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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Tuesday 11 July 2017

एनॉटमी हॉल में मुर्दों को देखकर लगा कि मैं डॉक्टर की पढाई छोड़कर भाग जाऊँ : डॉ. शांति राय, स्त्री रोग विशेषज्ञ एवं पूर्व एच.ओ.डी.,पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (पी.एम.सी.एच.)

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म सिवान जिले के गोरियाटोली गांव में हुआ. पहले सिवान, गोपालगंज और छपरा तीनों मिलाकर सारण जिला हुआ करता था लेकिन बाद में वो तीन भागों में बंट गया. गाँव में ही मेरी शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई. मेरी माँ स्कूल में शिक्षिका थीं और मेरे पिता जी किसान थें. उस समय भी मेरे गांव में एजुकेशन बहुत अच्छा था. वहीँ से मैंने 1955 में मैट्रिक फर्स्ट डिवीजन से पास किया. एक्जाम देने बहुत दूर जाना पड़ता था. गोपालगंज में मेरा सेंटर पड़ा था. मैट्रिक के बाद आई.एस.सी. करनी थी लेकिन उसकी सुविधा गांव में नहीं थी. इसलिए मुझे मुजफ्फरपुर चाचा के पास जाना पड़ा जो वहां के एक कॉलेज में लेक्चरर थें. आई.एस.सी. का एक वाक्या याद आता है. मेरा एक साल रोते -रोते बीता था क्यूंकि पहली बार मैं घर छोड़कर आयी थी. क्लास में बैठने पर भी मुझे छोटे भाई-बहनों और माँ की याद आती रहती थी. इसी वजह से मेरा पढ़ाई में मन नहीं लग पा रहा था. लेकिन फिर दूसरे साल मैंने बहुत मेहनत से पढाई की. एक्जामिनेशन के समय लास्ट पेपर बायोलॉजी का था. एक्जाम खत्म होने के थोड़ी देर पहले मैंने देखा कि मेरी सीट के आगे से शिक्षक ने आकर कोई पेपर सा उठाया जो दो-तीन पन्नों का था. शायद वो चोरी के लिए कोई स्टूडेंट लाया होगा और वहां फेंक दिया था. चूँकि वो मेरी ही सीट के आगे पड़ा था इसलिए शायद उनको लगा कि मैंने ही चोरी के लिए यूज किया होगा. वे पूछे कि, 'आपका कागज है?' मैंने कहा-'नहीं, मेरा तो नहीं है.' और तब मैं यह सोचकर थोड़ी देर के लिए इतना डर गयी कि कहीं मुझपर चोरी का इल्जाम ना लग जाये और कहीं मेरा रिजल्ट ना खराब हो जाये. लेकिन खैर, ईश्वर का शुक्रिया कि ऐसा कुछ हुआ नहीं. लेकिन उस थोड़ी देर में मेरे दिल और दिमाग की जो हालत हुई वो मैं आजतक नहीं भूली हूँ. मैं आभारी रहूंगी उन शिक्षक कि जिन्होंने मेरी बात पर यकीं किया और जिसकी वजह से मैं आई.एस.सी. में फर्स्ट डिवीजन से पास हुई.

उसी साल पटना मेडिकल कॉलेज के लिए कम्पटीटिव टेस्ट था. तब मैंने ऐसा कुछ खास सोचा नहीं था कि मुझे डॉक्टर की पढाई ही पढ़नी है. तब 60 साल पहले दो ही पेशे ज्यादा चलन में थें, या तो डॉक्टर या इंजीनियर. सच बताऊँ तो मुझे मेडिकल से ज्यादा अच्छा लगता था कि मैं मैथेमैटिक्स पढूं, इंजीनियर बनूँ. लेकिन चूँकि मेरे लड़की होने की वजह से शायद तब मेरे दादा जी को लगा कि मेडिकल क्षेत्र मेरे लिए ज्यादा अच्छा रहेगा. दादा जी फॉर्म भी ले आये और उसपर मेरा दस्तखत करा लिए. मैंने एक्जाम की कोई विशेष तैयारी नहीं की. जब एक्जाम के एक दिन पहले मैं पटना पहुंची तो यह सोचकर डर लगने लगा कि मैं कुछ भी नहीं पढ़ी हूँ और बेकार में एक्जाम देने जा रही हूँ. फिर जल्दी-जल्दी में मैंने रात में एक घंटा और सुबह एक्जाम के एक घंटा पहले किताब पलटकर कुछ रिवाइज किया. मैंने सोचा भी नहीं था कि एक्जाम कम्प्लीट करुँगी. लेकिन रिजल्ट आया तो मेरे नंबर बहुत अच्छे आये थे और सारी लड़कियों में मैं फर्स्ट पोजीशन पर थी. फिर तो एक तरह से मेरे लिए मज़बूरी हो गयी कि अब मुझे डॉकटरी ही पढ़नी पड़ेगी. एडमिशन होने के बाद की एक यादगार घटना है जो मुझे वहां से धकेल रही थी. जिस दिन मेरा पटना मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हुआ वहाँ कहा गया कि पूरे बैच को पहले मेडिकल कॉलेज दिखाया जाए. उसी क्रम में शुरुआत हुई एनॉटमी हॉल से जहाँ ढ़ेर सारे टेबल पर मुर्दे पड़े थें. उन सड़ी हुई लाशों में केमिकल डाला हुआ था. उसमे से जो बदबू आ रही थी पहले-पहल उससे हमारा वास्ता हुआ और वह मेरे लिए बिल्कुल असहनीय था. जीवन में वैसी भी बदबू झेलनी पड़ेगी ये कभी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. फिर मुझे लगा कि ये डॉक्टरी मैं नहीं पढ़ सकती, असंभव है मेरे लिए. अगर इस महकते हुए वातावरण में , इन मुर्दों के साथ मुझे रहना है तो मुझसे नहीं होगा. तब मैंने एकदम से फैसला लिया कि एडमिशन हो गया तो क्या, अब मैं यहाँ से भाग जाऊँगी. लेकिन वापस घर लौटकर एकांत में जब ठंढे दिमाग से सोचने लगी कि ' बाबा का इतना पैसा खर्च हो गया है, उन पैसों को बर्बाद कैसे करें.. फिर मजबूर होकर मुझे डॉक्टर की पढ़ाई करनी पड़ी और तब एनॉटमी हॉल में मेरे दो घंटे कैसे बीतते थें मैं ही जानती हूँ. फिर धीरे धीरे पढ़ाई में मन लगाने लगी और बहुत अच्छे रिजल्ट के साथ मैंने अपनी डॉक्टर की पढ़ाई पूरी की.

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