By: Rakesh Singh 'Sonu'
12 वीं करने के बाद मेरी पढ़ाई रुक गयी थी. उसके पीछे कई वजहें थें. लड़कियों की पढ़ाई को लेकर हमारे घर में उतना सपोर्ट नहीं था. मैं जॉब भी करना चाहती थी लेकिन घर से परमिशन नहीं था. उसी दरम्यान दिल्ली के एक अंतर्जातीय लड़के से मुझे प्रेम हो गया और चूँकि घरवाले खिलाफ थें तो मैंने नादानी में दिल्ली भागकर उससे शादी कर ली. यह 2000 की बात है. शादी के कुछ ही दिनों बाद मुझे पता चला कि मेरे पति कुछ करते नहीं हैं. काफी झूठ बोलते थें, जगह-जगह से पैसे ले लेते और मुझे बताते नहीं थें. वो सारा दिन घर से बाहर रहते और कहते कि काम पर जा रहे हैं लेकिन कभी घर के लिए उनके पास से पैसे नहीं निकलते थें. तब घर चलाने के लिए मैंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. मेरा ट्यूशन क्लास दोपहर के बाद शुरू होता था तो मॉर्निंग टाइम में मैं कुछ सोशल एक्टिविटीज से जुड़ जाती थी. दिल्ली के एम्स में सीसीए है जहाँ कैंसर पेसेंट बच्चे होते हैं. वहां जाकर मैं एक-दो घंटा उन बच्चों के साथ बिताती थी. कभी उनको खाना खिला दिया तो कभी उनके साथ ड्रॉइंग बना लिया. वहां उन बच्चों के बीच जाने पर उनके पैरेंट्स बोलते थें - "आप आये हो ना तो मेरे बच्चे ने खाना खाया, खेल भी रहा है नहीं तो सारा दिन बेड पर पड़ा रहता था." तब मेरी लाइफ में इतना स्ट्रगल चल रहा था तो ऐसे में किसी की हेल्प करके, किसी के चेहरे पर मुस्कान लाकर बहुत सुकून मिलता था. कुछ साल बाद मैंने साइकोलॉजी ऑनर्स से ग्रेजुएशन कम्प्लीट किया. शादी बाद मैं कहीं घूमने भी नहीं जाती थी. सज-संवर कर अगर मैं थोड़ी तैयार भी हो जाऊं तो भी उनको ऑब्जेक्शन था कि क्यों बन-ठन रही हो, नहीं जानती कि दुनिया खराब है. यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी. लेकिन फिर सोचती कि चलो शायद यही प्यार है, यही लाइफ है और यही शादीशुदा जिंदगी में होता है. मैंने कहीं-ना-कहीं कॉम्प्रोमाइज कर लिया था. 7 साल तक यूँ ही चलता रहा. मैं माँ नहीं बन सकी क्यूंकि मुझे कुछ मेडिकल इश्यूज थें. पति को मेरा बच्चों को ट्यूशन पढ़ना तो खराब नहीं लगा लेकिन वे नहीं चाहते थें कि मैं बाहर कोई और जॉब करने जाऊं. मैं रात-दिन काम करती थी. अपनी तरफ से सौ परशेंट देती थी लेकिन फिर भी मुझे पति से लगातार ताने सुनने को मिलते थें. उन्हें हमेशा मुझसे प्रॉब्लम होती थी. कभी कहते कि तुम्हारा चेहरा अच्छा नहीं है, तुम मुझसे उम्र में बड़ी लगती हो. फिर मुझे लगा कि इतना प्रॉब्लम है इस मैरेज में तो फिर उसे आगे कंटीन्यू करने से क्या फायदा. मुझे एहसास हुआ कि जब इस बन्दे को मेरे साथ किसी भी चीज में ख़ुशी नहीं है तो अच्छा है मैं ही अलग हो जाऊं ताकि वो अपनी लाइफ अपने तरीके से जियें. ऐसे ही देखते-देखते जब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो मैंने फ़ाइनल डिसीजन लिया और उनसे कहा- "आप कुछ करते नहीं हो और मुझसे इतनी शिकायत रहती है तो मुझे छोड़ दो." और मैं हमेशा के लिए वो घर छोड़कर कहीं अकेली रहने लगी. इस दौरान मैं डिप्रेशन में रहने लगी और बहुत रोती रहती थी. मैंने कम उम्र की नासमझी की वजह से ये शादी करके जो गलती कर डाली थी उसका पछतावा तो हो रहा था लेकिन मेरे ख्याल से वो गलती इतनी बड़ी नहीं थी कि मैं दुखी होकर आत्महत्या कर लूँ. मैंने जिंदगी को एक और मौका देने का निश्चय किया.
मैं जो सपने पहले देखती थी उसे किसी वजह से पूरा नहीं कर पायी थी तो अब मैंने उन सपनो के पीछे भागना शुरू किया. मुझे ट्रैकिंग का शौक था, माउन्ट क्लाइम्बिंग का शौक था, एडवेंचर पसंद था. सबसे पहले मैं माउन्ट क्लाइम्बिंग की ट्रेनिंग लेने दार्जलिंग गयी. फर्स्ट ईयर में मैं फेल हो गयी. लेकिन मुझमे एक फाइटर वाली फीलिंग शुरू से थी इसी वजह से मैं शायद कभी हार नहीं मानती थी. तो मैंने नेक्स्ट ईयर फिर से ट्राई किया और मैं उसमे सक्सेस हुई. मैं वहां से बेसिक ट्रेनिंग कम्प्लीट करके दिल्ली लौट आयी. तब मेरे मायके में मेरी फैमली में कुछ प्रॉब्लम था और उन्हें मेरी जरुरत थी. मेरा सपोर्ट चाहिए था उनको. फिर मैं 2013 में दिल्ली से वापस बिहार आ गयी. कुछ दिनों बाद मैंने एक इंश्योरेंस कम्पनी में जॉब स्टार्ट किया और अपनी छोटी बहन के साथ पटना में ही रहने लगी. साथ-ही-साथ एक एनजीओ भी ज्वाइन किया. क्यूंकि मेरा मोटिव अब सिर्फ पैसे कमाना नहीं बल्कि समाज में एक रिस्पेक्ट चाहिए था. एक सिंगल वूमेन को बहुत सी परेशानियां होती हैं जो मुझे अकेली रहकर दिल्ली में भी झेलनी पड़ी थीं. पटना आयी तो यहाँ भी वही प्रॉब्लम थी कि एक सिंगल लड़की का अगर पता लग जाये कि वो अकेली है, कोई आगे-पीछे नहीं है तो हर कोई चांस मारना चाहता है. फिर धीरे-धीरे मेरा एनजीओ के प्रति अट्रैक्शन हुआ कि मुझे सोसायटी के लिए कुछ करना है. जो चीजें मेरी लाइफ में हुई हैं, जो मैंने झेला है एक सिंगल मुस्लिम लड़की के हिसाब से वो चीजें मैं दूसरी लड़कियों को बता सकूँ और उनको एक गाइडेंस दे सकूँ.
कई अलग-अलग एनजीओ से जुड़कर काम किया. वहां के बच्चों को जाकर पढ़ाया, लड़कियों की काउंसलिंग की. रेडलाइट एरिया और कहीं-से भी भागकर संस्था में आनेवाली लड़कियों को मोटिवेट किया पढ़ने के लिए. तो ये छोटे-छोटे स्टेप मैंने लेने शुरू किये. जनवरी, 2017 में मेरी एक लड़की से मुलाकात हुई जो माउंटेनियर है. उस लड़की को माउन्ट एवरेस्ट क्लाइम्बिंग के लिए फंड चाहिए था. उसने मुझसे हेल्प मांगी कि वो कुछ करना चाहती है. तब उसकी जगह मैंने खुद को रखकर सोचा जैसे मैं भी जब यंग एज में थी तो मुझे भी कुछ अलग करना था लेकिन मुझे कोई गाइड नहीं कर रहा था, कोई सपोर्ट नहीं कर रहा था. मैंने उसकी मदद की. उससे मिलना मेरे लिए एक बहाना हो गया. उससे दो चीजें हुईँ. एक तो उस लड़की की मदद हो गयी और मेरा कॉन्फिडेंस लेवल भी हाई हो गया.फिर एहसास हुआ कि मुझे भी कुछ अलग करना है जो एक मिसाल बने.
डिसाइड हुआ कि साइकिलिंग करेंगे और ऑल इण्डिया सायकिल से जायेंगे. मैंने अपने लिए सायकलिंग इसलिए चुनी कि मेरे पास फंडिंग नहीं थी और ना किसी से ज्यादा जान-पहचान थी. तो लगा कि कुछ ऐस किया जाये जो बिहार के हित में हो, जो बिहार की लड़कियों को मोटिवेट कर सके. इसके लिए जब मैं कुछ लोगों से हेल्प लेने गयी तो सबने बोला- "लड़की हो, ऐसे करोगी, ऐसे जाओगी, कुछ हो जायेगा तो..?" तब मुझे लगा कि ये जो धारणा है समाज में कि लड़की है, तो यहाँ नहीं जा सकती, वो नहीं कर सकती मुझे इसी को तोड़नी है कि लड़की भी अगर ठान ले तो कुछ भी कर सकती है. इस जर्नी में हम दो लड़कियां थीं. हम जब निकलें तो एन.सी.सी. के लोगों ने भी हमारी मदद की. और एन.सी.सी.वालों से मुझे एक स्वयंसेवी संस्था की वैष्णवी जी ने मिलवाया था. रुकावटें बहुत आयीं लेकिन जब हमने हौसला किया तो रास्ता खुद-ब-खुद बनते गया. हमारे पास गेयरवाली सायकल खरीदने के पैसे नहीं थें. हमने बाद में लोकल इंडियन कम्पनी का ही सायकल लिया था. हमने बहुत कम बजट में स्टार्ट किया था. तब हमारा बैंक एकाउंट भी जीरो था. लेकिन हौसला बहुत था. जब हमसे पूछा गया कि "आपके पास सायकल है..? आपके पास में कुछ पैसे हैं..?" तो हमने कहा- "हाँ हैं, बस आप हमें परमिशन दे दीजिये." फिर मैंने कर्ज लेकर सायकल ली.
27 जनवरी 2017 को हमलोग पटना के कारगिल चौक से निकले थें. हमारा सबसे पहला डेस्टिनेशन आरा था. यानि हमलोग बिहार से यू.पी. गए फिर उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब होते हुए कई राज्यों से गुजरते हुए लास्ट में हमने नॉर्थ ईस्ट कम्प्लीट किया था. फिर पूरा 29 राज्य कवर किया जिसमे 173 दिन लगे थें. यानि छह महीने में हमने 12 हजार 800 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 173 दिन में हम ऑल इंडिया ट्रैवल करते हुए 18 जुलाई, 2017 को पटना पहुंचे थें. उस सायकल यात्रा में बहुत सारे अनुभव रहें. बिहार में जब हम आरा से बक्सर की तरफ आगे बढ़ रहे थें तो सरस्वती पूजा के लिए चंदा मांगनेवाले बच्चे- लड़के हमारी सायकिल रोकने की कोशिश कर रहे थें. कुछ लोग बहुत दूर-दूर तक बाइक से हमें फॉलो करते थें, साथ-साथ चलते थें और कमेंट पास करते थें. पहले तो हम उन्हें इग्नोर कर देते फिर डराने के लिए कह देते कि पुलिस हैं, ट्रेनिंग चल रही है. इसी तरह से अपना बचाव करते थें. इस यात्रा के दौरान मेरा एक्सीडेंट भी हुआ. मैं बीमार भी पड़ी, बी.पी. भी लो हुआ. मतलब हर तरह के एक्सप्रियंस मिले. कहीं-कहीं हाइवे इतना लम्बा होता था कि कहीं कोई दुकान नहीं, कुछ भी नहीं, पानी तक नहीं मिलता. जब हम जम्मू जा रहे थें, उस रास्ते में कुछ लड़कों ने हमपर कमेंट किया था और हमे रोक लिया था. तब मेरी सायकिल खराब हो गयी थी और मैं वॉक करके सायकिल खींचकर आगे बढ़ रही थी, शॉप ढूंढ़ रही थी तो उसी दौरान दो लड़के आये और उन्होंने रोककर कहा- "कहाँ जा रहे हो..?" तब मेरे साथवाली लड़की 20 मीटर की दूरी पर थी. मैंने कहा- "जम्मू." वे बोले- "पता है हम कौन हैं...? हम शाम्भा के राजा हैं, तुम दो लड़कियां अकेली जा रही हो डर नहीं लगता...?" मैंने कहा- "नहीं, डर क्यों लगेगा...!" उनके ग्रुप के ही 5-6 लड़के थोड़े आगे खड़े थें. उस सिचुएशन में मैं प्रिपेयर्ड थी कि अगर इन्होने कुछ किया तो सायकिल इनके मुँह पर फेंकर इन्हे पत्थर मारूंगी, लेकिन डरूंगी नहीं. उसके बाद उन्होंने एक ही लाइन बोला, "जय माता दी" और वहां से चले गए. उस दौरान डर तो हमें लग रहा था लेकिन हम डर को चेहरे पर हावी नहीं होने दिए. यात्रा में जगह-जगह पड़नेवाले स्कूल-कॉलेजों में हम विजिट करते और वहां के बच्चों को मोटिवेट करते, यही मेरे सायकलिंग का मुख्य मकसद था. मैं उनके बीच जाकर बोलती कि "मैं बिहार से आयी हूँ. एक लड़की होकर ऑल इण्डिया साइकिलंग कर सकती हूँ तो आप भी बहुत कुछ कर सकते हो."
अभी मेरा खुद का पटना में एनजीओ है 'मेक ए न्यू लाइफ फाउंडेशन' जिसके तहत मैं मुख्यतः लड़कियों-महिलाओं के लिए काम करती हूँ. और अन्य कई स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर भी वर्क करती हूँ. यहाँ के लड़के-लड़कियों में बहुत एनर्जी है, लेकिन उनको दिशा नहीं है कि अपनी एनर्जी को कहाँ पर इन्वेस्ट करना है. तो मुझे उनके लिए कुछ करना है. मेरा मकसद उन्हें इस रूप में भी जागरूक करना है कि आप देश के लिए, समाज के लिए कुछ करना चाहो तो इसके लिए किसी पोस्ट या पद की जरुरत नहीं है. बस जरुरत है तो जज्बे की. आप एक हिंदुस्तानी, आम आदमी बनकर भी बहुत कुछ कर सकते हैं. बस सोच बदलने की जरुरत है.
12 वीं करने के बाद मेरी पढ़ाई रुक गयी थी. उसके पीछे कई वजहें थें. लड़कियों की पढ़ाई को लेकर हमारे घर में उतना सपोर्ट नहीं था. मैं जॉब भी करना चाहती थी लेकिन घर से परमिशन नहीं था. उसी दरम्यान दिल्ली के एक अंतर्जातीय लड़के से मुझे प्रेम हो गया और चूँकि घरवाले खिलाफ थें तो मैंने नादानी में दिल्ली भागकर उससे शादी कर ली. यह 2000 की बात है. शादी के कुछ ही दिनों बाद मुझे पता चला कि मेरे पति कुछ करते नहीं हैं. काफी झूठ बोलते थें, जगह-जगह से पैसे ले लेते और मुझे बताते नहीं थें. वो सारा दिन घर से बाहर रहते और कहते कि काम पर जा रहे हैं लेकिन कभी घर के लिए उनके पास से पैसे नहीं निकलते थें. तब घर चलाने के लिए मैंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. मेरा ट्यूशन क्लास दोपहर के बाद शुरू होता था तो मॉर्निंग टाइम में मैं कुछ सोशल एक्टिविटीज से जुड़ जाती थी. दिल्ली के एम्स में सीसीए है जहाँ कैंसर पेसेंट बच्चे होते हैं. वहां जाकर मैं एक-दो घंटा उन बच्चों के साथ बिताती थी. कभी उनको खाना खिला दिया तो कभी उनके साथ ड्रॉइंग बना लिया. वहां उन बच्चों के बीच जाने पर उनके पैरेंट्स बोलते थें - "आप आये हो ना तो मेरे बच्चे ने खाना खाया, खेल भी रहा है नहीं तो सारा दिन बेड पर पड़ा रहता था." तब मेरी लाइफ में इतना स्ट्रगल चल रहा था तो ऐसे में किसी की हेल्प करके, किसी के चेहरे पर मुस्कान लाकर बहुत सुकून मिलता था. कुछ साल बाद मैंने साइकोलॉजी ऑनर्स से ग्रेजुएशन कम्प्लीट किया. शादी बाद मैं कहीं घूमने भी नहीं जाती थी. सज-संवर कर अगर मैं थोड़ी तैयार भी हो जाऊं तो भी उनको ऑब्जेक्शन था कि क्यों बन-ठन रही हो, नहीं जानती कि दुनिया खराब है. यह बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी. लेकिन फिर सोचती कि चलो शायद यही प्यार है, यही लाइफ है और यही शादीशुदा जिंदगी में होता है. मैंने कहीं-ना-कहीं कॉम्प्रोमाइज कर लिया था. 7 साल तक यूँ ही चलता रहा. मैं माँ नहीं बन सकी क्यूंकि मुझे कुछ मेडिकल इश्यूज थें. पति को मेरा बच्चों को ट्यूशन पढ़ना तो खराब नहीं लगा लेकिन वे नहीं चाहते थें कि मैं बाहर कोई और जॉब करने जाऊं. मैं रात-दिन काम करती थी. अपनी तरफ से सौ परशेंट देती थी लेकिन फिर भी मुझे पति से लगातार ताने सुनने को मिलते थें. उन्हें हमेशा मुझसे प्रॉब्लम होती थी. कभी कहते कि तुम्हारा चेहरा अच्छा नहीं है, तुम मुझसे उम्र में बड़ी लगती हो. फिर मुझे लगा कि इतना प्रॉब्लम है इस मैरेज में तो फिर उसे आगे कंटीन्यू करने से क्या फायदा. मुझे एहसास हुआ कि जब इस बन्दे को मेरे साथ किसी भी चीज में ख़ुशी नहीं है तो अच्छा है मैं ही अलग हो जाऊं ताकि वो अपनी लाइफ अपने तरीके से जियें. ऐसे ही देखते-देखते जब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो मैंने फ़ाइनल डिसीजन लिया और उनसे कहा- "आप कुछ करते नहीं हो और मुझसे इतनी शिकायत रहती है तो मुझे छोड़ दो." और मैं हमेशा के लिए वो घर छोड़कर कहीं अकेली रहने लगी. इस दौरान मैं डिप्रेशन में रहने लगी और बहुत रोती रहती थी. मैंने कम उम्र की नासमझी की वजह से ये शादी करके जो गलती कर डाली थी उसका पछतावा तो हो रहा था लेकिन मेरे ख्याल से वो गलती इतनी बड़ी नहीं थी कि मैं दुखी होकर आत्महत्या कर लूँ. मैंने जिंदगी को एक और मौका देने का निश्चय किया.
मैं जो सपने पहले देखती थी उसे किसी वजह से पूरा नहीं कर पायी थी तो अब मैंने उन सपनो के पीछे भागना शुरू किया. मुझे ट्रैकिंग का शौक था, माउन्ट क्लाइम्बिंग का शौक था, एडवेंचर पसंद था. सबसे पहले मैं माउन्ट क्लाइम्बिंग की ट्रेनिंग लेने दार्जलिंग गयी. फर्स्ट ईयर में मैं फेल हो गयी. लेकिन मुझमे एक फाइटर वाली फीलिंग शुरू से थी इसी वजह से मैं शायद कभी हार नहीं मानती थी. तो मैंने नेक्स्ट ईयर फिर से ट्राई किया और मैं उसमे सक्सेस हुई. मैं वहां से बेसिक ट्रेनिंग कम्प्लीट करके दिल्ली लौट आयी. तब मेरे मायके में मेरी फैमली में कुछ प्रॉब्लम था और उन्हें मेरी जरुरत थी. मेरा सपोर्ट चाहिए था उनको. फिर मैं 2013 में दिल्ली से वापस बिहार आ गयी. कुछ दिनों बाद मैंने एक इंश्योरेंस कम्पनी में जॉब स्टार्ट किया और अपनी छोटी बहन के साथ पटना में ही रहने लगी. साथ-ही-साथ एक एनजीओ भी ज्वाइन किया. क्यूंकि मेरा मोटिव अब सिर्फ पैसे कमाना नहीं बल्कि समाज में एक रिस्पेक्ट चाहिए था. एक सिंगल वूमेन को बहुत सी परेशानियां होती हैं जो मुझे अकेली रहकर दिल्ली में भी झेलनी पड़ी थीं. पटना आयी तो यहाँ भी वही प्रॉब्लम थी कि एक सिंगल लड़की का अगर पता लग जाये कि वो अकेली है, कोई आगे-पीछे नहीं है तो हर कोई चांस मारना चाहता है. फिर धीरे-धीरे मेरा एनजीओ के प्रति अट्रैक्शन हुआ कि मुझे सोसायटी के लिए कुछ करना है. जो चीजें मेरी लाइफ में हुई हैं, जो मैंने झेला है एक सिंगल मुस्लिम लड़की के हिसाब से वो चीजें मैं दूसरी लड़कियों को बता सकूँ और उनको एक गाइडेंस दे सकूँ.
कई अलग-अलग एनजीओ से जुड़कर काम किया. वहां के बच्चों को जाकर पढ़ाया, लड़कियों की काउंसलिंग की. रेडलाइट एरिया और कहीं-से भी भागकर संस्था में आनेवाली लड़कियों को मोटिवेट किया पढ़ने के लिए. तो ये छोटे-छोटे स्टेप मैंने लेने शुरू किये. जनवरी, 2017 में मेरी एक लड़की से मुलाकात हुई जो माउंटेनियर है. उस लड़की को माउन्ट एवरेस्ट क्लाइम्बिंग के लिए फंड चाहिए था. उसने मुझसे हेल्प मांगी कि वो कुछ करना चाहती है. तब उसकी जगह मैंने खुद को रखकर सोचा जैसे मैं भी जब यंग एज में थी तो मुझे भी कुछ अलग करना था लेकिन मुझे कोई गाइड नहीं कर रहा था, कोई सपोर्ट नहीं कर रहा था. मैंने उसकी मदद की. उससे मिलना मेरे लिए एक बहाना हो गया. उससे दो चीजें हुईँ. एक तो उस लड़की की मदद हो गयी और मेरा कॉन्फिडेंस लेवल भी हाई हो गया.फिर एहसास हुआ कि मुझे भी कुछ अलग करना है जो एक मिसाल बने.
डिसाइड हुआ कि साइकिलिंग करेंगे और ऑल इण्डिया सायकिल से जायेंगे. मैंने अपने लिए सायकलिंग इसलिए चुनी कि मेरे पास फंडिंग नहीं थी और ना किसी से ज्यादा जान-पहचान थी. तो लगा कि कुछ ऐस किया जाये जो बिहार के हित में हो, जो बिहार की लड़कियों को मोटिवेट कर सके. इसके लिए जब मैं कुछ लोगों से हेल्प लेने गयी तो सबने बोला- "लड़की हो, ऐसे करोगी, ऐसे जाओगी, कुछ हो जायेगा तो..?" तब मुझे लगा कि ये जो धारणा है समाज में कि लड़की है, तो यहाँ नहीं जा सकती, वो नहीं कर सकती मुझे इसी को तोड़नी है कि लड़की भी अगर ठान ले तो कुछ भी कर सकती है. इस जर्नी में हम दो लड़कियां थीं. हम जब निकलें तो एन.सी.सी. के लोगों ने भी हमारी मदद की. और एन.सी.सी.वालों से मुझे एक स्वयंसेवी संस्था की वैष्णवी जी ने मिलवाया था. रुकावटें बहुत आयीं लेकिन जब हमने हौसला किया तो रास्ता खुद-ब-खुद बनते गया. हमारे पास गेयरवाली सायकल खरीदने के पैसे नहीं थें. हमने बाद में लोकल इंडियन कम्पनी का ही सायकल लिया था. हमने बहुत कम बजट में स्टार्ट किया था. तब हमारा बैंक एकाउंट भी जीरो था. लेकिन हौसला बहुत था. जब हमसे पूछा गया कि "आपके पास सायकल है..? आपके पास में कुछ पैसे हैं..?" तो हमने कहा- "हाँ हैं, बस आप हमें परमिशन दे दीजिये." फिर मैंने कर्ज लेकर सायकल ली.
27 जनवरी 2017 को हमलोग पटना के कारगिल चौक से निकले थें. हमारा सबसे पहला डेस्टिनेशन आरा था. यानि हमलोग बिहार से यू.पी. गए फिर उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब होते हुए कई राज्यों से गुजरते हुए लास्ट में हमने नॉर्थ ईस्ट कम्प्लीट किया था. फिर पूरा 29 राज्य कवर किया जिसमे 173 दिन लगे थें. यानि छह महीने में हमने 12 हजार 800 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 173 दिन में हम ऑल इंडिया ट्रैवल करते हुए 18 जुलाई, 2017 को पटना पहुंचे थें. उस सायकल यात्रा में बहुत सारे अनुभव रहें. बिहार में जब हम आरा से बक्सर की तरफ आगे बढ़ रहे थें तो सरस्वती पूजा के लिए चंदा मांगनेवाले बच्चे- लड़के हमारी सायकिल रोकने की कोशिश कर रहे थें. कुछ लोग बहुत दूर-दूर तक बाइक से हमें फॉलो करते थें, साथ-साथ चलते थें और कमेंट पास करते थें. पहले तो हम उन्हें इग्नोर कर देते फिर डराने के लिए कह देते कि पुलिस हैं, ट्रेनिंग चल रही है. इसी तरह से अपना बचाव करते थें. इस यात्रा के दौरान मेरा एक्सीडेंट भी हुआ. मैं बीमार भी पड़ी, बी.पी. भी लो हुआ. मतलब हर तरह के एक्सप्रियंस मिले. कहीं-कहीं हाइवे इतना लम्बा होता था कि कहीं कोई दुकान नहीं, कुछ भी नहीं, पानी तक नहीं मिलता. जब हम जम्मू जा रहे थें, उस रास्ते में कुछ लड़कों ने हमपर कमेंट किया था और हमे रोक लिया था. तब मेरी सायकिल खराब हो गयी थी और मैं वॉक करके सायकिल खींचकर आगे बढ़ रही थी, शॉप ढूंढ़ रही थी तो उसी दौरान दो लड़के आये और उन्होंने रोककर कहा- "कहाँ जा रहे हो..?" तब मेरे साथवाली लड़की 20 मीटर की दूरी पर थी. मैंने कहा- "जम्मू." वे बोले- "पता है हम कौन हैं...? हम शाम्भा के राजा हैं, तुम दो लड़कियां अकेली जा रही हो डर नहीं लगता...?" मैंने कहा- "नहीं, डर क्यों लगेगा...!" उनके ग्रुप के ही 5-6 लड़के थोड़े आगे खड़े थें. उस सिचुएशन में मैं प्रिपेयर्ड थी कि अगर इन्होने कुछ किया तो सायकिल इनके मुँह पर फेंकर इन्हे पत्थर मारूंगी, लेकिन डरूंगी नहीं. उसके बाद उन्होंने एक ही लाइन बोला, "जय माता दी" और वहां से चले गए. उस दौरान डर तो हमें लग रहा था लेकिन हम डर को चेहरे पर हावी नहीं होने दिए. यात्रा में जगह-जगह पड़नेवाले स्कूल-कॉलेजों में हम विजिट करते और वहां के बच्चों को मोटिवेट करते, यही मेरे सायकलिंग का मुख्य मकसद था. मैं उनके बीच जाकर बोलती कि "मैं बिहार से आयी हूँ. एक लड़की होकर ऑल इण्डिया साइकिलंग कर सकती हूँ तो आप भी बहुत कुछ कर सकते हो."
अभी मेरा खुद का पटना में एनजीओ है 'मेक ए न्यू लाइफ फाउंडेशन' जिसके तहत मैं मुख्यतः लड़कियों-महिलाओं के लिए काम करती हूँ. और अन्य कई स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर भी वर्क करती हूँ. यहाँ के लड़के-लड़कियों में बहुत एनर्जी है, लेकिन उनको दिशा नहीं है कि अपनी एनर्जी को कहाँ पर इन्वेस्ट करना है. तो मुझे उनके लिए कुछ करना है. मेरा मकसद उन्हें इस रूप में भी जागरूक करना है कि आप देश के लिए, समाज के लिए कुछ करना चाहो तो इसके लिए किसी पोस्ट या पद की जरुरत नहीं है. बस जरुरत है तो जज्बे की. आप एक हिंदुस्तानी, आम आदमी बनकर भी बहुत कुछ कर सकते हैं. बस सोच बदलने की जरुरत है.
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