकर इनके साथ मुंबई जाने की तैयारी कर लो.' उसके बाद मेरी मुंबई की रोचक यात्रा शुरू हुई. वहां एनीमेशन और शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल चल रहा था. पटना से प्रकाश झा की पूरी टीम यानि लगभग 16 -17 लोग गए थें. मुझे मजा आ रहा था और मैं सोच रहा था कि मुझे अंदाजा नहीं था कि गार्जियन इतना सहज रूप से मुझे घूमने जाने छोड़ देंगे वो भी इतनी दूर.

मुंबई पहुंचकर मुझसे एनीमेशन का काम कराया गया. उसी दरम्यान स्वर्गीय अभिनेता सुनील दत्त जी की बेटी एक आधे घंटे की डॉक्यूमेंट्री बनायीं थीं जो एक सिनेमाहॉल में चल रहा था. बगल में सुनील दत्त जी बैठे थें और मैंने देखा कि एक दृश्य देखकर वे रुमाल से अपने आंसू पोंछ रहे हैं. कुछ देर हुआ ही था कि अचानक कभी बिजली चली जाये तो कभी साउंड चला जाये. इस वजह से सुनील दत्त जी खीजकर बोले- 'अरे यार ये क्या हो रहा है.' तब मेरे मुँह से निकल गया - ' सर, इस हालात पर तो कार्टून बनाया जा सकता है.' वे चौंककर पूछ बैठे  -' तुम कार्टून बनाते हो?' मैंने कहा- हाँ. फिर वे बोले कि तुम बनाकर दिखाओ. तब मुझे वहां डॉक्यूमेंट्री से कोई मतलब नहीं था इसलिए मैं बाहर गया और एक चार्ट पेपर खोलकर वहां चल रही परिस्थितियों पर मैंने कार्टून बनाकर उन्हें दिखाया जिसमे उनका रोते हुए का दृश्य भी था. वे बड़े खुश हुए और मुझे शाबाशी दी. और फिर उसी कार्टून को चल रहे फिल्म फेस्टिवल में लगाया भी गया. जब मैं लौटकर पटना आया तो अपने संपादक के कहने पर मैंने वहां का अनुभव लिखकर उन्हें दिया जो शायद छपा भी था. तब सबसे ज्यादा पैसा मेरे पास 'पराग' मैगजीन से आता था 50 रुपए के चेक के रूप में. जब बैंक में जाता तो 35 रुपया काट के मेरे हाथ में 15 रूपया ही आ पाता था. मेरा बैंक अकाउंट 6 ठी क्लास में ही खुल गया था. तब 'बालहंस' से 30 रुपया मिलता था. और भी कुछ मैगजीन थें जहाँ से 20 -30  रूपए का चेक आ जाता था. तो सब इकट्ठा करके उन पैसों से हम ज्यादा से ज्यादा डाक टिकट खरीदते थें इसलिए कि ज्यादा से ज्यादा कार्टून बनाकर डाक से बाहर भेज सकें. 4 -5 कार्टून भेजने में 60 पैसा लगता था. तब मैं चाहता तो उन पैसों से ऐश कर सकता था, अच्छी-अच्छी चीजें खरीदकर खा सकता था लेकिन तब मुझे घर से जेब खर्च नहीं मिलता था और इसलिए मैं अपने कमाए पैसे बचाकर बड़े हिसाब से खर्च करता था. उन्हीं कुछ बचाये पैसों से एक दिन श्रमजीवी ट्रेन का टिकट लेकर दिल्ली भाग गया वो भी बिना घर में बताए. वहां दुनिया विस्तार से देखी कि कार्टूनिस्ट क्या करते हैं और किसे कार्टून बोला जाता है. वो जो दौर था कार्टूनिस्टों का राजशाही दौर था.  मैं देखता कि बहुत बड़े कार्टूनिस्ट सुशिल कालरा साहब सूटकेस उठाये हुए चले आ रहे हैं और काफी पहले से लोग उनके इंतज़ार में पलकें बिछाएं खड़े हैं. मेरे आदर्श कार्टूनिस्ट रंगा थें. इक्तफाक से तीन दिन मुझे दिनमान टाइम्स के दफ्तर में उनके साथ समय बिताने का मौका हाथ लग गया. कार्टून बनाते वक़्त वे खेलते थें जैसे एक लाइन वो बनाते फिर दूसरी लाइन मुझे बनाने को देते फिर उस लाइन को वे आगे बढ़ाते. कार्टून की कुछ बारीकियां मैंने उनसे उन तीन दिनों में ज़रूर सीखी. विदा लेते समय उन्होंने मुझे भेंट स्वरुप एक स्केच पेन दिया जो बहुत ज़माने तक मेरे पास सहेजकर रखा था लेकिन फिर पता नहीं मैंने इतना घर बदला, इतना भागा जीवन से कि वो कहीं खो गया. लेकिन दिल्ली में मुझे ये सीखने को मिला कि कोई काम छोटा नहीं है, तुम जो कर रहे हो करते रहो. कोई समझेगा तो कोई नहीं समझेगा. उस ज़माने में पेंटिंग कर रहे बच्चे को दो चमाट मारकर पढ़ने पर विवश किया जाता था. हमलोगों के समय में आर्ट को बढ़ावा देने का माहौल घर में नहीं था. पटना में तब ना ही कार्टूनिस्ट थें और ना ही इस विद्या की सबको समझ थी. शुरू-शुरू में तब अख़बार में दिल्ली से ही कार्टून मंगवा लिए जाते थें.

एक दिन ऐसा आया कि कार्टून बनाने के जुनून में मुझे घर छोड़कर भागना पड़ा. पूरे सात साल मैंने तब यायावर सी ज़िन्दगी बितायी. मैंने तय किया कि पढ़े -लिखे लोगों के लिए नहीं बल्कि मुझे उनके लिए कार्टून बनाना है जो आम आदमी और जमीन से जुड़ा हो. मेरे कार्टूनों में दिमाग जैसा कुछ नहीं होता, सिर्फ सारा फोकस इस बात पर रहता कि जमीं पर लेटा हुआ उदास आदमी भी एकाएक कैसे मुस्कुरा दे. सीनियर कार्टूनिस्टों ने कहा था कि असली कार्टून वो होता है जब आप ज़िन्दगी को करीब से देखकर बनाते हो. सुशिल कालरा साहब बोले थें कि भिखारी की ज़िन्दगी देखने के लिए तुम्हें उसकी जगह पर जाकर बैठना होगा. इसलिए मैं भी ज़िन्दगी को बिल्कुल करीब से देखना चाहता था. तब मैं 9 वीं क्लास में था और मेरे मन में यही चल रहा था कि कोई वजह से मुझे घर से निकाल दिया जाये, फिर मैंने वजह खोजी. बड़े लेवल की बदमाशी की और फिर घर में झगड़ा कर के भाग गया. तब पटना का सारा फुटपाथ मेरा घर हो गया था. ज्यादातर फुटपाथ पर ही रहता था और सुलभ शौचालय में जाकर शौच और स्नान कर लेता था. करबिगहिया में स्कूल के एक दोस्त के पास मेरे तीन-चार कपड़ों का सेट रखा रहता था. उसकी बहन मेरे कपड़े धोकर आयरन कर देती थी. मैं दोस्तों के यहाँ मिलने जाता लेकिन शर्त थी कि रात में किसी के यहाँ मैं रुकूंगा नहीं. पूरी रात बाहर ही गुजरती थी. पटना का कोई ऐसा इलाका नहीं तब जिससे मैं वाकिफ नहीं हुआ. फुटपाथ पर रहते हुए तमाम गुंजाईश थी गलत राह पर जाने की. कोई स्कैम, गांजा बेचने का ऑफर देता तो कोई कुछ करने को. लेकिन मैं बच गया क्यूंकि मेरे पास एक ज़िद्द थी, एक जुनून था जिसकी वजह से मैंने घर छोड़ा था और वो था कार्टून और सिर्फ कार्टून. लोगों को यह मेरा संघर्ष लगेगा लेकिन मैं इंजॉय करता था. तब कई सारे लोग जिनमे दोस्त, शिक्षक और मेरे अख़बार के संपादक सारे लग गए मुझे घर लाने को. एक शाम जब मैं अख़बार के दफ्तर कार्टून देने गया तो संपादक डाँटते हुए बोले- 'चार कार्टून बनाने लगे तो हीरो बन गए हो, क्या लगता है घरवालों को तुम्हारी चिंता नहीं हो रही.' फिर उनका निर्देश हुआ कि मुझे पकड़कर घर पहुंचा दिया जाये. उनके सेक्रेटरी मुझे अपने स्कूटर से छोड़ने वाले थें. वे मुझे एक जगह बैठाकर बोले- 'जब तक नहीं आता यहाँ से हिलोगे नहीं.' वे जैसे ही बाथरूम गएँ मैं लिफ्ट से नीचे उतरकर वहां से भाग गया और पटना छोड़कर रांची आ गया. वहां एकाध साल रहा. जब मेरा सेंटअप एक्जाम हुआ तब मैं रांची से पटना लौटा. मैट्रिक एक्जाम खत्म होने के बाद मैं फिर वहां से कहीं और निकल गया. बीच बीच में दिल्ली आना-जाना चलता रहा और अपना काम करता रहा. पैसे के लिए नवभारत टाइम्स अख़बार में मेरा वीकली कॉलम शुरू हुआ, तब एहसास नहीं था कि लिख भी सकता हूँ. मेरे कॉलम के कैरेक्टर का नाम काठी बाबू था जो मुझे मालूम नहीं था कि तब इतना लोकप्रिय हो जायेगा. उसके लिए मुझे हर हफ्ते 400 रूपए मिलते थें. मैंने तब लगभग पटना के सारे अख़बारों में फ्रीलांस किया. एक दिन में 8 कार्टून बनाता. तब कभी मैंने साइकल सीट पर बैठकर नहीं चलाया बल्कि पैडल पर ही मुझे भागना पड़ता था, एक ही दिन एक अख़बार से दूसरे अख़बार, दूसरे से तीसरे अख़बार के दफ्तर. तब हालत ऐसी हो गयी कि डॉक्टर ने साइकल चलाने से मना कर दिया. फिर मेरी पैदल यात्रा शुरू हुई और मैं पैदल खूब घूमा. सात साल के अपने भागे हुए और फुटपाथ पर बिताये हुए जीवन पर मैंने एक डायरी लिखी है. और वो डायरी मैंने अपनी पत्नी को गिफ्ट किया है.
   

3 comments:

  1. Nice story nothing is impossible if someone really desire by heart sbd soul.... Pawan Toon is very good human being...

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  2. Pawan Bhaiya you forget us in this story .... mere paise aaj bhi udhaar hain aap par jo maine jute kharidne ke liye bacha raha tha or aapko de diye....

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