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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Saturday 19 January 2019

तंगहाली के दिनों में मुझे रंगभेद का शिकार होना पड़ा था : सविता, रिपोर्टर, दैनिक हिंदुस्तान, पटना

By: Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा जन्म बिहार के नालंदा जिले में सिलाव के करियन्ना गांव में हुआ. चार भाई-बहनों में मैं एकलौती बहन हूँ. 9 वीं क्लास में कुछ घरेलू समस्याओं की वजह से मेरी पढ़ाई छूट गयी. आस-पास का मौहाल ही ऐसा था कि लड़कियों को पढ़ाने की मेंटिलिटी नहीं थी. तो आस-पड़ोस के माहौल को देखते हुए सभी ने पढ़ाई छुड़ाने को कह दिया. दबाव में दो-तीन महीने पढ़ाई छोड़ दी. लेकिन फिर मेरे टीचर ने मुझे वहां से आगे बढ़ाया. घरवालों को समझाया कि "ये लड़की पढ़ने में तेज है तो इसे घर पर क्यों बैठाया जा रहा है." जब गार्जियन पूरी तरह से तैयार नहीं हुए तो टीचर ने कहा कि "मैं बिना पैसे के इसको पढ़ाऊंगा." मैं एक साल स्कूल में बिना फीस दिए पढ़ी और मैट्रिक फर्स्ट डिवीजन से किया. उसके बाद फिर मेरी पढ़ाई रुक गयी. तब मैंने खुद से रिस्क लिया और घर में सबको कह दिया कि "मैं जॉब करके पढूंगी." मैंने 6 महीने ग्राफिक डिजाइनिंग सीखी और पार्ट टाइम जॉब भी किया. तब 600 सौ रुपया मिल जाता था मुझे. उसके बाद इंटर किया फिर मगध महिला कॉलेज से मैंने गणित से स्नातक किया. मुझे रोका-टोका बहुत गया मगर जो तब विरोध करते थें वही अब कहते हैं कि "तुम मेरे घर नहीं आती हो." बहुत तरह की बातें हुईं. जब मैं ग्राफिक डिजाइनिंग की जॉब करने गयी तो रंगभेद कि शिकार हुई. हमको कोई नहीं लेता था कि अरे काली है, जगह फुल हो गया है कहकर बहाने बना देते थें. फिर भी हार नहीं मानी. तब डाकबंगला चौराहे पर महाजन आर्ट्स में गयी जहाँ मुझे सेलेक्ट कर लिया गया. लगभग 2 साल काम किया. तब इंटर पास करके आयी थी और पढ़ाई भी कर रही थी. सुबह से ढ़ाई बजे तक काम करती फिर कॉलेज निकल जाती.
 पत्रकारिता में आने के पीछे भी एक कहानी है. मैं जहाँ डिजाइन बनाती थी वहां पर होर्डिंग बनाने के लिए विश्व हिन्दू परिषद से कुछ लोग आये हुए थें. वह मुफ्त में 12 दिन का पत्रकारिता कोर्स करवाते थें. मैं बचपन से ही कवितायेँ लिखती थी तो लिखने का थोड़ा बहुत हुनर आ गया था. और शुरू से ही देखती कि पत्रकारिता कर रही महिलाओं को सम्मान की नजर से देखा जाता है. गांव में मेरे चचेरे दादा की हत्या हो गयी थी और दोषियों को सजा नहीं मिल पायी थी. मेरे मन में हमेशा ये बात कचोटती कि हमलोग गरीब थें , उतना सोर्स नहीं था तभी ऐस हुआ. शायद वही सोच आगे चलकर हावी हो गयी. जब उनलोगों से सुने कि पत्रकारिता का कोर्स मुफ्त में हो रहा है तो मैंने जाकर कोर्स किया. फिर एक दिन विज्ञापन देखा कि एक लोकल अख़बार में जगह खाली है. मैं गयी तो वहां पर लगभग दो महीने काम की. ढ़ाई हजार सैलरी की बात हुई थी लेकिन पैसे नहीं मिले. मैंने कहा भी कि "फैमली में आर्थिक दिक्क्त है दे दीजिये.' फिर भी उन्होंने नहीं दिया. तब मैंने जॉब छोड़ दिया. उसके बाद मैं एक और अख़बार में गयी जहाँ दो महीने काम किया. तब मैं ग्राफिक डिजाइनिंग का काम छोड़ वेबसाइट बनाने लगी थी. बोरिंग रोड की एक कम्पनी जो वेबसाइट बनाने का काम करती थी वहां पर मैं गयी और 4 घंटे का पार्ट टाइम जॉब करने लगी. लगभग 3 महीने वहां काम की.
उसी वक़्त एक बड़े पत्रकार जिन्होंने अपनी पत्रिका शुरू की थी ने मुझसे सम्पर्क किया. उन्हें लोगों ने बताया था कि "एक लड़की भटकती मिलती है, लगता है उसमे पत्रकारिता का जुनून है." उनके पास गयी तो काम करने लगी. लेकिन बहुत अच्छा काम नहीं मिलता था. पैसे भी कम थें. घर में भी प्रेशर था. ताने मिलते कि "कुछ काम-धाम करती नहीं है सिर्फ बैग टांगकर घूमते रहती है." तो ऐसे में हताश होकर अक्सर गाँधी मैदान में बैठकर घंटों रोती थी.
 उन्ही दिनों दैनिक हिन्दुस्तन अख़बार के संपादक अकु श्रीवास्तव को एक दिन फोन किया और कहा 'सर, मैं लिखना चाहती हूँ. क्या आपके अख़बार में जगह खाली है...?' उन्होंने कहा- "देखिये मेरे यहाँ 5 बजे मीटिंग होती है तो आप उससे पहले आ जाइये." मैं चली गयी तो एक खबर देकर वे बोले- "इसको लिखकर हमे दिखाइए." उन्होंने और कुछ पूछा नहीं. मैंने उसी समय न्यूज बनाकर दे दिया. वे बोले- 'आप अच्छा फीचर लिख सकती हैं." फिर वहां के फीचर इंचार्ज के पास भेज दिया. हमारा प्लस पॉइंट था कि हम कम्प्यूटर के अच्छे जानकार थें. डिजाइनिंग भी जानते थें. उस समय हमें पत्रकारिता का उतना ज्ञान नहीं था. बेसिक चीजें जानती थीं लेकिन शब्दों से खेलना नहीं आता था. मैंने वहां फीचर के लिए लिखना शुरू किया. वहां फीचर डिपार्टमेंट में लोग कम थें और नया डिजाइन 2010 में लॉन्च हुआ था. इसका मुझे बहुत फायदा मिला. खाली समय में मैं लोगों को कम्प्यूटर सिखाती थी और वे मुझे लिखना सिखाते थें. इसी बहाने सब मुझे जानने लगें. उसके बाद 2011 में ही फीचर बंद हो गया. फिर मुझे प्रादेशिक में भेज दिया गया. क्यूंकि मुझे पेज बनाने आता था. वहां मैं पेज डिजाइन करने लगी. तब मेरे पूरे परिवार में मेरे जितना कोई लड़की पढ़ी नहीं थी. मैंने जॉब करते हुए पटना यूनिवर्सिटी से मॉस कम्युनिकेशन में पी.जी. किया.
 उस दौरान मेरे में लिखने की भूख बहुत थी. एक दिन हम बड़ी सी खबर लिख दिए थें महिला छत्रावास पर कि यहाँ लड़कियों के लिए छात्रावास नहीं है जिसकी वजह से वे परेशान होकर भटकती हैं. उसी दिन दिल्ली से प्रधान संपादक आये थें. खबर देखे थें. जब सारे रिपोर्टर्स की मीटिंग ले रहे थें तब मेरे खबर की चर्चा किएँ और मुझे खोज भी रहे थें. शाम में सर ने बुलाया और ये बातें बतायीं. कुछ दिनों बाद स्थानीय संपादक का ट्रांसफर हो गया और उनकी जगह पर नए संपादक के.के. उपाध्याय आएं. वो हमसे बिना बात किये हुए हमको रिपोर्टिंग में ले लिए. मई 2012 में हम रिपोर्टिंग में आ गए. उस समय से हमको महिला बीट दे दिया गया. मैं महिला कॉलेज, एग्रीकल्चर, महिला क्राइम देखती थी. तेजाब पीड़ितों पर बहुत काम किया है. शुरुआत हुई मनेर की एक घटना से जब चंचल नाम की लड़की पर तेजाब फेंका गया था. वह पी.एम.सी.एच. में भर्ती थी. मैंने बिना किसी को बताये पी.एम.सी.एच. जाकर उसकी स्टोरी की थी. उसके बाद पूरे जगह इस खबर की चर्चा हुई. उसके बाद मैं लगातार तेजाब पीड़िताओं पर खबर लिखती रही. कई पीड़िताओं की स्टोरी करने के बाद मैंने कुछ एन.जी.ओ. को कहा कि आपलोग इतना काम करते हैं तो इनके लिए भी कुछ कीजिये. तब वे लोग भी सक्रीय हुए. आज भी चाहे घरेलू हिंसा कि शिकार महिला हो, एसिड अटैक या रेप पीड़ित महिला हो उनकी स्टोरी करते हुए मेरा भी इमोशन उनसे जुड़ जाता है. और जब भी उनमे से किसी एक महिला को इंसाफ मिलता है मुझे भी गहरा सुकून मिलता है.

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