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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday 18 January 2019

कई बार जिंदगी को बिना प्लान किये छोड़ देना चाहिए : अजीत अंजुम, वरिष्ठ पत्रकार (पूर्व मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टीवी)

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म बिहार के बेगूसराय जिले में हुआ, मेरे पिताजी एक एडवोकेट थें और जब वे ज्यूडिशियल सर्विस में आये तो उनके साथ ही अलग-अलग शहरों में रहते हुए मेरी पढ़ाई-लिखाई हुई. मेरी स्कूलिंग बेगूसराय से शुरू हुई फिर चतरा, बाढ़ आदि जगहों से पढ़ते हुए हमने हाजीपुर से 12 वीं किया. इंटरमीडियट दरभंगा के सी.एस. साइंस कॉलेज से किया. फिर हिस्ट्री ऑनर्स से ग्रेजुएशन मुजफ्फरपुर के एल. एस. कॉलेज से किया. मुजफरपुर में पढ़ते समय ही पता नहीं कैसे शौक जगा अख़बार में लिखने-पढ़ने का. उस समय पटना से तीन-चार बड़े अख़बार छपा करते थें जिनमे 'दैनिक हिंदुस्तान' कुछ ही साल पहले शुरू हुआ था. 'नवभारत टाइम्स' पटना से शुरू हो चुका था. इनके आलावा 'आज' और 'जनशक्ति' भी था. ये सारे अख़बार मुजफ्फरपुर से आते थें, दिल्ली से 'जनसत्ता' छपकर आता था. तो उस दौरान अख़बार पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा कि कुछ लिखना चाहिए तो हमने 'पाटलिपुत्र टाइम्स' में लेटर-टू-एडिटर लिखना शुरू किया. फिर मेरा परिचय मुजफ्फरपुर के कुछ लोकल पत्रकारों से हो गया. मैं साइकल उठाता और कॉलेज जाने के पहले और कॉलेज से फ्री होने के बाद कल्याणी चौक जाने लगा जहाँ मुजफ्फरपुर के सारे लोकल पत्रकार जमा होते थें. और सुबह अख़बार के बण्डल में अपनी खबरें खोजते थें फिर शाम में चाय की दुकान पर उनके साथ बैठकें हुआ करती थीं. ये सन 1987 की बात है और मैं उन पत्रकारों की महफ़िल का सबसे जूनियर सदस्य था. तब मेरी उम्र 19-20 साल थी.
उनके बीच उठने-बैठने के दरम्यान थोड़ी दिलचस्पी जगी कि कैसे पत्रकारिता किया जाये. फिर कुछ छिट-पुट वहां के शहर व उसकी समस्याओं के बारे में लिखकर इधर-उधर और दिल्ली के अख़बारों में भेजने लगा. कुछ कहीं-कहीं धीरे-धीरे छपने लगा. उसके बाद शौक और परवान चढ़ा. फिर वहां चार-पांच हमलोगों का एक ग्रुप बन गया जिसमे एक रमेश पोद्दार थें जो हमलोगों में सबसे सीनियर थें जो मुंबई से निकलनेवाली मैगजीन 'करंट' के रिपोर्टर थें. उस ग्रुप में एक विकास मिश्रा थें जो अभी 'लोकमत', नागपुर के संपादक हैं. वो भी स्ट्रगल कर रहे थें. एक रवि प्रकाश थें जो अभी मुंबई में हैं. तो चार-छः लोगों का हमारा एक ग्रुप बन गया. मैं उन सबके साथ ही किसी चाय की दुकान पर बैठ जाता था. फिर उन्हीं सब के बीच रहते हुए पत्रकारिता के प्रति जिज्ञासा भी हुई और दिलचस्पी भी पैदा हुई. फिर उसके बाद किसी सम्पर्क के द्वरा किसी ढंग से मैं पटना पहुंचा. उस वक़्त 'पाटलिपुत्रा टाइम्स' आखिरी दौर में था. मणिकांत ठाकुर तब उसके एडिटर थें. उनसे मैं मिला और मुजफ्फरपुर के मीनापुर ब्लॉक के संवाददाता के तौर पर पहली बार एक चिट्ठी हमें वहां से मिली. मुजफ्फरपुर में पहले से संवाददाता थें और हर ब्लॉक का वो रिपोर्टर बना देते थें. तो मीनापुर संवाददाता के रूप में मैं कुछ खबरें भेजता था. कुछ मेरे नाम से छपती तो कुछ मीनापुर संवाददाता के नाम से. सुबह होते ही वही जिज्ञासा और उत्साह रहता था कि मैंने कुछ भेजा और वह छपा. और तब कम्पटीशन की भी फिलिंग होती थी. वहीँ से मुझे लगा कि अब मुझे यही करना है.
 तब मेरे पिताजी को समझ में नहीं आ रहा था कि उनका लड़का किस चक्कर में पड़ा हुआ है, क्या कर रहा है लेकिन फिर कुछ ही दिनों में उन्होंने यह समझा कि नहीं, इसको अगर यही करने का मन है तो इसको सपोर्ट करना चाहिए. और उसके बाद फिर पिताजी का सपोर्ट भी मुझे मिलने लगा. कॉलेज में मेरी पढ़ाई-लिखाई में दिलचस्पी कम होती गयी और पत्रकारिता की तरफ ज्यादा रुझान बढ़ता गया. कोर्स की किताबें कम तो अख़बार ज्यादा पढ़ता था. उस समय 5-6 अख़बार मैं रोजाना पढ़ता था. शाम में हम सभी बैठकर आपस में बातें करतें कि आज इस बार तुम्हारा वहां छपा, इस हफ्ते उसका वहां छपा. उस समय लोग आज की तरह पत्रकारिता का कोर्स नहीं करते थें. उसके बाद हमारे कुछ साथी पटना शिफ्ट हुए तो मैं भी पटना आ गया. पटना, भिखना पहाड़ी में मेरे मामा का एक मकान था, उसमे एक फ्लैट ले लिया जिसमे चार रूम थे. फिर पांच दोस्तों को हमने वहीँ बुला लिया. रवि प्रकाश, अभिमनोज, रत्नेश कुमार, विकास मिश्रा और सुधीर सुधाकर. फिर सभी किराये पर अपने-अपने कमरे बांटकर रहने लगें. पांच पत्रकार थें, पांच साइकल थी और पांचों भटक के फ्रीलांसिंग करते थें. इधर-उधर अख़बारों में नौकरी तलाशते थें. हमारे 5 के ग्रुप में तीन को नौकरी मिल गयी. रवि प्रकाश और विकास 'जनशक्ति'में तो अभिमनोज बाहर के अख़बारों के लिए लिख रहे थें. मैं कुछ घटनाएं जो बिहार में हो रही थीं, उनपर रिपोर्ट बनाकर अख़बारों के लिए भेजता था. दैनिक आज में उस समय एक अभिनाश चंद्र मिश्रा हुआ करते थें जो अभी पटना से समकालीन तापमान निकालते हैं. वे समाचार संपादक थें और उस दौर में उन्होंने मेरी काफी मदद की. कुछ कुली की समस्या, कुछ गरीबों, झुगी- बस्तियों की समस्या, जेल में होनेवाली गुंडागर्दी की समस्या इस तरह के टॉपिक का आइडिया लेकर मैं जाता था. वे कहते थें "ठीक है लिखकर लाइए". फिर दो दिन मेहनत करता था. उसपर लिखकर ले जाता था और छपता था. उस वक़्त 50 रूपये एक लेख के मुझे मिलते थें. लेकिन मुजफ्फरपुर में ही रहते हुए एक और चीज हुई थी कि उस समय दीनानाथ मिश्रा पटना, नवभारत टाइम्स के संपादक थें और उन्होंने एक सिलसिला शुरू किया था परिसर संवाददाता, विश्वविधालय संवाददाता की नियुक्तियों का. मुजफ्फरपुर से तीन दावेदार थें उसमे एक मैं, एक हरि वर्मा और एक रवि प्रकाश. तब दीनानाथ मिश्रा, उदय कुमार (जो अभी अमरउजाला में हैं) एवं अन्य लोग आये थें हमारा टेस्ट लेने. हम तीन लोग परिसर संवाददाता में सलेक्ट हुए. कैम्पस में जो कुछ भी गतिविधियां होती थीं हमलोग नवभारत टाइम्स के लिए खबरें भेजते थें . रवि प्रकाश उसमे नं. 1 था, मैं कम भेज पाता था चूँकि आपस में कम्पटीशन था. तो एक लत वहां से लग गयी. फिर ये लगने लगा कि अब इसके आलावा और हमें कुछ नहीं करना है. हाँ लेकिन उस समय कुछ मंजिल पता नहीं थी. ये भी नहीं पता था कि ये करते हुए आदमी दिल्ली जा सकता है.
तब पटना में 'जनशक्ति' में इन्द्रकांत मिश्रा हुआ करते थें जो फीचर संपादक थें, उन्होंने मुझे काफी छापा. पटना की लोकल समस्याओं पर फुल-फुल पेज की स्टोरी मैं 'जनशक्ति' के लिए लिखा करता था. तब 'जनशक्ति' में एक फुल पेज भी छपता था तो 50 रूपए ही मिलता था. लेकिन तसल्ली होती थी कि फुल पेज मेरे नाम से छपा. आज भी मेरे पास वो 'जनशक्ति' के पन्ने कहीं रखे होंगे. तो यूँ ही कई अख़बारों में 50-50 मिलकर दो-चार सौ महीने में हो जाता था. आने-जाने के लिए साइकल थी. चूँकि सब साथ में रहते थें तो मिलजुलकर चला लेते थें. नीचे एक चाय की दुकान थी, उधारी में वहां से चाय आती थी. खाने के लिए हमलोग वहीँ भिखना पहाड़ी के रिमझिम होटल जाते थें. जब घर जाता तो माँ बिना मांगे ही पिताजी से 100 - 500 रूपए लेकर जबरदस्ती मेरी जेब में डाल देती थी.
तब हम सभी दोस्तों को कभी खाने की किल्लत नहीं हुई लेकिन ये होता था कि कम खर्चे में कैसे करें. तो मुझे छोटी-सी बात याद आती है. वहां रिमझिम होटल में 4 या 6 रूपए में खाना मिलता था. और उसमे 2 रूपए में एक पीस मटन मिलता था. ये बात है 1988 की तब कुछ थाली सिस्टम चलता था पर प्लेट और पर पेट सिस्टम. पेट सिस्टम में एक फिक्स रुपया देकर जितना खाना है भरपेट खाइये. और प्लेट सिस्टम उससे कम में था. तो मैं प्लेट सिस्टम ही लेता था क्यूंकि मैं कम खाता था. हम पैसे के हिसाब से ही पांच-छः पीस मटन लेकर एक-एक खाते थें. लेकिन उसमे भी बड़ा आनंद था. जो थोड़ा बहुत अर्जित करते थें उसी में संघर्ष करते हुए दोस्ती-संगती को इंजॉय करते हुए जीते थें. अक्सर शाम को एक पिंटू होटल में सारे पत्रकार जुटते थें. एक हुंकार प्रेस था पटना में स्टेशन के पास, वहां भी हम सभी 5 लोग जुटते थें जहाँ और लोगों का भी हमारा ग्रुप बना जिनमे मैं सबसे जूनियर था. इसी तरह से एक शुरुआत हुई कि इस क्षेत्र में जगह बनानी है.
 1988 में गोहाटी से एक अख़बार शुरू हो रहा था 'उत्तरकाल' जिसके संपादक थें चंद्रेश्वर जो पहले 'रांची एक्सप्रेस' और 'आज' में थें. उन्होंने उस नए अख़बार के लिए पटना में कुछ लोगों का टेस्ट लिया. मैंने भी टेस्ट दिया. टेस्ट में मैं क्वालीफाई हुआ तो कुछ लोगों का पटना से चयन हुआ. 5 लोग चुने गए थें. मैं, रत्नेश कुमार, अशोक अश्क, सुनील सिन्हा और हिमांशु शेखर. ये हम पांच लोग चयनित होकर गोहाटी गए. 800 रूपए मेरी सैलरी थी. वहां के अख़बार मालिक ने हमें एक फ़्लैट दिया. वहीं से हमलोग चौकी, खाट, टेबल वगैरह खरीदकर लाये. दिनभर अख़बार के दफ्तर में रहते थें. अखबार की प्लानिंग होती थी कि कैसा होगा, क्या कंटेंट होगा. रोज मीटिंग होती थी. कुछ असमिया लोग भी रखे गए थें. लेकिन एक ही दो महीने में जो मालिक का व्यवहार करने का तरीका था उसपर मुझे थोड़ा एतराज होता था. तो मैंने एक दिन तय किया कि मैं नहीं करूँगा. मैंने जाकर मालिक को कह दिया कि मैं नहीं करूँगा, मेरा इस्तीफा ले लीजिये और दो लाइन का इस्तीफा देकर आ गया. फिर मेरे साथियों पर भी दबाव बना कि छोड़ देना चाहिए, क्यूंकि मालिक का दूसरों से बोलने का तरीका सही नहीं है. उस समय सभी युवा थें, 22 साल मेरी उम्र थी, सभी में जोश था तो उन सभी ने भी उसी दिन कह दिया कि हम भी काम नहीं करेंगे. संपादक चंद्रेश्वर उस समय गोहाटी से बाहर थें. समझ लें पूरी टीम ने मेरे नेतृत्व में इस्तीफा दे दिया. घर आये तो मालिक ने किसी आदमी को मनाने भेज दिया. फिर हम पांच में से दो लोग मान गएँ. तीन लोग एक तरफ रह गए और दो लोग एक तरफ हो गए. अगले ही दिन से तीन बटा पांच घर में ही हो गया. तो हमने तय किया कि जिस मालिक की नौकरी छोड़ चुके हैं उसके घर में नहीं रहेंगे. तो एक स्वाभिमान का सवाल हो गया. और इसलिए भी कि हम पांच लोगों में भी फुट हो गया था.
वे दफ्तर जाने लगें और हमलोग अगले दिन अपना चौकी-टेबल पड़ोस के मकान मालिक को आने-पौने दाम में बेचकर अगले ही दिन वापस लौटने की प्लानिंग करने लगें. तो पता चला कि बोडोलैंड का आंदोलन शुरू हो गया है. और गोहाटी से पटना की सारी ट्रेनें 7-8 दिन के लिए बंद हैं तो हमलोग एक स्टेशन के पास छोटे से लॉज में किराये पर रहने आ गए. 10 रुपया पर हेड के हिसाब से हम तीन लोग 30 रुपया रोज देते थें. उसी में 7-8 दिन हमलोग रहें. सामने जाकर एक छोटे से होटल में डोसा-इडली कुछ खा लेते थें. एक ही टाइम दोपहर में खाते थें ताकि दोनों टाइम चल जाये. और इसलिए भी कि अब पैसा भी नहीं बचा था और पैसा मंगाया भी नहीं जा सकता था. घर से पिताजी ने भेजा था नौकरी करने लेकिन यहाँ हमने जॉब छोड़ दिया और उनसे संवाद भी नहीं किया था. मेरे पर एक दबाव था अंदर ही अंदर जैसे मुझे लग रहा था कि मेरी वजह से सबकी नौकरी गयी. लेकिन दोनों साथियों ने सपोर्ट किया कि आपका मुद्दा एकदम सही है कि इस तरह से बेहुदगियाँ बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए. उसी समय वहां दूसरा एक अख़बार लॉन्च होने जा रहा था. उस अख़बार से एक-दो लोग हमसे बात करने आये थें फिर पुराने मालिक की तरफ से भी लोग समझाने आये कि "आप भी मान जाइये". हमने कहा- "नहीं अब तो सवाल स्वाभिमान का है कि अब हम नहीं काम करेंगे". दूसरे अख़बार 'पूर्वांचल प्रहरी' के लिए एक ऑफर आया कि फलां जी से आपलोग बात कर लीजिये. तो मैंने कहा कि नहीं जब एक अख़बार की नौकरी हमने किसी सैद्धांतिक आधार पर छोड़ी है और उसके बाद तुरंत दूसरे अख़बार में चले जाएँ तो उनको लगेगा कि हमने धोखा दिया है. आये थे उनके कहने पर और चले गए दूसरे अख़बार में. इसमें संदेह ये होता कि ये लोग प्री प्लान, एक साजिश के तहत अव्यवस्था और बदतमीजियों का बहाना बनाकर छोड़े हैं, दरअसल इनको दूसरे अख़बार में जाना था. इसलिए हमने दूसरे जगह नहीं ज्वाइन किया. सोच लिया कि यहाँ से पटना लौटेंगे फिर तय करेंगे. और अगर दूसरे अख़बार में आना होगा तो 2 महीने बाद आएंगे अभी नहीं. ताकि हमपर कोई गलत इल्जाम न लगे.
 7 दिन जैसे-तैसे काटकर हम पटना आएं. कुछ दिनों बाद हमारे एक मित्र रवि प्रकाश दिल्ली आ गए थें 'पांचजन्य' में, करोलबाग में रहते थें. फिर उनसे हमने सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा- "दिल्ली आ जाओ." तो एक ब्रीफकेस लेकर दो कपड़ों के साथ मैं दिल्ली आ गया. दिल्ली में हम इधर-उधर भटके, बसों में यहाँ-वहां जाते थें अख़बार के दफ्तरों के चक्कर लगाते थें. फिर 'जनसत्ता' में कुछ फीचर आर्टिकल लिखना शुरू किया फ्रीलांसिंग रूप में. वहां से मुझे चंद्रशेखर जी ने एक-दो लोगों के नाम चिट्ठी लिखकर दी थी जिसमे प्रवाल मैत थें. उनसे मिला, उन्होंने मुझे अमर उजाला अख़बार में फ्रीलांसिंग के लिए भेजा. फिर वहां फ्रीलांसिंग करना शुरू किया. उसी बीच चौथी दुनिया में एक-दो लोगों की जगह थी तो प्रवाल मैत ने ही मेरे लिए सुधेन्दु पटेल को फोन किया जो उस समय 'चौथी दुनिया' देख रहे थें. क्यूंकि वहां जो संपादक थें वो चुनाव लड़ने चले गए थें. फिर 1989 में 1800 रूपए में मुझे चौथी दुनिया में पहली नौकरी मिल गयी. कुछ महीने वहां रहा फिर उसके बाद चुनाव शुरू हो गए. चुनाव में चौथी दुनिया के लिए मैंने काफी रिपोर्टिंग की.
उसके बाद 1990 में प्रवाल मैत 'अमर उजाला' में ब्यूरो चीफ हो गए. उन्हें कुछ लोगों की जरुरत थी तो उन्होंने मुझे फोन करके बुलाया और ब्यूरो में रिपोर्टर के तौर पर नौकरी दी. 'अमर उजाला' 4 साल रहा फिर किसी वजह से वो मुझे छोड़ना पड़ा. दिल्ली से 'सांध्य प्रहरी' निकल रहा था वहां संपर्क करके ज्वाइन कर लिया लेकिन 6 महीने बाद वहां भी मैनेजर-मालिक का वही तरीका देखकर कुछ मतभेद हुए फिर छोड़ दिया. उसके बाद सितम्बर 1994 में किसी ने बताया कि बीएजी फिल्म्स में सम्पर्क करो अनुराधा प्रसाद कुछ प्रोग्राम दूरदर्शन पर लानेवाली हैं. मैंने उन्हें डायरेक्ट लैंड लाइन पर फोन किया. उन्होंने ऑफिस बुलाकर बात की उसके बाद पहली नौकरी जो मुझे मिली वो 10000 रूपए महीने की नौकरी थी. लेकिन उसके पहले बीएजी में ही मैंने दो-तीन महीने फ्रीलांसिंग किया. अलग-अलग सब्जेक्ट पर दूरदर्शन के लिए इन्वेस्टिगेटिव डाक्यूमेंट्री बनानी होती थी. मैंने बहुत मेहनत के साथ दो-तीन डाक्यूमेंट्री बनायीं जो उनको पसंद आया. उसके बाद 'रु-ब-रु' लॉन्च हो रहा था 'जी न्यूज' पर जो उस समय एल.टीवी था. राजीव शुक्ला उसके एंकर थें. तो अनुराधा जी ने कहा कि "आप फुल टाइम ज्वाइन कर लीजिये." फिर मैंने 1995 के जनवरी में फुल टाइम ज्वाइन किया. उसके बाद मैं फिर 2002 में एक साल के लिए आजतक चला गया था. 2003 में फिर वापस आया बीएजी क्यूंकि वहां बहुत सारे प्रोग्राम स्टार न्यूज के लिए प्लान हो रहे थें. उसके बाद हमने 'पोल खोल' 2004 में किया. 'रेड अलर्ट' पहले शुरू हो चुका था. सनसनी 2004 में शुरू हुआ. 2007 में न्यूज 24 लॉन्च होना था. फरवरी से हमने प्लान शुरू किया, टीम बनी. मैं मैनेजिंग एडिटर था. वहां लगभग 10 साल रहने के बाद मैं 2014 के अगस्त में इंडिया टीवी में मैनेजिंग एडिटर बनकर गया. फिर अगस्त 2017 में इंडिया टीवी छोड़ दिया.
अभी फिर से फ्रीलांसिंग कर रहा हूँ. अभी हम कुछ नहीं सोचे हैं, कोई प्लान नहीं किये हैं, कई बार जिंदगी को बिना प्लान के छोड़ना चाहिए. अभी कई वेबसाइट के लिए लिख रहा हूँ. दिल्ली आकर मुझे बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा. दोस्तों ने काफी सपोर्ट किया. मैं सोचता हूँ कि दिल्ली आने पर अगर रवि प्रकाश ने सपोर्ट नहीं किया होता, उसने कहा ही नहीं होता कि यहाँ आ जाओ तो शायद मैं दिल्ली आ ही नहीं पाता. देवनगर करोलबाग में एक रूम के फ़्लैट में हम 5 लोग रहते थें. भयंकर गर्मी में बेडरोल बिछाते थें और 50 रूपए किराये का पंखा था. क्यूंकि 250 रूपए में खरीदने की किसी के पास क्षमता नहीं थी. किराये पर ही सीलिंग फैन लाये, कूलर लेकर रखने की क्षमता नहीं थी. दिनभर घूमते थें, लिखते थें, फ्रीलांसिंग करते थें. बाकि तीन जो रूम पार्टनर थें वो नौकरी में थें. कई बार होता कि दिन में चावल बनता था और एक किलो दही लाते थें फिर दही को मिलाकर, उसमे नमक-जीरा पाउडर डालकर पांचों आनंद से खाकर काम करने निकल जाते थें. सिमित संसाधन में अपने ढंग से रहने की आदत डालना हम सीख चुके थें. हमलोग उस स्ट्रगल को भी इंज्वाय कर रहे थें.

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