वो संघर्षमय दिन
By: Rakesh Singh 'Sonu'
मैं पटना की ही रहनेवाली
हूँ, यहीं मेरा जन्म हुआ. स्टैंडर्ड 3 तक मैं मिश्राज संत जोसफ प्राइमरी स्कूल में
पढ़ी. फिर 4 स्टैंडर्ड से मैट्रिक तक मैंने माउंटकार्मल हाई स्कूल से पढ़ाई की. शुरुआत
से ही मेरी मम्मी के ख्यालात थें कि 'हमलोग घर में भले नमक रोटी खाकर गुजारा कर लें
लेकिन बच्चों को अच्छे एवं इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाएंगे ताकि आगे चलकर उनका भविष्य
बेहतर हो.' मैंने इकोनॉमिक्स में ग्रेजुएशन पटनावीमेंस कॉलेज से किया और उसके बाद मॉस
कम्युनिकेशन में पी.जी. किया इग्नू से. उसके बाद ख्याल आया कि एडुकेशन को थोड़ा और बढ़ाया
जाये तो मैंने पटना ट्रेनिंग कॉलेज से बी.एड. भी किया इसलिए कि कुछ ना कर सकी तो कम
से कम टीचिंग लाइन में तो जा सकती हूँ. उस दौर में हर कोई चाहता था कि बाहर जाकर पढाई
करें. तब शुरुआत में मेरी बड़ी बहन जे.एन.यू. दिल्ली से स्पेनिश कोर्स में ग्रेजुएशन
कर रही थी. तो मैट्रिक करने के बाद कहीं ना कहीं मेरे मन में था कि मैं भी दिल्ली जाकर
आगे की पढाई करूँ. लेकिन घर में थोड़ी आर्थिक प्रॉब्लम थी और तब दो-दो बेटियों को बाहर
उच्च शिक्षा के लिए भेजना संभव नहीं लग रहा था. दूसरी तरफ मेरी प्रॉब्लम ये थी कि मैं
होम सिकनेस की शिकार थी और मम्मी से बहुत अटैच थी. इसलिए मुझे ये भी लग रहा था कि मैं
पटना से बाहर चली जाउंगी तो कैसे रहूंगी. फिर मैंने सभी हालातों को देखते हुए तय किया
कि मुझे पटना में ही रहना है. मेरे पापा एल.आई.सी. में थें और एक समय में पापा का बहुत
अच्छा इनकम हुआ करता था. तब हमलोग बहुत छोटे थें और हमलोगों की लक्जरी लाइफ हुआ करती
थी. लेकिन लाइफ में अप्स एन्ड डाउन होते ही हैं तो हमलोगों की लाइफ में भी वो वक़्त
आया जब हमलोग 13 -14 साल के टीन एजर हुए, जब हमलोगों की बुद्धि खुली कि अब ऐसा होना
चाहिए लेकिन तब पापा का एल.आई.सी. में बिजनेस कम होने की वजह से उनका डाउन फॉल शुरू
हो गया और हमलोग पहलेवाली लाइफ मिस करने लगें. उस हालात में भी मम्मी ने ये सोच लिया
था कि कुछ भी हो कहीं से इन लोगों की फ़ीस जुगाड़ करके कम से कम मैट्रिक तक अच्छे से
पढ़ाऊंगी. वैसे तो मम्मी एक हाउस वाईफ हैं लेकिन उनकी हिम्मत और परिवार के प्रति समर्पण
देखकर हम भाई-बहनों में भी परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत आ जाती थी. मैं दो बहन एक
भाई में सबसे छोटी हूँ. तब मैट्रिक के बाद हम तीनों भाई-बहनों ने अपनी आगे की पढाई
ट्यूशन पढ़ाकर पूरी की. हमारे ट्यूशन पढ़ाने से एक तो फैमली में थोड़ा सपोर्ट मिला और
दूसरा हम अपने शौक भी पूरे कर लेते. क्यूंकि पापा पर अपने खर्चों का बोझ नहीं डालना
चाहते थें.
स्कूल की फ्रेंडस के साथ सोमा दाएं से दूसरी येल्लो टीशर्ट में |
मैं जब क्लास 10 में पढ़ ही रही थी तब मेरी लाइफ में बहुत बड़ा टर्निंग पॉइंट आया जहाँ से मैं एक आर्टिस्ट
के तौर पर अपनी पहचान बनाने की राह पर चल पड़ी. स्कूल के दिनों से ही डांसिंग का बहुत
शौक था. बाहर सीखना चाहती थी लेकिन घर की आर्थिक स्थिति इसकी इजाजत नहीं दे रही थी.
इसी बीच मुझे पता चला कि पटना से बिहार सरकार की तरफ से मॉरीशस के लिए एक टीम जानेवाली
है जिसमे एक डांसर की तलाश है. प्रोफ़ेसर डॉ. एन.एन.पाण्डे जी एक टीम तैयार कर रहे थें
डांस ड्रामा के लिए. किसी से उनको पता चला कि मैं डांसर हूँ तो उन्होंने मुझे बुलवाया.
मैं उनसे मिली और उनके साथ उनकी टीम से जुड़ गयी. उस डांस ड्रामा टीम को मॉरीशस जाने
के पहले बहुत सी झंझावातों से गुजरना पड़ा. कई जगह सेलेक्शन के लिए जाना पड़ा. पहले हमारी
टीम बहुत बड़ी थी फिर आर्टिस्ट कम करने का आदेश हुआ तो हम डरे रहते कि न जाने कब हम
छंट जाएँ. लेकिन टीम में दो ही मुख्य डांसर थें जिसमे से एक मैं थी. फिर किसी तरह सेलेक्ट
होकर पटना से हम दिल्ली पहुंचे. दिल्ली में भी हमें ट्रायल देना पड़ा. वो 1987 की बात
है तब मैं सागर महोत्सव में बिहार को रिप्रजेंट करने के लिए अपनी टीम के साथ मॉरीशस
गयी. तब मैं आज के बच्चों की तरह ज्यादा मैच्योर नहीं थी, बहुत शर्मीली स्वभाव की भी
थी. लेकिन मैंने पहले ही ठान लिया था कि किसी तरह मुझे इस फेस्टिवल में जाना है, अपने बिहार और मम्मी-पापा
का नाम रौशन करना है. जब मैं मॉरीशस के लिए चली गयी तो पटना में मेरी फोटो अख़बार में
छपी. उस समय पापा इतने उत्साहित हुए कि वे सारे रिश्तेदारों के बीच जाकर पेपर बाँट
आये ये कहने के साथ कि 'पूरे खानदान में मेरी यही बेटी है जो प्लेन से विदेश गयी है.' क्यूंकि तब प्लेन से कहीं जाना बहुत बड़ी बात हुआ
करती थी. मॉरीशस से लौटकर आने के बाद ही मेरे ऊपर आर्टिस्ट का टैग लग चुका था. वहां
से आने के बाद मैं बहुत से लोगों से मिली और कई सारे प्रोग्राम करने लगी. मैंने सरकार
के भी बहुत सारे प्रोग्राम किये.
इसी दौरान मेरे गुरु स्व. गौतम घोष मुझे 'प्रांगण'
संस्था में एक डांस ड्रामा के लिए ले गए. उसी समय 'प्रांगण' में प्ले 'तोता मैना की
कहानी' की तैयारी चल रही थी जिसकी नायिका एक हफ्ते पहले नाटक छोड़कर दिल्ली कोई प्रोग्राम करने चली गयी थी
उस वजह से सभी चिंतित थे कि अब कैसे होगा? फिर सबकी नज़र मुझपर पड़ी तो मुझे बोलने लगें
कि ' ये डांसर है और नाटक में एक नर्तकी का ही किरदार है तो ये कर सकती है.' चूँकि मैं तो डांस ड्रामा के लिए वहां गयी थी इसलिए
मैंने कहा - 'इसके पहले मैंने कभी प्ले नहीं किया है और इतना लम्बा-लम्बा डायलॉग बोलना
मुझसे ये सब नहीं होगा. लेकिन वे बहुत रिक्वेस्ट करने लगें तब मुझे वो प्ले करना पड़ा.
वो मेरी लाइफ का पहला प्ले स्टेज शो था. मेरे गुरु जी नाटक में तोता के किरदार में
थें तो मैं मैना के किरदार में थी. वो प्ले इतना ज्यादा हिट हुआ कि जब अगले दिन अख़बार
में बड़ी सी फोटो आयी तो मुझे लगा कि अब मैं फेमस हो गयी हूँ. तब लोगों की बहुत सराहना
मिली. फिर एक-दो हफ्ते बाद ही मेरे घर में दो-तीन डायरेक्टर आ धमकें मुझे अपनी भोजपुरी
फिल्म में लेने के लिए. लेकिन मैंने मना कर दिया क्यूंकि मुझे कभी फिल्मों का शौक नहीं
रहा खासकर भोजपुरी में तो बिल्कुल नहीं. मुझे
बस थियेटर और डांस करने में ही ज्यादा आनंद आता था. प्ले तो मैंने तब एक्सीडेंटली कर
लिया था लेकिन तब थियेटर के कीड़े ने मुझे ऐसा काटा कि थियेटर मेरा पैशन बन गया. फिर
मैं 'प्रांगण' ग्रुप के साथ जुड़ गयी और लगातार 1988 से अभी तक थियेटर कर रही हूँ. आदमी जब चलना शुरू
करता है तो रास्ते धीरे-धीरे मिलने लगते हैं. इसी बीच थियेटर करने के दरम्यान मैंने
आकशवाणी में ड्रामा आर्टिस्ट के रूप में ऑडिशन दिया और 1992 से मैं आकाशवाणी में बतौर ड्रामा आर्टिस्ट काम कर रही हूँ. उस वक़्त
मेरा ग्रेजुएशन भी कम्प्लीट नहीं हुआ था. 1994 में ग्रेजुएशन करने के बाद 1995 से मैं आकाशवाणी में बतौर एनाउंसर जुड़ गयी. 21 जून,1996 को भारतीय नृत्य कला मंदिर में हुए कार्यक्रम में पहली बार मैंने स्टेज एंकर
का काम किया. वो विश्व संगीत दिवस का कर्यक्रम था और कल्चरर डिपार्टमेंट के लोग मुझे
जानते थें. तो हुआ यूँ कि सर ने कहा कि 'तुम तो रेडिओ में एनाउंसमेंट करती हो, तो
क्यों नहीं ये प्रग्राम तुम होस्ट करो.' मैंने
घबराकर कहा- 'इतने लोगों के बीच मैं स्टेज पर एंकरिंग करुँगी ?' वे बोले- ' हाँ, जब
थियेटर करती हो, एनाउंसमेंट करती हो तो इस प्रोग्राम में भी एंकरिंग कर सकती हो
.' फिर मैं बतौर एंकर स्टेज पर आयी और फिर
मेरा वहां से स्टेज प्रोग्राम करने का भी सिलसिला शुरू हो गया. उसी बीच मैंने दूरदर्शन
में भी इंटरव्यू दिया और सेलेक्ट होकर वहां से भी एंकरिंग करने लगी. चूँकि मैं एक शर्मीले
स्वभाव की लड़की थी लेकिन मेरी जो भी झिझक थी वो धीरे-धीरे थियेटर, डांस और एंकरिंग
करते-करते खत्म हो गई थी इसलिए कैमरा फेस करने में मुझे प्रॉब्लम नहीं हुआ. 1997 में
मुझे यूथ फेस्टिवल में हिस्सा लेने के लिए क्यूबा जाने का भी मौका मिला. तब से मैं
डांस, थियेटर, टी.वी. एंकरिंग एवं रेडिओ एनाउंसर इन चारो को मैं मिलाकर चल रही हूँ.
मुझे आकाशवाणी ने बहुत कुछ सिखाया है. एक बंगाली लड़की के लिए अच्छी हिंदी उच्चारण करना
टफ समझा जाता है लेकिन पटना की होने की वजह से मेरी हिंदी अच्छी थी फिर भी सही उच्चारण,
नुक्ता आदि का ज्ञान मुझे आकाशवाणी में सीखने को मिला. थियेटर करने के दौरान मुझे लगता
था कि यदि मैं किसी और जगह शादी करुँगी तो हो सकता है मुझे ये सब चीजें नहीं करने दिया
जायेगा. तो मैंने अपने थियेटर के करीबी मित्र अभय सिन्हा जी से शादी करने का फैसला
किया. तब मेरे घरवाले भी उनको जानते थें. एक बार रसोई में मम्मी बुरी तरह से जल गयी
थीं और उस स्थिति में अभय जी ने हर तरह से मेरा और मेरे परिवार का सपोर्ट किया था.
हांलांकि तब वो भी मुझे पसंद करते थें लेकिन मुझे लगता था पता नहीं घरवाले दूसरी कास्ट
में शादी के लिए तैयार होंगे कि नहीं. लेकिन जब मैंने यह सोचकर निश्चय किया कि आगे
भविष्य में मुझे कुछ करना है तो फिर अपने फिल्ड के ही आदमी से शादी करना उचित रहेगा.
जब हम दोनों तैयार हुए तो घरवाले तैयार नहीं हुए. फिर मनाने पर सब मान गए लेकिन मेरी
मम्मी थोड़ी नाराज रहीं और गुस्से की वजह से मेरी शादी में भी शामिल नहीं हुईं. शादी
के एक महीने बाद सबकुछ सेटल हो गया, मम्मी भी मान गयी. मम्मी ने तब गहराई से सोचा कि
मेरी बेटी अभय जी के साथ रहेगी तो ही सही मायने में आगे बढ़ेगी. और हो सकता है हमलोग
अपने पसंद से उसकी कहीं शादी करा दें लेकिन शादी के बाद वो खुश ना रहे या जो करना चाहती
है वो आगे ना कर पाए. एक वो समय था और एक आज का समय है जब मम्मी गर्व से कहती है कि
बहुत अच्छा दामाद मिला है जो फैमली के साथ साथ मेरी बेटी का भी सपोर्ट करता है.
2014 में मुझे एक और
झटका लगा जब मेरे पति की अचानक तबियत बहुत खराब हो गयी. पता चला कि उनके हार्ट में
90 % ब्लॉकेज है और पटना के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. तब हमलोग किसी तरह सोर्स
लगा कर उन्हें वेदांता में ले गए. वहां के डॉकटर भी बोले- 'अभी तक तुम कैसे बचे हो?,
तुरंत ऑपरेशन करना होगा.' फिर उनका पूरा बाईपास सर्जरी किया गया तब जाकर उनकी हालत
में सुधार हुआ. उसके बाद गाड़ी सही तरीके से चलने लगी.
2015 -16 में फोक डांस के लिए मुझे मुख्यमंत्री के हाथों
बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उस वक़्त मैं खुश तो थी ही मगर रह रहकर एक
पुरानी बात याद आ रही थी जब शुरू शुरू में थियेटर करती थी तो मुझे लेट नाइट लौटना पड़ता
था. अड़ोस-पड़ोस के लोग ताने मरते कि ' बंगाली दादा की बेटी है, देखो ना इतनी रात में
आती है. इनको शर्म भी नहीं आती.' क्यूंकि तब लड़कियों के लिए थियेटर करना अच्छा नहीं
समझा जाता था. लेकिन मेरी मम्मी का कहना था कि ' अगर मेरी बेटी ठीक है और हम ठीक हैं
तो फिर मुझे दुनिया की परवाह नहीं है.' तो मैं मानती हूँ कि पग-पग पर मेरी मम्मी का
बहुत सपोर्ट मिला है मुझे. और तब जब मेरी तस्वीर न्यूज पेपर में छपने लगी, मेरा अच्छा
नाम होने लगा तो वही ताना मारनेवाले लोग कहते-फिरते कि ' हम सोमा को जानते हैं, वो
तो मेरी बेटी की तरह है, वो तो मेरे बगल में रहती है. अरे सोमा तो मेरी दोस्त है, मेरे
साथ पढ़ी है -खेली है.' साल 2017 में मुझे फिर से झटका लगा. जनवरी में मेरा ऐसा मेजर
एक्सीडेंट हुआ कि बच जाने के बाद मैं इसे अपना दूसरा जन्म मानती हूँ. 5 महीने जो मैं
लगातार बेड रेस्ट में रही तो हमेशा यही सोचती रहती कि मैं उठकर खड़ी हो पाऊँगी कि नहीं,
चल पाऊँगी कि नहीं. चूँकि मुझे हमेशा लोगों के बीच रहने की आदत पड़ चुकी थी और तब रेडिओ,
दूरदर्शन, एनाउंसमेंट सब छूट रहा था. फिर जब अपनी दो जुड़वां बच्चियों का ख्याल आया
तो अंदर से हिम्मत पैदा हुई कि नहीं जैसे भी हो इनके लिए मुझे फिर से खड़े होना है.
डॉक्टर के मना करने पर भी मैंने तय किया की दो घंटे के लिए ही जाउंगी नहीं तो मैं डिप्रेशन
में चली जाउंगी. फिर मैंने जून, 2017 से स्टीक के सहारे चलकर ऑफिस जाना शुरू कर दिया.
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