By : Rakesh Singh 'Sonu'
मेरा मायका पटना तो ससुराल विद्यापति नगर के पास चमथा गांव में है. ऐसे देखा जाये तो हमारा ससुराल बेगूसराय है लेकिन वो गाँव चार जिलों का बॉर्डर छूता हुआ है. हम 5 भाई-बहन हैं. पिताजी स्व.श्याम नारायण सिंह हाईकोर्ट में नौकरी किया करते थें. पटना के गोलघर के पास स्थित बांकीपुर बालिका विधालय से मैंने मैट्रिक किया था काफी अच्छे नंबरों से और इंटरमीडिएट मैंने पटना वीमेंस कॉलेज से किया. फिर ग्रेजुएशन किया भूगोल में पटना कॉलेज से. उसके बाद मैं पी.जी. की पढ़ाई करने जे.एन.यू. दिल्ली चली गयी क्यूंकि मैंने सुना था कि वहां बहुत अच्छा स्कोप है और काफी अच्छी पढ़ाई होती है. पी.जी. के बाद मैंने एम.फील. और फिर पी.एच.डी. किया. जब एम.फील. में एडमिशन लिया था उसी समय 1981 में मेरी शादी हो गयी.
पति अंजनी कुमार सिंह (वर्तमान में मुख्यमंत्री के सलाहकार) से वहीँ मेरी जान-पहचान हो चुकी थी. हमारी सोच, हमारी रूचि और हमारी शिक्षा में बहुत समानता थी और उसी वजह से हम एक-दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थें. जब हमारे घरवालों को हमारे बारे में पता चला तो हमारी शादी की बात चली. उस वक़्त तो जाति-प्रथा बहुत जोरों पर थी और संयोग से हमारी जाति भी समान थी. फिर इतनी सारी समानताओं की वजह से हमारे परिवारों ने आसानी से इस रिश्ते को एक्सेप्ट कर लिया. पढ़ाई के दौरान ही मेरी शादी हुई थी इसलिए ससुराल में हम 10-15 दिन ही रहें फिर बीच-बीच में गांव-ससुराल के कार्यक्रमों में शामिल होने आते रहें. चूँकि पति की नौकरी थी इसलिए हमको गांव में ज्यादा रहने का मौका नहीं मिला. पहली ट्रेनिंग पति की पूर्णिया में थी फिर दूसरे फेज की ट्रेनिंग के लिए वे मसूरी चले गएँ तब तक मेरा एम.फील हो रहा था. मैंने एम.फील कम्प्लीट किया और पति की पहली पोस्टिंग हजारीबाग में हुई. मैं उच्च शिक्षा हासिल करने में लग गयी और यू.जी.सी. का जेआरएफ नेट कम्प्लीट किया.
मेरा ससुराल मिथिलांचल का एक हिस्सा है. मेरे पति का घर काफी बड़ा था और परिवार भी संयुक्त था जो हाल-फ़िलहाल में एकल हुआ है. लेकिन तब भी और अब भी सभी एक आँगन में ही रहते हैं. जब मैं शादी के बाद पहली बार ससुराल गयी तो पति के बहुत सारे रिश्ते की भाभियाँ हमसे कई तरह के विध करवा रही थीं. बहुत रोचक अनुभव था. उन सभी का व्यवहार इतना मीठा था कि अनुभव नहीं हो पाया कि कौन चचेरी भाभी हैं और कौन पति की अपनी भाभी हैं. मैं बहुत प्रभावित थी क्यूंकि मेरा थोड़ा शहर का बैकग्राउंड था और मैं एकल परिवार से थी. मुझे सभी लोगों का आपस में जुड़ाव देखकर बहुत अच्छा लगा. पटना के परिवेश में इतना सहयोग-मिठास देखने को नहीं मिलता था. मेरे पति ने जब आईएएस कम्प्लीट किया था तो उस बात की गूंज पूरे इलाके में थी. मैं जबतक वहां रही तो दूर-दूर से विभिन्न टोलों से महिलाएं आती रहीं और आकर मेरा चेहरा घूंघट उठाकर आँखें मुंदवाकर देखती रहीं. तब मुझे अंदर से बहुत हंसी भी आती थी. लेकिन मैं किसी भी तरह का कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं करती थी. क्यूंकि वहां मैंने देखा इतना सुन्दर सबों का व्यवहार. मैं उन सभी चीजों का सुखद रूप से इंज्वाय कर रही थी. गांव से महिलायें आकर टिका-टिप्पणी करतीं कि बहू की आँख कैसी है, बहू की नाक कैसी है... विस्तार से बताती थीं. एक फिजिकल एपियरेंस होता है उसको देखती थीं. मुझे भी तरह-तरह बात-व्यवहार वाली महिलाओं को देखने का मौका मिला, बहुत अच्छा लग रहा था.
उस दौरान गांव में एकदम पानी नहीं पड़ रहा था, लगभग सूखे की स्थिति हो चली थी. फिर जब मेरी शादी हुई तो उसके बाद इतनी मूसलाधार बारिश हुई कि पूरा इलाका बाढ़ से एकदम डूब गया था. चूँकि पति का संयुक्त परिवार था तो उनके सारे बहन-बहनोई, उनके पूरे परिवारवाले दूर-दूर से आये थें. उतने सरे लोगों का एक ही जगह खाना बनता था. बारिश से घर का आँगन चारों ओर से भींगकर कीच-कीच हो जाता था. उतने लोगों के कपड़े सुखाने की दिक्क्त होती थी, रहने की दिक्कत भी होती थी. परेशानियां तो थीं लेकिन फिर भी पूरे गांववाले बड़े खुश थें कि "दुल्हन का लक्षण बहुत अच्छा है, इनका पांव पड़ते ही इतनी बारिश हुई, सूखी धरती की प्यास बुझ गयी."
हमारी एक छोटी ननद थीं जो अब नहीं हैं, उनके साथ मेरी बड़ी मधुर स्मृतियाँ थीं. वो मुझपर बहुत गर्व महसूस करतीं और मुझे कभी छोड़कर जाती ही नहीं थीं. उनको मेरी हर चीज बहुत सुंदर लगती थी. मेरा पहनने का तरीका, मेरा बाल सँवारने का तरीका, मेरा साज-श्रृंगार-गहने सारी चीजों से वो प्रभावित और खुश होती थीं. पूरा दिन मेरे इर्द-गिर्द मेरे साथ रहती थीं, सिर्फ सोने के समय मुझे छोड़ती थीं. वे अपनी सहेलियों को बुला-बुलाकर लातीं और तब उनकी बहुत छोटी-छोटी उम्र की सहेलियां मुझे देखने आती थीं. और उनसब के साथ खूब हंसी-ठिठोली होती थीं. मेरी बड़ी गोतनियां भी बड़ी कर्मठ थीं और वे काम करने के दरम्यान ही बीच-बीच में मजाक में मेरे हसबैंड को छेड़ देती थीं जो तब मुझे उतना समझ नहीं आता था क्यूंकि वो मैथली में बोलती थीं.
हम शादी करके जब गांव गए तो वहां पर सत्यनारायण भगवान की कथा हुई. वहां मैंने देखा कि शीतल प्रसाद जो हमारे घर में आमतौर पर कटोरे में बनता है वहां एकदम बड़े से दो टब में पूरा दूध-केला, भूना आटा, काजू-किशमिस डालकर तैयार किया जा रहा है. फिर जिसको जितना पीना है भरपेट ग्लास, जग से पिए. पूरे गांव में वह बाँटा गया. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक था. हमारी सास जो थीं बड़ी चुप-चुप रहनेवाली थीं लेकिन वो बड़ी उदार थीं. हमलोगों की शादी तब बिना दहेज़ के हुई थी और उन्होंने कोई भी दहेज़ की मांग नहीं की. वो बेटे की ख़ुशी से ही संतुष्ट थीं. ये बहुत बड़ी बात थी कि किसी का बेटा आईएएस हो जाये और जिसका पूरे इलाके में इतना नाम हो और उस दौरान वैसे वर को जब दहेज़ से तौले जाने का रिवाज था मैं बिना दहेज़ के शादी करके आयी थी. फिर भी सभी लोगों ने मुझे हाथों-हाथ लिया. बहुत प्यार-स्नेह दिया.
चूँकि मेरे पति कोई बहुत अमीर परिवार के भी नहीं थें और उनके पिता का भी देहांत हो चुका था. तब उनके यहाँ कोई कमानेवाला भी नहीं था. वे घर-खानदान में पहले थें जो इस तरह की नौकरी पकड़े थें. इसलिए मैं हमेशा अपने ससुरालवालों की शुक्रगुजार रहूंगी कि मेरे गुणों को महत्ता दी गयी ना कि दान-दहेज़ की. तो मुझे लगता है आज से कितने बरस पहले जब दहेज़ प्रथा का इतना बोलबाला था तब नारी को बिना दहेज़ आने पर इतना सम्मान मिलना यह बहुत बड़ी बात है. जबकि आज हमें दहेज़ ना लेने-देने का कठोर कानून लागू करना पड़ रहा है. पहले ससुरालवालों के मन में भी कहीं- ना-कहीं यह आशंका थी कि शहर की पढ़ी-लिखी बहू कैसी होगी लेकिन मेरे में क्षमता थी एडजस्ट करने कि क्यूंकि मैं पहले से बहुत ऊँचा व बड़ा ख्वाब लेकर नहीं गयी थी. मेरे व्यवहार की वजह से आज वही लोग ये कहा करते हैं कि साहब (मेरे पति) जिस ऊंचाई को आज छू रहे हैं उसमे मेरा भी बहुत योगदान है.
मेरा मायका पटना तो ससुराल विद्यापति नगर के पास चमथा गांव में है. ऐसे देखा जाये तो हमारा ससुराल बेगूसराय है लेकिन वो गाँव चार जिलों का बॉर्डर छूता हुआ है. हम 5 भाई-बहन हैं. पिताजी स्व.श्याम नारायण सिंह हाईकोर्ट में नौकरी किया करते थें. पटना के गोलघर के पास स्थित बांकीपुर बालिका विधालय से मैंने मैट्रिक किया था काफी अच्छे नंबरों से और इंटरमीडिएट मैंने पटना वीमेंस कॉलेज से किया. फिर ग्रेजुएशन किया भूगोल में पटना कॉलेज से. उसके बाद मैं पी.जी. की पढ़ाई करने जे.एन.यू. दिल्ली चली गयी क्यूंकि मैंने सुना था कि वहां बहुत अच्छा स्कोप है और काफी अच्छी पढ़ाई होती है. पी.जी. के बाद मैंने एम.फील. और फिर पी.एच.डी. किया. जब एम.फील. में एडमिशन लिया था उसी समय 1981 में मेरी शादी हो गयी.
पति अंजनी कुमार सिंह (वर्तमान में मुख्यमंत्री के सलाहकार) से वहीँ मेरी जान-पहचान हो चुकी थी. हमारी सोच, हमारी रूचि और हमारी शिक्षा में बहुत समानता थी और उसी वजह से हम एक-दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थें. जब हमारे घरवालों को हमारे बारे में पता चला तो हमारी शादी की बात चली. उस वक़्त तो जाति-प्रथा बहुत जोरों पर थी और संयोग से हमारी जाति भी समान थी. फिर इतनी सारी समानताओं की वजह से हमारे परिवारों ने आसानी से इस रिश्ते को एक्सेप्ट कर लिया. पढ़ाई के दौरान ही मेरी शादी हुई थी इसलिए ससुराल में हम 10-15 दिन ही रहें फिर बीच-बीच में गांव-ससुराल के कार्यक्रमों में शामिल होने आते रहें. चूँकि पति की नौकरी थी इसलिए हमको गांव में ज्यादा रहने का मौका नहीं मिला. पहली ट्रेनिंग पति की पूर्णिया में थी फिर दूसरे फेज की ट्रेनिंग के लिए वे मसूरी चले गएँ तब तक मेरा एम.फील हो रहा था. मैंने एम.फील कम्प्लीट किया और पति की पहली पोस्टिंग हजारीबाग में हुई. मैं उच्च शिक्षा हासिल करने में लग गयी और यू.जी.सी. का जेआरएफ नेट कम्प्लीट किया.
मेरा ससुराल मिथिलांचल का एक हिस्सा है. मेरे पति का घर काफी बड़ा था और परिवार भी संयुक्त था जो हाल-फ़िलहाल में एकल हुआ है. लेकिन तब भी और अब भी सभी एक आँगन में ही रहते हैं. जब मैं शादी के बाद पहली बार ससुराल गयी तो पति के बहुत सारे रिश्ते की भाभियाँ हमसे कई तरह के विध करवा रही थीं. बहुत रोचक अनुभव था. उन सभी का व्यवहार इतना मीठा था कि अनुभव नहीं हो पाया कि कौन चचेरी भाभी हैं और कौन पति की अपनी भाभी हैं. मैं बहुत प्रभावित थी क्यूंकि मेरा थोड़ा शहर का बैकग्राउंड था और मैं एकल परिवार से थी. मुझे सभी लोगों का आपस में जुड़ाव देखकर बहुत अच्छा लगा. पटना के परिवेश में इतना सहयोग-मिठास देखने को नहीं मिलता था. मेरे पति ने जब आईएएस कम्प्लीट किया था तो उस बात की गूंज पूरे इलाके में थी. मैं जबतक वहां रही तो दूर-दूर से विभिन्न टोलों से महिलाएं आती रहीं और आकर मेरा चेहरा घूंघट उठाकर आँखें मुंदवाकर देखती रहीं. तब मुझे अंदर से बहुत हंसी भी आती थी. लेकिन मैं किसी भी तरह का कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं करती थी. क्यूंकि वहां मैंने देखा इतना सुन्दर सबों का व्यवहार. मैं उन सभी चीजों का सुखद रूप से इंज्वाय कर रही थी. गांव से महिलायें आकर टिका-टिप्पणी करतीं कि बहू की आँख कैसी है, बहू की नाक कैसी है... विस्तार से बताती थीं. एक फिजिकल एपियरेंस होता है उसको देखती थीं. मुझे भी तरह-तरह बात-व्यवहार वाली महिलाओं को देखने का मौका मिला, बहुत अच्छा लग रहा था.
उस दौरान गांव में एकदम पानी नहीं पड़ रहा था, लगभग सूखे की स्थिति हो चली थी. फिर जब मेरी शादी हुई तो उसके बाद इतनी मूसलाधार बारिश हुई कि पूरा इलाका बाढ़ से एकदम डूब गया था. चूँकि पति का संयुक्त परिवार था तो उनके सारे बहन-बहनोई, उनके पूरे परिवारवाले दूर-दूर से आये थें. उतने सरे लोगों का एक ही जगह खाना बनता था. बारिश से घर का आँगन चारों ओर से भींगकर कीच-कीच हो जाता था. उतने लोगों के कपड़े सुखाने की दिक्क्त होती थी, रहने की दिक्कत भी होती थी. परेशानियां तो थीं लेकिन फिर भी पूरे गांववाले बड़े खुश थें कि "दुल्हन का लक्षण बहुत अच्छा है, इनका पांव पड़ते ही इतनी बारिश हुई, सूखी धरती की प्यास बुझ गयी."
हमारी एक छोटी ननद थीं जो अब नहीं हैं, उनके साथ मेरी बड़ी मधुर स्मृतियाँ थीं. वो मुझपर बहुत गर्व महसूस करतीं और मुझे कभी छोड़कर जाती ही नहीं थीं. उनको मेरी हर चीज बहुत सुंदर लगती थी. मेरा पहनने का तरीका, मेरा बाल सँवारने का तरीका, मेरा साज-श्रृंगार-गहने सारी चीजों से वो प्रभावित और खुश होती थीं. पूरा दिन मेरे इर्द-गिर्द मेरे साथ रहती थीं, सिर्फ सोने के समय मुझे छोड़ती थीं. वे अपनी सहेलियों को बुला-बुलाकर लातीं और तब उनकी बहुत छोटी-छोटी उम्र की सहेलियां मुझे देखने आती थीं. और उनसब के साथ खूब हंसी-ठिठोली होती थीं. मेरी बड़ी गोतनियां भी बड़ी कर्मठ थीं और वे काम करने के दरम्यान ही बीच-बीच में मजाक में मेरे हसबैंड को छेड़ देती थीं जो तब मुझे उतना समझ नहीं आता था क्यूंकि वो मैथली में बोलती थीं.
हम शादी करके जब गांव गए तो वहां पर सत्यनारायण भगवान की कथा हुई. वहां मैंने देखा कि शीतल प्रसाद जो हमारे घर में आमतौर पर कटोरे में बनता है वहां एकदम बड़े से दो टब में पूरा दूध-केला, भूना आटा, काजू-किशमिस डालकर तैयार किया जा रहा है. फिर जिसको जितना पीना है भरपेट ग्लास, जग से पिए. पूरे गांव में वह बाँटा गया. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक था. हमारी सास जो थीं बड़ी चुप-चुप रहनेवाली थीं लेकिन वो बड़ी उदार थीं. हमलोगों की शादी तब बिना दहेज़ के हुई थी और उन्होंने कोई भी दहेज़ की मांग नहीं की. वो बेटे की ख़ुशी से ही संतुष्ट थीं. ये बहुत बड़ी बात थी कि किसी का बेटा आईएएस हो जाये और जिसका पूरे इलाके में इतना नाम हो और उस दौरान वैसे वर को जब दहेज़ से तौले जाने का रिवाज था मैं बिना दहेज़ के शादी करके आयी थी. फिर भी सभी लोगों ने मुझे हाथों-हाथ लिया. बहुत प्यार-स्नेह दिया.
चूँकि मेरे पति कोई बहुत अमीर परिवार के भी नहीं थें और उनके पिता का भी देहांत हो चुका था. तब उनके यहाँ कोई कमानेवाला भी नहीं था. वे घर-खानदान में पहले थें जो इस तरह की नौकरी पकड़े थें. इसलिए मैं हमेशा अपने ससुरालवालों की शुक्रगुजार रहूंगी कि मेरे गुणों को महत्ता दी गयी ना कि दान-दहेज़ की. तो मुझे लगता है आज से कितने बरस पहले जब दहेज़ प्रथा का इतना बोलबाला था तब नारी को बिना दहेज़ आने पर इतना सम्मान मिलना यह बहुत बड़ी बात है. जबकि आज हमें दहेज़ ना लेने-देने का कठोर कानून लागू करना पड़ रहा है. पहले ससुरालवालों के मन में भी कहीं- ना-कहीं यह आशंका थी कि शहर की पढ़ी-लिखी बहू कैसी होगी लेकिन मेरे में क्षमता थी एडजस्ट करने कि क्यूंकि मैं पहले से बहुत ऊँचा व बड़ा ख्वाब लेकर नहीं गयी थी. मेरे व्यवहार की वजह से आज वही लोग ये कहा करते हैं कि साहब (मेरे पति) जिस ऊंचाई को आज छू रहे हैं उसमे मेरा भी बहुत योगदान है.
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