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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Saturday 19 January 2019

पापा के गुजरने के बाद घर का बेटा बनकर जिम्मेदारियां निभानी पड़ीं : सोनी कच्छप, महिला ट्रैफिक कॉन्स्टेबल

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मैं रांची, झाड़खंड की रहनेवाली हूँ. बतौर ट्रैफिक कॉन्स्टेबल मेरी ड्यूटी अभी पटना के कोतवाली चौक पर है. हम चार बहने हैं. सबसे बड़ी मैं हूँ. मेरी नौकरी पापा की जगह अनुकम्पा पर लगी है. 2005 में पापा का देहांत हो गया था. तब सिपाही में बहाली के लिए मेरा मैट्रिक करना जरुरी था. उस वक़्त मैं 9 वीं में पढ़ रही थी. जब 2007 में मैट्रिक परीक्षा पास की तब जॉब के लिए अप्लाई किये. हमारा कोई भाई नहीं है. माँ को जब लगातार चार बेटियां हुईं तो टोंट मारा गया कि इसको लड़का नहीं हो रहा है, बड़ी मनहूस है. पापा भी इसी वजह से चिंतित रहते थें. शायद इसलिए वे हमलोगों को उतना ध्यान नहीं देते थें. जब बीमारी की वजह से उनका देहांत हुआ तब मम्मी से पूछा गया कि "नौकरी खुद करोगी या बेटी को दोगी..?" चूँकि मम्मी उतनी पढ़ी-लिखी भी नहीं हैं तो उन्होंने कहा कि "हमसे नौकरी नहीं होगा." जब वे मुझे नौकरी करने को बोली तो उसपर भी मेरे आस-पड़ोस के लोगों को एतराज होने लगा. कहने लगें- "लड़की होकर नौकरी करेगी, नहीं-नहीं, इसकी मम्मी करेगी. लड़की है, नौकरी करने लगी तो कहीं किसी के साथ भाग जाएगी. अपनी छोटी बहनों और माँ को भी नहीं देखेगी. तब मम्मी मेरा सपोर्ट करते हुए बोली थी - "ठीक है, जो भी होगा उस समय देखा जायेगा. लेकिन नौकरी अभी हम नहीं मेरी बेटी ही करेगी."
पापा अकेले भाई थें, लेकिन जब हमारे पापा गुजरे तो रिश्तेदार सब आपस में ही लड़ने लगें कि उनके हकदार हम होंगे. लेकिन तब हमारे छोटे फूफा जी हमारे सपोर्ट में उतरे और कहा "तुमलोग चिंता मत करो." उस समय हमरा कोई साथ नहीं दिया. हमलोगों को पढ़ा- लिखाकर आगे बढ़ाने का जो भी श्रेय जाता है फूफा जी को ही जाता है. पढ़ाई में हमलोगों को तब बहुत दिक्कत आ रही थी. फूफा भी तब प्राइवेट जॉब ही करते थें. लेकिन हम चारों बहन को पढ़ाने के साथ-साथ अपनी फैमली को भी देखते थें.
 मैट्रिक के बाद मैंने 2007 में जॉब के लिए अप्लाई किया. तब बोला गया कि ये पेपर नहीं है, वो पेपर पर साइन नहीं है. और किसी वजह से छांट दिया जाता था. फूफा जी प्राइवेट जॉब में थें तो जब-तब छुट्टी नहीं मिल पाती थी. वो सुबह ड्यूटी करके जब लौटते तो हम रात में मम्मी और उनके साथ रांची से पटना की बस पकड़ते थें. और फिर वहां पहुंचकर जो भी काम होता निपटाते थें. पेपर के बारे में कुछ-ना-कुछ कमी बताई जाती, कहा जाता ये साइन करा कर लाइए. तब हमलोग रातोंरात गाड़ी पकड़कर रांची जाते और फिर कागज बनवाते थें. मतलब अनुकम्पा की नौकरी को पाने के लिए भी बड़ी मसक्कत करनी पड़ी, उतनी दिक्कत शायद मेरिट वालों को नहीं हुई होगी.
मैंने अपनी दोनों छोटी बहनों की शादी भी की. एक की 2013 तो एक की 2015 में. उसके बाद अपनी जिम्मेदारियां पूरी करके मैं भी 2016 में शादी के बंधन में बंध गयी. माँ की तबियत भी ठीक नहीं रहती थी. अगर तब मैं पहले खुद शादी कर लेती तो पता नहीं था कि तब मुझे मायकेवालों की मदद करने दिया जाता भी या नहीं. हो सकता था पति मुझे दबाव देते. इसलिए मैंने सोचा, खुद की शादी से पहले दोनों छोटी बहनों की शादी कर दें. हमलोगों की शादियों में एक अच्छी बात ये है कि दहेज़ का चलन नहीं है. इसलिए सिर्फ शादी की सजावट और बारात को खिलाने-पिलाने में ही खर्च हुआ. जब पहली बहन की शादी की तो पापा की सेविंग्स काम आयी और फूफा जी ने भी हेल्प किया. फिर दूसरी बहन की शादी के वक़्त मैंने 5 सालों के लिए लोन लिया जो अभी भी मैं चुका रही हूँ.
कल को मुझपर ताने मारनेवाले अब वही सब लोग कहते हैं कि "लड़की होकर दो-दो बहनों की शादी कर दी, अपनी भी खुद के खर्च से शादी की. बहुत लायक बेटी है." मेरे पति झड़खंड एस.आई.एस.एफ. में पोस्टेड हैं. ससुराल में अभी तक मेरे इस कार्य का विरोध नहीं हुआ है. हमारे पति का भी बहुत सपोर्ट रहा है. वो आजतक हमें नहीं टोके हैं कि पैसा किसको देती हो-नहीं देती हो. मेरी सबसे छोटी बहन अभी माँ के साथ रांची में रहती है, 8 वीं में पढ़ती है. उसकी पढ़ाई का खर्च भी मैं ही वहन करती हूँ. मैं चाहती हूँ कि सबसे छोटी बहन को कुछ ऐसा लायक बना दूँ कि वो हमपर डिपेंड ना रहे, आत्मनिर्भर बन जाये.

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