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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday 18 January 2019

जे.पी. के अंतिम दिनों में मैं उन्हें रामायण की चौपाईयाँ सुनाती थी : डॉ.शांति जैन, वरिष्ठ साहित्यकार एवं बिहार गौरव गान की रचयिता

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा जन्म बिहार के भोजपुर जिले के आरा शहर में हुआ लेकिन मैं मूलतः मध्यप्रदेश की हूँ. हमारे जन्म के बहुत पहले ही यहाँ के आश्रम 'जैन बाला विश्राम' में बाबूजी नौकरी के लिए आ गए थें. आरा शहर से दो किलोमीटर आगे आश्रम था. उस वक़्त उन्हें 6 रुपया महीना मिलता था. तब परिवार में कुल 6 प्राणी थें और ठीकठाक घर चल जाता था. बाद में वहां से हमलोग आरा रहने आ गए थें. वहीँ एक पाठशाला में मैंने 5 वीं तक पढाई की क्यूंकि उसके आगे की पढ़ाई वहां नहीं होती थी. फिर मैं 'जैन बाला विश्राम' के हॉस्टल में चली गयी जहाँ सिर्फ जैन लड़कियां ही रहती थीं. बड़े कठोर अनुशासन के बीच मैं 6 साल हॉस्टल में रही. जाड़ा हो या गर्मी हो सुबह 4 बजे उठना होता था, प्रार्थना करनी होती थी. वहां रात में खाना नहीं होता था. तब घर के लोग थोड़े विपन्न थें इसलिए मुझे वहां भेज दिया. मेरी भोजन और पढ़ाई की फ़ीस माफ़ थी. चूँकि मेरी फ़ीस माफ़ थी इसलिए मुझे वहां बहुत काम करना पड़ता था. छोटी सी उम्र में पांच-पांच सेर गेहूं पिसा, पांच-दस किलो शब्जियां काटती थीं और 70-70 बाल्टी पानी भरना पड़ता था. ये सब स्ट्रगल करते हुए 6 साल बिता.
फिर जब मैं हॉस्टल से पढ़कर आरा आयी और चूँकि मेरे बड़े भाई पढ़े-लिखे नहीं थें इसलिए बड़े बाबूजी ने कहा कि "हम नहीं पढ़ाएंगे लड़कियों को.." तब हमारी बड़ी बहन भी नहीं पढ़ पायी थी, 7 वीं तक पढ़कर वो भी घर आ गयी थी. बाबूजी ने कहा - "हम पढ़ाएंगे नहीं, लेकिन अगर तुमको खुद से पढ़ना हो तो तुम अपनी व्यवस्था से पढ़ लो." मैंने कहा- "मैं पढ़ लूँगी." फिर मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया. 30 दिन रोज दो घंटे पढ़ती थी, यानि 60 घंटे के मुझे 10 रुपये मिलते थें. मैं कॉलेज आने-जाने का रिक्शा भाड़ा 7 रूपए महीना देती थी और तीन रुपया जो बचता था फिर दो-तीन महीने में 8 रुपये की साड़ी आती थी. नाश्ता करने के पैसे रहते ही नहीं थें. कभी किताबें नहीं रहीं मेरे पास. या तो लायब्रेरी से पढ़ा या कॉलेज नोट से पढ़ा. इसी तरह पढ़ाई बहुत कठिनाई से हुई. तब आरा के जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन किया तो वहां एमए की व्यवस्था नहीं थी, आरा में ही कहीं नहीं थी. तब बाहर जाने के लिए पैसा नहीं था. एक साल पढ़ाई छूट गयी. इसी बीच मैं संगीतालय में संगीत सीखने लगी थी. इसके बाद जब पेपर में मेरिट के लिए स्कॉलरशिप निकला तो संगीतालय के लोगों ने चंदा करके मेरा पटना यूनिवर्सिटी में एडमिशन करा दिया. मुझे दानापुर रेलवे क्वार्टर में रहने की व्यवस्था करा दी गयी किसी रिलेटिव के यहाँ. वहां से मैं ट्रेन पकड़कर पटना आती थी फिर चार आने में यानि हम चार सहेलियां एक रूपए में टैक्सी करके पटना यूनिवर्सिटी आती थी.
15 दिन हुआ होगा, एक दिन वहां के हेड ने मुझे एकांत में बुलाकर कहा- "तुमको स्कॉलरशिप मिली है, तुम यहाँ से चली जाओ, यहाँ बहुत पॉलिटिक्स है, मैं भी यहाँ से जा रहा हूँ." फिर गया के मगध यूनिवर्सिटी में गयी तो एडमिशन के लिए पैसा नहीं था. तब फिर स्कूलवालों ने मदद की. एडमिशन के बाद जब दो-चार क्लास किये तो पता चला मेरी स्कॉलरशिप ब्रेक हो गयी है. अब मैं यहाँ से भी गयी और वहां से भी गयी. उस समय के.के.दत्ता वीसी थें. मैं उनसे मिलने गयी. उनकी खासियत थी कि वे टीचर से मिले ना मिलें स्टूडेंट से जरूर मिलते थें. मैं जब उनके घर गयी तो चपरासी मुझे रोक रहा था और वे अंदर से सुन रहे थें. वे बाहर निकलें और बोलें- "क्यों रोक रहे हो, आने दो." मैंने उनसे मिलकर कहा- "सर ये स्कॉलरशिप अगर रुकता है तो मैं पढ़ नहीं पाऊँगी." वे बोले- "तुम आओ ऑफिस में देखते हैं क्या कर सकते हैं." मैं ऑफिस गयी और उन्होंने स्पेशल केस में एडमिशन करा दिया.
तब रेडियो पर मैंने एनाउसमेंट सुना कि आकाशवाणी पटना में एक जगह खाली है एनाउंसर की और मैं चली आयी थी. तब मेरे एक क्लासफेलो वहां एनाउंसर हो चुके थें. मैं वहां गयी तो वे बोले- "यहाँ ऑलरेडी कैंडिडेट सेलेक्टेड है, आपका नहीं होगा." मैंने कहा- "अप्लाई करने में क्या जाता है, नहीं होगा तो नहीं होगा." फिर अप्लाई कर दिया मैंने और पटना ही रहने आ गयी. कुछ दिन में इंटरव्यू लेटर भी आ गया मगर मैं नहीं गयी. सोचा- होगा तो है नहीं. फिर आधे दिन के बाद मैंने सोचा चलकर देखना तो चाहिए कि क्या होता है इंटरव्यू में, तो मैं चली गयी. उनलोगों ने कहा- "मैडम पता है, यहाँ वक़्त का पाबंद होना पहली शर्त है." मैंने कहा- "मैं आना ही नहीं चाह रही थी." और तब मुझे रेडियो का एबीसीडी तक नहीं आता था. फिर मेरा वॉइस टेस्ट हुआ. 500 कैंडिडेट थें और पोस्ट एक ही था. उनमे से कुछ कैंडिडेट थें जो कैजुअल में काम कर रहे थें. उस वाइस टेस्ट में 500 लोगों में 10 लोग सेलेक्ट हुए जिनमे एक मैं भी थी. और जिसको क्लासफेलो ने बताया था कि वे सेलेक्टेड कैंडिडेट हैं उसको वॉइस टेस्ट में फर्स्ट आया था, जबकि मुझे तीसरा नंबर मिला था. जब इंटरव्यू हुआ तो 25 में से 23 नंबर मुझे आ गए, मैं 3 से चली आयी 1 पर और वो एक से चले गए तीन पर. उन्होंने पूछाे- "आजकल प्रेसिडेंट कहाँ हैं?" मुझे पता था कि वो अफगानिस्तान में हैं फिर भी कभी-कभी हो जाता है की आपको ध्यान नहीं रहता. मैंने कहा- "नहीं पता है." तो बोले- "कोई न्यूज बताइये." मैंने कहा- "राजस्थान में बाढ़ आयी हुई है." वे बोले- "ये कोई न्यूज है? आप बताइये कि मध्य प्रदेश में क्या हो रहा है?" ये भी मुझे पता था कि मध्य प्रदेश में नॉन गजटेड की हड़ताल चल रही है. मगर वो भी नहीं बता पायी. वे कहने लगें- "न्यूजपेपर नहीं पढ़ती?" मैंने कहा- "नहीं." बोले- "क्यों ?" मैंने कहा- "हॉस्टल में रहती हूँ, पेपर मिलता नहीं पढ़ने को." मेरा मासूमियत से दिया गया यह जवाब इतना अपील कर गया उनको कि वे खुश हो गएँ. मतलब तब कोई भी अपनी कमजोरी नहीं बताता, यही कहता कि आज नहीं पढ़ सके, ऐसा-वैसा हो गया. मैंने तो स्ट्रेट कहा कि- "नहीं पढ़ती." इंटरव्यू के बाद फिर मेरा सलेक्शन हो गया.
चार साल मैं आकाशवाणी में रही फिर वहां से रिजाइन कर पटना वीमेंस कॉलेज गयी संस्कृत लेक्चरर बनकर. फिर दूसरे वीसी जो आएं उनकी बेटी तैयार थी संस्कृत में तो उन्होंने कहा था कि ये पद सिर्फ मेरी बेटी के लिए है. दो साल बाद कमीशन हुआ और उनके रिलेशनवाले कमीशन में बैठें और फिर मेरी छुट्टी हो गयी. एक साल मैं पटना में जॉबलेस रही. इसके बाद मैं राजभाषा परिषद में विधापति विभाग में गयी तो मैथिल लोग बिगड़े कि नॉन मैथिल को क्यों बैठा दिया इसमें. फिर एक साल बाद मैं लोकभाषा में ट्रांसफर हुई. 8 साल वहां रहने के बाद मेरी न्युक्ति हुई आरा के एस.बी. (सहजानंद ब्रह्मऋषि ) कॉलेज में. 5 साल मैंने पटना से अप एन्ड डाउन किया. तब मेरा लिखना भी छूट गया था. उसके बाद बहुत कोशिश करके ट्रांसफर लेकर मैं पटना के अरविन्द महिला कॉलेज में आयी. वहां 14 साल रही. फिर लालू जी ने शुरू किया कि जो जहाँ से आया है वहाँ जाये वार्ना तनख्वाह बंद. फिर एक साल तक तनख्वाह बंद रही. लेकिन कितने दिन तक ऐसा चलता. इसलिए मैं फिर चली गयी आरा के जैन कॉलेज और वहीँ से 2008 में संस्कृत विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर्ड हुई. काम के साथ-साथ तब मेरा साहित्य और गीत लेखन भी जारी रहा. लोकसाहित्य पर 14 किताबें प्रकाशित हुईं. टोटल 35 किताबें अलग-अलग विधाओं में आयीं हैं. रामायण मैंने कंटीन्यू 6 साल तक रेडिओ से गाया है और मुझे उसी से प्रसिद्धि मिली. राज्य और राष्ट्रिय स्तर पर कई पुरस्कार भी मिले . तब घरवाले मुझे एकाध बार शादी के लिए बोलें लेकिन मैंने नहीं की. चूँकि तब मैंने मध्य प्रदेश और अपने घर में देखा था शादीशुदा महिलाओं की स्थिति. उनकी अपनी कोई अच्छी नहीं है. रात-दिन काम में लगे रहो फिर भी उनकी उतनी कद्र नहीं. हम 12 भाई-बहन थें लेकिन बचपन में ही मुझे होश भी नहीं था तब हादसे व बीमारी की वजह से कइयों का देहांत हो गया. और तब हम चार भाई-बहन ही बच गएँ. एक भाई और हम तीन बहनें. बड़ी बहन की शादी हुई लेकिन मैं और छोटी बहन ने नहीं की. मैं तब परिवार में रही ही नहीं, बाहर-बाहर ही ज्यादा रहना होता था.
तब मेरा गाया रामायण रेडियो से पूरा बिहार-उत्तर प्रदेश सुनता था. 1978 की बात है तब जे.पी. (जयप्रकाश नारायण) बीमार थें और उनका डायलिसिस चल रहा था. तब जे.पी. के पास बहुत लोग आते थें और उन्हें गीत -भजन सुनाकर पैसे-वैसे ले जाते थें. जे.पी.थक जाते थें लेकिन संतुष्ट नहीं हो पाते थें. गंगा शरण सिंह तब एम.पी. हुआ करते थें, उन्होंने मुझे बुलाकर कहा "जे.पी. को थोड़ा टाइम दे दीजिये." मैंने कहा- "जे.पी. के मैं कुछ काम आऊं तो यह बड़े गर्व की बात होगी मेरे लिए." फिर मैं जाने लगी. पहले मैं शाम 6 बजे जाती थी. उस बीच में कोई मिलने आ गया, कभी कुछ हो गया तो बीच में व्यवधान होता था. अंत में तय हुआ कि मुझे रात 8 बजे बुलाया जाये तब कोई मिलने नहीं आएगा और नीचे गेट बंद हो जायेगा. मैं ऊपर जाती, नीचे गेट बंद होता और उसके बाद मैं जे.पी. की कुर्सी पर बैठ जाती थी. वहीं सामने टेबल पर हारमोनियम रहता था. सामने गंगा बाबू भी रहते थें. जे.पी. खाना खाकर उठते थें और तकिया लगाकर आधे लेटे हुए बैठ जाते थें. और फिर मेरे गायन के बाद कब वो सुनते-सुनते सो जाते थें कुछ पता नहीं चलता. तब उनकी नींद की दवा बिल्कुल बंद हो गयी थी. रामायण की चौपाईयाँ नींद की दवा का काम करती थीं. एक बार दिनकर का जब मैंने बापू सुनाया तो वे इतना रोने लगें कि मुझे समझ में नहीं आया कि अब मैं क्या करूँ. तब फिर लोगों ने कहा कि कुछ और सुनाइए इनका मूड बदलने के लिए. यह लगातार दो साल यानि उनकी मृत्यु होने तक सिलसिला चलता रहा. 7 अक्टूबर को उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गयी तो उस दिन लोगों ने कह दिया "आज दादा की तबियत ज्याद खराब है आज छोड़ दीजिये." फिर 8 को सुबह 6 बजे ड्राइवर मेरे पास आया वहां ले जाने के लिए. जे.पी. की एक बात लोगों को नहीं पता है. 23 सितम्बर, 1979 की बात है, दिनकर जयंती थी और उसी दिन गुजरात से उनके यहाँ एक चिट्ठी आई हुई थी जिसमे लिखा था कि सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी से 14 अक्टूबर को जे.पी. को डीलिट की उपाधि दी जा रही है. तो वे हंसने लगे थें कि "कौन लेगा इसको..!" और 8 अक्टूबर को वे दुनिया छोड़कर चले गए. बाद में मेरा एक डायरी संग्रह प्रकाशित हुआ 'एक कोमल क्रांतिवीर के अंतिम दो वर्ष' जिसमे डेट वाइस डायरी लेखन है. जे.पी. के साथ की तब जो भी बातचीत हुई सबका कलेक्शन है. 

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