By : Rakesh Singh 'Sonu'
ग्रेजुएशन करने के बाद मेरी शादी 1987 में एक बहुत बड़े घर में हुई थी. उस वक़्त दहेज़ की कोई बात नहीं थी मगर वहां जाने के बाद पता चला कि ससुरालवालों की नियत बहुत खराब है. वहां फिजकली से ज्यादा मुझे मेंटली टॉर्चर किया जाता था. उनका उद्देश्य था कि मुझे पागल करके, डायवोर्स देकर घर से निकाल दो. बात इतनी बढ़ने लगी कि हम बहुत बीमार हो गएँ. थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी तक मामला पहुँच गया. तब शादी को एक साल भी नहीं बिता था. फिर 7-8 महीने में ही मेरा रिश्ता खराब हो गया और मुझे माँ-बाप के पास लौटना पड़ा. लेकिन फिर भी उस समय मैं डायवोर्स नहीं लेना चाहती थी लेकिन जब मेरी हालत बहुत दयनीय हो गयी तो मेरे माँ-पापा मुझे दिल्ली से पटना ले आएं. वे मेरा इलाज करवाएं तब हम नॉर्मल हुए. उसके बाद मेरा नया जन्म हुआ. और इलाज के बाद हम एक नयी मधु बन गए. उस बीच डायवोर्स का केस फाइल हो गया था. फिर मैंने लॉ की पढ़ाई शुरू की. उस घटना के बाद मेरे मन में पुरुषों के प्रति इतना आक्रोश था कि लगता था जो मेरे साथ किया गया है, हम भी उनको सजा दें. उस वक़्त पुलिस सर्विस में जाना चाहती थी क्यूंकि लगता था कि पुलिस में गए तो वैसे मर्दों की बहुत पिटाई करेंगे. लेकिन माँ नहीं चाहती थी कि मैं पुलिस सर्विस ज्वाइन करूँ तब फिर मैं लॉ की पढ़ाई में व्यस्त हो गयी. क्यूंकि इसके माध्यम से भी हम दूसरों को न्याय दिला सकते हैं.
लॉ पढ़ने के बाद मैंने वकालत शुरू की और अब मैं पीड़ित महिलाओं के लिए संघर्ष करती हूँ. तब मेरे पापा और बड़े जीजाजी के सपोर्ट से हम फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू किये थें. इसी बीच घर में बात चलने लगी कि लड़की कबतक रहेगी घर में ? इसकी फिर शादी करनी है.... तबतक मेरे छोटे भाई-बहन की शादी हो गयी थी. उस वक़्त मैं दुबारा शादी ही नहीं करना चाहती थी. लेकिन पापा-माँ को लगा कि हमलोग नहीं करेंगे तो कैसे रहेगी अकेले. तो उनकी जिद थी की नहीं, शादी होनी चाहिए. तब मेरी दूसरी शादी एक बंगाली फैमली में हुई और उस मैरेज के बाद मेरी एक बेटी हुई. संयोग देखिये कि ये शादी भी मुश्किल से 5-6 साल ही टिक पायी. क्यूंकि उनलोगों को मेरा सोशल वर्क करने से लेकर मेरा ऐटीच्यूट, रहन-सहन कुछ भी पसंद नहीं आता था. वो रईस परिवार के थें और रात-दिन शराब और ऐय्यासी में डूबे रहते थें. वे हमारी कुछ केयर नहीं करते थें. उनकी इक्छा थी कि हम घर में बंद होकर रहें. इस हालात में हम पहले के मिले अनुभव से स्ट्रॉन्ग हो चुके थें और हम घर में बंद होकर नहीं रह सकते थें. अब मुझे बाहर निकलना था, काम करना था. लेकिन वो इजाजत नहीं देते थें. मुझे बिहारी बोलकर बहुत अपमानित करते थें. फिर मैं 2000 में कोलकाता से वापस पटना मायके आ गयी. पटना में बेटी का एडमिशन कराएं और फिर से वकालत करना शुरू कर दिए. उसके बाद फिर ससुरालवालों ने हमें पलटकर देखा तक नहीं और ना किसी भी तरके से कोई हेल्प किया. उल्टा मुझपर ही दोष मढ़ दिया गया कि हम अपने पति के साथ नहीं रहना चाहते हैं. वो ऐय्यास टाइप के थें जो अपना सारा पैसा शराब में बर्बाद कर रहे थें. वे बेटी की परवरिश या मेरी देखभाल नहीं कर पाएं. तब माँ-पापा को को ही हम दोनों की देखरेख करनी पड़ती थी तो फिर मेरा पति के साथ रहना सम्भव नहीं था. तभी हम डिसीजन लिए और मायके आ गए. तब अपनी बेटी को बहुत स्ट्रगल से पढ़ाने लगें. लेकिन मेरे भाई-बहन, माँ-बाप का अच्छा सपोर्ट था कि मेरी लाइफ अच्छी गुजरने लगी. इसी बीच हम सोशल वर्क शुरू कर दिए.
मैंने 80 के दशक में बहुत सारे बाइक रैली में भाग लिया. बिहार की पहली महिला होने का गौरव प्राप्त किया और बहुत सारे एवार्ड जीते. ऐसा करते-करते मेरी हिम्मत बढ़ती गयी. पहली बाइक रैली 1992 में हुई थी जिसमे 70 प्रतिभागी थें. बिहार के अलावा अन्य स्टेट से भी आये थें. और उस ग्रुप में मैं एक अकेली महिला थी. उस समय एल.एम.एल. कंपनीवाले मुझे सपोर्ट किये थें तो उन्ही की कम्पनी के स्कूटर एल.एम.एल. वेस्पा से हम रैली में भाग लिए. होटल मौर्या पटना से स्टार्ट कर हम सभी मुजफ्फरपुर गए थें और फिर मुजफ्फरपुर से तुरंत वापस भी आना था. फिर 2007 में भी हम पहली महिला बने जो रैली में मोटरसाइकिल से बिहटा तक गए. जब लड़कियां सायकिल भी बहुत कम चलाती थीं तब हम पापा की बाइक से कॉलेज जाते थें और रेडक्रॉस सोसायटी में बाइक छुपाकर रखते थें. उस समय मेरे बाइक चलाने पर भीड़ लग जाती थी. तब कॉलेज में कोई लड़की स्कूटर-बाइक नहीं चलाती थी तो कॉलेज जाने पर हंगामा मच जाता था. यहाँ तक कि टीचर-लेक्चरर और सड़क पर भी ट्रैफिक पुलिस सभी भीड़ लगाकर देखने लगते थें जैसे उनके लिए यह एक अजूबा हो. जब मेरी पहली रैली थी तब भी रोड के दोनों किनारे हजारों पब्लिक खड़ी थी देखने के लिए कि कौन लड़की बाइक चला रही है. तब मेरे मोहल्ले के लोग भी पापा को ताने मारते थें कि अपनी लड़की को हवा में उड़ा रहे हैं, आवारा बना रहे हैं. लेकिन पापा सुनते नहीं थें, हमको भी ध्यान नहीं देने को कहते थें. जब हम बाइक रैली जीतकर आएं तो वो ताना मारनेवाले सभी लोग तारीफ करने लगें और मेरे पास आकर कहने लगें कि मेरी बेटी को भी सीखा दो.
जब मैं हसबैंड से अलग होकर सिंगल मदर पैरेंट्स की तरह रहने लगी फिर भी डायवोर्स नहीं ली वजह ये कि इस समाज में लोग डायवोर्सी औरत को अच्छी नजर से नहीं देखते हैं. और जिस जगह हम जॉब करते थें शुरू के दिनों में वहां पर पता चलते ही कि हम अकेले हैं हर-एक लोगों का नजरिया बदल जाता. क्यूंकि समाज की सच्चाई यही है कि अकेली औरत को सभी अपनी प्रॉपर्टी समझने लगते हैं. उस वक़्त मुझे लगा कि नहीं, कम-से-कम एक झूठा ही नाम का सिंदूर-मंगलसूत्र तो है जो समाज में एक कवच का काम कर रहा है. कल को बेटी की शादी में भी दिक्कत आ सकती थी. तब मेरे पापा थोड़ा- सा समाज के तानों से घबरा गए थें लेकिन मेरी माँ बिल्कुल नहीं डरी और उसने कहा कि 'मेरी बेटी यहीं रहेगी, जिसको प्रॉब्लम है वो चला जाये.' माँ सबसे लड़कर मेरा सपोर्ट की और बोली- "मेरी बेटी है, हम इसको मरने नहीं देंगे." उसके बाद तो फिर पूरी फैमली का सहयोग मिलने लगा. मम्मी-पापा बहुत हिम्मत दिए उस समय जब लगता था कि जिंदगी में कुछ नहीं है, अँधेरा ही अँधेरा है. मर जाने की इच्छा होती थी. उस वक़्त पापा की सीख मेरे पल्ले पड़ी तो आज हम दूसरों का भी उत्साह बढ़ाते हैं कि कभी भी भगवान एक रास्ता बंद करते हैं तो एक रास्ता जरूर खोल देते हैं. और हिम्मत हारकर बैठ जाना जिंदगी का मकसद नहीं है.
मैं कुछ संस्थाओं से जुड़ी जिसके माध्यम से हफ्ते में एक-दो दिन स्लम के बच्चों को जाकर पढ़ाती हूँ. बिहार सिविल सोसायटी फोरम संस्था जो मानव अधिकार हनन के मुद्दे पर काम करती है जिसकी मैं अभी सेक्रेटरी हूँ. 'तलाश' संस्था की मेंबर हूँ. 'समर्पण' से जुड़कर दिव्यांग बच्चों के लिए भी काम करती हूँ. जो इनलीगल कंस्ट्रक्शन करके सोसायटी में हॉस्पिटल-नर्सिंग होम बनवाते थें उनके खिलाफ भी हम पीआईएल किये. इसमें भी कोई मेरा साथ नहीं दिया और हम अकेले 6 साल लड़ाई लड़ें और तब मुझे डॉक्टर्स लोगों से बहुत धमकी भी मिली लेकिन अंत में हम लड़ते-लड़ते रेसिडेंसियल इलाके में कुछ इनलीगल ढंग से चल रहे हॉस्पिटल बंद करवाए.
जब मैं शुरू-शुरू कोर्ट में वकालत करने गयी तो उस समय लड़कियां कम थीं, जेंट्स के बीच काम करने में झिझक होती थी. सभी सीनियर्स अच्छे होते भी नहीं हैं, लेकिन मेरा संयोग था कि मुझे अच्छे सीनियर मिल गएँ. मेरी बेटी पटना वीमेंस कॉलेज में बी.कॉम कर रही है. बेटी कत्थक की अच्छी डांसर भी है. मुझे भी डांस का शौक था मगर हम कर नहीं पाएं तो बेटी के माध्यम से अपना शौका पूरा कर पा रहे हैं. मेरी बच्ची जब कुछ समझदार हुई तो उसे लगता था मम्मी गन्दी है, पापा के साथ लड़ाई की है. लेकिन हम उसे कभी मना नहीं किये, फोन नंबर दे दिए तो वो अपने डैडी से बात करती थी. लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयी उसको पता चल गया कि मम्मी को उनलोगों ने कितना परेशान किया. अब वे उनलोगों से बात भी नहीं करना चाहती. अब फोन आता है तो काट देती है. उस समय अगर किसी मर्द से मैं दोस्ती भी करती तो मेरी बेटी पर उसका बहुत खराब असर पड़ता. तो काफी बैलेंस करते हुए मुझे जिंदगी आगे बढ़ानी पड़ी और बेटी को लायक बनाना पड़ा. आज मेरी बेटी मुझसे भी ज्यादा स्ट्रॉन्ग बन गयी है.
ग्रेजुएशन करने के बाद मेरी शादी 1987 में एक बहुत बड़े घर में हुई थी. उस वक़्त दहेज़ की कोई बात नहीं थी मगर वहां जाने के बाद पता चला कि ससुरालवालों की नियत बहुत खराब है. वहां फिजकली से ज्यादा मुझे मेंटली टॉर्चर किया जाता था. उनका उद्देश्य था कि मुझे पागल करके, डायवोर्स देकर घर से निकाल दो. बात इतनी बढ़ने लगी कि हम बहुत बीमार हो गएँ. थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी तक मामला पहुँच गया. तब शादी को एक साल भी नहीं बिता था. फिर 7-8 महीने में ही मेरा रिश्ता खराब हो गया और मुझे माँ-बाप के पास लौटना पड़ा. लेकिन फिर भी उस समय मैं डायवोर्स नहीं लेना चाहती थी लेकिन जब मेरी हालत बहुत दयनीय हो गयी तो मेरे माँ-पापा मुझे दिल्ली से पटना ले आएं. वे मेरा इलाज करवाएं तब हम नॉर्मल हुए. उसके बाद मेरा नया जन्म हुआ. और इलाज के बाद हम एक नयी मधु बन गए. उस बीच डायवोर्स का केस फाइल हो गया था. फिर मैंने लॉ की पढ़ाई शुरू की. उस घटना के बाद मेरे मन में पुरुषों के प्रति इतना आक्रोश था कि लगता था जो मेरे साथ किया गया है, हम भी उनको सजा दें. उस वक़्त पुलिस सर्विस में जाना चाहती थी क्यूंकि लगता था कि पुलिस में गए तो वैसे मर्दों की बहुत पिटाई करेंगे. लेकिन माँ नहीं चाहती थी कि मैं पुलिस सर्विस ज्वाइन करूँ तब फिर मैं लॉ की पढ़ाई में व्यस्त हो गयी. क्यूंकि इसके माध्यम से भी हम दूसरों को न्याय दिला सकते हैं.
लॉ पढ़ने के बाद मैंने वकालत शुरू की और अब मैं पीड़ित महिलाओं के लिए संघर्ष करती हूँ. तब मेरे पापा और बड़े जीजाजी के सपोर्ट से हम फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू किये थें. इसी बीच घर में बात चलने लगी कि लड़की कबतक रहेगी घर में ? इसकी फिर शादी करनी है.... तबतक मेरे छोटे भाई-बहन की शादी हो गयी थी. उस वक़्त मैं दुबारा शादी ही नहीं करना चाहती थी. लेकिन पापा-माँ को लगा कि हमलोग नहीं करेंगे तो कैसे रहेगी अकेले. तो उनकी जिद थी की नहीं, शादी होनी चाहिए. तब मेरी दूसरी शादी एक बंगाली फैमली में हुई और उस मैरेज के बाद मेरी एक बेटी हुई. संयोग देखिये कि ये शादी भी मुश्किल से 5-6 साल ही टिक पायी. क्यूंकि उनलोगों को मेरा सोशल वर्क करने से लेकर मेरा ऐटीच्यूट, रहन-सहन कुछ भी पसंद नहीं आता था. वो रईस परिवार के थें और रात-दिन शराब और ऐय्यासी में डूबे रहते थें. वे हमारी कुछ केयर नहीं करते थें. उनकी इक्छा थी कि हम घर में बंद होकर रहें. इस हालात में हम पहले के मिले अनुभव से स्ट्रॉन्ग हो चुके थें और हम घर में बंद होकर नहीं रह सकते थें. अब मुझे बाहर निकलना था, काम करना था. लेकिन वो इजाजत नहीं देते थें. मुझे बिहारी बोलकर बहुत अपमानित करते थें. फिर मैं 2000 में कोलकाता से वापस पटना मायके आ गयी. पटना में बेटी का एडमिशन कराएं और फिर से वकालत करना शुरू कर दिए. उसके बाद फिर ससुरालवालों ने हमें पलटकर देखा तक नहीं और ना किसी भी तरके से कोई हेल्प किया. उल्टा मुझपर ही दोष मढ़ दिया गया कि हम अपने पति के साथ नहीं रहना चाहते हैं. वो ऐय्यास टाइप के थें जो अपना सारा पैसा शराब में बर्बाद कर रहे थें. वे बेटी की परवरिश या मेरी देखभाल नहीं कर पाएं. तब माँ-पापा को को ही हम दोनों की देखरेख करनी पड़ती थी तो फिर मेरा पति के साथ रहना सम्भव नहीं था. तभी हम डिसीजन लिए और मायके आ गए. तब अपनी बेटी को बहुत स्ट्रगल से पढ़ाने लगें. लेकिन मेरे भाई-बहन, माँ-बाप का अच्छा सपोर्ट था कि मेरी लाइफ अच्छी गुजरने लगी. इसी बीच हम सोशल वर्क शुरू कर दिए.
मैंने 80 के दशक में बहुत सारे बाइक रैली में भाग लिया. बिहार की पहली महिला होने का गौरव प्राप्त किया और बहुत सारे एवार्ड जीते. ऐसा करते-करते मेरी हिम्मत बढ़ती गयी. पहली बाइक रैली 1992 में हुई थी जिसमे 70 प्रतिभागी थें. बिहार के अलावा अन्य स्टेट से भी आये थें. और उस ग्रुप में मैं एक अकेली महिला थी. उस समय एल.एम.एल. कंपनीवाले मुझे सपोर्ट किये थें तो उन्ही की कम्पनी के स्कूटर एल.एम.एल. वेस्पा से हम रैली में भाग लिए. होटल मौर्या पटना से स्टार्ट कर हम सभी मुजफ्फरपुर गए थें और फिर मुजफ्फरपुर से तुरंत वापस भी आना था. फिर 2007 में भी हम पहली महिला बने जो रैली में मोटरसाइकिल से बिहटा तक गए. जब लड़कियां सायकिल भी बहुत कम चलाती थीं तब हम पापा की बाइक से कॉलेज जाते थें और रेडक्रॉस सोसायटी में बाइक छुपाकर रखते थें. उस समय मेरे बाइक चलाने पर भीड़ लग जाती थी. तब कॉलेज में कोई लड़की स्कूटर-बाइक नहीं चलाती थी तो कॉलेज जाने पर हंगामा मच जाता था. यहाँ तक कि टीचर-लेक्चरर और सड़क पर भी ट्रैफिक पुलिस सभी भीड़ लगाकर देखने लगते थें जैसे उनके लिए यह एक अजूबा हो. जब मेरी पहली रैली थी तब भी रोड के दोनों किनारे हजारों पब्लिक खड़ी थी देखने के लिए कि कौन लड़की बाइक चला रही है. तब मेरे मोहल्ले के लोग भी पापा को ताने मारते थें कि अपनी लड़की को हवा में उड़ा रहे हैं, आवारा बना रहे हैं. लेकिन पापा सुनते नहीं थें, हमको भी ध्यान नहीं देने को कहते थें. जब हम बाइक रैली जीतकर आएं तो वो ताना मारनेवाले सभी लोग तारीफ करने लगें और मेरे पास आकर कहने लगें कि मेरी बेटी को भी सीखा दो.
जब मैं हसबैंड से अलग होकर सिंगल मदर पैरेंट्स की तरह रहने लगी फिर भी डायवोर्स नहीं ली वजह ये कि इस समाज में लोग डायवोर्सी औरत को अच्छी नजर से नहीं देखते हैं. और जिस जगह हम जॉब करते थें शुरू के दिनों में वहां पर पता चलते ही कि हम अकेले हैं हर-एक लोगों का नजरिया बदल जाता. क्यूंकि समाज की सच्चाई यही है कि अकेली औरत को सभी अपनी प्रॉपर्टी समझने लगते हैं. उस वक़्त मुझे लगा कि नहीं, कम-से-कम एक झूठा ही नाम का सिंदूर-मंगलसूत्र तो है जो समाज में एक कवच का काम कर रहा है. कल को बेटी की शादी में भी दिक्कत आ सकती थी. तब मेरे पापा थोड़ा- सा समाज के तानों से घबरा गए थें लेकिन मेरी माँ बिल्कुल नहीं डरी और उसने कहा कि 'मेरी बेटी यहीं रहेगी, जिसको प्रॉब्लम है वो चला जाये.' माँ सबसे लड़कर मेरा सपोर्ट की और बोली- "मेरी बेटी है, हम इसको मरने नहीं देंगे." उसके बाद तो फिर पूरी फैमली का सहयोग मिलने लगा. मम्मी-पापा बहुत हिम्मत दिए उस समय जब लगता था कि जिंदगी में कुछ नहीं है, अँधेरा ही अँधेरा है. मर जाने की इच्छा होती थी. उस वक़्त पापा की सीख मेरे पल्ले पड़ी तो आज हम दूसरों का भी उत्साह बढ़ाते हैं कि कभी भी भगवान एक रास्ता बंद करते हैं तो एक रास्ता जरूर खोल देते हैं. और हिम्मत हारकर बैठ जाना जिंदगी का मकसद नहीं है.
मैं कुछ संस्थाओं से जुड़ी जिसके माध्यम से हफ्ते में एक-दो दिन स्लम के बच्चों को जाकर पढ़ाती हूँ. बिहार सिविल सोसायटी फोरम संस्था जो मानव अधिकार हनन के मुद्दे पर काम करती है जिसकी मैं अभी सेक्रेटरी हूँ. 'तलाश' संस्था की मेंबर हूँ. 'समर्पण' से जुड़कर दिव्यांग बच्चों के लिए भी काम करती हूँ. जो इनलीगल कंस्ट्रक्शन करके सोसायटी में हॉस्पिटल-नर्सिंग होम बनवाते थें उनके खिलाफ भी हम पीआईएल किये. इसमें भी कोई मेरा साथ नहीं दिया और हम अकेले 6 साल लड़ाई लड़ें और तब मुझे डॉक्टर्स लोगों से बहुत धमकी भी मिली लेकिन अंत में हम लड़ते-लड़ते रेसिडेंसियल इलाके में कुछ इनलीगल ढंग से चल रहे हॉस्पिटल बंद करवाए.
जब मैं शुरू-शुरू कोर्ट में वकालत करने गयी तो उस समय लड़कियां कम थीं, जेंट्स के बीच काम करने में झिझक होती थी. सभी सीनियर्स अच्छे होते भी नहीं हैं, लेकिन मेरा संयोग था कि मुझे अच्छे सीनियर मिल गएँ. मेरी बेटी पटना वीमेंस कॉलेज में बी.कॉम कर रही है. बेटी कत्थक की अच्छी डांसर भी है. मुझे भी डांस का शौक था मगर हम कर नहीं पाएं तो बेटी के माध्यम से अपना शौका पूरा कर पा रहे हैं. मेरी बच्ची जब कुछ समझदार हुई तो उसे लगता था मम्मी गन्दी है, पापा के साथ लड़ाई की है. लेकिन हम उसे कभी मना नहीं किये, फोन नंबर दे दिए तो वो अपने डैडी से बात करती थी. लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयी उसको पता चल गया कि मम्मी को उनलोगों ने कितना परेशान किया. अब वे उनलोगों से बात भी नहीं करना चाहती. अब फोन आता है तो काट देती है. उस समय अगर किसी मर्द से मैं दोस्ती भी करती तो मेरी बेटी पर उसका बहुत खराब असर पड़ता. तो काफी बैलेंस करते हुए मुझे जिंदगी आगे बढ़ानी पड़ी और बेटी को लायक बनाना पड़ा. आज मेरी बेटी मुझसे भी ज्यादा स्ट्रॉन्ग बन गयी है.
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