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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Sunday, 20 January 2019

पति से छुपाकर देवर-ननद संग घूमने निकल जाते थें: विभा देवी, मुखिया, वीर पंचायत

By : Rakesh Singh 'Sonu'


मेरा मायका तो वैसे बिहार के भागलपुर जिले में पड़ता है लेकिन हमलोग पटना के कंकड़बाग में रहते थें. पापा हाउसिंग बोर्ड में एक्सक्यूटिव इंजीनियर थें मगर उनके अचानक देहांत हो जाने की वजह से हमारे ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. हम 5 बहने थीं, हमारा कोई भाई नहीं था. पापा के नहीं रहने से शादी-ब्याह को लेकर बहुत दिक्कत होने लगी. हमारी शादी को लेकर माँ बहुत परेशान रहती थी. माँ ने बहुत स्ट्रगल झेला फिर पापा की जगह पर उनकी नौकरी लगी तब कुछ राहत महसूस हुआ. हमसे कोई जल्दी शादी ये सोचकर नहीं करना चाहता था कि पांच बेटियां हैं, पता नहीं इनकी बेटी से शादी करेंगे तो बेटा होगा कि नहीं होगा. या फिर कहीं लड़के को घर जमाई ना बनना पड़े. इस वजह से भी बहुत लोग कतराते थें. फिर 1989 में मेरी छोटी उम्र में ही शादी हो गयी. जहाँ हम अभी मुखिया हैं वही वीर पंचायत में हमारा ससुराल है. शादी बाद मेरी पहली संतान बेटी हुई फिर उसके बाद दूसरी संतान भी बेटी हो गयी. मैं डर रही थी कि कोई मुझे ही दोषी मानकर मेरे साथ बुरा ना करे लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं.

उस वक़्त मेरे हसबेंड का ट्रांसपोर्ट का बिजनेस था, बसें चला करती थीं. घर के कुछ लोगों के मन में रहता था कि ऐसा नहीं हो कि परिवार का ये मालिक है, बड़ा बेटा है तो सारी कमाई सिर्फ ससुराल में जहाँ सिर्फ बेटियां ही हैं और अपनी पत्नी पर ही ना उड़ा दे. लेकिन मेरे पति शुरू से ही अपने घरवालों के लिए ज्यादा करते थें. फिर धीरे-धीरे पति का ट्रांसपोर्ट का बिजनेस ठप्प हो गया. तब वे ठेकेदारी का काम करने लगें. जब मेरी शादी हुई मैं मैट्रिक पास थी. शादी के बाद ही हम ससुराल में रहकर इंटर और ग्रेजुएशन फिर नर्सिंग का ट्रेनिंग किये. जब मुजफ्फरपुर से नर्सिंग का कोर्स कर रही थी तो परिवार से अलग दो महीने के बेटे अभिषेक के साथ हॉस्टल में रहती थी. छुट्टियों में पटना फैमली के बीच चली आती थी. दो साल का कोर्स पूरा करके पी.एम.सी.एच. में एक्जाम दिए और तब बिहार-झाड़खंड एक ही स्टेट था और उस वक़्त पूरे जगह में नर्स के एक्जाम में मैं ही टॉप आई थी. लेकिन कभी हम नर्सिंग का काम नहीं कर पाए क्यूंकि हसबेंड मना कर दिए.
जब शादी के बाद कुछ दिनों के लिए ससुराल के गांव गयी तो मेरी सासु माँ और चहेरी-फुफेरी सास जो भी बोलती गयीं मैं बस वही करती चली गयी. जैसे तैयार कर दिया लोगों ने वैसे हो गएँ, जहाँ बैठा दिया वहीँ बैठे हैं. भूख-प्यास भी लगी तो झिझक की वजह से नहीं बोल पाते थें. किसी से शिकवा-शिकायत नहीं थी क्यूंकि उस वक़्त हमें उतनी समझ नहीं थी. मेरे पापा के गुजर जाने के बाद मेरी माँ का यही कहना था कि "बेटा, जहाँ जा रही हो वहीं रहना क्यूंकि अगर वहां कुछ करोगी तो ना तुम्हारे पास पिता हैं और ना भाई है. फिर कहाँ रहोगी मेरे पास. इसलिए अगर कोई कुछ भी करे तो तुम चुपचाप सह लेना. तुम्हारे साथ गलत कोई एक बार करेगा, दो बार करेगा लेकिन जब तुम जवाब ही नहीं दोगी तो तीसरी बार वो गलत करने से पहले सोचेगा."
मैं हमेशा से पटना में रही लेकिन शादी के दस-पंद्रह दिन बाद से गांव आना-जाना लगा रहता था. एक बार की बात है गांव में घर के आँगन में एक टोकरी रखी थी. हमें कोई बोला कि "ओड़िया को उठाकर दो". तब हम समझे नहीं कि ओड़िया होता क्या है, हम वहीँ खड़े थें लेकिन दे नहीं पा रहे थें. इसपर बुजुर्ग महिलाओं का ताना शुरू हो गया कि "बहुत बद्तमीज है, कबसे मांग रहे हैं फिर भी नहीं दे रही. इसलिए कहे थें कि शहर की लड़की से शादी नहीं करो. ये तो ना कुछ बोल रही है ना अपने बगल से ओड़िया उठाकर दे रही है." इस बात पर तब सबने मेरी खूब हंसी उड़ाई. उसके बाद अकेले में हम बहुत रोये कि कैसी जगह आ गए हैं कि यहाँ टोकरी को ओड़िया बोला जाता है.
मैं घूमने-फिरने की बहुत शौक़ीन हूँ और मेरे हसबेंड को इन सब चीजों का उतना शौक नहीं था. इस बात पर भी हम दोनों में तू-तू मैं-मैं हो जाती थी. हम पहले ये समझते थें कि शादी जो होता है ना वो होता है सिर्फ घूमने-फिरने के लिए. हमको बढ़िया-बढ़िया कपड़ा मिलेगा और मेरा हसबेंड मुझे गाड़ी से घुमाते रहेगा. लेकिन यहाँ आने के बाद वैसा कुछ भी नहीं हुआ . मेरी लाइफ शुरू से ही बहुत स्ट्रगल में बीती इसलिए कि मेरे पति तीन भाई- तीन बहन हैं. तो इनके छोटे जो दो भाई और तीन बहने थी और सभी की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी. सुबह-सुबह उठकर उनके स्कूल-कॉलेज का नाश्ता, उनका ड्रेस धोना, जूता धोना...जिस दिन से ससुराल आएं हमारी दिनचर्या यही बन गयी और हम अपने शौक के मुताबिक कुछ भी नहीं कर पाएं. कहीं जाना भी है तो तुरंत दौड़कर घर आना होता था कि बौआ लोग पढ़कर आ गए होंगे. उनका एक्जाम है, उनके लिए नाश्ता-खाना बनाना है. तब हम भी छोटे ही थें इसलिए कभी-कभी लेट हो जाता था. उस वक़्त मेरे देवर ग्रेजुएशन में थें ओर मैं इंटर में थी. वे लोग कभी ये नहीं समझते थे कि, हाँ ये भी नादान है, प्रेग्नेंट है तो सोइ रह गयी, थकी हुई है... इस वजह से थोड़ी टेंशन हो जाती थी. उन्हें सिर्फ यही लगता कि मैंने काम नहीं किया. इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं थी क्यूंकि वे भी तब नासमझ थें.
मेरे पति मुझे साथ लेकर तब घूमने नहीं जाते थें. मेरे पास भी पैसा नहीं रहता था. मेरे देवर-ननद भी छोटी उम्र के सब पढ़ने-लिखने वाले थें इसलिए उनके पास भी पैसा नहीं रहता था. तो हम सभी देवर-ननदें मिलकर आपस में चंदा मिलाते दस-बीस-पचास रुपये का और हम अपने हसबेंड तो वे लोग अपने भैया से छुपाकर घूमने निकल जाते. फिर सिनेमा देखकर, होटल में खाना खाकर चुपचाप चले आते थें. हम देवर-ननद और मेरे बच्चे सब ग्रुप में जाते थें और मेरे हसबेंड को इसकी भनक तक नहीं लगती थी. बाद में चूँकि तब टोटल परिवार शहर में ही रहता था तो सिर्फ एक-दो दिन के लिए ही गांव आना-जाना लगा रहता था. वैसे में गांव के लोग सोचते कि ये शहर में रही है, क्या पता गांव में रह पायेगी कि नहीं. लेकिन धीरे-धीरे मुझे गांव का माहौल भी पसंद आने लगा और हम सभी एक साथ मिलकर सुख-दुःख इंज्वाय करने लगें. 

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