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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday, 19 May 2017

तब नक्सल इलाके में छत पर सोने में घबराहट सी होती थी: ज्योति शर्मा, सीनियर सब एडिटर, राष्ट्रीय सहारा


ससुराल के वो शुरूआती दिन 
By: Rakesh Singh 'Sonu'





जब मेरी शादी हुई मैं दैनिक आज, पटना में रिपोर्टर थी और मेरे पति दैनिक जागरण में थें. ससुर जी तब बोकारो में सेटल थें लेकिन शादी के अगले दिन कुछ विध व्यवहार करने के लिए ससुराल जाना था जो औरंगाबाद के एक गांव में था जो तब नक्सल प्रभावित इलाका हुआ करता था. मैंने सुना कि वहां मुझे लम्बा सा घूँघट तानकर रहना पड़ेगा लेकिन सिर्फ एक दो ही दिन रुकना है. मगर वहां जाने पर मुझे गांव घर के कड़े नियम कायदों को झेलते हुए 10 दिनों तक रुकना पड़ गया. चौठारी के दिन ससुराल में घर की महिलाएं आकर मुझे सिंदूर लगा रही थीं. न मैं ठीक से उन्हें देख पा रही थी और न वो मुझे क्यूंकि रीति रिवाजों के तहत तब मैंने अपना चेहरे को लम्बे घूँघट से ढक रखा था. उसी दरम्यान मेरे पास एक बूढी महिला आयीं और मुझे सिंदूर लगाने के लिए उन्होंने घूँघट के अंदर अपना हाथ डाला और ठीक से न देख पाने की वजह से सिंदूर मेरे मुंह यानि होठों पर लगाते हुए मांग तक ले गयीं... मुझे परेशानी हुई तो किसी की आवाज सुनाई दी कि " अरे अम्मा, तनी देख के सिंदूर लगावा बहुरिया के." लम्बा घूँघट डालने की वजह से मैं भी उन बूढी महिला को ठीक से देख ना पायी. मुझे मायके में सिखाया गया था कि ससुराल में रस्मो रिवाजों के बीच हंसना नहीं है. लेकिन सच बताऊँ, ये सब देखकर मुझे अंदर ही अंदर बहुत हंसी आ रही थी.
   तब गांव में बिजली की समस्या थी और रात को सभी छ्त पर ही सोते थे. मैं जितने दिन वहाँ रही मुझे भी घर की महिलाओं के साथ छत पर सोना पड़ा. नक्सल प्रभावित इलाका होने की वजह से गांव में तब रणवीर सेना और माले का बहुत खौफ था.उसी वजह से मुझे छत पर सोने में बहुत घबराहट सी महसूस होती थी, और यह मन का डर उजाला होने के बाद ही खत्म हो पाता था.


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