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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday 7 July 2017

ख्वाब था वकील बनूँ मगर बन गया पत्रकार : शैलेन्द्र दीक्षित, पूर्व संपादक, दैनिक जागरण, पटना

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में एक छोटे से गांव में हुआ जहाँ ना कोई सड़क थी ना बिजली और ना ही कोई डॉक्टर थें. वो मेरे मामा का गांव था. मेरे पिता रेलवे में थें और तब उनके साथ ही पूरा परिवार कानपुर में रहता था. मेरी पूरी शिक्षा कानपुर में ही समपन्न हुई. स्कूल की आरंभिक शिक्षा वहीँ कानपुर मॉन्टेसरी स्कूल में हुई. हाई स्कूल की पढाई दोसर वैश्य इंटर कॉलेज से हुई. फिर इंटरमीडियट से लेकर एम.ए. और लॉ की पढाई भी मेरी कानपुर में ही हुई. उन दिनों ग्रेजुएशन करके तुरंत निकला ही था कि पता चला 'आज हिंदी दैनिक' में ट्रेनी की ज़रूरत है. मुझे लिखने-पढ़ने का शौक भी था और कुछ एप्रोच होने की वजह से वहां मुझे मौका मिल गया. 'आज हिंदी दैनिक' में काम करते हुए ही मैंने एम.ए. किया और फिर लॉ की पढ़ाई पूरी की. तब लॉ की इवनिंग क्लास होती थी तो मैं शाम में दफ्तर से निकलकर सीधे अपनी साइकल से लॉ की क्लास करने चला जाता था. तब 1975 में रेलवे में ए.एस.एम. में जॉब लग गया था मगर मैं गया ही नहीं क्यूंकि मुझे सरकारी या दूसरी अन्य नौकरी के प्रति कोई रुझान नहीं था इसलिए कि मुझे वकील बनना था. लेकिन 1978 में एक ऐसा हादसा हुआ जिसकी वजह से मेरा ख्वाब अधूरा ही रह गया. मेरे मामा जी माँ के पास रहकर ही पढ़े थें इसलिए घर में वही मेरे स्कूल से लेकर कॉलेज तक की सारी व्यवस्था देखते थें. वे एक बहुत अच्छे वकील थें और मेरे आदर्श भी. उनकी ना किसी से कोई दुश्मनी थी ना कोई झगड़ा था. एक दिन अनजाने में उन्हें गोली लग गयी और उनका निधन हो गया. पूरे परिवार को सदमा पहुंचा और इसका सीधा असर मेरे ऊपर आ गया. मेरी माँ ने एकदम से स्टैंड लिया और जिद्द ठान ली कि मैं चाहे कुछ भी करूँ लेकिन वकालत नहीं करूँगा. तब माँ की ऐसी स्थिति थी कि मुझे उनका आदेश मानना ही पड़ा. लेकिन मुझे कोई और फिल्ड जँच नहीं रहा था तो जो मैं पहले से करता आ रहा था उसी में आगे बढ़ने का फैसला लिया. मेरा मूड चेंज हो चुका था, मैंने सोचा कि चलो मीडिया में रहूँगा तो नाम एवं शोहरत भी मिलेगी. मेरा संयोग अच्छा रहा कि जिन गुरुओं के सानिध्य में मुझे सीखने को मिला वे बहुत गुणी लोग थें. विधा भास्कर जी, दूधनाथ सिंह जी, चंद्रकुमार जी और एक बिहार में पुनपुन के रहनेवाले पारसनाथ सिंह जी ये कुछ ऐसे दिग्गज थें जिन्होंने स्वतन्त्रता की पूरी लड़ाई लड़के विशुद्ध पत्रकारिता की मिसाल पेश की थी. आज दैनिक में ही मैं परमानेंट हुआ और फिर सब एडिटर बना.

1986  में मुझे एक ब्रेक मिला तब तक मैं उप समाचार संपादक हो चुका था. आगरा में दैनिक जागरण का एडिशन लांच हो रहा था जहाँ मुझे एडिटोरियल इंचार्ज के रूप में मौका मिला तब मेरी उम्र 31 साल थी. आगरा में वहीँ दफ्तर के ऊपर हमलोगों के रहने की व्यवस्था थी. एक रूम में दो लोग शेयर करते थें. एक रात होटल से खाना खाकर हम सभी लड़के वापस लौटे और सोने की तैयारी करने लगें. मुझे तब सिखाया गया था कि चलते -चलते टेलीप्रिंटर ज़रूर देख लेना है. चूँकि तब मोबाईल और कंप्यूटर का ज़माना नहीं था, तब न्यूज के लिए रेडिओ और टेलीप्रिंटर पर ही निर्भर रहना पड़ता था. तो मेरी आदत बन गयी थी कि एक बार सोने से पहले टेलीप्रिंटर चेक कर लूँ कि कहीं कोई बड़ी खबर तो नहीं दिखाई दे रही है. तब जाड़े का मौसम था और ये खबर मुझे टेलीप्रिंटर के माध्यम से रात डेढ़-दो बजे मालूम चली कि उस ज़माने की मशहूर अभिनेत्री स्मिता पाटिल का निधन हो गया है. उस समय आमतौर पर रात 1 बजे अख़बार छोड़ दिए जाते थें, फिर 2 बजे के बाद प्रिंटिंग का काम शुरू हो जाता था. उस समय वहां अमर उजाला सबसे बड़ा अख़बार था और स्मिता पाटिल वाली खबर उसने तब मिस कर दिया. संयोग से हमने वो खबर दैनिक जागरण में निकाल दी और उसका माइलेज हमें मिल गया. अगले दिन चारों तरफ यही चर्चा थी कि स्मिता पाटिल के निधन की खबर जागरण में छपी है. और उस एक खबर ने तब जागरण को आगरा में स्टैब्लिश होने की दिशा में बड़ी भूमिका निभाई. सबकुछ अच्छा ही चल रहा था फिर भी मैं वहां 4 महीने से ज्यादा नहीं रुका और इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है. तब आज हिंदी दैनिक के मालिक पप्पू भैया जी जिन्हें सभी प्यार से भैया जी कहते थें आगरा में  'आज' का संस्करण खोलने पहुँच गए. मैं उनका बहुत खास था लिहाजा वहां आकर उन्होंने मुझे कॉल किया और कहा 'तुम कैसे चले आये यहाँ और मुझे बताया भी नहीं, इतना दुस्साहस !' उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि मैं कुछ बोल ही नहीं पाया. फिर उनके बुलावे पर मुझे होटल मुग़ल सलटेन जाना पड़ा जहाँ वे रुके थें. पप्पू भैया जी नाराजगी दिखा रहे थें इसलिए पहले तो मेरी तरफ देखा तक नहीं. फिर मेरी तरफ मुड़े और मुझे देखकर कहा - 'अरे तुम यहाँ कैसे?'  जब मैंने उन्हें प्रणाम किया तो फिर उनकी नाराज़गी दूर हुई. उन्होंने सूप मंगवाकर पिलाया और कहा - 'तुमको तो इतनी होम सिकनेस थी फिर तुम यहाँ कैसे चले आये?' तब मैं होम सिकनेस का बहुत आदि था. पहले कहीं कानपुर से दूर भी जाता था तो उसी रात घर लौट आता था. लेकिन अब घर ऐसा छूटा है कि 18 साल हो गए घर छोड़े हुए और अब बिहार मेरा घर हो चुका है. वहां फिर पप्पू भइया ने तब मुझसे कुछ और बात नहीं की. मैं भी खाना खाकर वहां से चला आया. अगले दिन उन्होंने मुझे फिर बुलाया बात करने के लिए. मैं जब उनके पास गया तो उन्होंने पूछा- 'क्या क्या लेकर आये हो यहाँ?' मैंने कहा -' कुछ नहीं चार कपड़े हैं और एक अटैची है बस.'  उन्होंने आदेश दिया, 'ठीक है तो आप अपनी अटैची उठाइये. मेरी गाड़ी में रखवाइये और सीधे मेरे साथ कानपुर वापस चलिए. और जो आप यहाँ हैं वहां 'आज हिंदी दैनिक' में वही पद पर आ जाइये.' मैंने सकपकाकर कहा 'मगर अभी के अभी कैसे चलना संभव होगा, उन्हें इन्फॉर्म तो करना होगा वरना मेरे करियर पर धब्बा लग जायेगा.' मैंने किसी तरह उन्हें समझाकर भेजा और उनसे एक हफ्ते बाद आने को कहा. अगले दिन मैं आगरा जागरण के दफ्तर में इन्फॉर्म करने पहुंचा. वहां मैनेजमेंट में नरेंद्र मोहन जी थे, उनसे कहा- 'सर, मैंने पप्पू भैया जी को जबान दे दिया है, वो मेरे पुराने मालिक हैं इसलिए मैं उन्हें मना नहीं कर सकता.'  लेकिन नरेंद्र जी ने इस बात का बुरा नहीं माना और फिर मैं वापस कानपुर लौट गया.

दैनिक जागरण,पटना से रिटायर्मेंट के दौरान

 एक और वाक्या याद आता है जब यू.पी. में डकैतों की बहुत बड़ी समस्या आ गयी थी. तब छवि राम, फूलन देवी, अनार सिंह जैसे कई नाम थें जिनका खौफ था. वे लगातार मारकाट मचाये हुए थे. तब घटनास्थल पर देशभर की मीडिया का जमावड़ा लगा रहता था. उस दौरान काम करने और खुद को साबित करने का मुझे बहुत मौका मिला. आज के समय में पत्रकारों को जो सुविधाएँ मिल रही हैं वो तब नहीं थी. साधन नहीं थें कि भाग के यहाँ से वहां चल जाएँ. जो अख़बार ढ़ोनेवाली टैक्सी थी उसी में बैठकर हमें दूर दूर खबर के लिए जाना पड़ता था. एक दफा मैनपुरी में डकैतों ने कइयों को मार दिया था और उसकी रिपोर्टिंग का मुझे मौका मिला. तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जी वहां आयी थीं. उन दिनों सेक्यूरिटी की उतनी प्रॉब्लम नहीं थी. ज़रा सा हमें रिक्वेस्ट करने पर बड़े लोगों से मिलने की इजाजत मिल जाती थी. तब वहां उनका कोई इंटरव्यू नहीं हुआ. वे हादसे को लेकर वहां पूछताछ कर रही थीं और मैं ठीक उनके बगल में बैठा न्यूज इकट्ठा कर रहा था. और तब इतनी बड़ी हस्ती से मिलने का मुझे सौभाग्य भी मिला. उन दिनों समस्या ये थी कि घटना की रिपोर्टिंग हमें रात में ही जाकर करनी पड़ती थी. जैसे तैसे रिपोर्टिंग करने के बाद होता ये था कि कैमरामैन कैमरा वैसे ही लिए हुए, हम अपना नोट्स वैसे ही लिए हुए किसी तरह से भागकर वापस पहुँचते थें कि कम से कम सिटी एडिसन पकड़ा जाये. तब दैनिक दिनचर्या, नहाना-धोना जो भी था सब बिगड़ जाता था. पूरी रात जागना पड़ता था. फिर न्यूज निकालने की तैयारी. इस दौरान हमने जो भाग दौड़ किया उसी ने हमें माइलेज दिलाया आगे बढ़ने में. हमारी उम्र के ही कुछ साथी तब बीच रास्ते में ही ढेर हो जाते थें. लेकिन तब युवावस्था में मेरे अंदर एक जुनून हुआ करता था कि मीडिया फिल्ड में मुझे ऊंचाई पर जाना है. इसलिए खुद को बढ़ाने में मैंने रात-दिन नहीं देखा बस आगे बढ़ता ही चला गया और तब मंजिल तक पहुँचने में मेरे सीनियर्स ने पल पल मेरी मदद की.
    

11 comments:

  1. सर अब एस्प जैसे इंसान और संपादक बनने बंद हो गए । एस्प हमेशा एक पिता की छाया देते हैं।

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  2. आप बहुतों के लिये आदर्श है, जो आपसे जुड़ा और लगन से रहा आज वे सब कहीं न कहीं संपादक हैं। हाँ कानपुर आपकी कमज़ोरी है और हो भी क्यों नही आपका घर जो ठहरा। आप बहुत ही गहरे हैं, आपको समझना इतना आसान नहीं। याद है सुनील जी कहा करते थे कि आप अपनें घुंघराले बाल में सबको उलझा लेते है।

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  3. aap patrakrita m adarsh hain... Shandar!!!

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  4. आप हमारी शान हैं ....!

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  5. Lavkush-Sitabdiara- एक-दो मुलाकात ने आपका कायल बना दिया । एक बार छपरा और दूसरी बार पटना में आपसे मिलने का मौका मिला । आप तब भी हम सब के आदर्श थे, और अब भी हैं ।

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