By : Rakesh Singh 'Sonu'
अभिनय की शिक्षा लेकर ड्रामा स्कूल से निकले थें. स्क्रिप्ट को पढ़ना और कई बार पढ़ते रहना बहुत होता था. जब पहली बार आप शूटिंग पर होते हैं तो आपके जेहन में यही चल रहा होता है कि मुझे यही जिंदगी बितानी है...यही मेरा काम है...यही मुझे करते रहना है. मुझे पहला काम 'चाणक्य' सीरियल में मिला था. उसके डायरेक्टर चंदप्रकाश जी खुद दिल्ली आये थें ड्रामा स्कूल में और उन्होंने मुझे भी सेलेक्ट किया था. मुंबई में शूटिंग होनी थी. जब हम वहां पहुंचे तो देखा कि वैसा कुछ है नहीं जो मेरे से मेल खा रहा था. वहीँ शूटिंग पर ही मैंने डिसाइड किया कि बॉस ये पढ़ाई, स्क्रिप्ट रीडिंग वगैरह नहीं चलेगा. वे आपसे मेल नहीं खा रहे हैं लेकिन उनकी जैसी भी सोच हो आपको उनके साथ मेल खाना है. शूटिंग में मेरा एक कलीग था दीपराज राणा जो इलाहाबाद का है. रात में जंगलों में शूटिंग हो रही थी. मैं कहीं किनारे में बैठा हुआ था कि तभी अचानक दीपराज मेरी तरफ ऐसे आ रहा था जैसे मेरे पीछे कुछ है. वो चीखा "शेर आ गया...अरे शेर-शेर !" मैं बिना देखे वहां से उठकर भागा और शूटिंग कर रहे डायरेक्टर को जाकर बोला "सर, शेर आ गया." बाद में सब हंसने लगे तो पता चला कि वो मजाक कर रहा था. हम दो एपिसोड की शूटिंग शायद एक हफ्ते में करते थें. पंद्रह सौ रुपया एपिसोड मिलता था. जब तीन हजार एक हफ्ते में मिला तो लगा कि अरे ये तो बहुत ज्यादा कमाई होने लगी. इतना का क्या करेंगे..? लेकिन हमसे जो बड़े एक्टर थें उनका तीन तो किसी का पांच हजार रूपये प्रति एपिसोड था. मैं सोचता कि वे लोग इतने पैसों का क्या करते होंगे.
मैं मुंबई का वही इलाका घूमा था जो मुझे सिनेमा में दिखाया गया था. हर शहर के दो इलाके होते हैं. एक जिन इलाकों की वजह से वो जाना जाता है और एक जो आस-पास धीरे-धीरे बन रहा है. मैं उन इलाकों में काफी घूमता था, मुझे बहुत अच्छा लगता था. पूरे ब्रिटिश राज की तरह की टैक्सियां, दुकाने और वहां की थोड़ी लैंग्वेज अलग थी. उसी शूटिंग के दौरान घुड़सवारी का शौक बहुत जबरदस्त हो गया था. मैं दौड़ते हुए घोड़े को गिरा भी सकता था और फिर उसको गिराकर सीधे उठकर भाग भी सकता था. लेकिन जो फ़िल्मी घोड़े होते हैं वो 9 टू 6 का टाइमिंग समझते हैं, कि नौ बजे शूटिंग पर जाना है और अगर कुछ इंस्ट्रक्शन नहीं मिला तो 6 बजते ही दो-तीन किलोमीटर अपने अस्तबल की तरफ भागते हैं.
वहां एक बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था. ऐसे ही एक शाम वह घोड़ा लेकर जो आये थें मैंने उनसे कहा -"यार मुझे एक बार इस घोड़े पर राइडिंग कर लेने दो." शाम में 6 बजा था, हमलोग रोड के इस साइड से उस साइड शिफ्ट कर रहे थें. हम घोड़े को उठायें और बहुत बड़ी चुटिया लिए चाणक्य के ही कॉस्ट्यूम में मोटे जनेऊ एवं पीले रंग की धोती पहने घोड़े पर सवार हो गया. वो घोडा आगे दौड़ते-दौड़ते थोड़ी देर बाद अपने अस्तबल जाने के लिए शहर में घुस गया. मैंने बहुत रोकने की कोशिश की लेकिन वह रुका ही नहीं. धीरे-धीरे बस-ऑटो आने लगें. ट्रैफिक में सब देख रहे हैं कि ये कौन है जो ऐसी वेशभूषा में घोड़े पर सरपट भागा जा रहा है. फिर वहां शूटिंग वाले लोग आएं और कहने लगें- "अरे सर, इसको लगा पैकअप हो गया तो इधर भाग आया."
पहली शूटिंग थी इसलिए मैं थोड़ा नर्वस था और तब लाइफ में पहली बार 28 टेक देने का रिकॉर्ड भी बनाया. रात में जा बैठा किसी रेस्टोरेंट के कोने में, इसी गम में थोड़ी शराब पी रहा था. रुलाई आ गयी कि साला यही काम करने आये हैं और पहले ही दिन 28 टेक दे दिए. तभी सुरेश गोयल जो पुराने एक्टर हैं वो पीछे से आएं और मुझसे बोले- "नाम क्या है तेरा...?" मैंने कहा- "संजय मिश्रा !" उन्होंने कहा- "चिंता मत करो, आगे का भविष्य उज्जवल है तेरा. तू जिस तरह से शराब पी रहा है मैं देख रहा हूँ. अच्छा बता हुआ क्या है?" मैंने कहा- "28 टेक हो गए सर". वे बोले "अच्छा चिंता मत कर वही लोग गिरते हैं जो उठते हैं. और वही लोग उठते हैं जो गिरते हैं." उनके शब्दों से तब थोड़ा मोटिवेट हुआ था मैं.
फिल्मों की बात करें तो मेरी पहली फिल्म थी 'ओ डार्लिंग ये हैं इण्डिया' जिसमे शाहरुख़ खान और दीपा शाही मुख्य भूमिका में थें. तब शाहरुख़ की ज्यादा फ़िल्में नहीं आयी थीं लेकिन उन्हें नाम से लोग जानने लगें थें. और फिल्म को डायरेक्ट कर रहे थें केतना मेहता. मैं जब ड्रामा स्कूल में था उस समय और आज भी मैं केतना मेहता का बहुत मुरीद हूँ. तो उनकी फिल्म में काम करके बहुत खुश था. फिल्म में मैं, राजेश जैस, आशीष विद्यार्थी और भी कई कलाकार लगभग अपनी उम्र के ही थें और ये उनकी भी पहली-दूसरी फिल्म थी. फिल्म में हमारा एक ग्रुप था जो सड़कों पर गाना गाता था जिसमे शाहरुख़ भी थें. मैं उस ग्रुप में में हारमोनियम बजानेवाला था. सिनेमा के लिए केतन मेहता का पागलपन और शाहरुख़ खान की एनर्जी बस ये दोनों चीजें मुझे भक्क कर देती थी. तो यही सब देखकर मैं भी अपनी एक्टिंग में केतन मेहता का पागलपन लेकर आया और जो शाहरुख़ खान में एनर्जी थी उससे मैंने सीखा कि जब आप काम में होते हैं तो किस तरह की एनर्जी की जरूरत होती है.
हांलांकि वो फिल्म ज्यादा चली नहीं लेकिन उस एक फिल्म ने मुझे जो साऊथ बॉम्बे के हर रास्ते पर कपड़ा बदलवाया और खाना खिलवाया. क्यूंकि नाईट शूट होता था तो कहीं भी चौराहे पर कॉस्ट्यूम बदल लेते थें. कहीं भी रास्ते पर बैठकर खाना खा लिए. चाणक्य से बड़ी अच्छी यादें उस फिल्म की रहीं. क्यूंकि चाणक्य टीवी सीरियल था जो किसी एक व्यक्ति विशेष को लेकर बना था लेकिन 'ओ डार्लिंग ये हैं इण्डिया' एक फिल्म बन रही थी जो किसी एक व्यक्ति विशेष के किरदार पर नहीं टिकी थी. पूरी फिल्म कॉमेडी थी. तब सुबह पैकअप के बाद मन करता कि जल्दी से रात हो और हम फिर शूटिंग पर जाएँ. वो सेट अपने आप में हर दिन एक कहानी थी क्यूंकि सड़क पर जेनरल पब्लिक के बीच में शूटिंग होती थी. मुंबई की नाईट लाइफ, लोगों का आना-जाना, भीड़-भाड़ देखना मेरे लिए बहुत मजेदार था. शाहरुख़ और हम एक टाइम में दिल्ली में थें. वो भी नए-नए मुंबई आये थें तो हमलोगों ही जैसे थें. सबसे घुलना-मिलना, बातचीत करना, साथ-साथ खाना खा लेना और शायद यही चीज ने उन्हें बाद में शाहरुख़ खान बना दिया. तब बहुत से लोग एक साथ शूटिंग में लोकल ट्रेन से पहुँचते थें. फिर सुबह-सुबह पांच-छः बजे जब आधी मुंबई नींद में होती तब पैकअप होते ही हम सभी लोकल ट्रेन से लौटते थें. क्या बताएं पहली फिल्म की शूटिंग की बड़ी ही मीठी यादें आज भी हम भूले नहीं हैं.
अभिनय की शिक्षा लेकर ड्रामा स्कूल से निकले थें. स्क्रिप्ट को पढ़ना और कई बार पढ़ते रहना बहुत होता था. जब पहली बार आप शूटिंग पर होते हैं तो आपके जेहन में यही चल रहा होता है कि मुझे यही जिंदगी बितानी है...यही मेरा काम है...यही मुझे करते रहना है. मुझे पहला काम 'चाणक्य' सीरियल में मिला था. उसके डायरेक्टर चंदप्रकाश जी खुद दिल्ली आये थें ड्रामा स्कूल में और उन्होंने मुझे भी सेलेक्ट किया था. मुंबई में शूटिंग होनी थी. जब हम वहां पहुंचे तो देखा कि वैसा कुछ है नहीं जो मेरे से मेल खा रहा था. वहीँ शूटिंग पर ही मैंने डिसाइड किया कि बॉस ये पढ़ाई, स्क्रिप्ट रीडिंग वगैरह नहीं चलेगा. वे आपसे मेल नहीं खा रहे हैं लेकिन उनकी जैसी भी सोच हो आपको उनके साथ मेल खाना है. शूटिंग में मेरा एक कलीग था दीपराज राणा जो इलाहाबाद का है. रात में जंगलों में शूटिंग हो रही थी. मैं कहीं किनारे में बैठा हुआ था कि तभी अचानक दीपराज मेरी तरफ ऐसे आ रहा था जैसे मेरे पीछे कुछ है. वो चीखा "शेर आ गया...अरे शेर-शेर !" मैं बिना देखे वहां से उठकर भागा और शूटिंग कर रहे डायरेक्टर को जाकर बोला "सर, शेर आ गया." बाद में सब हंसने लगे तो पता चला कि वो मजाक कर रहा था. हम दो एपिसोड की शूटिंग शायद एक हफ्ते में करते थें. पंद्रह सौ रुपया एपिसोड मिलता था. जब तीन हजार एक हफ्ते में मिला तो लगा कि अरे ये तो बहुत ज्यादा कमाई होने लगी. इतना का क्या करेंगे..? लेकिन हमसे जो बड़े एक्टर थें उनका तीन तो किसी का पांच हजार रूपये प्रति एपिसोड था. मैं सोचता कि वे लोग इतने पैसों का क्या करते होंगे.
मैं मुंबई का वही इलाका घूमा था जो मुझे सिनेमा में दिखाया गया था. हर शहर के दो इलाके होते हैं. एक जिन इलाकों की वजह से वो जाना जाता है और एक जो आस-पास धीरे-धीरे बन रहा है. मैं उन इलाकों में काफी घूमता था, मुझे बहुत अच्छा लगता था. पूरे ब्रिटिश राज की तरह की टैक्सियां, दुकाने और वहां की थोड़ी लैंग्वेज अलग थी. उसी शूटिंग के दौरान घुड़सवारी का शौक बहुत जबरदस्त हो गया था. मैं दौड़ते हुए घोड़े को गिरा भी सकता था और फिर उसको गिराकर सीधे उठकर भाग भी सकता था. लेकिन जो फ़िल्मी घोड़े होते हैं वो 9 टू 6 का टाइमिंग समझते हैं, कि नौ बजे शूटिंग पर जाना है और अगर कुछ इंस्ट्रक्शन नहीं मिला तो 6 बजते ही दो-तीन किलोमीटर अपने अस्तबल की तरफ भागते हैं.
वहां एक बहुत ही खूबसूरत घोड़ा था. ऐसे ही एक शाम वह घोड़ा लेकर जो आये थें मैंने उनसे कहा -"यार मुझे एक बार इस घोड़े पर राइडिंग कर लेने दो." शाम में 6 बजा था, हमलोग रोड के इस साइड से उस साइड शिफ्ट कर रहे थें. हम घोड़े को उठायें और बहुत बड़ी चुटिया लिए चाणक्य के ही कॉस्ट्यूम में मोटे जनेऊ एवं पीले रंग की धोती पहने घोड़े पर सवार हो गया. वो घोडा आगे दौड़ते-दौड़ते थोड़ी देर बाद अपने अस्तबल जाने के लिए शहर में घुस गया. मैंने बहुत रोकने की कोशिश की लेकिन वह रुका ही नहीं. धीरे-धीरे बस-ऑटो आने लगें. ट्रैफिक में सब देख रहे हैं कि ये कौन है जो ऐसी वेशभूषा में घोड़े पर सरपट भागा जा रहा है. फिर वहां शूटिंग वाले लोग आएं और कहने लगें- "अरे सर, इसको लगा पैकअप हो गया तो इधर भाग आया."
पहली शूटिंग थी इसलिए मैं थोड़ा नर्वस था और तब लाइफ में पहली बार 28 टेक देने का रिकॉर्ड भी बनाया. रात में जा बैठा किसी रेस्टोरेंट के कोने में, इसी गम में थोड़ी शराब पी रहा था. रुलाई आ गयी कि साला यही काम करने आये हैं और पहले ही दिन 28 टेक दे दिए. तभी सुरेश गोयल जो पुराने एक्टर हैं वो पीछे से आएं और मुझसे बोले- "नाम क्या है तेरा...?" मैंने कहा- "संजय मिश्रा !" उन्होंने कहा- "चिंता मत करो, आगे का भविष्य उज्जवल है तेरा. तू जिस तरह से शराब पी रहा है मैं देख रहा हूँ. अच्छा बता हुआ क्या है?" मैंने कहा- "28 टेक हो गए सर". वे बोले "अच्छा चिंता मत कर वही लोग गिरते हैं जो उठते हैं. और वही लोग उठते हैं जो गिरते हैं." उनके शब्दों से तब थोड़ा मोटिवेट हुआ था मैं.
फिल्मों की बात करें तो मेरी पहली फिल्म थी 'ओ डार्लिंग ये हैं इण्डिया' जिसमे शाहरुख़ खान और दीपा शाही मुख्य भूमिका में थें. तब शाहरुख़ की ज्यादा फ़िल्में नहीं आयी थीं लेकिन उन्हें नाम से लोग जानने लगें थें. और फिल्म को डायरेक्ट कर रहे थें केतना मेहता. मैं जब ड्रामा स्कूल में था उस समय और आज भी मैं केतना मेहता का बहुत मुरीद हूँ. तो उनकी फिल्म में काम करके बहुत खुश था. फिल्म में मैं, राजेश जैस, आशीष विद्यार्थी और भी कई कलाकार लगभग अपनी उम्र के ही थें और ये उनकी भी पहली-दूसरी फिल्म थी. फिल्म में हमारा एक ग्रुप था जो सड़कों पर गाना गाता था जिसमे शाहरुख़ भी थें. मैं उस ग्रुप में में हारमोनियम बजानेवाला था. सिनेमा के लिए केतन मेहता का पागलपन और शाहरुख़ खान की एनर्जी बस ये दोनों चीजें मुझे भक्क कर देती थी. तो यही सब देखकर मैं भी अपनी एक्टिंग में केतन मेहता का पागलपन लेकर आया और जो शाहरुख़ खान में एनर्जी थी उससे मैंने सीखा कि जब आप काम में होते हैं तो किस तरह की एनर्जी की जरूरत होती है.
हांलांकि वो फिल्म ज्यादा चली नहीं लेकिन उस एक फिल्म ने मुझे जो साऊथ बॉम्बे के हर रास्ते पर कपड़ा बदलवाया और खाना खिलवाया. क्यूंकि नाईट शूट होता था तो कहीं भी चौराहे पर कॉस्ट्यूम बदल लेते थें. कहीं भी रास्ते पर बैठकर खाना खा लिए. चाणक्य से बड़ी अच्छी यादें उस फिल्म की रहीं. क्यूंकि चाणक्य टीवी सीरियल था जो किसी एक व्यक्ति विशेष को लेकर बना था लेकिन 'ओ डार्लिंग ये हैं इण्डिया' एक फिल्म बन रही थी जो किसी एक व्यक्ति विशेष के किरदार पर नहीं टिकी थी. पूरी फिल्म कॉमेडी थी. तब सुबह पैकअप के बाद मन करता कि जल्दी से रात हो और हम फिर शूटिंग पर जाएँ. वो सेट अपने आप में हर दिन एक कहानी थी क्यूंकि सड़क पर जेनरल पब्लिक के बीच में शूटिंग होती थी. मुंबई की नाईट लाइफ, लोगों का आना-जाना, भीड़-भाड़ देखना मेरे लिए बहुत मजेदार था. शाहरुख़ और हम एक टाइम में दिल्ली में थें. वो भी नए-नए मुंबई आये थें तो हमलोगों ही जैसे थें. सबसे घुलना-मिलना, बातचीत करना, साथ-साथ खाना खा लेना और शायद यही चीज ने उन्हें बाद में शाहरुख़ खान बना दिया. तब बहुत से लोग एक साथ शूटिंग में लोकल ट्रेन से पहुँचते थें. फिर सुबह-सुबह पांच-छः बजे जब आधी मुंबई नींद में होती तब पैकअप होते ही हम सभी लोकल ट्रेन से लौटते थें. क्या बताएं पहली फिल्म की शूटिंग की बड़ी ही मीठी यादें आज भी हम भूले नहीं हैं.
No comments:
Post a Comment