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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Sunday 20 January 2019

एहसास नहीं था टीवी क्राइम रिपोर्टर की पत्नी बनने के बाद इतना एडजस्ट करना पड़ेगा : आभा ओझा, मैनेजिंग एडिटर, मंथन मीडिया प्रा.ली.

By : Rakesh Singh 'Sonu'

मेरा मायका हुआ बिहार के मोतिहारी जिले में, पिताजी बैंक मैनेजर थें. मेरे मामा राकेश प्रवीर 'दैनिक हिंदुस्तान' और 'आज' अख़बार में मेरे पति अमिताभ ओझा जी के सीनियर रह चुके हैं. सबसे पहले मामा जी ने इन्हे मेरे लिए प्रपोजल दिया था. तब इनकी एक ही शर्त थी कि लड़की सुशिल होनी चाहिए जो इनके घर-परिवार को अच्छे से संभाल सके क्यूंकि इनके पिता जी नहीं हैं. फिर इनके हाँ करते ही 2005 में हमारी शादी तय हो गयी. उस समय सुनकर थोड़ा अजीब सा लगा कि ये क्राइम रिपोर्टर हैं लेकिन जब पता चला टीवी चैनल में हैं तो लगा कि चलो कुछ ठीक है. पापा बताये थें कि जैसे बैंक में उनका नार्मल टाइमटेबल होता है वैसा इनका नहीं है. हालाँकि मेरे मामा भी पत्रकार हैं लेकिन मैं नहीं जानती थी कि अख़बार और टीवी चैनल की पत्रकारिता में कितना अंतर देखने को मिलता है.
शुरू-शुरू में बहुत सुखद एहसास हुआ कि चलो टीवी पर आ रहे हैं, सबलोग देख पा रहे हैं. लेकिन जिस तरीके का उनका वर्क ऑफ़ नेचर है, क्राइम-क्रिमनल....ये सब चीजें मेरे लिए बिल्कुल नयी थीं. और ससुराल आते ही मुझे इन सब चीजों से थोड़ी दिक्कत तो हुई. मैं सोचती कि मायके में रत 10 बजे तक सो जाना होता था लेकिन यहाँ कभी 12 तो कभी एक-डेढ़ बजे तक...कोई फिक्स टाइम नहीं था. मॉर्निंग में भी फिक्स नहीं था कि इनको कितने बजे निकलना है. कभी एकदम अहले सुबह तो कभी देर से सिचुएशन के आधार पर निकलना होता था. तो ऐसे में मुझे वहां एडजस्ट करने में बहुत प्रॉब्लम हुई लेकिन धीरे-धीरे सब नार्मल हो गया. फिर इनके साथ रहते-रहते धीरे-धीरे मुझे भी पत्रकारिता के प्रति रुझान पैदा हुआ. इनकी भी चाहत थी कि अगर एक ही लाइन में दोनों का काम रहे तो अच्छा रहेगा. बहुत कुछ ये बताते रहते थें और इनके काम को देखकर भी बहुत कुछ सीखने को मिला.
शादी के दो साल बाद जब मेरी फर्स्ट डिलेवरी होनेवाली थी तो कंकड़बाग वाले घर में ग्राउंड फ्लोर पर ही रहना होता था. तब वहां बहुत ही ज्यादा जल निकासी की प्रॉब्लम थी. बरसात के दिनों में हमलोगों के घर के अंदर पूरा पानी आ जाता था. उस सिचुएशन में मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या करूँ..! गन्दा पानी बेडरूम और किचेन में भी आ जाता था. हम जहाँ बैठे थें वहीँ बैठे ही रह जाते थें. मैं गंदे पानी में उतरने से डरती थी. उस समय मेरी सासु माँ बहुत सपोर्ट करती थीं. वो ही खाना बनाती और फिर मुझे बेड पर लाकर देती थीं.
मायके में हमलोगों का छोटा परिवार था लेकिन ससुराल में काफी बड़ा परिवार था. मायके में भी मेरा किसी से ज्यादा मिलना-जुलना नहीं होता था लेकिन यहाँ तो बहुत ज्यादा गेस्टिंग होती थी. यहाँ अक्सर किसी-न-किसी का आना-जाना होता था तो सब के साथ मुझे घुलने-मिलने में झिझक की वजह से प्रॉब्लम होती थी. हमारे मायके में देर रात तक जगना और बातें करना नहीं होता था. तो सुनने में आता कि बहू किसी से बात नहीं करती है, अपने में ही व्यस्त रहती है. फिर मेरी ननद सबको बतातीं थीं कि "शुरू से इसको आदत नहीं है, इसलिए प्रॉब्लम हो रही है लेकिन धीरे-धीरे एडजस्ट कर जाएगी."
तब जब मेरे हसबेंड ड्यूटी पर होते थें तो मुझे हमेशा डर लगा रहता था कि ये किडनैपिंग गैंग के पास जा रहे हैं तो कभी गैंगेस्टर का दिखा रहे हैं. तब मुझे लगता क्यों इस चक्कर में पड़ते हैं. सुबह-सुबह सोकर उठने से लेकर रात को सोने तक सिर्फ फोन कॉल आते रहते थें. हर वक़्त एक कॉल पर ही इनको एलर्ट रहना होता, फोन बंद करके भी नहीं रख सकते थें. कई बार ऐसा हुआ कि छुट्टी के दिन हमलोग फिल्म देखने गएँ कि अचानक से इनके पास कोई खबर आ गयी. उस कंडीशन में बड़ी मुसीबत हो जाती थी. या तो प्रोग्राम बीच में ही कैंसल करना पड़ता था या घर के किसी मेंबर को वहां बैठाकर ये काम पर निकल जाते थें. मार्केटिंग करने गए हैं और कई बार मुझे अकेला छोड़ ड्राइवर को बोलकर इनको निकल जाना पड़ता था. तब मैं एडजस्ट नहीं कर पाती थी और इन सब चीजों को झेलने में शुरूआती दौर में बहुत प्रॉब्लम आती थी. जब कोई फेस्टिवल होता तो सबलोग घर में अपनी फैमली के साथ रहते थें लेकिन सिर्फ यही नहीं होते थें. चाहे वो होली हो या दशहरा या कोई पर्व उसमे बहुत अखरता था. पर्व-त्यौहार में होता ये था कि रात के दो बजे तक भी मैं और बच्चे इनका वेट करते थें. फिर जब ये आ जातें तब साथ में सेलिब्रेट करतें. कई बार ये बाहर-बाहर जाते थें तो मैं जानते हुए भी कि ये अपने मन का करेंगे इनको समझाती कि रिस्क नहीं लेना है.
तब इनके देर रात को आने के बाद ही मैं साथ में खाती थी और वो आदत मेरी आज भी बनी हुई है. जैसे-जैसे मैं एडजस्ट होती गयी मेरी सारी चिंताएं दूर होती गयीं. उसके बाद तो आदत सी लग गयी. बाद में जब मायके जाना होता तो देर रात तक जगना हो जाता. तब मायके में खाना-पीना और सोना सब ससुराल की तरह ही फॉलो करते थें. मैं खाना अच्छा बनाती थी जिसकी ससुराल में बहुत तारीफ भी होती थी. मुझे म्यूजिक का बहुत शौक है तो जब-जब पति का देर से घर आना होता मैं अपनी फेवरेट म्यूजिक सुनकर समय गुजारती थी. लेकिन अब तो बच्चों की देखरेख में ही समय कट जाता है. और अब यह सुन-देखकर कि मेरे पति का काम समाज और देश हित में है दिल को बहुत सुकून मिलता है.

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