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Monday, 17 July 2017

तब विष्णु प्रभाकर को नहीं सुना होता तो आज मैं कुछ और कर रहा होता : हृषीकेश सुलभ, कहानीकार एवं नाटककार

जब हम जवां थें 
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म बिहार के सिवान जिले के लहेजी गांव में हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई. मेरे पिता स्वतंत्रता सेनानी थें जो घर-बार छोड़कर 1947  तक भटकते रहें. आजादी मिलने के बाद अचानक उनका राजनीति से मोहभंग हो गया. उसकी वजह थी कि तब आजादी के बाद राजनीति ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया था.फिर पिता जी गांव लौटकर खेतीबाड़ी देखने लगें. एक दिन वे मुझे 13 साल की उम्र में पटना ले आये ये सोचकर कि मुझे अच्छी शिक्षा देनी है. पटना कॉलेजिएट स्कूल और फिर बी.एन.कॉलेज में मेरी आगे की शिक्षा संपन्न हुई. उसके बाद पटना विश्वविधालय के हिंदी विभाग में  एम.ए.की पढ़ाई शुरू हुई. फिर वहीँ से एम.ए. पूरा किये बिना मैं नौकरी में चला गया. मध्य प्रदेश के बस्तर जिले के आकाशवाणी केंद्र में प्रसारण अधिकारी के रूप में मेरी नौकरी लगी. पढ़ाई बीच में छोड़ने के पीछे कई वजहें थीं. पहले तो लगता था एक ही वजह है परिवार की आर्थिक स्थिति लेकिन अब इस उम्र में पहुंचकर जब मैं उसका बार-बार विश्लेषण करता हूँ तो मुझे लगता है और भी कई कारण थें जो बहुत गहरे थें. मध्य प्रदेश से मेरा तबादला हुआ. मैं रांची आया फिर पटना आया. कुछ दिन वहां नौकरी करने के बाद मैंने यू.पी.एस.सी. परीक्षा दी और फिर से आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिशाषी के रूप में चुनकर आया. फिर विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी करता रहा. नौकरी में आने से पहले ही मेरा लेखन जारी था और 1975  से ही मेरी रचनाओं का प्रकाशन शुरू हो गया था. सारिका में, प्रेमचंद जी के बड़े सुपुत्र श्रीपत राय जी एक पत्रिका एडिट करते थें 'कहानी' उसमे फिर धर्मयुग, रविवार आदि पत्रिकाओं में मेरी कहानियां छपने लगीं. मेरी पहली किताब आयी 1986  में. कहानी संकलन और अमली नाटक दोनों पुस्तकें एक साथ प्रकाशन में गयी थी लेकिन इक्तेफाक से नाटक की किताब पहले आ गयी क्यूंकि दोनों किताबों के प्रकाशक अलग थें. नाटक की किताब छपके आने से पहले ही मेरा लिखा नाटक पूरे देश में चर्चा के केंद्र में था. देश के विभिन्न हिस्सों में उसका मंचन हुआ. मेरा पहला कहानी संकलन 'पथरकट' आने के 8 साल के अंतराल के बाद दूसरा कहानी संकलन आया 'वध स्थल से छलांग' . फिर चार-पांच साल बाद तीसरा कहानी संकलन आया 'बंधा है काल'. फिर आगे चलकर प्रकाशक बदल गए और राजकमल प्रकाशन से मेरी किताबें प्रकाशित होने लगीं. फिर मेरे पुराने जो तीन कहानी संकलन थें उन तीनों संकलन की कहानियां एक जिल्द में आयीं 'तूती कीआवाज' शीर्षक से और ये सिलसिला चलता रहा. तब रेडिओ से मेरा रिश्ता सिर्फ नौकरी का रहा. मैं वहां नौकरी नहीं करता तो मुन्सिपल कॉरपरेशन में नौकरी कर सकता था. मेरी रेडिओ में नौकरी की जो दुनिया रही और जो मेरी साहित्य की दुनिया रही उसे मैंने कभी मिलाया नहीं. रेडिओ से मेरा कल भी बहुत गहरा लगाव नहीं था और आज भी नहीं है. एक लम्बा अरसा वहां बीता है तो जाहिर है कुछ लोग वहां ज़रूर रहे होंगे जिनसे मेरे गहरा लगाव रहा हो.

एक वाक्या तब का मुझे याद आता है जब हमलोग काफी नए थें एकदम युवा. तब हर चीज के प्रति गहरी उत्सुकता और जिज्ञासा का भाव था. उस समय कॉफी हॉउस का दौर था. तब पटना के डाकबंग्ला स्थित कॉफी हॉउस में हमलोग अक्सर जाते थें. वहीँ हमने साहित्य जगत के तमाम बड़े व्यक्तित्व को पहली बार करीब से देखा और उनका आचार-व्यवहार जाना. उस दौर में बहुत से साहित्यिक लोगों से हमारी मुलाकातें हुआ करती थीं. उन्ही दिनों की बात है पटना में मशहूर लेखक विष्णु प्रभाकर आये हुए थें. उस समय उनका 'आवारा मसीहा' जो शरतचंद्र के जीवन पर आधारित है प्रकाशित हो चुका था जिससे वे बेहद प्रसिद्ध हो चुके थें. पहली बार हिंदी में ऐसा हुआ था कि हिंदी का कोई बड़ा लेखक किसी भारतीय भाषा के दूसरे लेखक की जीवनी लिख रहा हो. और विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र की जीवनी पर 14 -15 वर्षों तक काम किया था तब जाकर पुस्तक आयी थी.  तब मैं बी.एन.कॉलेज के विद्यार्थी के रूप में वहां होनेवाली सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रीय रहता था. वहां हमलोगों की एक हरिश्चंद्र सभा थी जिसे बाद में बांटकर के नाट्य परिषद् को अलग किया गया. तब मैं नाट्य परिषद् का पहला सचिव था. एक दिन नाट्य परिषद् के काम से उत्साहित होकर बी.एन.कॉलेज के प्रिंसिपल एस.के.बोस साहब ने मुझे एक पुस्तक भेंट की और वह पुस्तक थी 'आवारा मसीहा'. और बाद में अचानक बिल्कुल अपने सामने उस पुस्तक के लेखक को पाकर मेरा मन आह्लाद से भर उठा. हमलोग विष्णु जी से मिले. एक छोटी सी बैठक हुई पटना के एस.पी.वर्मा रोड में. एक नाट्य संस्था की तरफ से यह बैठक आयोजित की गयी थी. वहां विष्णु प्रभाकर ने यह बताया कि कैसे शरतचंद्र के जीवन के बारे में जानने के लिए वे 14 वर्षों तक लगातार दर-दर भटकते रहें, वे कहाँ -कहाँ गए. एक-डेढ़ घंटे की उस बैठक में वे ये सारी बातें सुनाते रहें और हम मंत्रमुग्ध होकर बिल्कुल बच्चे की तरह उनके सामने बैठे हुए उनके मुख से सुनते रहें. यह मेरे जीवन का एक दुर्लभ अनुभव था. साथ-साथ मुझे ये लगा कि एक पुस्तक लिखने के लिए एक बड़ा लेखक जब इतना श्रम करता है तो साहित्य की जो यात्रा है वो कितनी कठिन है, किस तरह के समर्पण एवं निष्ठा की मांग करती है. तो इस विद्या को बहुत हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. तब विष्णु जी को सुनते हुए यही सब अपने मन में अर्जित करता रहा. विष्णु प्रभाकर जी को सुनना यह मेरे जीवन की बहुत बड़ी घटना थी. क्यूंकि वो नयी उमर थी, हर चीज के प्रति आकर्षण था. कभी यहाँ कभी वहां, कभी इस काम को छोड़कर कभी उस काम में लग जाना जो युवाओं में एक अधीरता या जल्दबाजी होती है वो सब मेरे अंदर भी था. तो उनकी बातों ने मुझे बहुत स्थिरचित्त किया, शांत किया और मुझे इसकी सीख दी कि किसी भी काम को करने के लिए आपको लगातार बने रहना है. साहित्य में अगर आपको महत्वपूर्ण लिखना है तो आपको पूरी तरह उसमे उतरना होगा. यही वजह थी कि तब आकाशवाणी जैसे ग्लैमरस संस्थान में नौकरी करते हुए भी रेडिओ मेरा मुख्य चुनाव नहीं रहा, वो सिर्फ मेरी नौकरी करने की जगह थी. वहां मैं ईमानदारी से अपना काम भर करता रहा और निरंतर लिखता रहा. तब विष्णु जी के भाषण ने मेरे अंदर बहुत गहरा प्रभाव डाला. मैं आज भी कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर तब विष्णु प्रभाकर को नहीं सुना होता तो शायद मैं कुछ और कर रहा होता. क्यूंकि तब साहित्य के प्रति उत्सुकता एवं लालसा तो थी मगर स्थायित्व नहीं था.

 
जीवन संगिनी से सम्बंधित वाक्या मुझे याद आता है. पत्नी मीनू से एक विवाह समारोह में मेरी मुलाकात हुई थी. तब वे बी.ए. की छात्रा थीं और मैं एम.ए. कर रहा था. मुझे पता चला कि उन्हें साहित्य के प्रति रूचि है. उन दिनों 'रविवार' पत्रिका जो कोलकाता के आनंद बाजार ग्रुप की पत्रिका थी में मैंने कुछ रिपोर्टें लिखी थीं.जमशेदपुर में हुए दंगे पर, गांव में नाच करनेवालों पर, खून के व्यापार पर लिखी रिपोर्टें तब चर्चित रही थीं. मुझे पता चला कि मीनू ये सारी चीजों को पढ़ती आयी हैं. फिर एक लेखक और एक पाठिका के रूप में हमदोनो की जान-पहचान हुई जो आगे चलकर अच्छी दोस्ती में तब्दील हो गयी. तब शायद वो मेरी लेखनी से आकर्षित थीं और मैं उनके स्वभाव से. तब मीनू जी हमसे बहुत दूर एक छोटे से शहर में रहती थीं और मैं राजधानी पटना में रहता था. तब हमलोगों के बीच बहुत खुला एवं बहुत गहन प्रेम नहीं था. जो भी था भीतर ही भीतर एक राग था एक शांत नदी की तरह. तब हमारे मध्यम वर्गीय समाज में वैसा खुलापन भी नहीं था और हमारी बहुत मुलाकातें भी नहीं होती थीं. लेकिन हमदोनों के परिवार पहले से परिचित थें. उन्हें लगा कि दोनों साझा जीवन जी सकते हैं तब मेरे पिता ने इस सम्बन्ध में मुझसे बातें की और मैंने हामी भर दी. फिर हमारा विवाह संपन्न हुआ. मेरी साहित्यिक यात्रा में मेरी पत्नी का शुरू से लेकर आजतक भरपूर सहयोग मिला और वे शुरू से ही अच्छी एवं गंभीर पाठिका रहीं. उन्होंने मुझे पर्याप्त अवकाश दिया पढ़ने-लिखने एवं मेरी साहित्यिक यात्राओं के लिए. 

2 comments:

  1. अनुभव और स्मृतियाँ जीवन को समृद्ध और सम्पन्न करती हैं। विष्णुजी निःसंदेह कई पीढ़ियों के प्रेरक पुरुष थे--यह मैं भी अपने अनुभव से जानता हूँ। पढ़कर आनन्द हुआ बंधु!

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