मेरा जन्म बिहार के सुपौल (तब के सहरसा) जिले के 'बलुआ बाजार' गांव में हुआ था. गांव में ही हाई स्कूल तक की पढ़ाई हुई. टी.एन.जी. कॉलेज, भागलपुर से ग्रेजुएशन फिर एम.ए. किये बिहार यूनिवर्सिटी, मुजफ्फरपुर से और वहीँ से पी.एच.डी. भी कियें. 1960 में वहीँ पर लेक्चरर नियुक्त हो गए. उस ज़माने में मार्क्स के आधार पर बहाली होती थी, हम सेकेण्ड आये थें यूनिवर्सिटी में. स्कूल में मैंने विधार्थियों की एक मण्डली बना रखी थी. उनकी मदद से हम हर रविवार को सफाई का काम करते थें. रात में प्रौढ़ शिक्षा का काम करते थें. हमारा उद्देश्य था गांव को साफ-सुथरा रखना और गांव के अनपढ़ बूढ़े-बुजुर्गों को सरकार के प्रौढ़ शिक्षा अभियान के तहत 10-12 टोलों में साथियों के सहयोग से लालटेन जलाकर पढ़ाने का काम होता था. यह मैट्रिक तक चला. फिर हम भागलपुर पढ़ने चले गए. लेकिन मैट्रिक देने के तुरंत बाद हम सीधे चले गए चांडिल, सिंहभूम जिले में. वहां विनोबा जी का सम्मलेन हो रहा था सर्व सेवा संघ का. उनके माध्यम से हम जयप्रकाश जी के सम्पर्क में आ गएँ. जयप्रकाश जी ने विद्यार्थी के हैसियत से मुझसे कहा- "जो तुम कल कॉलेज जा रहे हो तो विधार्थियों के बीच सर्वोदय अभियान को चलाओ. तुम अगर संगठन कर सकोगे तो हम भी तुम्हारे पास आएंगे." वहीँ जो मुझे जयप्रकाश जी का यह मैसेज मिला तो उत्साहित होकर कॉलेज जाकर मैंने सर्वोदय विद्यार्थी परिषद बनवाया. उसके वार्षिक सम्मलेन में तीन बार हमारे निमंत्रण पर जयप्रकाश जी आये थें. उन दिनों विनोबा जी बिहार भर्मण पर थें. तब हर गर्मी छुट्टी में और पूजा छुट्टी में विनोबा जी जहाँ भी होते थें मैं चला जाता था. हम उनके भूदान यात्रा में शामिल होते थें, उन्ही का प्रवचन सुनते थें और उन्ही की किताब पढ़ते थें.
हमारे परिवार के लोग पॉलिटिक्स में थें. हमारे परिवार के 11 व्यक्ति स्वतन्त्रता सेनानी भी रहे हैं. मेरी शादी स्व. वीणा मिश्रा के साथ 1959 में हुई थी. मेरा ससुराल समस्तीपुर जिले में हुआ. हमरे ससुर जी भी बेगूसराय में संस्कृत के प्रोफेसर थें. मेरा शौक शुरू से ही लिखने-पढ़ने का रहा है. अभी तक 20 किताबें लिख चुका हूँ. अधिकांश किताबें अर्थशास्त्र से सम्बंधित हैं. मुझपर विनोबा भावे जी के भूदान आंदोलन का बहुत असर पड़ा. गाँधी थॉट के साथ हम उनके आंदोलन से जुड़ गए. उनके माध्यम से मैं जयप्रकाश नारायण जी के सम्पर्क में आया. मेरा देश के पॉलिटिक्स में आना ऐसे हुआ कि यूनिवर्सिटी की पॉलिटिक्स में हम इंट्रेस्टेड हो गएँ. सबसे पहले हम सीनेटर बनें, सिंडिकेट बनें और काफी दिनों तक यूनिवर्सिटी में रहें. इससे हमारी पहचान बढ़ गयी. 1968 में यूनिवर्सिटी का चुनाव हो रहा था. उस समय हमारे साथियों ने जो हमारे कामों के अंतर्गत सिंडिकेट की हैसियत से टीचर की समस्याओं को उठाया था तो उनलोगों का जोर था कि मैं कैंडिडेट बनूँ. लेकिन मैं मुजफ्फरपुर में कैसे लड़ूँ, मैं सहरसा का ठहरा. लेकिन तब सभी जात के लोगों ने कॉलेज में हमारा समर्थन किया तो हम खड़ा हो गए. तब मेरे बड़े भाई साहब स्व. ललित नारायण मिश्रा ने मुझे टोका कि "तुम कहाँ सहरसा के ठहरे, ब्राह्मण हो, मैथिलि भाषी हो फिर कैसे तुम करोगे..?" लेकिन हमने बैक नहीं किया और फिर 1968 में जीत भी गए . 1952 में मेरे बड़े भाई स्व. ललित मिश्रा जी भी स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जब जेल में थें तब उन्हें 5 साल की सजा हुई थी. तो उन्हें छुड़ाने के लिए हमारी माता जी बहुत व्याकुल थीं. उनको किसी ने बताया कि अगर ललित जो माफीनामा मांगेंगे तब उन्हें छोड़ दिया जायेगा. लेकिन हमारे पिताजी ने कहा कि "नहीं,ये नहीं हो सकता है, हमको तो ख़ुशी होती कि और लोगों की तरह हमारा बेटा भी शहीद हो जाता." वे 5 साल तक जेल में रहकर छूटें तो फिर टी.एन. बी. कॉलेज में लेक्चरर की बहाली में उनकी नौकरी लग गयी. पिता जी ने उनसे कहा कि "तुम्हें हम जेल से इसलिए नहीं छुड़ाए कि तुम देश के काम आओ, देश के लिए काम करो ये नौकरी-चाकरी नहीं." इसलिए उन्होंने फिर नौकरी छोड़ दी. पिता जी की मंशा थी कि हमारे परिवार का कोई सदस्य ऐसा हो जो कोशी नदी को बांधे. कोशी नदी से बाढ़ की बहुत पीड़ा थी. वहां रेल लाइन तो आ गयी थी लेकिन बाढ़ की वजह से सब बर्बाद हो गया था. हमारे पिताजी कहते थें कि "कोई सपूत हो हमारे परिवार का जो रेलगाड़ी ला दे और कोशी को बांधकर बाढ़ की विभीषिका से हमें बचाये. संयोग से स्व. ललित बाबू लोकसभा में चले गए. उस समय उन्होंने संघर्ष करके कुछ योजनाएं बनवाईं. रेल को बलुआ बाजार गांव तक पहुंचवाया और कोशी पर बांध भी बनवा दिया. जिसे हमने अपने कार्यकाल में ललित नारायण तटबंध के नाम से घोषित कर दिया.मैट्रिक में थे तब फुटबॉल खेलते थें. तब क्रिकेट या कोई और खेल में दिलचस्पी नहीं थी. तब हमें फिल्मों का शौक भी नहीं था. लेकिन एक बार एक सिनेमा हमने देखी 'सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र' ब्लैक एन्ड वाइट में. फिर जब भाई साहब दिल्ली में रहते थें तो वहां हमने देखा 'नया दौर' दिलीप कुमार और वैजन्ती माला अभिनीत. उसके बाद हमने कोई सिनेमा नहीं देखा क्यूंकि रूचि नहीं थी.
मेरी शादी 1959 में हुई. जब एम.ए. में थें और इम्तहान होनेवाला था उसी समय हमारी शादी हो गयी. हालांकि उस समय हम नहीं करना चाहते थें लेकिन हमारे बड़े भाई स्व. ललित बाबू ने हमारे ससुर जी को कमिटमेंट दे दिया था. चूँकि इम्तहान का साल था तो हम शादी क्यों करतें, बाद में करतें. लेकिन घरवालों की जिद्द की वजह से कर लिए. शादी में पत्नी को जो पति की तरफ से तौफा दिया जाता है उसमे हमने उनको भूदान आंदोलन पर विनोबा जी की एक साप्ताहिक पत्रिका दी थी. वे चौंक गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं कि क्या लड़का है, क्या तौफा लाया है...! शादी हो गयी तो भी हम पत्नी से दूर 6-7 महीना मुजफ्फरपुर में ही पढ़ते रहें. जब इम्तहान खत्म हुआ तब फिर ससुराल गएँ जो कि पटना में ही था. ससुरालवालों का उस ज़माने में एक नामी प्रेस था 'अजंता प्रेस' जहाँ से पत्रिकाएं निकलती थीं और वहां बड़े साहित्यकारों का जमघट लगा रहता था. हमारे ससुरालवाले साहित्यिक रुझानवाले थें. उनका एक साहित्यिक मंच भी था. लेकिन इसके बावजूद भी मुझे साहित्य की तरफ कभी आकर्षण नहीं हुआ. जब मैं कॉलेज में लेक्चरर हुआ तभी मेरी पहली किताब 'सार्वजनिक वित्त' के नाम से आयी थी.
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