By : Rakesh Singh 'Sonu'
ससुराल का शुरूआती दिन उमंगों से भरा रहा. नयी जगह, नए लोगों के साथ रहने का उत्साह था पर दिल के कोने में एक डर भी बैठा हुआ था. बचपन में उछलती-कूदती, ठहाका लगाकर हंसनेवाली लड़की को जीवन की नयी चुनौती का सामना करना था. एक अच्छी सुसंस्कारी बहु बनने की चुनौती. आज जब उन दिनों को याद करती हूँ तो समय कैसे गुजर जाता है इसका अंदाजा भी नहीं लगा पाती हूँ. मेरी शादी 1973 में हुई. उस समय के परिवेश की यह अनूठी शादी थी. ना बैंड,ना बाजा, ना बारात, ना तिलक, ना लेन-देन. दो घंटे में शादी खत्म, विदाई हो गयी. समाज के लिए एक मिसाल भी था और पुरानी परम्पराओं को तोड़कर बाहर आने के कारण निंदनीय भी था. फिर भी अनोखी-अनूठी शादी थी.
कॉलेज के दिनों में दहेजप्रथा पर वाद-विवाद प्रतियोगिता में यूनिवर्सिटी स्तर पर चुनकर मैं लोकसभा में मगध यूनिवर्सिटी की प्रतिनिधि के रूप में परफॉर्म की थी जिसमे द्यूतिय पुरस्कार से पुरस्कृत हुई थी. लड़के वालों के पास रिश्ते के लिए मेरी जो फोटो गयी उसमे मैं उसी प्रतियोगिता के मैडल-शील्ड के साथ थी जिसे देखकर ससुरालवालों ने पूछा कि 'ये किसलिए मिला है?'
तो उन्हें बताया गया कि दहेजप्रथा पर हुई प्रतियोगिता में मुझे मिला है. ससुरालवाले खुद दहेजविरोधी थें तो यह सुनकर वे खुश हो गएँ और फ़ौरन शादी पक्की हो गयी. फिर मैं स्वछंद एवं उच्च विचारों वाले परिवार की बहु बनी. अपने ससुराल जिला समस्तीपुर के सिमरी गांव गयी, जिसका अद्भुत, रोमांचकारी अनुभव है. एक बड़ी हवेली के एक कमरे में मेरा अपना बेडरूम था. खिड़की से चाँद की रौशनी का कमरे में आना और उस समय रेडियो पर गाना सुनना बहुत ही रोमांटिक लगता था. एक रात की बात है मुझे रात का खाना खाने का मौका ही नहीं मिला. बचपन से मेरी आदत रही कि रात में सात से आठ बजे तक डिनर कर लेती थी और सो जाती थी, मगर ससुराल में ऐसा नहीं चला. शुरू में कुछ दिनों तक तो मैं देर से खाना खाने को सहन करती गयी और ससुरालवाले भी मुझे पूरी तरह से सपोर्ट करते रहें लेकिन मेरे पति ने एक रात मुझे बिना खाना खाये सोने को छोड़ दिया. बीच रात में जब मेरी नींद खुली तो मैं दंग रह गयी. सभी लोग सो रहे थें, यहाँ तक कि मेरे पति भी गहरी नींद में थें. अब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, कैसे कुछ खाना खाऊं और मैं फिर बिना खाये ही सो गयी.
सुबह में मेरी ननद और सासु माँ ने मुझसे सवाल किया कि 'रात में खाना खायी ?' तो मैंने सहज भाव से का दिया कि 'नहीं'. इस बात पर दोनों ने आश्चर्य जताया और कहने लगीं कि आपके बेडरूम में आपका खाना रख दिया गया था. लेकिन मेरे पति महोदय ने इसकी सूचना मुझे नहीं दी क्यूंकि वह रात में मेरे सबेरे सो जाने की आदत को बदलना चाहते थें. उन दिनों इन बातों पर गुस्सा भी आया, आँखों में आंसू भी आ गया, मायके की याद भी खूब आयी लेकिन कुछ ही पल ऐसा रहा फिर स्वयं को बदलने की ठान ली. मायके और ससुराल के परिवेश में बहुत अंतर था. ससुराल गांव में था जहाँ बिजली नहीं थी. जाड़े के दिन में आँगन में दिनभर तो बैठना बहुत अच्छा लगता था मगर शाम होते ही जब लालटेन जलता था तो ऐसा लगता कि ज़िन्दगी ठहर सी गयी है. एक जगह ही बैठी रहूं कुछ ना करूँ. फिर धीरे-धीरे मैंने खुद को वहां के परिवेश में ढ़ालना शुरू किया और कुछ समय बाद तो मुझे अपना ससुराल अपना गांव बहुत भाने लगा.
ससुराल का शुरूआती दिन उमंगों से भरा रहा. नयी जगह, नए लोगों के साथ रहने का उत्साह था पर दिल के कोने में एक डर भी बैठा हुआ था. बचपन में उछलती-कूदती, ठहाका लगाकर हंसनेवाली लड़की को जीवन की नयी चुनौती का सामना करना था. एक अच्छी सुसंस्कारी बहु बनने की चुनौती. आज जब उन दिनों को याद करती हूँ तो समय कैसे गुजर जाता है इसका अंदाजा भी नहीं लगा पाती हूँ. मेरी शादी 1973 में हुई. उस समय के परिवेश की यह अनूठी शादी थी. ना बैंड,ना बाजा, ना बारात, ना तिलक, ना लेन-देन. दो घंटे में शादी खत्म, विदाई हो गयी. समाज के लिए एक मिसाल भी था और पुरानी परम्पराओं को तोड़कर बाहर आने के कारण निंदनीय भी था. फिर भी अनोखी-अनूठी शादी थी.
कॉलेज के दिनों में दहेजप्रथा पर वाद-विवाद प्रतियोगिता में यूनिवर्सिटी स्तर पर चुनकर मैं लोकसभा में मगध यूनिवर्सिटी की प्रतिनिधि के रूप में परफॉर्म की थी जिसमे द्यूतिय पुरस्कार से पुरस्कृत हुई थी. लड़के वालों के पास रिश्ते के लिए मेरी जो फोटो गयी उसमे मैं उसी प्रतियोगिता के मैडल-शील्ड के साथ थी जिसे देखकर ससुरालवालों ने पूछा कि 'ये किसलिए मिला है?'
तो उन्हें बताया गया कि दहेजप्रथा पर हुई प्रतियोगिता में मुझे मिला है. ससुरालवाले खुद दहेजविरोधी थें तो यह सुनकर वे खुश हो गएँ और फ़ौरन शादी पक्की हो गयी. फिर मैं स्वछंद एवं उच्च विचारों वाले परिवार की बहु बनी. अपने ससुराल जिला समस्तीपुर के सिमरी गांव गयी, जिसका अद्भुत, रोमांचकारी अनुभव है. एक बड़ी हवेली के एक कमरे में मेरा अपना बेडरूम था. खिड़की से चाँद की रौशनी का कमरे में आना और उस समय रेडियो पर गाना सुनना बहुत ही रोमांटिक लगता था. एक रात की बात है मुझे रात का खाना खाने का मौका ही नहीं मिला. बचपन से मेरी आदत रही कि रात में सात से आठ बजे तक डिनर कर लेती थी और सो जाती थी, मगर ससुराल में ऐसा नहीं चला. शुरू में कुछ दिनों तक तो मैं देर से खाना खाने को सहन करती गयी और ससुरालवाले भी मुझे पूरी तरह से सपोर्ट करते रहें लेकिन मेरे पति ने एक रात मुझे बिना खाना खाये सोने को छोड़ दिया. बीच रात में जब मेरी नींद खुली तो मैं दंग रह गयी. सभी लोग सो रहे थें, यहाँ तक कि मेरे पति भी गहरी नींद में थें. अब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, कैसे कुछ खाना खाऊं और मैं फिर बिना खाये ही सो गयी.
सुबह में मेरी ननद और सासु माँ ने मुझसे सवाल किया कि 'रात में खाना खायी ?' तो मैंने सहज भाव से का दिया कि 'नहीं'. इस बात पर दोनों ने आश्चर्य जताया और कहने लगीं कि आपके बेडरूम में आपका खाना रख दिया गया था. लेकिन मेरे पति महोदय ने इसकी सूचना मुझे नहीं दी क्यूंकि वह रात में मेरे सबेरे सो जाने की आदत को बदलना चाहते थें. उन दिनों इन बातों पर गुस्सा भी आया, आँखों में आंसू भी आ गया, मायके की याद भी खूब आयी लेकिन कुछ ही पल ऐसा रहा फिर स्वयं को बदलने की ठान ली. मायके और ससुराल के परिवेश में बहुत अंतर था. ससुराल गांव में था जहाँ बिजली नहीं थी. जाड़े के दिन में आँगन में दिनभर तो बैठना बहुत अच्छा लगता था मगर शाम होते ही जब लालटेन जलता था तो ऐसा लगता कि ज़िन्दगी ठहर सी गयी है. एक जगह ही बैठी रहूं कुछ ना करूँ. फिर धीरे-धीरे मैंने खुद को वहां के परिवेश में ढ़ालना शुरू किया और कुछ समय बाद तो मुझे अपना ससुराल अपना गांव बहुत भाने लगा.
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