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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Monday 24 July 2017

गीत-गजल संग्रह की पाण्डुलिपि खो जाने पर बहुत दुःख पहुंचा : डॉ. अनिल सुलभ, अध्यक्ष, बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन

वो संघर्षमय दिन
By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म बिहार के शिवहर जिले के अम्बा गांव में हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई और स्कूली दिनों में ही मेरा कहानी, एकांकी नाटक एवं गीत लेखन शुरू हो गया था. मुझे अपनी पहली कहानी याद है 'दोस्तों के लिए दुआ' नाम से मैंने 6 ठी क्लास में लिखी थी जिसे पढ़कर हमारे स्कूल के हिंदी शिक्षक ने बहुत प्रशंसा की थी. उसी उम्र से मैंने गांव में होनेवाले सांस्कृतिक समारोहों, नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया था. तब गांव में रामलीला- कृष्णलीला का दौर था. तब मैं भी गांव की नाट्य मंडली में शामिल था. अलग अलग गाँवो में मंचन के लिए नाट्य मंडली को आमंत्रित किया जाता था. किसी एक गांव में जाते तो लगभग महीने तक वहां नाटक चलता था. शुरू- शुरू में जो शाम में हम नाटक देखते अगले दिन सुबह दोस्तों के संग मिलकर उसे दोहराने लगते. शायद इसी वजह से नाटकों के प्रति भी मेरा लगाव बढ़ा. गांव में धार्मिक कृतियों पर आधारित नाटकों का मेरे बालमन पर गहरा प्रभाव पड़ा. फिर आगे की पढाई करने मैं पटना आ गया. जब कॉलेज में गया तो वहां की नाट्य संस्था से जुड़ गया. उन दिनों नाटककार, साहित्यकार और पत्रकार कम होते थें और उन्हें आमलोगों से बहुत सम्मान मिलता था. मैं शौकिया तौर पर कॉलेज के नाटकों और खास तौर पर पटना के रविंद्र भवन एवं भारतीय नृत्य कला मंदिर में होनेवाले मंचन में भाग लेने जाया करता था. तब एक नाटक दो से तीन दिनों तक प्रदर्शित होता था और वह हाउसफुल जाता था. उन दिनों लोग टिकट लेकर नाटक देखने आते थें. कालिदास रंगालय या रविंद्र भवन में टिकट काउंटर बने होते थें. क्यूँकि तब स्वस्थ मनोरंजन का वही अच्छा साधन हुआ करता था. उन दिनों नाटकों में  हमें सम्मान के सिवा कुछ नहीं मिलता था. सिर्फ महिला पात्र निभा रही लड़कियों को घर से आने-जाने के लिए कुछ राशि मिलती थी. हम लड़के तो खुद ही अपने पैसों से आते-जाते थें. लेकिन फिर भी मन में कोई निरासा नहीं, कोई पैसों का लोभ नहीं था. बस नाटकों से जुड़ने का शौक और जुनून दिलो-दिमाग पर हावी रहा करता था. और सबसे बढ़कर सीखने की ललक थी. उन दिनों पटना में कला-साहित्य से जुड़े लोगों से मेरा परिचय बढ़ा जिनमे कवि तरुण जी और आकाशवाणी के कुछ एक लोग थें जिन्होंने 'साहित्यांचल' नाम से एक संस्था बनाई थी. 'साहित्यांचल' में प्रत्येक रविवार को गोष्ठियां आयोजित होतीं जिसमे पटना शहर के सभी प्रतिष्ठित कविजन आया करते थें. मैं प्रायः प्रत्येक गोष्ठी के लिए एक नई रचना लेकर जाता था तो इस बहाने से हफ्ते में कम से कम एक गीत या गजल तैयार हो जाता था. उन्हीं दिनों हम युवा लड़कों ने मिलकर साहित्य पत्रिका निकालने का मन बनाया. तब 1983 -84 में 'आर्याव्रत' अख़बार के संपादक थें पंडित जयकांत मिश्रा जो एक नया अख़बार निकालना चाहते थें. और चूँकि हमलोगों का उनसे अच्छा परिचय था इसलिए अपनी पत्रिका छपवाने का प्रस्ताव लेकर उनके पास गए. लेकिन उन्होंने अपना प्रस्ताव रख दिया कि 'क्यों नहीं हमलोग मिलकर एक अख़बार निकालें और जो आप पत्रिका में लिखना चाहते हैं वो उसी अख़बार में लिखें.' हमलोगों को बात पसंद आ गयी तो फिर हम तीन-चार लोगों ने मिलकर वह अख़बार शुरू किया. अख़बार का नाम था 'मगध मेल' लेकिन उसे हमने सांध्य दैनिक के रूप में प्रकाशित किया. तब हमलोगों के सामने समस्या ये होती कि प्रकाशन होते -होते ही शाम हो जाती थी और लोगों तक पहुँचाने में कठिनाई होती थी. कोई हॉकर या एजेंसी तैयार नहीं होती थी. उनका प्रस्ताव था कि दोपहर तक आप अख़बार दे दीजिये ताकि दिल्ली से जो अख़बार आते हैं उनके साथ ही साथ वितरण हो जाये. लेकिन ऐसा व्यवहारिक नहीं था चूँकि समाचार मिलते- तैयार होते फिर हैण्ड कम्पोजिंग में समय लग जाता था. अख़बार तो खूब पसंद किये जा रहे थें लेकिन समय पर न दे पाने की वजह से सर्कुलेशन का दायरा आगे नहीं बढ़ पता था. तो फिर हम दोस्तों ने ही मिलकर हॉकर टीम बनाई और रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि जो जिधर जाता वहां अख़बार ले जाकर बेच आता था. एक तो सर्कुलेशन की बाधा फिर कुछ और भी समस्याएं आयीं जिस वजह से वह अख़बार बंद हो गया. फिर मैं दूसरे अख़बारों में आलेख लिखने लगा. इसी सब चक्कर में मेरी ग्रेजुएशन की पढ़ाई बाधित हुई लेकिन फिर देर से वह पूरी की मैंने. ग्रेजुएशन बाद मैंने विमान उड़ान प्रशिक्षण में दाखिला लिया लेकिन बाद में एक साथ सभी प्रशिक्षु विमानों के लम्बी अवधि तक खराब हो जाने की वजह से वह पढ़ाई भी मुझे बीच में छोड़नी पड़ी. बहुत बाद में जाकर मैंने अलटरनेटिव मेडिसिन की पढ़ाई की और फिर हमने एक्यूप्रेशर-एक्यूपंक्चर शुरू किया. हालाँकि फिर से साहित्य सम्मलेन एवं संस्थाओं के चक्कर में उसकी सेवा मैं नहीं दे सका. मेडिसिन की तरफ आने की वजह ये रही कि उन दिनों मैं जब अख़बारों में लिखता था तो साहित्य के अतरिक्त शिक्षा और स्वास्थ भी मेरे दो अलग विषय थें. उसी क्रम में कुछ चिकित्सा विज्ञान के विद्धानों से भी मेरी निकटता बढ़ गयी. 1988 -89 में तब कुछ दिनों के लिए मैंने 'आज' अख़बार भी ज्वाइन कर लिए था. जब नया नया 'आज' का जमशेदपुर एडिसन शुरू हुआ था तो पटना से मुझे वहां भेज दिया गया. तब कानपुर के शर्मा जी प्रभारी संपादक थें जिन्होंने मेरा जबर्दस्त उपयोग किया. मैं तो वहां उप संपादक था लेकिन मुझसे सम्पादक जैसा काम लिया जाता था. उनलोगों को एक ऐसा व्यक्ति मिल गया था जो रिपोर्टिंग से लेकर एडिटिंग तक हर पेज का जाननेवाला था. तो जहाँ जहाँ कमी पड़ती या किसी पेज का इंचार्ज छुट्टी पर रहता तो मुझे वहां लगा देते थें. मैं परेशान हो जाता था लेकिन शायद तब जो भी हुआ वह मेरे आगे बढ़ने में मददगार साबित हुआ. तब जमशेदपुर एडिसन में हर हफ्ते मेरे तीन कॉलम आते थें. एक का नाम था 'अनिल सुलभ की डायरी' जिसमे मेरे खुद के विचार रहते, दूसरा कॉलम था 'उनकी व्यथा' जिसमे लोगों की आम समस्याओं पर केंद्रित आलेख हुआ करता था और तीसरा कॉलम था 'व्यथा कथा' जिसमे किसी प्रताड़ित-शोषित व्यक्ति की स्टोरी होती थी. मैं सोचता हूँ कि तब मेरे उन तीनो कॉलमों के चुनिंदा आलेख संकलित करके किताब छप सकती थी. मैं उसके कतरन लेकर वापस पटना आया भी था लेकिन वो कहीं गायब हो गया. मुझे याद है स्कूल-कॉलेज के दिनों में लिखे गीत-गजलों के संग्रह तैयार थें लेकिन उस समय मैं सक्षम नहीं था और बहुत ध्यान भी नहीं दिया जिस वजह से तब वह छप नहीं पाया और दोनों ही किताबों की पाण्डुलिपि मेरे स्थानांतरण के क्रम में कहीं गुम हो गयी. वो क्षति मेरे लिए हादसे से कम नहीं था.

उसके बाद से व्यस्तता इतनी बढ़ने लगी जिस वजह से मेरा साहित्य पर सक्रीय काम आगे नहीं बढ़ पा रहा था, गति बहुत धीमी थी. जो 2000  में लिखी चीजें थीं वो 2012 -13  में दस-बारह साल बाद छप पायीं. सामाजिक सरोकारों में उलझे रहने और समयाभाव की वजह से मेरा पहला कहानी संग्रह 'प्रियंवदा' काफी देर से 2017 में आया.  फिर से पुराने दिनों की तरफ लौटता हूँ . उन दिनों जमशेदपुर के 'आज' एडिसन में काम करने के दरम्यान जब मुझे 'सन्डे ऑब्जर्वर' हिंदी संस्करण के लिए पटना से ऑफर आया तो मैं वहां से छोड़कर वापस चला आया. फिर जो सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए हमारे साथ के लोग थें उनकी और मेरी खुद की भी इच्छा हुई कि एक ऐसी संस्था शुरू की जाये जहाँ से ऐसे प्रशिक्षित व्यक्ति तैयार किये जाएँ जो सोसायटी को, समाज को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाएं. तो बहुत चिंतन-मनन के बाद हम लोगों ने तय किया कि विकलांगता के क्षेत्र में जो सेवा देनेवाले विशेषज्ञ होते हैं उन्हें प्रशिक्षण देने का पाठ्यक्रम शुरू किया जाये जो कहीं नहीं है. फिर हमने 1990 में इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ हेल्थ एजुकेशन एन्ड रिसर्च नामक पारामेडिकल एवं पुनर्वास विज्ञान संस्थान की स्थापना की. उस समय पूरे देश में नॉन गवर्मेंट में कोई ऐसा इंस्टीच्यूट नहीं था. इसको डेवलप करने में बहुत बाधाएं आयीं क्यूंकि ये बिल्कुल नए तरह की चीज थी लोगों के लिए, सोसायटी के लिए. बिहार सरकार की स्वीकृति मिलते ही हमने डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू किया. लेकिन ये सब ऐसे पाठ्यक्रम थें जिसके बारे में लोगों को जानकारी न के बराबर थी. आम आदमी को तो छोड़ें तब मेडिकल सर्विसेज से जुड़े हुए लोगों को भी उतनी जानकारी नहीं थी. तो हमने इस कोर्स के प्रति जागरूकता लाने के लिए विज्ञापन का सहारा लिया, फ्री हेल्थ कैम्प लगाने शुरू किये. और लगभग हर रविवार को हमने स्लम एरिया और झुग्गी झोपड़ियों में रहनेवाले लोगों के बीच अलग-अलग जगहों पर स्वास्थ शिविर लगाना शुरू किया. फिर धीरे धीरे लोग इस बात को समझते गए कि ये सब भविष्य बनाने वाले पाठ्यक्रम हैं और यह ऐसा क्षेत्र है जिसमे सबसे दुखी एवं पीड़ित रोगियों यानि विकलांगों की सेवा की जाएगी जिससे आत्मसंतुष्टि भी मिलेगी. यानि जो पोलियो ग्रसित है उसे उस लायक बना दें कि वह खुद से चल-फिर सके, अपना काम कर सके तो यह बहुत बड़ा काम हुआ. धीरे-धीरे प्रचार होने के बाद बच्चे इस क्षेत्र में आने लगें. और प्रशिक्षण एवं सेवा दोनों का कार्य हमने सामानांतर जारी रखा. मेरे इस क्षेत्र में आ जाने के कारण मेरी पत्रकारिता तो छूट गयी लेकिन मैं पत्रिकाओं में लिखता रहा. मेरे घरवाले चाहते थें कि मैं इंजीनियरिंग करूँ, सरकारी नौकरी करूँ लेकिन कभी मेरे ऊपर कोई दबाव नहीं रहा कि तुम यही करो ही. तब एक जगह सरकारी नौकरी मेरी लगभग तय हो गयी थी लेकिन मेरी तबियत नहीं हुई कि मैं उस तरफ जाऊँ इसलिए मना कर दिया. मेरे मन में चलता रहता था कि कुछ बड़ा काम करना है. नौकरी तो नहीं करनी है अगर संभव हुआ तो नौकरी देनी है. इसी मानसिकता के तहत मैंने टीम बनाई और मेडिकल क्षेत्र में आ गया और आज मैं इससे संतुष्ट हूँ. 

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