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'बोलो ज़िन्दगी' ऑनलाइन मैगजीन के एडिटर हैं राकेश सिंह 'सोनू'

Friday 18 January 2019

मेरा कैरेक्टर था बहुत सीरियस टाइप का, ज्यादा बोलनेवाला नहीं, जो बिल्कुल विपरीत था मेरी रियल लाइफ से : सुलगना चटर्जी, अभिनेत्री

By: Rakesh Singh 'Sonu'


सबसे पहला जो मैंने कैमरा फेस किया वो पुणे में था फिल्म 'पुणे टीसी' के लिए. जब मैं पढ़ रही थी तभी से मेरे अंदर एक्टिंग का कीड़ा था. मैं शुरू से ही स्कूल-कॉलेज के कल्चरल एक्टिविटीज में हमेशा से एक्टिव रही शायद वहीँ से एक्टिंग का बीज पड़ा. मैंने यहाँ-वहां काफी ऑडिशन दिए. मेरा एक दोस्त था वो भी ट्राई कर रहा था. शायद उसने कहीं पेपर पढ़ा था कि किसी हिंदी फिल्म के लिए ऑडिशंस हो रहा है. उसने मुझसे कहा तो हमने कहा 'चलो चलते हैं'. फिर हम दोनों ने जाकर ऑडिशन दिया. सैडली वो सेलेक्ट नहीं हुआ. उसे फर्स्ट राउंड में ही बोल दिया गया कि आप सेलेक्ट नहीं हो तो वह चला गया. फिर मुझे सेकेण्ड, थर्ड राउंड ऑडिशन के बाद अलग-अलग तरह के इमोशन कि हंस के दिखाओ-रो के दिखाओ कहा गया तो सब करके दिखाया. हम दोपहर को गए थें और जब शाम अँधेरा हो गया तो मैं वहां से निकली. निकलते ही फोन पर मम्मी से बात करने लगी कि 'आज मैंने फिल्म के लिए ऑडिशन दिया.' सब खुश हुए. उनका फोन डिस्कनेक्ट किया था कि इतने में ऑडिशन लेनेवालों का फोन आया 'आप सेलेक्ट हो हमारी फिल्म के लिए' और तब मैं उनके कैम्पस गेट से निकल ही रही थी. मैं 'व्हाट' ऐसे कहते हुए शॉक्ड हुई तो वे बोले -'हाँ आप सेलेक्ट हो.' मेरे लिए यह बड़ा ब्रेक था. उस दिन अगर मुझे पंख होते तो सच में मैं उड़ जाती. मेरे लिए वो बहुत बड़ी बात थी. अगर बिना किसी कॉन्टेक्ट के, बिना किसी बैकअप के सिर्फ आपके टैलेंट के बलबूते पहला ब्रेक मिलता है तो बहुत ख़ुशी होती है.
सेलेक्शन होने के बाद ये टेंशन हुआ कि मेरी ग्रेजुएशन की जो पढ़ाई चल रही थी कहीं एक्जाम के डेट्स के साथ शूट के डेट क्लैश न हो जाये. लेकिन फिर हर चीज अपने आप ही जैसे पिरो दिए थें भगवान ने कि जैसे ही एक्जाम खत्म हुए शूट शुरू हुआ. मेरे पास काफी टाइम था, अच्छे से तयारी की. हमलोग वर्कशॉप पर जाते थें. वहां अलग-अलग रोल्स करने को बोलते थें. ऐसा भी हुआ कि जो राइटर्स लिख रहे थें उन्होंने बीच में बोला कि 'अरे ये प्रोजेक्ट अच्छा नहीं है, हम नहीं लिख पाएंगे.' और उन्होंने बायकॉट कर लिया. फिर मन में आया कि मेरा पहला प्रोजेक्ट है और ये बनेगा ही नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है. फिर सारी ख़ुशी हवा हो गयी. फिर उसके बाद हमारे प्रोड्यूसर ने बोला 'कुछ भी हो जाये, मुझे पूरी समझ है कि ये एक अच्छी स्टोरी है और ये जब बनेगी तो अच्छे से ही बनकर रिलीज होगी. उनके समझाने पर पूरी टीम वापस नए जोश में आ गयी. डायरेक्टर्स और जो दूसरे बन्दे उनके टीम में थें सबने मिलकर राइटिंग कम्प्लीट की और हम सबने फिल्म बनायी. जब हम शुरू-शुरू में शूट पर गए तो हम सभी कम अनुभवी थें. सेट पर अपने काम का एक विभाजन होता है कि एक एक्टर को एक्टिंग करनी है, डायरेक्टर को डायरेक्शन करना है, स्पॉटबॉय को चाय पिलानी है और लाइटमैन को लाइट दिखानी है. लेकिन वहां पर किसी को कुछ पता ही नहीं था. जो असिस्टेंट डायरेक्टर थें वो कभी-कभी चाय भी पीला दे रहे थें. अब जब हम प्रोफेशनली काम करते हैं तो लगता है, अरे यार हम क्या-क्या करते थें. मैं खुद जाकर कॉस्ट्यूम लेकर आती थी कि चलो यार मेरे पास टू वीलर है फटाफट जाकर ले आओ. जबकि वो मेरा काम ही नहीं था. हमने काफी कुछ सीखा, कैमरा फेसिंग, लाइटिंग क्या होती है. थोड़ा डांस-वांस करने को भी मिला. क्यूंकि मेरा कैरेक्टर था कि बहुत सीरियस टाइप की है, ज्यादा बोलती नहीं है, जो बिल्कुल विपरीत था मेरी रियल लाइफ से. और सेट पर सबसे ज्यादा मस्ती मैं ही करती थी. तो बाद में सब बोले कि 'अरे यार तुमको ये कैरेक्टर देकर गलती की, तुम कुछ ज्यादा ही अपोजिट हो इस कैरेक्टर के.' मैं बोली- 'वही तो चैलेन्ज है कि मैं अपोजिट होकर भी उसे निभा सकूँ. 'पुणे टीसी' में मेरा रोल था अनन्या बनर्जी का जो एक एम.बी.ए. फाइनांस लड़की है जो बहुत अच्छे फर्म में जॉब करती है. कुछ लड़कियों के साथ शेयरिंग में रहती है. उसकी एक फ्रेंड है वो बहुत लड़के पटाऊ टाइप की है जो कॉलसेंटर में जॉब करती है. लेकिन उसके साथ बॉन्डिंग अच्छी है जो बेस्ट फ्रेंड की तरह रहती है. मेरा जो कैरेक्टर है वो बहुत कम बोलती है, बस खाली आँखों के इशारे से जो भी कहना है कह देती है. और लास्ट में पता चलता है कि वो भी उनमे से एक है जिसे हीरो पसंद है. और ये एक शॉकिंग सा बम फटता है ऑडियंस पर क्यूंकि लास्ट में मैं ही हूँ जो हीरो के साथ जोड़ी बनाती हूँ.
और ऐसा करके फाइनली एक महीने का सूट पूरा हुआ, फिर कुछ पैच वर्क भी निकला उसके बाद मैं मुंबई आ गयी अपना करियर आगे ले जाने के लिए. 'पुणे टीसी' के शूटिंग के दरम्यान पहले दिन एक एक्साइटमेंट तो थी, सबको हम पहले से जानते थें क्यूंकि हम एक महीने से वर्कशॉप कर रहे थें. पहला दिन मुझे याद है, एक सीन था जहाँ पर हम पांचों लड़कियां एक घर में पेइंग गेस्ट रहती हैं और जो हमारे ऑनर हैं उनके घर पर पूजा है. हम सबलोग उनकी पूजा में इन्वाइटेड हैं. वहीँ पर हमलोग हीरो को देखते हैं. तब वह बहुत फनी सा कैरेक्टर लगता है क्यूंकि वो गांव का लड़का है जो लुंगी पहने हुए है. उसे देखकर हमलोग हंस रहे हैं, मजाक कर रहे हैं. तो इस सिन में पूरा दिन निकल गया. पहले दिन मैं जो शूट पर गयी तो अपने घुंघराले बालों को स्ट्रेट करके गयी. जैसे ही सबकी नजर पड़ी तो बोले - 'वाह सुलगना, तेरे बाल कितने अच्छे हैं, तू कितनी अलग दिख रही है. पहली बार खुद को अलग लुक में देखा था, तब तक बाल स्ट्रेट करवाना ये सब उतना पता नहीं था. और फिर जब मेकअप लगा तो पहली बार मेकअप में खुद को देखकर मेरे मुँह से निकला 'छी: मैं कितनी गन्दी लग रही हूँ.' तब मुझे आदत नहीं थी इतने हैवी मेकअप में खुद को देखने की. तब मेकअप वाले दादा ने कहा कि 'अभी जस्ट किया है, थोड़ी देर में जब 5 -10 मिनट में ये सेट हो जायेगा तब आप देखना और कैमरे पर देखना आपका लुक अच्छा आएगा. उनकी बात सही निकली. जब वो शॉर्ट्स हमने रात को बैठकर देखे तो वहीँ बैठी हमारी एक एडी जो फिल्म में एक्टिंग भी कर रही थी उसने कहा कि 'सुलगना तेरे शॉर्ट्स कितने अच्छे आये हैं, तू इतनी अच्छी दिख रही है कि तू सच में हीरोइन लग रही है.' तब मेरा मन ख़ुशी से झूम उठा. उसमे परफॉर्मेंस उतना नहीं था लेकिन अनुभव बहुत मिला. जैसा फोर वीलर स्टार्ट करने में थोड़ी प्रॉब्लम आती है ना लेकिन एक बार जब गाडी चालू हो जाती है तो फर्राटे से चलती है. उसी तरह धीरे-धीरे उनके साथ रहते-रहते मैं ओपन होती तो वे सर पकड़ लेते कि अरे यार यह तो ज्यादा ही बकबक करती है. जब फर्स्ट वर्कशॉप में गयी थी तो बहुत कम बोलती थी, हाय-हैलो तक ही क्यूंकि डर था कि निकाल दिया तो. इसलिए मैं बहुत लिमिटेड रहती थी. जब शूट पर पहुंची तो लगा कि अब नहीं निकालेंगे तो फिर असली रूप सामने आ गया मेरा. मैं खूब मस्ती करने लगी.
एक सीन ऐसा था जहाँ पर एन्ड में ऐसा होता है कि मेरा पैर टूट जाता है, मैं ख़ुशी से जम्प कर रही हूँ और मिस बैलेंस होकर गिर जाती हूँ और मेरा पैर टूट जाता है. तो एक प्रेशर होता है ना कि मैं सच में लंगड़ी हो गयी हूँ ऐसा लोगों को लगना चाहिए. यह ना लगे कि मैं नाटक कर रही हूँ. फिर मैंने अपने एक असिस्टेंट डायरेक्टर से कहा- 'एक काम करोगे मेरे पैर पर जोड़ से कुछ मारो कि मेरे पैर में दर्द हो.' वो चौंककर बोला 'क्यों?' मैंने बोला- 'मुझे लंगड़ी वाली फिलिंग नहीं आ रही है तो मैं लँगड़ाउंगी कैसे? स्क्रीन पर नकली लगेगा.' तो उसने कहा- 'अच्छा तो तुम्हारा मर्डर का सिन होगा तो क्या तुम्हारा सच में खून कर देंगे. ऐसा नहीं होता, वो तुम्हें एक्ट करके ही लाना पड़ेगा.' फिर ऐसे छोटे-मोटे मूवमेंट पर आप खुद को चैलेंज कर रहे थें. क्यूंकि वहां पर हमलोग फर्स्ट टाइम कर रहे थें. आज अगर मैं वह शॉर्ट देखती हूँ तो मैं मुँह पलटकर भाग जाती हूँ.
यह शूट किया था 2010 में और फिल्म रिलीज हुई थी 2011 में. सारे न्यूकमर्स थें इसलिए हमें प्राइम स्लॉट की जगह मॉर्निंग स्लॉट मिला था. और फिल्म सिर्फ मैसूर और पुणे में रिलीज हुई थी. रिलीज के वक़्त मैं मुंबई में थी और बहुत एक्साइटेड थी. तब मैं स्पेशली देखने के लिए मुंबई से कैब बुक करके पुणे गयी थी. बहुत अच्छा लग रहा था कि फाइनली हमारा हार्ड वर्क हम 70 एम.एम. स्क्रीन पर देख रहे हैं. जो भी बना, जैसा भी बना. वैसे वह टेक्निकली बहुत वीक फिल्म थी. लेकिन फिर भी होता है ना कि अपना पहला बच्चा चाहे जैसा भी हो सबसे प्यारा होता है. और उस पूरी टीम में मैं इकलौती हूँ जो मुंबई में आकर स्ट्रगल करके अभी तक इंडस्ट्री में टिकी हुई हूँ. लेकिन उस पहले प्रोजेक्ट में जो मेरे रिश्ते बने वो आज भी कायम हैं. 'पुणे टीसी' ने कहीं-ना-कहीं मुझे मोटिवेशन दिया कि हाँ मैं मुंबई जाकर ट्राई कर सकती हूँ. उसके बाद मैं मुंबई आ गयी. वहां फिर से स्ट्रगल स्टार्ट हुआ. बहुत सारे ऑडिशंस के बाद, बहुत सारी हताशा के बाद पहला बड़ा ब्रेक मिला प्रज्ञा चैनल पर आनेवाले टीवी शो 'सूर्य पुराण' में राजा दक्ष की बड़ी बेटी के किरदार के रूप में. उसी को मैं अपना पहला ब्रेक मानती हूँ क्यूंकि उसी ने मुझे पहचान दिलाई.

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