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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Monday, 29 May 2017

हिम्मत और साहस की अदभुत मिसाल हैं ये बहनें : शबा परवीन, शाबिया परवीन

सशक्त नारी
By: Rakesh Singh 'Sonu'



पटना,मसौढ़ी की 24 वर्षीया दिव्यांग शबा परवीन जहानाबाद के राजकीय महर्षि पतंजलि मध्य विधालय, महलचक में शिक्षिका हैं. उनका छोटा सा परिवार मसौढ़ी के रहमतगंज में किराये की झोंपड़ी में रहता है. पिता रिजवान नज़र वहीँ जामा मस्जिद के पास चाय का स्टॉल लगाते हैं. शबा छोटी उम्र में ही पोलियो की शिकार हो गयीं थीं. उनके कमर के नीचे का भाग निष्क्रिय हो गया है जिससे वे चल-फिर नहीं सकतीं.लेकिन परिवार की गरीबी व दिव्यांगता शबा के हौसले को नहीं तोड़ पायी.

मसौढ़ी के टी.एल.एस. कॉलेज से स्नातक करने के बाद वह लगातार प्रतियोगिता परिक्षाओं में शामिल होती रहीं. इसी दरम्यान उन्होंने एस.टी.ईटी. क्वालिफाइड किया और बतौर उर्दू शिक्षिका ज्वाइन किया. शबा के रोजाना की रूटीन कुछ ऐसी है कि वह सुबह घर से छोटी बहन शाबिया की पीठ पर लटककर स्कूल पहुँचती हैं. फिर जहानाबाद स्टेशन से बहन की पीठ पर लटककर तारेगना स्टेशन जाती हैं और ट्रेन से जहानाबाद पहुँचती हैं. फिर जहानाबाद स्टेशन से बहन की पीठ पर लटककर स्कूल आती हैं. उनके स्कूल में शौचालय तक की व्यवस्था नहीं है. कई महीनो तक वेतन तक नहीं मिला फिर भी तमाम मुश्किलों को झेलते हुए शबा एक साल से शिक्षण कार्य में सलंग्न हैं.


वहीँ डी.एन.कॉलेज, मसौढ़ी की इंटर छात्रा 17 वर्षीया शाबिया परवीन दिव्यांग शबा की छोटी बहन हैं. एक तरफ परिवार को सहारा देने और दूसरी तरफ अपनी बड़ी बहन के सपने को साकार करने की दिशा में शाबिया परवीन न सिर्फ अपना बेशकीमती वक़्त बल्कि शारीरिक श्रम भी दे रही हैं. जब इनकी बड़ी बहन शबा की बतौर शिक्षिका नौकरी लगी तो परेशानी ये हुई कि रोज घर से 20 कि.मी. दूर स्कूल कैसे आ-जा पायेगी. जब एक ऑटो चालक से बात की गयी तो उसने प्रतिमाह 8000  रूपए भाड़ा बताया. घर की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी और ऐसे में शबा की नौकरी एक उम्मीद की किरण थी. फिर क्या था छोटी बहन शाबिया आगे आई और रोज शबा को पहुँचाने-लाने का जिम्मा स्वेक्षा से ले लिया. वह रोजाना शबा को अपनी पीठ पर लटकाकर मसौढ़ी से जहानाबाद स्कूल तक पहुँचाने लगी. इस दरम्यान शबा को पीठ पर लिए उन्हें 2 -3 कि .मी. पैदल चलना पड़ता है. ये साहस भरा काम वे लगभग एक साल से अनवरत कर रही हैं फिर भी उन्हें कोई तकलीफ नहीं. पूछने पर कहती हैं कि "मैं मदद नहीं करुँगी तो फिर कौन करेगा? जब तक मैं हूँ दीदी को कोई दिक्कत नहीं आने दूंगी."
11  से 4  बजे तक शबा का शिक्षण कार्य चलता है तब उसी दौरान वक़्त का सदुपयोग करते हुए शाबिया स्कूल के बरामदे में बैठकर अपनी भी पढ़ाई कर लेती हैं. इन दोनों बहनो के इस सराहनीय कार्य को देखते हुए अक्टूबर,2016 में चर्चित गायक, नेता व अभिनेता मनोज तिवारी जी ने सिनेमा इंटरटेनमेंट द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अपने हाथों सशक्त नारी सम्मान से नवाजा था.



Friday, 19 May 2017

तब एक छात्रा का चप्पल प्रकरण चर्चा का विषय बन गया था : पदमश्री डॉ. उषा किरण खान,साहित्यकार

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'



हम छात्रावास में हों या कॉलेज-विश्वविधालय में उस समय की मस्ती ही कुछ और होती है. मैं पटना विश्वविधालय के प्राचीन इतिहास विभाग में थी. पूरे विभाग का स्टडी टूर राजगीर गया था. राजगीर उन दिनों आज की तरह चमक दमक वाला नहीं था.रत्नागिरी पर्वत पर जाने के लिए रोप वे भी नहीं था. प्राचीन कालीन सीढियाँ बानी थीं, छठी शताब्दी बी.सी. के स्थल, जरासंध का पौराणिक अखाड़ा इत्यादि. हम छात्र पत्थरों पर चढ़कर पर्वत पर पहुँचते थे. पटना कॉलेज के बी.ए. की मैं, राधिका तथा दो लड़के, बी.एन.कॉलेज के दो छात्र तथा विश्विधालय के 5 -6 इंटर के करीब तीस छात्र -छात्राएं थे. मैं उस पहाड़ी पर रोती-धोती पहले भी चढ़ चुकी थी अपने पति रामचंद्र खान जी के साथ इसलिए मैं नीचे ही रुक गयी. मेरे साथ कई लोग रुक गए. उसी समय बी. एच .यू. के प्राचीन इतिहास विभाग के छात्र-छात्रा भी आये थे भ्रमण के लिए. उसमे से एक छात्र इंदुमती की चप्पल टूट गयी. उसने नीचे ही चप्पल छोड़ दिया. फिर सभी जब लौटे तो इंदुमती की चप्पल नहीं मिली. हम लौटकर वेणुवन होटल जो तब एक सामान्य सा घर हुआ करता था में ठहरे. खाया-पिया और लौट आये. बस में चप्पल प्रकरण ही चलता रहा. हम आनंद लेते रहें कि बेचारी बी.एच.यू. वाली फिर राजगीर आएगी चप्पल ढूंढने. कुछ दिन बीते तो  इंदुमती की शादी पटना विश्वविधालय के विनोद से हो गयी. पहले कोई बड़ा रिशेप्सन का रिवाज नहीं था पर बहू-भात में हम प्राचीन इतिहास के जूनियर-सीनियर छात्र-छात्राएं आमंत्रित किये गए थे. भोजन के बाद पढ़ी लिखी वधू के निकट विनोद के सहपाठी अशोक पैकिंग पेपर में लपेटी सामग्री लेकर गए और कहा - " भाभी जी यह आपका वही चप्पल है जो राजगीर में रत्नागिरी की तलहटी में छूट गया था. मुझे मालूम था कि आप एक दिन यहाँ आएँगी, सो संभालकर रखा था."  सभी हक्के बक्के यह दृश्य देखते रह गए. कालांतर में इन्दु, अशोक और अनेक साथी म्यूजियम और पुरातत्वविभाग में नौकरी करने लगें.हम अक्सर जब मिलते-बैठते तो इंदुमती का वह चप्पल प्रकरण यादकर खूब हँसते.


तब नक्सल इलाके में छत पर सोने में घबराहट सी होती थी: ज्योति शर्मा, सीनियर सब एडिटर, राष्ट्रीय सहारा


ससुराल के वो शुरूआती दिन 
By: Rakesh Singh 'Sonu'





जब मेरी शादी हुई मैं दैनिक आज, पटना में रिपोर्टर थी और मेरे पति दैनिक जागरण में थें. ससुर जी तब बोकारो में सेटल थें लेकिन शादी के अगले दिन कुछ विध व्यवहार करने के लिए ससुराल जाना था जो औरंगाबाद के एक गांव में था जो तब नक्सल प्रभावित इलाका हुआ करता था. मैंने सुना कि वहां मुझे लम्बा सा घूँघट तानकर रहना पड़ेगा लेकिन सिर्फ एक दो ही दिन रुकना है. मगर वहां जाने पर मुझे गांव घर के कड़े नियम कायदों को झेलते हुए 10 दिनों तक रुकना पड़ गया. चौठारी के दिन ससुराल में घर की महिलाएं आकर मुझे सिंदूर लगा रही थीं. न मैं ठीक से उन्हें देख पा रही थी और न वो मुझे क्यूंकि रीति रिवाजों के तहत तब मैंने अपना चेहरे को लम्बे घूँघट से ढक रखा था. उसी दरम्यान मेरे पास एक बूढी महिला आयीं और मुझे सिंदूर लगाने के लिए उन्होंने घूँघट के अंदर अपना हाथ डाला और ठीक से न देख पाने की वजह से सिंदूर मेरे मुंह यानि होठों पर लगाते हुए मांग तक ले गयीं... मुझे परेशानी हुई तो किसी की आवाज सुनाई दी कि " अरे अम्मा, तनी देख के सिंदूर लगावा बहुरिया के." लम्बा घूँघट डालने की वजह से मैं भी उन बूढी महिला को ठीक से देख ना पायी. मुझे मायके में सिखाया गया था कि ससुराल में रस्मो रिवाजों के बीच हंसना नहीं है. लेकिन सच बताऊँ, ये सब देखकर मुझे अंदर ही अंदर बहुत हंसी आ रही थी.
   तब गांव में बिजली की समस्या थी और रात को सभी छ्त पर ही सोते थे. मैं जितने दिन वहाँ रही मुझे भी घर की महिलाओं के साथ छत पर सोना पड़ा. नक्सल प्रभावित इलाका होने की वजह से गांव में तब रणवीर सेना और माले का बहुत खौफ था.उसी वजह से मुझे छत पर सोने में बहुत घबराहट सी महसूस होती थी, और यह मन का डर उजाला होने के बाद ही खत्म हो पाता था.


Monday, 15 May 2017

राष्ट्रीय बाल श्री सम्मान से सम्मानित होगी नन्ही लेखिका-कवियत्री : प्रियंतरा


तारे ज़मीं पर
By: Rakesh Singh 'Sonu'


छोटी सी उम्र में वह लघुकथा व कविता लिखती है, बड़े बड़े नामचीन कवियों - साहित्यकारों के समक्ष खुद से लिखे कहानी-कविता का पाठ करती है और दिग्गजों की सराहना पाती है. तभी तो राष्ट्रीय स्तर पर बाल श्री सम्मान के लिए चयनित हुई है प्रियंतरा. मूलतः गोपालगंज के शिक्षक माता-पिता की सबसे छोटी संतान प्रियंतरा पटना के विद्या निकेतन गर्ल्स हाई स्कुल में 7 वीं की छात्रा है. 5 वीं कक्षा से ही कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं. लेकिन ज्यादा मन कविता लिखने में आता जो महज 5-6  साल की उम्र में ही शुरू कर दिया था. अब तक राष्ट्रीय स्तर की बाल पत्रिकाओं नंदन,चकमक,बाल प्रभात, बाल भारती, अहा ज़िन्दगी और बिहार के समाचारपत्रों हिंदुस्तान, दैनिक जागरण,दैनिक भास्कर, प्रभात खबर इत्यादि में प्रियंतरा की कविता- कहानियों का प्रकाशन हो चुका है. बाल भवन 'किलकारी' संस्था की मासिक पत्रिका 'बाल किलकारी' में प्रियंतरा पिछले दो सालों से बाल संपादक भी है.

 'आयाम' वर्षगांठ के अंतर्गत प्रियंतरा बड़े कवि एवं साहित्यकारों अरुण कमल, पद्मश्री उषा किरण खान,अलोक धन्वा के समक्ष काव्य पाठ कर चुकी है. 2013 के पटना लिटरेचर फेस्टिवल में मशहूर गीतकार गुलज़ार जी के समक्ष काव्यपाठ कर चुकी है. दूरदर्शन बिहार पर 2016  में किलोल बाल कवि गोष्ठी में भी कविता पाठ कर चुकी है.  प्रियंतरा एंकरिंग भी अच्छा कर लेती है और इसके लिए भी उसे कई मौके मिले हैं. 'किलकारी' के तहत कई राज्य स्तरीय कार्यक्रमों में मंच संचालन कर चुकी है और पटना रेडियो पर नवम्बर 2015  से जनवरी 2016 तक बाल अधिकार प्रोग्राम को संचालित कर चुकी है. इसके अलावे भी और शौक हैं प्रियंतरा के. 2016 में कुछ शार्ट फिल्मों में वह न सिर्फ स्क्रिप्ट राइटिंग बल्कि एक्टिंग और डायरेक्शन भी कर चुकी है जिनमे 'आई कैन डु द च्वाइस','उम्मीदों का आसमां' और 'बस्तागाड़ी ' प्रमुख हैं.
   
जब इतनी छोटी उम्र में प्रियंतरा के काम बड़े हैं तो जाहिर हैं उसके नाम पुरस्कारों की लम्बी सूचि होगी. पर्यावरण एवं वन विभाग बिहार सरकार की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के हाथों निबंध लेखन में तृतीय पुरस्कार, महिला चरखा समिति, बिहार की तरफ से डॉ.राजेंद्र प्रसाद जी की पौत्री डॉ. तारा सिन्हा के हाथों स्पीच कम्टीशन में प्रथम पुरस्कार, गाँधी संग्रहालय पटना,बिहार में हुए स्पीच कम्पटीशन में ही कला संस्कृति मंत्री के हाथों द्युतीय पुरस्कार, क्रिएटिव स्टोरी के लिए 2015  में डॉ. गोपाल शर्मा,सीनियर साइंटिस्ट जूलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के हाथों बिहार बाल श्री सामान, लघुकथा के लिए अंकुर सम्मान मिल चुका है. तीन साल के अंतराल पर होनेवाले राष्ट्रीय बाल श्री सम्मान के लिए बिहार के 6 बच्चों का चयन हुआ है जिसमे से एक प्रियंतरा भी है जिसे 14 नवम्बर, 2017 को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति द्वारा कहानी के लिए सम्मान मिलेगा. अभी तो सिर्फ शुरुआत है, आगे नन्ही कलम का जादू देखना अभी और बाकी है.


Sunday, 14 May 2017

प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा जयंती पखवारा समापन समारोह सह सांस्कृतिक संध्या

सिटी हलचल
 Reporting : Bolo Zindagi


पटना, 13 मई की शाम भाजपा प्रदेश कार्यालय परिसर में मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा की जयंती पखवारा के समापन पर आर्ट्स कॉलेज के विद्यार्थियों की चित्रकला, छापाकला एवं मूर्तिकला की प्रदर्शनी लगाने के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन हुआ. मौके पर आये मुख्य अतिथि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद जी ने कहा कि " कला और कलाकार हमारी भारतीय संस्कृति के प्राण हैं. इसके बगैर हम भारत की गौरवमई इतिहास को पूरा नहीं कर सकते और राजा रवि वर्मा इसी गौरवमई परम्परा के एक नामचीन कलाकार थे. जिन्होंने अपने तैल्य चित्रकला से भारत का परचम पूरे विश्व में लहराया." वहीँ कला संस्कृति मंच के प्रदेश संयोजक वरुण कुमार सिंह ने कहा कि हम कला और साहित्य के इन सभी रत्नो की जयंती और पुण्यतिथि इसलिए भी मनाते हैं कि हमें समय-समय पर उनसे प्रेरणा मिलती रहे और हम अपने गौरवशाली इतिहास को और ऊंचाइयों तक ले जाने में कामयाब हों." इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री श्री रामकृपाल यादव, नेता प्रतिपक्ष डॉ. प्रेम कुमार, श्री नंदकिशोर यादव, पूर्व अध्यक्ष आनंद मिश्र सहित बिहार प्रदेश के सभी नेता मौजूद रहे.
   
   आयोजन परिसर में ही युवा कवी-लेखक राकेश सिंह 'सोनू' की प्रेमिका की याद में लिखी रोमांटिक पुस्तक 'तुम्हे सोचे बिना नींद आये तो कैसे?' का स्टाल भी लगा था जहाँ जाकर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय जी ने पुस्तक का अवलोकन किया और राकेश 'सोनू' ने उन्हें अपनी पुस्तक भेंट स्वरुप दी.
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को अपनी पुस्तक भेंट करते हुए राकेश सिंह 'सोनू'
इस कार्यक्रम में मुख्य रूप से चित्रकला में सिन्नी कुमारी, सुनील कुमार, गौरव त्रिपाठी, अभिषेक कुमार, मोनिका शर्मा, चन्दन कुमार, विशेन्द्र नारायण, साक्षी कुमारी की प्रदर्शनी लगी थी. छापा कला में दिव्या सिंह, अमित कुमार, शुभम कृष्णा, फिरदौस दस, रौशन ध्रुव  और मूर्तिकला में मुकेश कुमार, रमाकांत जी, राजीव कुमार, विक्की कुमार, विपिन कुमार, वीर सेन, संजीव कुमार, नीतेश कुमार, हिमांशु कुमार व संजीव कुमार की प्रदर्शनी लगी हुई थी. वहीँ सांस्कृतिक कार्यक्रम की शाम को रंगीन बनाने के लिए सत्येंद्र कुमार संगीत, केशव त्यौहार( लिटिल चैम्स फेम) पापिया गांगुली, कुणाल मिश्रा, रानी राजपूत, कोमल कश्यप, तनु गांगुली, अक्षत प्रियेश एवं स्वेता सागर ने गीत-संगीत की प्रस्तुति से दर्शकों को तालियां बजाने पर मजबूर कर दिया. पूरे कार्यक्रम का मंच संचालन एंकर माही ने बहुत ही खूबसूरती से पेश किया. इस आयोजन को सफल बनाने में आनंद पाठक, मनीष झा एवं करण सिंह उर्फ पप्पू की विशेष भूमिका रही.


Wednesday, 10 May 2017

शू लॉन्ड्री की शुरुआत करने के पहले ही घरवाले खिलाफ हो गए थें : शाजिया कैसर (बिजनेस वूमेन)

सशक्त नारी
By: Rakesh singh 'Sonu'

 


भागलपुर की शाजिया कैसर बिहार के पहले शू लॉन्ड्री 'रिवाइवल शू लॉन्ड्री' की मालकिन हैं. पेशे से फिजियोथेरेपिस्ट शाजिया इससे पहले डब्लू.एच.ओ. एवं यूनिसेफ में भी काम कर चुकी हैं. तब अपनी डॉक्टरी प्रैक्टिस के दौरान उन्होंने एक पत्रिका में 'शू लॉन्ड्री' पर एक आर्टिकल पढ़ा और तभी से वो इतना प्रभावित हुईं कि बिहार में इस बिजनेस को स्टार्ट करने का मन बनाया. जॉब के साथ साथ रिसर्च वर्क जारी रहा और उसी सिलसिले में वो भूटान और ऑल ओवर इंडिया के पूणा, मुंबई, चेन्नई इत्यादि ब्रांच में जाकर ट्रेनिंग ले आयीं. शू लॉन्ड्री की शुरुआत करने से पहले ही घर एवं ससुराल के लोग खिलाफ हो गएँ. ताने मारने लगें कि ये मोची वाला काम छोड़कर कोई और काम शुरू करो. लेकिन शाजिया को इस नए बिजनेस और अपने आप पर पूरा विश्वास था.फिर पति का साथ मिलते ही दिसंबर 2012  में पटना के अल्पना मार्केट(न्यू पाटलिपुत्रा कॉलोनी) में 3 स्टाफ के साथ बिहार की पहली शू लॉन्ड्री की नींव रख डाली. जहाँ क्लीनींग, पॉलिशिंग,शोल रिप्लेसिंग, पेस्टिंग, नेट चेंजिंग का काम होता है. शाजिया की शू लॉन्ड्री में देसी से लेकर विदेशी और आम से लेकर खास तबकों के जूते भी आते हैं जिनमे मुख्यमंत्री के जूते भी शामिल हैं.



शाजिया बिहार में अपनी कम्पनी के ब्रांच खोलने की तयारी में हैं. वे अन्य राज्यों उड़ीसा, झाड़खंड, छत्तीसगढ़, रोहतक आदि में शू लॉन्ड्री खोलनेवालों को ट्रेनिंग भी दे चुकी हैं. 2013 में वूमेंस डे पर इनोवेशन फिल्ड में साल की चार महिलाओं में से एक इनका भी चयन हुआ था. इनके प्रयासों के लिए इन्हें बिहार इंडस्ट्रियल एसोसिएशन और 2016  में सिनेमा इंटरटेनमेंट ने सशक्त नारी अवार्ड  से सम्मानित किया है. अभी हाल ही में इण्डिया इनिशिएटिव के तहत देशभर में 6 स्टार्टअप्स की सक्सेज स्टोरी प्रकाशित की गयी है. इन 6 चयनित स्टार्टअप्स में दो पटना के हैं जिनमे शाजिया कैसर का नाम भी है. अंततः अपनों द्वारा ही रोक टोक के बावजूद शाजिया ने साबित कर दिखाया की जहाँ चाह है वहां राह है.



Tuesday, 9 May 2017

मॉडर्न लवर (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू')


लघु कथा  




"बताओ न क्या हुआ, वे मान गए ना " प्रेमिका ने उतावलेपन से पूछा. "जिसका डर था वही हुआ, घरवालों ने इंकार कर दिया" प्रेमी ने निरास होते हुए कहा. "तो क्या सोचा है,चलो फिर किसी दिन मंदिर में चलकर शादी कर लें" प्रेमिका ने सलाह दी. "नहीं, ये नहीं हो सकता, मैं घरवालों की मर्ज़ी के खिलाफ नहीं जा सकता इसलिए अच्छा यही होगा तुम मुझे भूल जाओ" प्रेमी बोला.
"मेरे घरवाले भी तो नहीं मान रहे थे मगर मैंने मनाया न उन्हें. अब मैं कैसे रहूंगी कभी सोचा है तुमने. तुम्हीं तो कहा करते थे हर हाल में प्यार निभाओगे, अब कैसे बदल गए" प्रेमिका निरास होकर बोली.  "जो भविष्य में बड़े आदमी बन जाते हैं वे कुछ भी करें समाज कुछ नहीं कहता, लेकिन मुझ जैसे आम लोग जब अंतरजातीय विवाह करते हैं समाज उनसे घृणा करता है, जीना दूभर कर देता है. मैं सिर्फ अपनी ख़ुशी के लिए माँ-पिता जी को दुःख नहीं दे सकता.इसलिए सनम अच्छा यही होगा कि आज से हम दोनों अजनबी बन जाएँ."  इतना कहकर प्रेमी उसकी नज़रों से दूर जाने लगा. प्रेमिका फूट फूटकर रोने लगी और सोचने लगी बीती बातें जब पहली बार प्रेमी ने शारीरिक सम्बन्ध बनाने की जिद्द की थी और वह मना कर रही थी. तब प्रेमी ने उसे बड़ा ही इमोशनल डायलॉग बोलकर राजी कर लिया था कि "हम दोनों का रिश्ता पति-पत्नी की तरह है न तो फिर हमारे बीच अब शर्म कैसी? और शायद तुम्हें नहीं पता कि फिजीकल रिलेशन बनने से प्यार और भी गहरा हो जाता है"....!


Monday, 8 May 2017

बदला (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा 





"हैलो, प्रीति है..?"
"कौन......कौन है ?"
" मैं उसका बॉयफ्रेंड "
"क्या काम है?" 
"कुछ खास नहीं अंकल, बस प्रीति डार्लिंग से कुछ बातें करनी हैं" 
"हरामजादे...." और गुस्से में उन्होंने कॉल काट दिया.

उधर उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. एक कुटिल मुस्कान के साथ वो मन ही मन बड़बड़ाया कि अब पता चलेगा मुझे रिजेक्ट करने का नतीजा. अगले सप्ताह बाजार में प्रीति ने उसे देखा, वह अपने पिता के संग था. प्रीति को करीब आते देख वह घबरा उठा. "हाय विक्की ! कल शाम को पार्क में मिलना". प्रीति के इतना कहते ही बाप ने बेटे की तरफ गुस्से से देखा और इधर प्रीति मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गयी. 



छेड़खानी (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू' )

लघु कथा 




उसने छेड़खानी का विरोध किया. एक सज्जन व्यक्ति ने देख लिया और लड़के की पिटाई कर दी. लड़का भाग निकला. उसने खुश होते हुए शुक्रिया कहा. "चलो मैं तुम्हे घर तक छोड़ दूँ" कहते हुए व्यक्ति ने उसके कंधे पर हाथ रखा. वह उसके साथ चलने लगी. व्यक्ति का हाथ कंधे के नीचे जाने लगा. उसने सहमकर आश्चर्य से व्यक्ति को देखा और कहते हुए " मेरा घर अब आ गया है' वह झटका देकर आगे बढ़ गयी.


अख़बारों के सहारे बदली ज़िन्दगी

सशक्त नारी
By: Rakesh Singh 'Sonu'

गम की दहलीज पर नम हुई आँखें मगर आसुंओ को छुपा लेना ही तो है ज़िन्दगी
दर्द के एह्साह पर थम गयी साँसें मगर मुस्कुरा के बढ़ जाना ही तो है ज़िन्दगी.....




यूँ तो इनका नाम है गिरिजा देवी मगर पटना के गौरिया मठ, मीठापुर का बच्चा बच्चा इन्हे पेपरवाली के नाम से जानता है. मीठापुर के आस -पास के इलाकों में गिरिजा देवी 1991 से ही अख़बार बाँट रही हैं. पहले ये काम उनके पति किया करते थे मगर उनकी दोनों किडनी खराब होने की वजह से जब उनका देहांत हो गया तो ऐसे में गिरिजा देवी को खुद को और 5 साल की बच्ची को संभालना मुश्किल हो गया. ले-देकर पति की एक पेपर-मैगजीन की मोहल्ले में छोटी सी दुकान थी उससे भी उनके देवर ने वंचित कर उसमे ताला जड़ दिया और घर से भी निकल दिया. बाद में मोहल्लेवासियों के सहयोग से गिरिजा जी को उनकी दुकान तो वापस मिल गयी मगर जिंदगी के इस दुखद मोड़ पर परिवार व रिश्तेदारों ने उनका साथ छोड़ दिया. खुद ही हिम्मत करके गिरिजा जी ने पेपर हॉकर का काम चुना.  छोटी बच्ची को साथ लेकर रोजाना सुबह 4 बजे स्टेशन जाकर अख़बार के बंडल ले आतीं फिर कॉलोनी में पैदल ही घूम-घूमकर अख़बार बांटती. एक बार सुबह-सुबह पेपर बाँटने के क्रम में लफंगों ने मारपीट करके इनका सर फोड़ दिया और पैसे-अंगूठी छीन ले गए. फिर एक बार जब गिरिजा नई-नई साइकल चलाना सीख रहीं थीं उसी दौरान बस से उनका मेजर एक्सीडेंट हो गया फिर दिल्ली एम्स में इलाज कराना पड़ा और कई दिनों तक बेडरेस्ट में रहना पड़ा. लेकिन पूरी तरह से ठीक होते ही उन्होंने अपनी ड्यूटी उसी ईमानदारी और लगन के साथ शुरू कर दी. पेपर की कमाई से ही 1999  में अपने दम पर गिरिजा जी बेटी की शादी कर चुकी हैं. इन्ही अख़बारों के सहारे इनकी ज़िन्दगी बदली इसलिए ये अख़बार ही अब इनकी दुनिया हैं.



Sunday, 7 May 2017

ये बेटियां समाज बदल देंगीं


सशक्त नारी 
By: Rakesh Singh 'Sonu'


मुजफ्फरपुर(बिहार),नेउरा खानेजादपुर में मो.तस्लीम और शाहिदा खातून की बेटियां सादियाआफरीन ने अपने गांव और आस पास के गाँव में 'कोई बच्ची न मिले कूड़ेदान' के नाम से मुहीम चलाकर भ्रूण हत्या के खिलाफ पुरजोड़ तरीके से बिगुल फूंक दिया है. जिसका गवाह है मुजफ्फरपुर जिले का जमालाबाद,मुस्तफापुर, गंज बाजार, खानेजादपुर,राम सहाय छपरा, अली नेउरा जैसे कई कसबे. बीते तीन-चार सालों में दोनों बहनें दो दर्जन से अधिक भ्रूण हत्या रोक चुकी हैं. स्नातक कर चुकी सादिया जहाँ एक स्कूल में उर्दू की टीचर हैं वहीँ मैट्रिक टॉपर आफरीन ने अभी 12 वीं उत्तीर्ण किया है. लेकिन दोनों का जज्बा इनकी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ा दिख रहा है. इनके ग्रुप में करीब 300  से भी अधिक लड़कियां व महिलाएं जुड़ चुकी हैं और ये घर-घर जाकर स्लोगन,पेंटिंग,कार्टून और शायरी-गीतों के माध्यम से सभी को जागरूक करती हैं ताकी बेटी की भ्रूण हत्या को रोका जा सके. 2013 में ऐसे ही एक जन्मी बच्ची को मारने की कोशिश की गयी जहाँ पहुंचकर इन दोनों बहनों ने उसे बचा लिया और उसे अपने घर लाकर परवरिश करने लगीं.तभी इनके मन में ख्याल आया कि जब एक बेटी को बचाया है तो फिर सैकड़ों बेटियों को क्यों नहीं बचा सकती.



घर में बात की तो माता -पिता ने पूरा समर्थन दिया फिर तो इनकी मुहीम शुरू हो गयी. दोनों बहनो के यूँ घर-घर जाकर जागरूक करने पर आस-पड़ोस के लोगों ने माँ-बाप को ताने देने शुरू कर दिए कि "मुस्लिम होकर जवान बेटियों से ये सब करा रहे हैं, क्या ये शोभा देता है ?" लेकिन न इन दोनों ने हिम्मत हारी और न ही इनके माता-पिता ने ही इनको रोका. और तो और पिता मो.तस्लीम लोगों को सामाजिक कुरीतियों  के प्रति जागरूक करने हेतु बेटियों के लिए गीत व शायरी लिखने लगें जिसे गाकर ये समाज में जागरूकता लाने लगीं.



मुहीम रंग लाई और धीरे धीरे इनके इस निस्वार्थ कार्य में एक-एक करके कई महिलाएं जुड़ती चली गईं. भ्रूण हत्या के अलावा दहेज़ प्रथा और बाल विवाह पर भी ये चोट करती हैं. इनके इस सराहनीय कार्य के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा इन्हें कई बार सम्मानित भी किया जा चुका है जिनमे सिनेमा इंटरटेनमेंट द्वारा 2016 में आयोजित 'सशक्त नारी सम्मान समारोह' का जिक्र यहाँ करना चाहेंगे. इनके योगदान को देखते हुए उक्त आयोजन में इन दोनों बहनों को ना सिर्फ सम्मानित किया गया बल्कि जब अपनी बात रखने के लिए इन्हे मंच पर बुलाया गया तो भ्रूण हत्या के खिलाफ इनका गाया एक गीत सुनकर वहां मौजूद तमाम ऑडियंस तालियाँ बजाने पर मजबूर हो गयी. कल तक जो समाज इन्हे कोसता था आज वही गांव-समाज सादिया और आफरीन के इस जज्बे को सलाम करता है.



Saturday, 6 May 2017

रेणु जी को महिला मित्र समझकर मेरी पत्नी मुझपर शक करने लगी थी : श्याम शर्मा,वरीय चित्रकार व चेयरमैन,ऐडवाइसरी कमिटी,नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट,नई दिल्ली

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मेरा जन्म उतर प्रदेश, मथुरा के एक छोटे से कस्बे गोवर्धन में हुआ था. आगे की शिक्षा के लिए मैं बरेली चला आया जहाँ मेरे पिता जी का प्रिंटिंग प्रेस था. इंटरमीडिएट करने के बाद मेरा कला के क्षेत्र में प्रवेश हुआ.जब मैं ग्रेजुएशन करने लखनऊ आया तो ये पहला मौका था जब मैं घर छोड़कर हॉस्टल में रहा. मथुरा में पैदा होने की वजह से मैं प्याज और लहसुन नहीं खाता था लेकिन हॉस्टल के मेस में बिना प्याज के कोई सब्जी बनती ही नहीं थी. शुरू के बहुत से दिन मैंने चना खाकर गुजारे. लेकिन मुझे हॉस्टल में रहना था तो मेस में खाना ही था. फिर मैं धीरे धीरे अभ्यस्त हुआ और इस तरह से प्याज मेरे जीवन में परोक्ष रूप से प्रवेश कर गया. कला शिक्षा के दौरान ही मेरी शादी हो गयी थी जब मैं चौथे साल का विद्यार्थी था. जब कला महाविधालय में शिक्षक के रूप में पटना आया तब पत्नी भी साथ आयीं. हमलोग किराये के मकान में रहने लगें. अचानक मैं कॉलेज से लेट आने लगा. पत्नी पूछती कहाँ गए थें तो मैं धीरे से कह देता रेणु जी से मिलने. वो नाराज हो जातीं. रेणु जी को मेरी कोई महिला मित्र समझकर मेरी पत्नी मुझपर शक करने लगीं. ये रेणु जी से मिलने का किस्सा लम्बे अरसे तक चला और मैं पत्नी की नाराजगी को यूँ ही झेलता रहा.
     जब मेरी पत्नी ने 'आषाढ़ का एक दिन' पहला नाटक किया तो वहां अचानक जाने माने कहानीकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' जी से उनकी मुलाक़ात हो गई. तब उनकी समझ में आया कि रेणु जी कौन हैं और मैं अक्सर किससे मिलने जाता था. पहले तो पत्नी शर्मिंदा हुईं कि इन्ही रेणु जी की वजह से वो कितनी बार मुझपर अपना गुस्सा दिखा चुकी थीं. फिर अपनी इस नादानी पर वो मन ही मन मुस्करायीं. ये जीवन का एक सुखद अनुभव रहा जो कभी कभी अकेले में मुझे गुदगुदा देता है.

प्रस्तुति : राकेश सिंह 'सोनू' 

Friday, 5 May 2017

एक्टिंग और कैमरा को लेकर जो मन में हिचक थी खत्म हो गई : गुंजन कपूर सिन्हा, अभिनेत्री

वो मेरी पहली शूटिंग
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मेरी पहली फिल्म का नाम 'गंगा मिले सागर से' है. इससे पहले काफी म्यूजिक वीडियो में काम किया था. लेकिन एक्टिंग का यह पहला अनुभव था.पहली बार कैमरा फेस करते वक़्त बहुत नर्वस थी. पहला सीन देवरिया के एक छोटे से गांव में शूट किया गया. कैमरा, लाइट सब रेडी होने के बाद जब मुझे शॉट देने के लिए बुलाया गया तो समझ नहीं आ रहा था कि एक्टिंग कैसे हो पायेगी मुझसे, कैसे डायलॉग डिलीवरी दूंगी. मुझे तो एक्टिंग का ए भी नहीं आता था. मैं अपना आत्मविश्वास ही खो चुकी थी. फिर डायरेक्टर ब्रजभूषण जी जो अब मेरे ससुर हैं उन्होंने मुझे सीन समझाया और एक्टिंग को लेकर कम्फर्टेबल किया. और एक सहज और छोटे से सीन के साथ शूटिंग शुरू की गई. जैसे ही मैंने अपना पहला शूट दिया तो वहां खड़े सारी यूनिट के लोगों ने और जो शूटिंग देखने आये थें उन्होंने भी जोर से तालियां बजानी शुरू कर दीं. मुझे बहुत अच्छा लगा. इसके साथ ही एक्टिंग और कैमरा को लेकर मेरे मन में जो भी हिचक- घबराहट थी वो भी खत्म हो गई. बाद में इस फिल्म को बेस्ट भोजपुरी फिल्म का अवार्ड भी मिला और मुझे बेस्ट एक्ट्रेस के अवार्ड से नवाजा गया. आज मैं कितनी ही फिल्मों में काम कर चुकी हूँ फिर भी अपनी पहली फिल्म और पहली शूटिंग को कभी नहीं भूलती. वो फिल्म मेरे दिल के बहुत करीब है और हमेशा रहेगी.


रिहर्सल के दौरान छोटी बच्ची को नींद की होमियोपैथी दवा देकर सुलानी पड़ती थी : नवनीत शर्मा, वरीय रंगकर्मी


जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'



मेरा जन्म यू.पी. के वृन्दावन में हुआ था, बचपन से ही नाटक करने का बहुत शौक था मगर घर में इसकी इज़ाज़त नहीं थी. फिर मेरी 17  साल की छोटी उम्र में शादी हो गयी और मैं तब पटना चली आई. मेरे पति श्याम शर्मा जी आर्टिस्ट हैं. मैंने पटना ससुराल में आकर अपनी पढाई पूरी की. बच्चों की परवरिश की वजह से शादी के 14  साल बाद मैंने आर्ट्स कॉलेज से ग्रेजुशन पूरा किया. जब पटना आने के बाद नाटकों का सिलसिला देखा तो बहुत अच्छा लगा और फिर मैंने अपना कार्यक्षेत्र नाटक को चुन लिया. उस वक़्त मैं पति और बच्चों के साथ थियेटर करने जाती थी. मेरा पहला प्ले था मोहन राकेश की पटकथा पर 'आषाढ़ का एक दिन'. तब मेरी बेटी महज दो साल की थी और मेरे नाटक रिहर्सल करते वक़्त बच्ची पतिदेव को संभालनी पड़ती थी. मेरे पति ने इस झंझट से बचने के लिए होमियोपैथ के डॉक्टर से स्लीपिंग पिल्स ले ली और मेरे नाटक के रिहर्सल के वक़्त बच्ची को खिलाकर सुला दिया करते थे. मगर जिस दिन मेरा पहला शो था उस दिन दवा बच्ची को असर ही नहीं किया और ठीक क्लाइमेक्स के वक़्त बच्ची अचानक उठकर खूब रोने लगी. उसे पति ग्रीन रूम में सुलाकर चले आये थे. तब मशहूर कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु जी दर्शक दीर्घा में एकदम आगे बैठे थे. उस समय नाटक देखने का बहुत जूनून हुआ करता था लोगों में. बच्ची के रोने से नाटक में पड़ने वाली खलल की वजह से विनीता अग्रवाल जो मगध महिला कॉलेज की प्रोफ़ेसर हुआ करती थीं और जो मेरे ही साथ कला संगम से नाटक किया करती थीं चिल्लाने लगीं कि, " कौन बेहूदा है जो यहाँ बच्चे को लेकर रुलाने चला आता है." यूँ ही गुस्से में बड़बड़ाते हुए वे ग्रीन रूम में गयीं और बेटी को उठा लीं. दरवाजे पर मेरे पतिदेव खड़े थे उनसे कहने लगीं कि " देखिये ना, कौन बेवकूफ अपनी बच्ची को यहाँ सुला गया है और ये रोने लगी है." इसपर पति बोले," पता नहीं कौन बेवकूफ है, लाइए मुझे दीजिये बच्ची को मैं चुप कराकर जिसका है उसे दे आता हूँ."  मेरा प्ले में इतना सीरियस रोल था और बेटी के रोने की आवाज़ से मेरा ध्यान  उधर चला जा रहा था फिर भी मैंने हिम्मत से काम लिया और बखूबी अपना नाटक पूरा किया. नाटक खत्म होने के बाद जब विनीता जी ने मेरे पति से पूछा कि "पता चला किसकी बेटी थी?" तब भी मेरे पति अनजान ही बने रहे फिर एक दिन रिहर्सल के वक़्त यह राज पता चला कि वो तो नवनीत जी और श्याम जी की ही बेटी थी जिसे नींद की गोली देकर सुलाया गया था तब सभी हंसने लगें. मैं तब 23  साल की थी और 60 साल की महिला का रोल किया था. नाटक के बाद खुद रेणु जी मेरे घर आकर मुझे शाबासी दे गए. बड़े ही सुखद पल थे वो.
    एक और तब की घटना याद आती है जब मेरी छोटी बेटी को पॉक्स हो गया था और मैं उसे घर पर पति की देखरेख में छोड़कर नाटक का रिहर्सल करने चली आयी थी. मैं बच्ची की वजह से नहीं जा रही थी लेकिन पति ने कहा कि मैं हूँ ना बच्ची के पास इसलिए तुम जाओ मगर जल्दी आ जाना. लेकिन रिहर्सल करके घर आने के दौरान बहुत लेट हो गया था. खाना तो बना के आयी थी लेकिन सोच रही थी कि घर जाकर कहूँगी क्या कि इतना देर कैसे हो गया. तब विनीता जी ने मुझे पति की डाँट से बचने के लिए एक आईडिया सुझाया कि सीधे जाते ही पति की खूब तारीफें करने लगना.  देखना फिर तुम्हारे पति गुस्सा नहीं होंगे. रास्ते भर रिक्से पर बैठे हुए मुझे विनीता जी सिखाती रहीं कि क्या क्या बोलना है. उधर मेरी बच्ची परेशान हो रही थी और पति गुस्सा हो रहे थें. जैसे ही घर पहुंचकर मैं अंदर दाखिल हुई तो पति के कुछ बोलने से पहले ही मैंने उनकी झूठी तारीफें शुरू कर दी कि , 'अरे क्या बताएं फणीश्वर नाथ रेणु जी और तेंदुलकर जी आये थे और आपको  बहुत याद कर रहे थे. आपकी तारीफ में कह रहे थे कि क्या पेंटिंग बनाते हैं मानना पड़ेगा.' इतना सुनकर पतिदेव सारा गुस्सा भूलकर पूछने लगें " और क्या कह रहे थें." फिर मैं झूठी कहानियां बनाकर उनको खुश करती रही. फिर वे बोले , "अच्छा बहुत देर हो गया है जल्दी से खाना दे दो."  मैं रसोई में गयी और खाना देते वक़्त मुझे बहुत हंसी आने लगी. किसी तरह मैंने अपने आपको रोका. पति खाते खाते ही पूछने लगे क्यों हंस रही हो ? मैंने कहा - कुछ नहीं ऐसे  ही . मगर उनको शक हो गया ज़रूर कोई बात है. फिर जब उन्होंने ज़िद की तो मेरे पेट में भी वो बात पची नहीं रह सकी और मैंने विनीता जी का नाम लेते हुए सारी बात बता दी. उसके बाद तो हम दोनों ही खूब हँसे और बहुत देर तक हँसते रहें. वो जवानी के हसीं पल मुझे आज भी बहुत याद आते हैं.


छत्तीसगढ़ और जम्मू-कश्मीर के शहीदों को श्रद्धांजलि व कैंडल मार्च

सिटी हलचल
Reporting: Bolo Zindagi



पटना, दिनांक 03.05.2017, बुधवार, सायं 6 बजे विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर में शहीद हुए वीर जवानों को श्रधांजलि देने हेतु कैंडल मार्च का आयोजन किया गया. कैंडल मार्च गाँधी संग्रहालय से चलकर गाँधी मैदान कारगिल चौक तक संपन्न हुआ. इस आयोजन में सखीरी महिला विकास संस्थान, महिला स्वावलम्बन एवं बाल कल्याण संस्थान, कीर्ति महिला एवं बाल विकास संसथान, शिवशांति फाउंडेशन, मातृशक्ति एवं बाल विकास संसथान और आस्था जीवन ऑर्गेनाइजेशन संस्थाओं ने सामूहिक रूप से सम्मिलित होकर शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी


कार्यक्रम की संयोजक सुधा कुमारी ने कहा कि 'देश के बाहरी दुश्मनो से निपटना आसान नहीं लेकिन देश के अंदरूनी दुश्मनों यानि नक्सलवादियों का सफाया तो किया ही जा सकता है. और नक्सलियों के मनसूबे तोड़ने में हम सभी को एकजुट होकर प्रयास करने होंगे.'  


 इन संस्थाओं ने एक सुर में सरकार से गुजारिश की कि देश के लिए  कुर्बान हुए शहीदों के परिवार खासकर उनके बीवी-बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाये. ताकि भविष्य में उनका परिवार आभाव से बिखर जाये एवं बच्चे गलत राह अख्तियार कर लें.  इस मौके पर समाजसेवी सुधा कुमारी, सविता कुमारी, ममता कुमारी, प्रिंस राज, लेखक राकेश सिंह 'सोनू' और अन्य लोगों ने अपनी मौजूदगी दर्शायी.



Tuesday, 2 May 2017

"तुम्हे सोचे बिना नींद आए तो कैसे?" गीत-गजल-शायरी संग्रह का लोकार्पण

सिटी हलचल 
Reporting : Bolo Zindagi


   


वेलेंटाइन 
सप्ताह में दिनांक 13 .02 .2017  को पटना पुस्तक मेला में गीतकार एवं स्वतन्त्र पत्रकार राकेश सिंह 'सोनू' के गीत-गजल-शायरी संग्रह " तुम्हे सोचे बिना नींद आए तो कैसे...?" का लोकार्पण हुआ. इस लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि थें जाने माने साहित्यकार हृषिकेश सुलभ जी.... वहीँ विशिष्ट अतिथि थें लोकगायक एवं फिल्म गीतकार ब्रजकिशोर दुबे, आकशवाणी - दूरदर्शन के उद्घोषक कलाकार डॉ. अशोक प्रियदर्शी,प्रोफ़ेसर डॉ.बी.एन.विश्वकर्मा और किलकारी के राजीव रंजन जी. डॉ. अशोक प्रियदर्शी और डॉ. बी.एन विश्वकर्मा ने सोनू के उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए कहा कि , " तुम्हे सोचे बिना नींद आए तो कैसे?"
यह गीत गजल संग्रह बहुत जल्द ही युवाओं के बीच हॉट केक बन जायेगा मुझे ऐसा प्रतीत होता है."




इस पुस्तक के लेखक/गीतकार राकेश सिंह "सोनू"  ने बताया कि , "यह गीत गजल संग्रह समर्पित है मेरी प्रेमिका को और यह संग्रह समर्पित है सच्चा प्रेम करनेवाले युवाओं को. प्रेमिका की याद में दर्द भरे दिल से निकले अल्फाज ही मौजूद हैं दर्द भरे गीतों के रूप में इस पुस्तक में. इसके अलावा कुछ रोमांटिक गीत हैं उन लम्हों की याद दिलाते हुए जब हम दोनों प्यार में थे. कुछ शायरी भी हैं जब मैं वाट्सएप और फेसबुक वाल पर अक्सर उसके लिए लिखा करता था. आज भी वो मुझे याद करती है या नही, मुझसे प्यार करती है या नही मैं नही जानता लेकिन मैं इतना ज़रूर जानता हूँ कि मैं अब उसे सारी ज़िन्दगी नहीँ भूल पाउँगा." पाठकों के लिए यह रोमांटिक पुस्तक उपलब्ध है ऑनलाइन शॉप amazon.in पर.

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Monday, 1 May 2017

कॉन्फिडेंस नहीं था कि मैं टीवी में आऊं लेकिन मेरे गुरु का मुझपर बहुत भरोसा था : रतन राजपूत,अभिनेत्री


वो संघर्षमय दिन 
By: Rakesh Singh 'Sonu'




पटना के मगध महिला से कॉलेज की पढ़ाई पूरी की... पढाई में मन नहीं लगता था.. क्या करना है ये ग्रेजुएशन तक मुझे नहीं पता चला. स्कूल कॉलेज में पढाई में पीछे और एक्टिंग ड्रामा में आगे रहती थी. तब एक्टिंग की तरफ शौकिया रुझान था..सीरियस तब हुई जब सोशल प्रेशर आया. पापा के दोस्तों ने टोकना शुरू कर दिया कि पिता अफसर हैं और ये क्या कर रही है?
      यही क्या करूँ की तलाश मुझे दिल्ली ले गयी.दिल्ली के नाट्य थियेटर में एडमिशन नहीं हुआ क्यूंकि वहां सर्टिफिकेट माँगा गया. बड़े बड़े एक्टिंग स्कूल और नाट्य-कत्थक केंद्र में भी रिजेक्शन मिला. फिर प्रोफेशनल तो नहीं सिर्फ शौकिया प्ले करना शुरू किया गुरु सुरेन्द्र शर्मा के सानिध्य में. तब घर से पैसे मिल रहे थे. लेकिन मैं माँ-बाप का पैसा बर्बाद नहीं करना चाहती थी. फिर सोचा अब घरवालों के पैसे खर्च नहीं करुँगी. मैंने गुरु सुरेन्द्र शर्मा को असिस्ट करना शुरू किया.. तब प्ले करने पर प्रोत्साहन के तौर पर 500 -1000  मिलता था. दूरदर्शन में छोटे मोटे काम शुरू किये. गुरु ने मुझे मुंबई जाने की सलाह दी... लेकिन तब मुझे कैमरे की समझ नहीं थी. कॉन्फिडेंस नही था कि मैं टीवी में आऊं लेकिन मेरे गुरु का मुझपर बहुत भरोसा था.
   

2008  में  मुंबई के लिए रवाना हुई अपने सपनो को पंख देने के लिए. शुरू शुरू में बहुत जोश था, लेकिन जब कभी पैसे कम होते जोश तुरंत ठंढा हो जाता था. तब गुरु फ़ोन पर बात करके उत्साहित करते. वो कहते,-" सफलता किसी एक की जागीर नहीं, तुम्हे भी हक़ है और उसे लेकर ही रहना है". फिर मैं ऑडिशन पर ऑडिशन देने लगी, ज़िन्दगी संघर्षमय थी लेकिन घर में अक्सर झूठ बोलती कि यहाँ सब ठीक है, पैसे की कोई किल्लत नहीं है. वैसे भी मैंने सच्चे दिल से भगवान से जो भी माँगा वो देर से ही सही मुझे ज़रूर मिला है. सीरियल में एक दो कैमियो करने के बाद मुझे एन. डी. टीवी इमेजिन पर 'राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएंगी' में लीड रोल मिला. तब दिल्ली से मुंबई मुझे बेहतर लगने लगा. कई उतार चढाव आये पर हौसला बनाये रखा. उसके बाद धारावाहिक 'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो' में ललिया के रोल ने मेरी ज़िन्दगी ही बदल दी. फिर अच्छे काम सामने से ऑफर होने लगे. एन.डी.टीवी इमेजिन पर 'स्वंयवर', स्टार प्लस पर 'महाभारत' में अम्बा का किरदार, और बिग बॉस एवं एम.टीवी.के शो 'फ़ना' से और शोहरत मिली.

मर्दानगी (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा



मोहल्ले में गोलियां चलीं, रातभर दुबके रहें सभी. बचाओ-बचाओ की आवाजें आईं, लोग सुनकर भी अनसुना कर गए. सुबह होते ही सभी पहुंचे उस लुट चुके को सांत्वना देने.
 
     अगली रात एक पागल ने मोहल्लेवासियों की नींद खराब कर दी. अपनी करतूतों से उसने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया. कभी वह बड़बड़ाता तो कभी गालियाँ देता. घरों से निकलकर कुछ 'मर्द' खोजने लगें पागल को. उसे ढूंढकर पहले डांटा-फटकारा गया फिर जी न माना तो लात-घूंसों से मारा गया. उसे मार-मारकर बेसुध कर दिया गया. उसके पागलपन का अंदाजा उसे देखकर ही लग गया, वह पूर्णरूप से नग्न था बिना वस्त्रों के. लेकिन लोग तो क्रोधित थे इसलिए अपनी मर्दानगी दिखाकर लौट आएं.

मौका (लेखक : राकेश सिंह 'सोनू')

लघु कथा

   

बहुत दिनों बाद एक पुराने मित्र को याद आई मेरी तो वह मिलने चला आया. मैं और वो छत पर टहलने लगें. वह बातें मुझसे कर रहा था मगर नज़र थी पास वाले छत पर जहाँ थी एक खूबसूरत लड़की. एक पल भी नहीं बिता कि अचानक वह नीचे चली गई. मित्र थोड़ा परेशान हुआ. "अरे, मैं तो भूल ही गया मुझे एक जगह जाना था. अच्छा चलता हूँ देर हो रही है", इतना कहकर वह भी आँखों से ओझल हो गया. 

अभावों के बीच जलता एक चिराग

तारे ज़मीं पर
By: Rakesh Singh 'Sonu'



" जब था मैं ढ़लता सूरज मेरे सपने भी डूब रहे थें,                    अभिषेक कुमार  
 अब जो उगने लगा हूँ ख्वाब भी मेरे चमक रहे हैं."

वह खुद स्कूल पढ़ने जाता है और घर लौटकर खेलने की बजाए छोटे बच्चों को पढ़ाता है. पतंगबाजी के मौसम में वो पतंग बेचता है. 26 जनवरी और 15 अगस्त के अवसरों पर वह झंडे बेचता है. दिवाली पर अपने हाथों से घरौंदे बनाकर, बेचकर उससे आए पैसों से अपना व अपने परिवार के घरौंदे की रौनक बढ़ाता है. दानापुर में रहनेवाला अभिषेक 10 वी का स्टूडेंट है जिसके पिता भीम पंडित एक रिक्शाचालक हैं और जिन्हें आँख की बीमारी है. एक आँख खराब हो जाने की वजह से वो अब बहुत कम ही रिक्शा चला पाते हैं. दो भाई-बहनों में इकलौते भाई अभिषेक के नन्हें कन्धों पर आ गई है अब दोहरी जिम्मेदारी. एक, अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को सम्बल प्रदान करना तो दूसरी है अपने सपनों को साकार करना.                                                                                                                                                                           अब तक इस गुदड़ी के लाल ने इतनी काम उम्र में 17  से अधिक नाटकों में जीवंत अदाकारी दिखाकर अपने हुनर को साबित कर दिखाया है. घर की परेशानी को महसूस करते हुए  करीब 5 साल पहले घर पर ही बहुत छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया,जो स्कूल नहीं जाते थें. धीरे धीरे प्रचार हुआ तो सामने से और भी बच्चों को पढ़ाने के ऑफर मिलने लगे. पहले सुबह 7 से 9 बजे तक कक्षा 1  से 5 तक के बच्चों को पढ़ाकर अभिषेक खुद पढ़ने स्कूल चला जाता है. अपनी मैट्रिक की परीक्षा को ध्यान में रखकर वह खुद भी ट्यूशन पढ़ने जाता है फिर लौटकर शाम में बच्चों की ट्यूशन क्लास लेता है. अभी अपनी पढ़ाई देखते हुए अभिषेक सिर्फ शनिवार-रविवार को ही थियेटर करने 'कालिदास रंगालय' में जा पाता है.

   
     स्कूल में अक्सर खेल-कूद व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेनेवाले इस होनहार का रुझान नाटकों के प्रति कुछ ज्यादा ही था. तब स्कूल वालों ने ही उसके इस रुझान को देखकर बिहार बाल भवन 'किलकारी' में ऑडिशन के लिए भेजा. ऑडिशन सफल रहा और स्कॉलरशिप भी मिला. फिर  'किलकारी' के माध्यम से अभिषेक का कालिदास रंगालय में ऑडिशन हुआ जहाँ उसने पुनः बाज़ी मार ली. वहां भी सीखने के लिए संस्था की तरफ से स्कॉलरशिप और आने-जाने के लिए एक साइकल दिया गया. इसी साइकल की बदौलत दानापुर से आना-जाना अभिषेक के लिए आसान हो चला. रंगमंच में शुरुआत हुई अप्रैल 2013  में टीचर सुमन सौरभ के सानिध्य में पहले नाटक 'ईदगाह' से और पहले ही नाटक में निभाए किरदार से जो हौसला व पहचान अभिषेक को मिली वो आगे का सफर आसान कर गया. फिर तो कालिदास और प्रेमचंद रंगशाला में एक-एक करके अबतक लगभग दो दर्जन नाटकों में प्ले किया. दो शॉर्ट फ़िल्में यू ट्यूब पर जारी हो चुकी हैं. निर्देशक कार्तिक की शॉर्ट फिल्म 'सोच की छलांग' जो चाइल्ड लेबर थीम पर है में भी एक्टिंग किया है जिसे 31  जनवरी,2016 को गोआ फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया है. घर में टीवी न रहने के कारण अभिषेक को पता न चला कि पटना में 'इंडियाज बेस्ट ड्रामेबाज' का ऑडिशन कब पूरा भी हो गया. उसे उम्मीद थी कि पहले ही राउंड में उसका चयन हो जाता. अभी जो भी कमाता है वो पैसे घर चलाने को मम्मी-पापा को दे देता है. अभिषेक का अब एक ही लक्ष्य है बड़े होकर कामयाब एक्टर बनना और अपने घर-परिवार की स्थिति ठीक करना.


बनारस से एम.ए.करने का सपना तब सपना ही रह गया : स्व.रामाशीष सिंह, भूतपूर्व अवर सचिव, बिहार लोक सेवा आयोग

जब हम जवां थें
By: Rakesh Singh 'Sonu'



आरा शहर से ग्रेजुएशन करने के दरम्यान कुछ एक लड़के अपने अभिभावकों से कभी कभार कुछ पैसे माँगा लिया करते थे लेकिन तब हमारे समय में पॉकेटमनी का फैशन नहीं था. मेरे खाने -पीने, पहनने, किताबों एवं फ़ीस की व्यवस्था मेरे अभिभावक कर ही देते थे. मैं कभी फिजूल खर्च के लिए उनसे पैसे नहीं मांगता था. ना ही मुझे पान-बीड़ी का शौक था और ना ही मैं घूमने-फिल्म देखने में ज्यादा दिलचस्पी लेता था. हाँ एकाध बार मैंने कॉलेज लाइफ में हॉल में जाकर फिल्म देखी तो थीं मगर कभी अपने पैसों से नहीं. संगी-साथी ही मुझे दिखाते. तब दिलीप कुमार का क्रेज था मगर मेरा सारा ध्यान अपनी पढाई पर ही केंद्रित था क्यूंकि मेरा सपना ऊँचा था और मैं अपने माँ-बाप एवं गांव का नाम रौशन करना चाहता था. ग्रेजुएशन करने के बाद मैं बनारस जाकर एम.ए. करना चाहता था. मगर तब हॉस्टल में रहने-खाने, पढाई में सब मिलाकर 150 रूपए महीना लगता था जो उस वक़्त ज्यादा था. तब सिर्फ खेतीबाड़ी से उतनी आमदनी नहीं थीं. घर कि आर्थिक स्थिति और छोटे भाइयों के भविष्य को ध्यान में रखकर मैंने एम.ए. करने का ख्याल दिल से हमेशा के लिए निकाल दिया. मैंने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी खूब लगन से की और पहले ही प्रयास में मुझे सफलता मिली.
   1955 में बी.पी.एस.सी. में सहायक पद पर नियुक्त किया गया तब मेरी उम्र 21  वर्ष थी. तब पटना रहने में बहुत कठिनाई हुई क्यूंकि पहले पटना कभी आए नहीं थे. स्टेशन के पास फुटपाथ पर जहाँ पहले छोटे छोटे होटल हुआ करते थे वहीँ थोड़े दिन रहें 20 रूपए महीने देकर. वहां से रोज पैदल ही ऑफिस जाते थे. फिर वहां से मीठापुर में रहने लगे किराये पर. जब जॉब लग गया तो घर से पैसा लेना बंद कर दिया. तब 100 -150  रूपए की साइकिल भी मैंने ऑफिस से एडवांस लेकर खरीदी थी. आमदनी जब बढ़ी तो अपने से ज्यादा गांव घर की पोजीशन ठीक करने में दिलचस्पी लेने लगा. अपने छोटे भाई-भतीजों की पढाई-लिखाई की व्यवस्था पर ध्यान देने लगा और तब पता ही नहीं चला कि मुझे भी कुछ शौक है.
    उस ज़माने में कम उम्र में ही शादियां हो जाती थीं. मेरी भी शादी घरवालों ने तभी करा दीं जब मैं
7 वीं क्लास का स्टूडेंट था.मैंने अपनी पत्नी की सूरत नहीं देखी थी. शादी के पहले मेरा एक करीबी मित्र उन्हें चुपके से देखकर आया और मुझसे बोला कि भाभी नरगिस (तब की मशहूर हीरोइन) की तरह दिखती हैं.


बेजुबां है वो मगर बोलती है पेंटिंग

तारे ज़मीं पर
By: Rakesh Singh 'Sonu'



"हर मुश्किल सवाल का जवाब हूँ मैं 
सुनी अँखियों का ख्वाब हूँ मैं 
हुनर की बोलती किताब हूँ मैं "

- शुभ्रा सिन्हा



14  नंबर, 2015 , बाल दिवस की शाम पटना के बिहार बाल भवन किलकारी में जिन 18  प्रतिभावान बच्चों को 'बाल श्री सम्मान' से सम्मानित किया गया उनमे से एक थी शुभ्रा सिन्हा जिन्हे पेंटिंग के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए सराहा गया. वह बोल सुन नहीं सकती लेकिन अपने बनाए पेंटिंग के जरिए वो इतना कुछ कह जाती है कि फिर बोलने की ज़रूरत महसूस नहीं होती. छोटी पहाड़ी, अगमकुआं,पटना में रहनेवाली 11 वीं की यह मूक-बधिर छात्रा वैसे तो भाई-बहनों में छोटी है और इतनी कम उम्र में जिसके नाम हैं दर्जनों अवार्ड एवं एकल पेंटिंग प्रदर्शनियां. पुस्तक मेला 2012 -2013 , बिहार दिवस 2013 , गाँधी संग्रहालय 2012 , राजगीर महोत्सव 2012 , इन प्रमुख जगहों पर शुभ्रा की एकल पेंटिंग प्रदर्शनियों ने धूम मचाई है. दर्जनों अवार्ड अपने नाम कर चुकी शुभ्रा की गिनती तब राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी जब उसने दिसंबर 2013  में केंद्रीय जल बोर्ड द्वारा आयोजित पेंटिंग कम्पटीशन में तृतीय पुरस्कार जीता.  1  अक्टूबर 2015  ( सशक्त नारी सम्मान समारोह) पटना के श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल के स्टेज पर सम्मानित हो रही महिलाओं के बीच इस बच्ची को पुरस्कार पाते देख कितनो की आँखें चौंक पड़ी थीं. लेकिन कहते हैं ना कि प्रतिभा किसी उम्र की मोहताज़ नहीं होती.
    शुभ्रा की माँ श्रीमती बिन्दा सिन्हा बताती हैं कि जब शुभ्रा ढ़ाई साल की थी तभी एहसास हुआ कि जिधर आवाज आती है वो उधर देख नहीं पा रही. तब डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि बोलने-सुनने में दिक्कत है. फिर 7-8  साल की उम्र में जीभ का ऑपरेशन कराए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. स्पीच थेरेपी और ईयर मशीन की वजह से कुछ वर्ड बोल सुन पाती है लेकिन बहुत असुविधा होती है. पढ़कर भी वाक्य और शब्दों को ठीक से नहीं समझ पाती लेकिन ईशारों की भाषा आसानी से समझ लेती है. बहुत छोटी उम्र में ही अख़बार में कार्टून देखकर शुभ्रा खुद से बनाने लगी. बड़ी बहन को ड्राइंग क्लास में जो होमवर्क मिलता उसे शुभ्रा कम्प्लीट करती और दीदी से भी बहुत अच्छी पेंटिंग बनाने लगी. सन्डे-के-सन्डे मोहल्ले में संतोष मेकर जी एक प्रशिक्षण केंद्र चलाते थे जहाँ बड़ी बहन के कहने पर शुभ्रा को पेंटिंग सीखने भेजा जाने लगा. साथ में छोटा भाई भी जाता जो शुभ्रा और टीचर के बीच संवाद स्थापित कराता था .

2012 में पहली बार पटना पुस्तक मेले के ऑर्गनाइजर रत्नेश जी के सहयोग से शुभ्रा की एकल पेंटिंग प्रदशनी मेले का आकर्षण बनी और शुभ्रा को विशेष अवार्ड भी मिला. तभी पहली बार विभिन्न अख़बारों में शुभ्रा की कलाकारी को स्थान मिला. उसकी पेंटिंग प्रदशनी देखकर फ्रेम बॉक्स एकेडमी वालों ने उसे स्कॉलरशिप सर्टिफिकेट दिया और 10  वीं के बाद एनीमेशन का मुफ्त प्रशिक्षण देने की बात कही. डॉ. राजेंद्र प्रसाद संग्रहालय में राजेंद्र प्रसाद के पोते डॉ. बी.के. सिंह ने शुभ्रा द्वारा राजेंद्र प्रसाद की बनायीं पेंटिंग खरीदकर लगा राखी है. यही नहीं एक अमेरिकी एन.आर.आई भी शुभ्रा की पेंटिंग खरीदकर ले जा चुके हैं. पेंटिंग के अलावे शुभ्रा को डांसिंग,कंप्यूटर चलाना, टीवी पर कार्टून व कॉमेडी फ़िल्में देखना भी पसंद है . शुभ्रा के पिता बताते हैं कि "राजगीर महोत्सव में लगी शुभ्रा की पेंटिंग प्रदर्शनी देखकर 2012  में आरा के एक प्राइवेट स्कूल से शुभ्रा के लिए पेंटिंग टीचर का ऑफर भी आया था. लेकिन आने जाने और परिवार की दिक्कतों की वजह से मैंने मना कर दिया था." माँ कहती हैं, "शुरुआत में दोनों बच्चों की तुलना में शुभ्रा पर उतना ध्यान नहीं दे पाती थीं लेकिन इसने खुद को अपने टैलेंट से साबित कर दिखाया. बेटी की वजह से ही व्यावसायिक और अध्यात्मक जीवन में हमलोगों की भी पहचान होती है. शुभ्रा की बदौलत कई आई.ए.एस. अफसरों एवं बड़े कलाकारों से मिलकर हमें भी अपनी बेटी पर फख्र होता है.

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